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सूरीश्वर और सम्राट् । वेदना शान्त तो नहीं होती; परन्तु वह नवीन असाता वेदनीके कर्मों को उत्पन्न करती है । इन्हीं भावनाओंके कारण, यद्यपि शरीर-धर्भक अनुसार उन्हें फोड़ेसे अत्यन्त वेदना होती थी; तथापि वे उसे समभाव पूर्वक सहन करते थे । एक दिन ऐसा हुआ कि, सरिनीने रातके वक्त संथारा किया। एक श्रावक उनकी भक्ति-सेवा करनेके लिए आया । उसकी अँगुलीमें एक सोनेकी अंगूठी आँटोंवाली थी। वह सूरिनीका शरीर दाब रहा था । दवातेहुए अंगूठीकी नोक फोड़ेमें घुस गई । फोड़ेकी वेदना अनेक गुणी बढ़ गई । रक्त निकला । सूरिजीकी चद्दर भीग गई । इतना होने पर भी सूरिनी पूर्ववत् ही शान्तिसे रहे । उस श्रावकको भी उसकी इस असावधानताके लिए कुछ नहीं कहा । उन्होंने यह सोचकर मनको स्थिर रक्खा कि, जितनी वेदना भोगना मेरे भाग्यमें बदा होगा उतनी मुझे भोगनी ही पड़ेगी। दूसरेको दोष देने में क्या लाभ है ? सवेरे ही श्रीसोमविजयजीने सूरिजीकी चद्दर रक्तवाली देखी । उसका कारण जाना और श्रावककी असावधानीके कारण बहुत खेद प्रकट किया । सूरिनीने उन्हें प्राचीन ऋषियोंके उदाहरण दे देकर समझाया कि, वे जब इससे भी अनेक गुणी ज्यादा वेदना सहकर विचलित नहीं हुए थे और आत्मभावमें लीन रहे थे, तब इस तुच्छ कष्टके लिए अपने आत्मभावोंको विसार देना हमारे लिए कैसे शोकास्पद हो सकता है ?
सूरिजीमें अनेक गुण थे। उनमेंसे एक खास महत्त्वका और अपनी और ध्यान खींचनेवाला था । वह था 'गुणग्राहकता'। सूरिजी आचार्य थे। दो ढाई हजार साधु उनकी सेवामें रहते थे। लाखों श्रावक उनकी आज्ञानुसार चलते थे। अनेक राजामहाराजा उनके उपदेशानुसार कार्य करते थे । इसना होने पर भी वे जब कभी किसी में कोई गुण देखते थे तो उसका सत्कार किये बिना नहीं रहते थे।
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