________________
सूरीश्वर और सम्राट् ।
कहावत है कि – ' राजालोग कानोंके कच्चे और दूसरोंकी आँखोंसे देखनेवाले होते हैं । यह कहावत सर्वथा नहीं तो भी कुछ अंशो में सत्य जरूर है । प्रायः राजा लोग अपने पास रहनेवाले लोगोके कथनानुसार वर्ताव करनेवाले ही होते हैं। किसी बातकी पूरी तरहसे जाँच करके अपनी बुद्धिके अनुसार फैसला करनेवाले बहुत ही कम होते हैं । यही सबब है कि, भारतवर्ष में अब भी कई देशीराज्योंकी प्रजा इतनी दुःखी है कि, जिसका वर्णन नहीं हो सकता । पार्श्ववर्ती मनुष्योंके हाथका खिलौना बना हुआ राजा यदि राजधर्मको भूल जाय तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । जब आजके जैसे आगे बढ़े हुए जमाने में भी ऐसी दशा है तो सोलहवीं या सत्रहवीं शताब्दिमें अकबर बादशाह यदि विद्वान् गिने जाने वाले पंडितों के बहकाने से बहक गया तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ?
ફર
ब्राह्मणोंके उक्त कथनसे बादशाह के दिलमें चोट लगी । उसने विजयसेनसुरिको बुलाया और अपने हार्दिकभावको प्रकट न होने देकर उनसे ब्राह्मणोंने जो कुछ कहा था उसकी सत्यासत्यता के लिए पूछा । विजयसेनसूरिने कहा:" यदि इसका निर्णय करना । हो तो आपकी अध्यक्षा में एक सभा हो और उसमें इस बातका उहापोह किया जाय ! ” बादशाहने स्वीकार किया । दिन मुकर्रर करके सभा बुलाई गई । उसमें अनेक विद्वान् ब्राह्मण अपना मत समर्थन करनेके लिए जमा हुए। जैनियोंकी तरफसे केवल विजयसेनमूरि नंदिविजयजी और दो चार अन्यान्य मुनि थे । वास्तविक रूपसे तो बाद करने में एक विजयसेनसूरि ही थे ।
इस सभा में दोनों पक्षोंने अपने अपने मतका प्रतिपादन किया । अर्थात् ब्राह्मणोंने यह पक्ष प्रतिपादन किया कि जैन ईश्वरको नहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org