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________________ विशेष कार्य सिद्धि । मानते हैं । विजयसेनसरिने बताया कि, जैन ईश्वरको किस तरह मानते हैं ? उसका स्वरूप कैसा है ? कर्ममुक्त और सांसारिक बंधनोंसे छूटे हुए ईश्वरको जगत्का कर्ता माननेसे-उसको जगत् रचनाके प्रपंचमें गिरने वाला माननेसे-उसके स्वरूपमें कैसे कैसे विकार हो जाते हैं; उसके ईश्वरत्वमें कैसी कैसी बाधाएँ आजाती हैं, सो बताया और साथ ही हिन्दुधर्मग्रंथोंसे यह भी सिद्ध कर दिखाया कि, जैनलोग वास्तवमें ईश्वरको माननेवाले हैं। जिस स्वरूपमें वे ईश्वरको मानते हैं वह स्वरूपही वास्तवमें सत्य है । बादशाह विजयसेनसूरिकी अकाट्य युक्तियों और शास्त्रप्रमाणोंसे बहुत प्रसन्न हुआ उसने अध्यक्षकी हैसियतसे कहा:" जो लोग कहते हैं कि जैन ईश्वरको नहीं मानते हैं वे सर्वथा जूठे हैं । जैन लोग ईश्वरको उसी तरह मानते हैं जिस तरहसे कि, उसे मानना चाहिए। ____ इसके सिवा ब्राह्मण पंडितोंने यह भी कहा था कि, जैन लोग सूर्य और गंगाको नहीं मानते हैं। इसका उत्तर भी विजयसेनमृरिने बहुत ही संक्षेपमें, मगर उत्तमताके साथ दिया। उन्होंने कहा:--" जिस तरह हम जैनलोग सूर्यको और गंगाको मानते हैं उस तरह दूसरा कोई भी नहीं मानता है। यह बात मैं दावेके साथ कह सकता हूँ। हम सूर्यको यहाँ तक मानते हैं, यहाँ तक उसका सम्मान करते हैं कि उसकी उपस्थितिक विना जल भी ग्रहण नहीं करते हैं । यह कितना सम्मान है ? यह कितनी दृढ मान्यता है ? जरा सोचनेकी बात है कि, जब कोई जैनोंने जो ईश्वरका स्वरूप माना है वह संक्षेपमें पाँचवें प्रकरणमें लिखा जा चुका है । इसलिये यहाँ उसकी पुनरावृत्ति नहीं की गई है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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