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________________ ११८ सूरीश्वर और सम्राट् । स्वादु और गरिष्ठ भोजनका बारबार उपयोग न करे, दुस्सह कष्टको भी शान्तिके साथ सहे, इक्का, गाड़ी, घोड़ा, ऊँट, हाथी और रथ आदि किसी भी तरहके वाहनकी सवारी न करे, मन, वचन और कायसे किसी जीवको कष्ट न दे, पाँचों इन्द्रियाँ वशमें रखे, मान-अपमानकी परवाह न करे, स्त्री, पशु और नपुंसकके सहवाससे दूर रहे, एकान्त स्थानमें स्त्रीके साथ वार्तालाप न करे, शरीर सजानेकी ओर प्रवृत्त न हो, यथाशक्ति सदैव तपस्या करता रहे, चलते फिरते, उठते बैठते और खाते पीते, प्रत्येक क्रियामें उपयोग रक्खे, रातमें भोजन न करे, मंत्रयंत्रादिसे दूर रहे और अफीम वगेरहके व्यसनोंसे दूर रहे । ये और इसी तरह अनेक दूसरे आचार साधुको-गुरुको पालने चाहिए । थोड़े शब्दोंमें कहें तो,-" गृहस्थानां यद्भूपणं तत् साधूनां दुषणम् ।" (गृहस्थोंके लिये जो भूषण है साधुओंके लिए वही दूषण रूप है । )" मूरिजीने इस मौके पर यह बात भी स्पष्ट शब्दोंमें कह दी थी कि,-मैं यह नहीं कहना चाहता हूँ कि गुरुके आचरण बतलाये गये हैं वे सभी हम पालते हैं तो भी इतना जरूर है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार यथासाध्य उन्हें पालनेका प्रयत्न हम अवश्यमेव करते हैं। फिर सूरिजी धर्मका लक्षण बतलाते हुए बोलेः " संसारमें अज्ञानी मनुष्य जिस धर्मका नाम लेकर क्लेश करते हैं, वास्तवमें वह धर्म नहीं है । जिस धर्मके द्वारा मनुष्य मुक्त बनना और सुखलाभ करना चाहते हैं उस धर्ममें क्लेश नहीं हो सकता है। वास्तवमें धर्म वह है जिससे अन्तःकरणकी शुद्धि होती है। [अन्त:करणशुद्धित्वं धर्मत्वम् ] यह शुद्धि चाहे किन्हीं कारणोंसे हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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