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सूरीश्वर और सम्राट् ।
निवृत्त हुए | तत्पश्चात् खंभातके, अहमदाबाद के और गंधारके मुख्य मुख्य श्रावक तथा सूरीश्वरजी, विमलहर्ष उपाध्याय और अन्यान्य प्रधान प्रधान मुनि विचार करने के लिए एकान्त स्थानमें बैठे ।
उस समय अहमदाबाद के संघने अकबर बादशाहका पत्र - जो शहाबखाँके नाम आया था और आगरेके जैन श्रीसंघका पत्र, सूरिजीको दिये । सूरिजीने अपने नामका विनति पत्र जो आगरेके संघका था पढ़ा । तत्पश्चात् दोनों पत्र इस मंडलमें बाँचे गये । अहमदाबाद के संघ शहाबखाँकी कही हुई बातें भी वहाँ कहीं। ' जाना या नहीं ' इस बात की चर्चा तो अभी प्रारंभ न हुई मगर बादशाहने सहसा सूरिजी महाराजको कैसे आमंत्रण दिया, इसी बातकी थोड़ी देर आश्चर्यकारक बातकी तरह चर्चा होती रही । फिर मुख्य चर्चा प्रारंभ हुई । अहमदाबादका श्रीसंघ, जत्र जो कुछ कहना था, कह चुका तब प्रत्येक अपनी अपनी राय प्रकट करने लगा ।
किसी प्रसंग पर सब लोगोंकी सम्मति एक ही हो यह बात न कभी हुई है, न कभी होती है और न कभी होवेहीगी । हरेक मौके पर विचारोंकी विभिन्नता रहती ही है । अमुक विषयमें किसीके विचार कैसे होते हैं और किसीके कैसे । जिस समयकी हम बात लिख रहे हैं वह समय भी इस अटल नियमसे नहीं बचा था । उस समय भी जैसे कई उदार विचारवाले थे वैसे ही संकुचित विचार वाले भी थे । इसी लिए ' बादशाहका आमंत्रण स्वीकार करके सूरिजीको जाना चाहिए या नहीं ? इस विषय में बहुतसे मतभेद हो गये थे । कइयोंने कहाः " सूरिजी महाराज किस लिए वहाँ जायँ ? बादशाहको यदि सूरिजी महाराजका धर्मोपदेश सुनना होगा या महाराजके दर्शन करने होंगे तो वह आप ही यहाँ आ जायगा । "
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