SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दीक्षादान। और मिथ्या आडंबरसे लोगोंको खुश करनेकी इच्छासे दीक्षाएँ देते हैं, वे दीक्षा लेनेवालेकी कोई भलाई नहीं कर सकते । वे तो मनु. प्यको गृहस्थावस्थासे निकाल कर अपने समुदायमें मिला लेनेहीमें अपने कर्तव्यकी ' इतिश्री' समझते हैं। इसका परिणाम प्रायः यह आता है कि, दीक्षालेनेवाला थोड़े ही दिनोंमें वापिस गृहस्थी बन जाता है । यदि कोई कुलकी लाजसे गृहस्थी नहीं बनता है तो भी उसको जीवनभर, साधुतामें जो वास्तविक सुख है वह नहीं मिलता। न तो वह समाजकी भलाई कर सकता है और न वह अपना हित ही कर सकता है। ऐसे गुरु और शिष्य सचमुचही समाजके लिए भार रूप हो जाते हैं। अपने नायक हीरविजयसूरि महान् विचक्षण, शासमप्रेमी और जगत्के कल्याणकी इच्छा करनेवाले थे । इसीलिए वे जब कमी किसीको दीक्षा देते थे तब पवित्र उद्देश्यको सामने रखकर ही देते थे। उनके उपदेशसे अनेक दीक्षा लेनेको तैयार होते थे। उन्हें दीक्षा देनेके अनेक प्रसंग मिले । उनमेंसे थोड़ेसे प्रसंगोंका यहाँ उल्लेख किया जाता है । उनसे पाठकोंको उस समयकी दीक्षाओं, मनुष्योंकी भावनाओं और अन्य कई व्यावहारिक बातोंका स्वरूप मालूम हो जायगा । ___ एक प्रकरणमें इस बातका उल्लेख किया जा चुका है कि, जिस समयकी हम बात कर रहे हैं उस समय कई स्वच्छंदी पुरुष नये नये मत निकालने और उनके प्रचार करनेमें थोड़े बहुत सफल होनाते थे। इससे हीरविजयसूरिके समान धर्मरक्षकोंको विशेष रूपसे प्रयत्न शील रहना पड़ता था। लौंका नामक गृहस्थके मतको-जिसका उल्लेख प्रथम प्रकरणमें किया जा चुका है-माननेवाले यद्यपि अनेक साधु और गृहस्प थे 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy