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सूरीश्वर और सम्राट् ।
श्रीहीर विजयसूरिजी के उपर्युक्त शब्दोंपर ध्यान देना चाहिए । समय अपना कार्य किये ही जाता है। उस कालमें न तो वर्तमान जितने पुस्तकालय थे और न साधन ही; तो भी उस कालके साधु मोहमायाके भयसे पुस्तक - संग्रहसे कितने दूर रहते थे सो सूरिजीके उपर्युक्त वचनोंसे स्पष्ट होता है ।
सूरिजी की इस नि:स्पृहता से यद्यपि बादशाह बहुत खुश हुआ तथापि वह बारबार यही प्रार्थना करता रहा कि, " आप हर सूरतसे मेरी इस छोटीसी भेटको मंजूर करही लीजिए । "
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अबुल्फ़ज़लने भी कहाः " यद्यपि आपको पुस्तककी आवश्यकता नहीं है तथापि पुण्यकार्य समझकर आप इनको ग्रहण करें । यदि आप ये ग्रंथ ग्रहण करेंगे तो बादशाहको बहुत खुशी होगी । "
सूरिजीने विशेष वाक्य - व्यय न कर ग्रंथ स्वीकार किये और कहा :- “ इतने ग्रंथ हम कहाँ कहाँ लिए फिरेंगे ? इन ग्रंथोंको रखनेके लिए एक भंडार बना दिया जाय तो उत्तम हो । हमें जब किसी ग्रंथकी आवश्यकता होगी, पढ़ने के लिए मँगा लेंगे । "
बादशाहने भी यह बात पसंद की । सबकी सलाहसे एक भंडार बनाया गया और उसका कार्य थानसिंहको सोंपा गया । ' विजयप्रशस्तिकाव्य ' के लेखकके कथनानुसार यह भंडार आगरेमें अकबर के नामहीसे खोला गया था ।
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बादशाह के साथकी पहिली मुलाकात इस तरह समाप्त हुई । सूरिजी बड़ी धूमधाम के साथ उपाश्रय गये । श्रावकों में आनंद और उत्साह फैल गया । थानसिंह आदि कई श्रावकोंने इस शुभ प्रसंगकी खुशीमें दान-पुण्य किया ।
थोड़े दिन फतेहपुर - सीकरीमें रहनेके बाद सूरिजी आगरे
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