SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ सूरीश्वर और सम्राट् । श्रीहीर विजयसूरिजी के उपर्युक्त शब्दोंपर ध्यान देना चाहिए । समय अपना कार्य किये ही जाता है। उस कालमें न तो वर्तमान जितने पुस्तकालय थे और न साधन ही; तो भी उस कालके साधु मोहमायाके भयसे पुस्तक - संग्रहसे कितने दूर रहते थे सो सूरिजीके उपर्युक्त वचनोंसे स्पष्ट होता है । सूरिजी की इस नि:स्पृहता से यद्यपि बादशाह बहुत खुश हुआ तथापि वह बारबार यही प्रार्थना करता रहा कि, " आप हर सूरतसे मेरी इस छोटीसी भेटको मंजूर करही लीजिए । " 1 अबुल्फ़ज़लने भी कहाः " यद्यपि आपको पुस्तककी आवश्यकता नहीं है तथापि पुण्यकार्य समझकर आप इनको ग्रहण करें । यदि आप ये ग्रंथ ग्रहण करेंगे तो बादशाहको बहुत खुशी होगी । " सूरिजीने विशेष वाक्य - व्यय न कर ग्रंथ स्वीकार किये और कहा :- “ इतने ग्रंथ हम कहाँ कहाँ लिए फिरेंगे ? इन ग्रंथोंको रखनेके लिए एक भंडार बना दिया जाय तो उत्तम हो । हमें जब किसी ग्रंथकी आवश्यकता होगी, पढ़ने के लिए मँगा लेंगे । " बादशाहने भी यह बात पसंद की । सबकी सलाहसे एक भंडार बनाया गया और उसका कार्य थानसिंहको सोंपा गया । ' विजयप्रशस्तिकाव्य ' के लेखकके कथनानुसार यह भंडार आगरेमें अकबर के नामहीसे खोला गया था । I बादशाह के साथकी पहिली मुलाकात इस तरह समाप्त हुई । सूरिजी बड़ी धूमधाम के साथ उपाश्रय गये । श्रावकों में आनंद और उत्साह फैल गया । थानसिंह आदि कई श्रावकोंने इस शुभ प्रसंगकी खुशीमें दान-पुण्य किया । थोड़े दिन फतेहपुर - सीकरीमें रहनेके बाद सूरिजी आगरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy