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________________ सूरीश्वर और सम्राट् । मंडल स्वच्छ है; निर्मल है। उसको देखनेसे मनुष्योंकी मानसिक शक्तियोंमें अचानक और ही तरहका विकास और ही तरहकी उस्कान्ति हो जाती है। मगर दूसरे समय में क्या हम नहीं देखते कि, वही गगनमंडल, मेघाच्छन्न हो गया है और मनुष्योंके मन और शरीर उसे देख कर शिथिल तथा प्रमादी बन गये हैं ? जिन नगरों में बडी बड़ी अट्टालिकाओंसे सुशोभित महल मकान थे; गगनचुम्बी मंदिर थे; उत्साही मनुष्य थे; महलों और मंदिरों पर स्वर्णकलश दूरदूरसे दृष्टिगत हो कर, चित्रविचित्र ध्वजाएँ फर्रा कर, वहाँकी प्रजाकी सुख-समृद्धिकी साक्षी दे रहे थे, वे ही आज वन और गुफाएँ दिखाई देते हैं । जहाँ साम्राज्यकी दुंदुभिका नाद सुनाई देता था वहाँ आज सियार रो रहे हैं। जिसके घर ऋद्धि-समृद्धि छलकी पड़ती थी वही आज दरदरका भिखारी बन रहा है । जिस मनुष्य के रूप - लावण्य पर जो लोक मुग्ध हो जाते थे आज वे ही उसीको देख कर घृणासे मुँह फेर लेते हैं । लाखों करोड़ों मनुष्य जिनकी आँखके इशारे पर चलते थे; उन्हीं चक्रवर्तियोंको निर्जन बनोंमें निवास करना पड़ा है। ये सब बातें क्या बताती हैं ? संसारकी परिवर्तनशीलता; उदयके बाद अस्त और अस्तके बाद उदय; सुखके बाद दुःख और दुःखके बाद सुख । इस तरह संसार, अरघट्टघटीन्याय से, अनादिकाल से चला आरहा है। सुख और दुःख, दूसरे शब्दों में कहें तो उन्नति और अवनतिका प्रवाह अनादि कालसे मनुष्य मात्र पर अपना प्रभाव डालता चला आ रहा है । संसारमें ऐसा कोई देश ऐसी कोई जाति और ऐसा कोई मनुष्य नहीं है कि, जिस पर संसारकी इस परिवर्तनशीलताने अपना प्रभाव न डाला हो । निदान भारतको भी यदि संसार समुद्रके इस परिवर्तनशीलता - ज्वारभाटेमें चढ़ना उतरना पड़ा हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? > Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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