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शिष्य-परिवार |
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आचार्यश्री की आज्ञा से दिया था, इसलिए श्रावक साधुओंको कुछ कह भी नहीं सकते थे । इसलिए भदुआको वापिस संघमें लेनेके लिए आचार्य महाराज से क्षमा माँगनेके सिवा और कोई उपाय नहीं था । बहुत कुछ सलाह मान करनेके बाद संघ भदुआको ले कर खंभात गया । वहाँ उसने और भदुआने बड़ी ही नम्रताके साथ सूरिजी से क्षमा माँगी । सूरिजीने, बिना आग्रह भदुआको क्षमा करके, वापिस संघमे ले लिया ।
संघकी भलाई के लिए, शासन-मर्यादाको भंग न होने देनेके लिए बड़ोंको अपनी सत्ताका उपयोग करना चाहिए, यह बात जितनी उचित है उतनी ही उचित यह भी है कि, अपना कार्य सफल हो जानेके बाद दुराग्रह न करके अपनी सत्ताके दौरको बंद कर देना चाहिए। इससे विपरीत चलना बुरा है। सूरिजी संपूर्णतया इस नियमका पालन करते थे । उनकी कृतियोंसे यह बात भली प्रकार सिद्ध होती है ।
अहमदाबादका संघ वापिस अहमदाबाद आया । वहाँ आकर भटुआ विमलहर्षजीके पाससे क्षमा माँगी; मनमें किसी तरहका ईर्ष्याभाव न रक्खा ।
इसके अलावा सुप्रसिद्ध उपाध्याय धर्मसागरजी - जो महान् विद्वान थे और जिनके रोमरोम में शासनका प्रेम प्रवाहित हो रहा था के अमुक ग्रंथोंके लिए जैनसंघर्मे उस समय बड़ी गड़बड़ी मची हुई थी। मगर सूरिजीने हरतरहसे धर्मसागरजीको समझा कर उन्हें संघ से माफी माँगनेके लिए बाध्य किया । उन्होंने क्षमा माँगी । इस गंभीर मामलेको उन्होंने ऐसी युक्तिसे सुधारा था और उसको ऐसे सँभाल रक्खा था कि, संब तरह शान्ति ही रही और उनकी
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