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________________ प्रतिबोध। दूसरे शब्दोमें कहें तो धर्म वह है जिससे विषयवासनासे निवृत्ति होती है । [ विषयनिवृत्तित्वं धर्मत्वम् । ] यह धर्मका लक्षण है। इसमें क्लेशको कहाँ अवकाश है ? इन लक्षणोंवाले धर्मको माननेसे क्या कोइ इन्कार कर सकता है ? कदापि नहीं । संसारमें असली धर्म यही है और इसीसे इच्छित सुख-मुक्तिसुख प्राप्त हो सकता है।" सूरिजीके इस उपदेशका अकबरके हृदयपर गहरा प्रभाव हुआ । उसने मुक्त कंठसे स्वीकार किया कि,-"यह पहिला ही मौका है जो देव और धर्मका सच्चास्वरूप मेरी समझमें आया है। आजसे पहिले मुझे किसीने इस तरह वास्तविक स्वरूप नहीं समझाया था। आज तक जो आये उन्होंने अपना ही कहा । आजका दिन मुबारिक है कि आप आये और मैं देव, गुरु और धर्मके असली स्वरूपका जानकार हुआ।" __ इस तरह अनेक प्रकारसे बादशाहने सरिजीकी प्रशंसा की। उनके उत्तम पाण्डित्य और चारित्रके लिए उसके हृदयमें आदरके भाव स्थापित हुए । उसको निश्चय हो गया कि ये असाधारण महा. पुरुष हैं। उसके बाद बाहशाहने सूरिजीसे पूछा:--" महाराज ! मेरी मीन राशिमें शनिश्चरजीको दशा बैठी है। लोग कहते हैं कि, यह दशा दुर्जन और यमराजके समान हानि पहुँचानेवाली है । मुझे इसका बहुत ज्यादा डर है । इससे आप महरबानी करके कोई ऐसा उपाय कीजीए जिससे यह दशा टल जाय । " सूरिजीने स्पष्ट शब्दोंमें कहा:--"सम्राट् ! मेरा विषय धर्म है, ज्योतिष नहीं । इस बातका संबंध ज्यौतिषसे है। इसलिए मैं इस विषयमें कुछ कहने या करनेमें असमर्थ हूँ। आप किसी ज्योतिषीसे पूछिए । वह योग्य उपाय बतायगा और करेगा।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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