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आदर किया है । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि, भारत के हिन्दी गुजराती एवं बंगाल के प्रायः प्रसिद्ध पत्रोंने एवं विद्वानोंने इस कृतिको मीठी नजरसे देखा है और इसके विषयमें उच्च अभिप्राय दिये हैं; कई पत्राने इसके उद्धरण लिये हैं । यहाँ तक कि, 'प्रवासी' के समान बँगला के प्रसिद्ध मासिकपत्र में भी इसके आधार से लिखे हुए बड़े बड़े लेख प्रकाशित हुए हैं। जनता का यह आदर मेरे क्षुद्र प्रयत्नकी सफलता - चाहे वह थोडे अंशोंही में क्यों न हो - बताता है । इससे प्रसन्न होना मेरे लिए स्वाभाविक बात हैं। दूसरी तरफ जैनसमाज भी जो अपने इन महान् परम प्रमादक आचार्यको उनके वास्तविकस्वरूपर्मे न देख सका था - मेरे इस प्रयत्नसे सूरिजीको वास्तविक स्वरूपमें देख सका है और अबतक जिन्हें वह एक सामान्य आचार्य या साधु समझता था उन्हें वह महान् पुरुष समझ उनकी जयन्ती मनाने लगा है; यह बात भी मेरे लिए प्रसन्नता की है ।
इस तरह यह ग्रंथ एक इतिहास - मुख्यतया जैन इतिहास- ग्रंथ होने परभी इसने जैन और जैनेतरोंमें अच्छा आदर पाया है । यही कारण है कि प्रकाशकको इतनी जल्दी इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित करना पड़ा है । दूसरा संस्करण यद्यपि छपकर बहुत दिनसे तैयार रक्खा था तथापि एक नवीन फर्मानका - जो इसके अंदर परिशिष्ट 'च' में दिया गया है- अनुवाद न हो सका इससे तथा कई अन्य अनिवार्य कारणों से इसको प्रकाशित करने बहुत विलंब हो गया ।
प्रथमावृत्तिकी अपेक्षा इस आवृत्ति में यह विशेषता है कि, इसमें एक फर्मान नया दिया गया है।
खंभातसे मिले हुए अकबर और जहाँगीर के छः फर्मानों में एक फर्मान - जो जहांगीरका दिया हुआ है- अति जीर्ण होने एवं
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