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छ निपुणवान साधु
उनके
प्रतिबोध। विमलहर्ष उपाध्याय आदि साधुमंडलको ये ग्रंथ देखकर बड़ा आनंद हुआ। कहा जाता है कि, उसके भंडारमें जैन और दूसरे दर्शनोंके भी अनेक प्राचीन ग्रंथ थे ।
सूरिजीने पूछा:-" आपके पास ऐसे उत्तम ग्रंथोंका भंडार कैसे आया ?" __बाहशाहने उत्तर दिया:--" हमारे यहाँ पद्मसुंदर नामके नागपुरीय तपागच्छके एक विद्वान् साधु थे। वे ज्योतिष, वैद्यक और सिद्धांतमें अच्छे निपुण थे। उनका स्वर्गवास हो गया तभीसे मैंने उनके ग्रंथ सँभालकर रक्खे हैं । आप अनुग्रह करके अब इन ग्रंथोंका स्वीकार करें।"
बादशाहकी इस उदारवृत्तिके लिये मूरिजीको बहुत आनंद हुआ। मगर पुस्तकें लेनेसे उन्होंने इन्कार कर दिया; क्योंकि अपनी पुस्तकें करके रखनेसे मोह-ममत्व हो जानेका भय रहता है । उन्होंने कहा:-" हम जितने ग्रंथ उठा सकते हैं उतने ही अपने पास रखते हैं । विशेष नहीं । हमको प्रायः जिन ग्रंथोंकी आवश्यकता पड़ती है वे हमें विहारस्थलके भंडारोंमेंसे मिलनाते हैं। एक बात और भी है। इतनी पुस्तकें यदि हम अपनी करके रखें तो संभव है कि, उन पर हमारा ममत्व होजाय, इसलिए यही श्रेष्ठ है कि, हम ऐसे कारणोंसे दूर रहें।"
ग्रंथोंके लिए झगड़ा करनेवाले आजकलके महात्माओंको उसपर प्रसन्न होकर बादशाहने उसे 'खानखाना' का खिताब दिया था और पाँच हजार फोजका सेनापति भी बनाया था। इसके लिए जो विशेष जानना चाहते हैं वे 'आईन-इ-अकबरी' के ब्लॉकमनकृत अंग्रेजी अनुवादके प्रथम भागका ३३४ वाँ पृष्ठ और ' मोराते अहमदी ' के गुजराती अनुवादका १५१-१५४ पृष्ठ देखें।
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