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सूरीश्वर और सम्राट् ।
मरजाता है तब उसके संबंधी मनुष्य, और यदि राजा मरजाता है तो उसकी प्रजा उस समय तक अन्न नहीं ग्रहण करते हैं जब तक कि, उस व्यक्तिका या उस राजाका अग्निसंस्कार नहीं हो जाता है । तब, दिवानाथ - सूर्यकी अस्तदशामें ( रात में ) भोजन करनेवाले यदि सूर्यको माननेका दावा करते हैं तो वह दावा कहाँ तक सही हो सकता है ? इस बातको हरेक बुद्धिमान समझ सकता है। इस लिए वास्तविक रूपसे सूर्यको माननेवाले तो हम जैन ही हैं।
" गंगाजीको माननेका उनका दावा भी इसी तरहका है । गंगाजीको माता - पवित्र माता मानते हुए भी उसके अंदर गिर कर न्हाते हैं, उसमें कुरले करते हैं । और तो क्या, विष्ठा और पेशाब भी उसके अंदर डालते हैं । गतप्राण मनुष्यके मुर्देको - जिसको छूने से भी हम अभड़ाते है-और उसकी हड्डियोंको पवित्र गंगामाताके समर्पण करते हैं । यह है उनकी गंगा माताकी मान्यता ! यह है उनका गंगा माताका सम्मान ! पवित्र और पूज्य गंगा माताकी भेटमें ऐसी वस्तुएँ रखनेवाले भक्तोंकी भक्ति के लिए क्या कहा जाय ? मगर हमारे यहाँ तो गंगाके पवित्र जलका उपयोग बिंबप्रतिष्ठादि शुभ कार्यों में ही किया जाता है । इस व्यवहारसे बुद्धिमान लोग समझ सकते हैं कि, गंगाजीका सच्चा सत्कार हम जैन लोग करते हैं या मेरे सामने बाद करने के लिए खड़े हुए ये पंडित लोग ? "
सूरिजीकी इन अकाट्य और प्रभावोत्पादक युक्तियोंसे सारी सभा चकित हुई । पंडित निरुत्तर हुए और बादशाहने प्रसन्न हो कर विजयसेनसूरको 'सूरसवाई' की पदवी दी ।
अब बार बार यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि, श्रीविजयसेनसूरिने भी बादशाहको हीरविजयसूरिकी भाँति ही आकर्षित
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