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• श्रीमद् बुद्धिसागरजी ग्रन्थमाळा ग्रन्थांक ८
योगनिष्ठ मुनिराज श्री बुद्धिसागरजी कृत.
श्री परमात्म दर्शन
जिज्ञासु सद्यस्थोनी सहायथी
छपावी प्रसिद्ध करनार, श्री अध्यात्मज्ञानप्रसारकमंगल.
श्री " लक्ष्मी" मिन्टिंग प्रेस - अमदाबाद. वीर सं. २४३६ सने १९१०
किम्मत ०- १२-०
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बे बोल. "ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष " ए मोक्षमार्गर्नु दृष्टिबिंदु छे तथापि घणा जैनो तेना खरा रहस्यने नहि जाणतां एक तरफ वधु पलणतो बीजा तरफ न्युन एटलुज नहि पण अपेक्षा समजवाना ज्ञाननी खामीए घणी वखत डाबो हाथ जमणाने दबावे छे तेवी स्थिति जोवाय छे. आनुं कारण पूर्वाचार्योए द्रव्य गुण पर्याय आदीनुं जे सुक्ष्मज्ञान प्रकास्युं छे ते ज्ञानने समय अनुसारनां मनुष्यो समजी शके तेवी उत्तम शैलीथी सरळ भाषामां ग्रंथो तैयार करी जनसमाज आगळ जोइता प्रमाणमां रजु नहि थवानुं छे.
अमारुं चोकस मानवु छे के जैनधर्मनां सिद्धांतो प्रमाण अने युक्तिओथी एवा तो प्रबळ अने न्याययुक्त छे के जेम जेम ते तत्वो वधु फेलावो पामशे तेम तेम प्राचिन दृष्टि वधु खीली नीकळशे, अने जैनधर्मनुं क्षेत्र बहोल्लं थशे. ____ आ माटे मात्र जैनोज नहि पण सर्वे लोकोना बोधार्थे जैनधमना पुस्तको रचाववाथी अने सारी रीते वंचाववाथी अन्य लोको पण जैनतत्वनो लाभ मेळवशे केमके जैनधर्म मात्र जैनोमाटेज नथी. गमे ते ज्ञाति होय पण तेनां सिद्धांतो अनुसार वर्तन राखनार जैन होइ शके छे. आवी भाव उपकारनी दृष्टि ध्यानमा राखी, काळने अनुसरी, तथाप्रकारनो प्रयत्न करी परमपूज्य गुरुवर्य श्रीमद् बुद्धिसागरजीए आवा तत्वमय ग्रंथो रच्या छे जे पैकीनो आ "परमात्मदर्शन " ग्रंथ छे.
आ ग्रंथ अमे उपर अणाव्युं तेवा प्रकारनी खामीने दुर करनार छे, एम कहीए तो अतिस्योक्ति नहि कहेवाय. ___ आ ग्रंथमा बीजा अनेक विषयो साथे ज्ञान अने क्रिया बनेनी अथास्थित साबीती करी बतावा छ केमके बनेना संमेलन विना
आत्मकल्याण दुर छे. पटद्रव्य, षटकारक, पंचसमवाय, नय निषेपा वीगेरेथी द्रव्य,क्षेत्र,काळ, भावने, अनुसरीने आग्रंथ लखायो
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छे, जे अभ्यासीओने माटे आशिर्वादरुप छे. बलके आत्माभीमुख लाई जनार छे. आखो ग्रंथ वांचनार पोतेज कबूल करशे के गुरुवर्य श्रीमद् बुद्धिसागरजीए आ पकारना प्रयासे करी जैनसमाज उपर महान उपकार कीधोछे. तेओनो आ रीते जैनकोम उपरज उपकार थाय छे, एम नहि पण तेओना ग्रंथोनी लेखन, अने काव्य शैली, एवी तो प्रेम उपजावनारी छे के सर्वे दर्शनवाळाओ तेओश्री रचीत ग्रंथो होंसथी वांचे छे एम अनुभव कही आपे छे. एटलुज नहि पण तेओश्रीनां भजनपदो तो तेओश्री ज्या ज्या विचर्या छे, त्या त्यां कोइपण रीतना तफावत विना हमेशना माटे गवातांज रहे छे. आथी अन्य दर्शनीओ पण जैनधर्मने जाणता अने प्रीति करता थया छे. आ शुं जनसमाज उपर जेवो तेवो उपकार छे ? .
तेआश्री तरफना अंकुशना आधिने तेओश्री विषे हमारे जणावयु जोइए छे ते जणावी शकता नथी, पण समाज तो कबूल करती जोवाय छे के, भेदाभेद अने मारामारोनी कोइपण चर्चामां न उतरतां पोते अने अन्य जीवा पोताना आत्मानुं कल्याण कर रोते करी शके तेज मार्ग तरफ तेओश्रीनुं प्रयाण छे अने ते दिवसे दिवसे चढतुं अने वधतुं जाय छे.
तेओश्रीना ग्रंथो संबंधी वधु विवेचनमा नथी उतरी शकता कारण तेओश्रीनु मानवू एम छे के दुनियां दर्पणरुपे वस्तुने वस्तुरुपे केम नहि जोइ शके ? (बेशक गुणानुं रागनी दृष्टि तेमा मुख्य भाग भजवे छे.) तेथी अमो तेवा प्रकारनी तजवीजमा न उतरतां तेओश्रीनी कृतिना ग्रंथो जेम पने तेम समाज आगळ सारा स्वरुपमा ( ओछी किंमते ) रजु करवा एज कर्त्तव्य समजी आगळ वधीए छीए अने गुरु कृपाथी मंडळ पोताना नामे १ वर्षमा ११ पुस्तको बहार पाडी शक्युं छे. ___ आ रीते मंडळ आगळ वधवामा जे फतेह पाम्युं छे तेमां गुरुश्री उपरांत मंडळने पुस्तको प्रगट करवाने द्रव्यनी मदद करनारा गृहस्थोनोपण हिस्सोछे.जे अमोजणाववा चुकी जqयोग्यधारतानथी.
अगाऊना ग्रंथोना सहायकोना नामो तेते ग्रंथो साये मुंद्रित
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थयेल छे. जेओ उपरांत मनकुर " परमात्मदर्शन " ग्रंथने प्रगट करवामां नीवे मुजब सहाय मळी छे. १५०) शेठ मोतीजी जेताजी पुनावालानी विधवा बाइ नाजुबाई ७५) शेठ मोहनलाल ताराचंद. विजापुरवाळा. ५०) शेठ रायचंदभाइ रवचंद. साणंदवाळा. ५०) शेठ वाडीलाल मगनलाल. अमदाबाद. ५१) शेठ अमृतलाल केशवलाल वादी सद्गत भाइ अमृत
लालना स्मणार्थे तेमनी मातुश्री चंचळ व्हेने अमदावाद. ५०) बाइ हरकोरव्हेन श्री अमदावाद. ३१) वकील मोहनलाल हेमचंद तेओना ची. भाइ सवाइ
ना पुण्यार्थ. श्रीपादरा. २५) शेठ हाथीभाई मुलचंद. श्री माणसा. ३०) शेठ माधवलाल अमथालाल. श्री माणसा. ३१) शेठ मोहनलाल करमचंद अमदावाद.
आवी रीते सहाय करनाराओनो तथा बीजा मददगार ग्रहस्थोनो मंडळ आभार माने छे. अने तेओने पोताना द्रव्यनो आ रीते सदुपयोग करवा माटे धन्यवाद आपे छे.
__ मंडळनो उद्देश उपर जणाव्युं तेम जनसमाजमां तेओश्री रचित पुस्तको वधु वंचाय ते माटे सस्ती किंमते प्रगट करवानो छे, ते बजावे जाय छे. ते समाज पण जोइ शकी छे के बीजी कोइपण संस्थाओ करता मंडळ पुस्तकोनी घणीज ओछी किंमत राखे छे, ते पण बीजां पुस्तको प्रगट थवाने उपयोगार्थे तेमज थोडीपण किंमत
आपी पुस्तक खरीदतां ते उपर बहु भाव रहे छे ते अर्थे. ___मंडळ आशा राखे छे के गुरुवर्य पुस्तको तैयार करता रहे छे तेज प्रकारे प्रगट कराववाने सहायको वधता जशे.
छेवटमां ध्यान खेंचवाने रजा लइए छीए के मंडळ मारफते आ रीते पुस्तक प्रगट कराववाने जरुर विचारशो. मुंबाइ चंपागली )
ली. वीर संवत २५३६ पास सुदी १०.गुरु ) मा अध्यात्मज्ञान प्रसारक मंडळ,
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परमात्मदर्शनग्रंथः
प्रस्तावना. जगत्मा प्रत्येक मनुष्यो- धर्मनुं आराधन करे छे. प्रत्येक मनुष्यो धर्मना माटे इच्छा राखे छे. प्रत्येक मनुष्योने अनंत मुख प्राप्त करवानी तीव्र जिज्ञासा वर्ते छे. जन्म, जरा, मरणना दुःखमाथी बचाव थाय ते माटे प्रत्येक मनुष्यो बुद्धयनुसार उपायो शोधे छे. अमर थर्बु ते माटे अनेक प्रकारनी शोधो करे छे, आवी अमूल्य शोध करवानी कोने जिज्ञासा नहि होय ? अलबत सर्वने होय छे. आवी शोध माटे ज्ञानदृष्टिनी जरुर छ अने ते पण सर्वज्ञ दृष्टि होवी जोइए. आवी सर्वज्ञ दृष्टिवाळा तीर्थंकरो प्रथमः थइ गया छे. भा क्षेत्रमा चरम तीर्थकर त्रिशलातनय श्री महावीरस्वामी २४३६ वर्ष उपर थइ . गया.छे. तेमणे केवलझानथी सर्व पदार्थो जाण्या तथा देख्या. मनुष्यो नित्य सुख प्राप्त करे तथा जन्म जरा अने मृत्युना दुःखमाथी छूटे ते माटे तेओश्रीए आत्मज्ञान बताव्यु छे. सर्व प्रकारना जीव अने अजीव पदार्थोनुं स्वरुप बसाव्युं छे. ज्ञानदर्शन अने चारित्ररुप मोक्ष मार्ग पताव्यो छे. नात जातनो भेद राख्या विना आत्मतत्त्वनी शक्तियो खोलंववाना उपायो बताव्या छे. साधु धर्म अने गृहस्थ धर्म एम बे प्रकारना धर्म बताव्या छे. अमर थवाने माटे आत्मधर्मर्नु यथार्थ स्वरुप बताव्युं छे. समवसरणमां वेसी देशना देइ चतुर्विध संघनी स्थापना करी छे तेमना गणधरोए द्वादशांगीनी रचना करी, पश्चात् स्थविरोए उपांगनी रचना करी. तेमनी पाटे मे जे आचार्यों थया. गीतार्थो थया.
ओए प्रकरणो ग्रंथो आदिनी रचना करी. प्रत्येक आचार्योनो मुख्य उद्देश जमानाने अनुसरी गमे ते भाषामा सहेलाइथी मनुष्यो तल मार्ग समजी के तेवा ग्रंथो अने तेवा प्रकारनो उपदेन आ
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पयानो हतो, ते रीतिने अनुसरी उमास्वाति पाचक, सिरसेन दिवाकरसूरि, हरिभद्रसूरि, श्री हेमचंद्र आचार्य श्री अभयदेवसरि यशोविजय उपाध्याय,आदि धर्मधुरंधर आचार्योए. अनेक मनुष्योना उपकारार्थे. संस्कृत भाषामा तथा मागधी प्राकृतादि भाषामा उपदेश दीधो छे तथा तेवा ग्रंथो बनाव्या छे. पूर्वोक्त आचार्योना ग्रंथो सूत्रोनी पेठे माननीय पूजनीय गणाय छे. श्री हेमचंद्र पश्चात् लोकोनी स्थिति विद्या संबंधी घटवा लागी. लोको मागधी अने संस्कृतमां पण अल्प समजवा लाग्या. त्यारे आचार्योए जमानाने अनुसरी चालती गुर्जर भाषा आदिमां रासो वगेरे बनाववा लाग्या सं १३२७ नी सालमा सात क्षेत्रनो रास बन्यो छे. आ सात क्षेत्रनो गुर्जर भाषानो रास छपावी सिद्ध कर्यु छ के जैनोमाथी गुर्जर भाषा मुख्यताए प्रकाशी छे आ रास भजन संग्रह चोथा भागमा छपाब्यो छे. ते पहेला पण गुर्जर भाषामां जैनाचार्योए काव्य लख्यां होय एम संभव थाय छे अने ते माटे शोध चालेछे. प्रथम तोगुर्जर भाषामांपद्य तरीके रचनाकरी उपदेश आप्यो पश्चात् गधमां पण ग्रंथ बनावी उपदेश देवा प्रारंभ कर्यो. श्रीवीरे मरुपेला तत्वोनो संस्कृत, प्राकृत, मागधी, गुजराती, हिंदुस्थानी वगेरे भनेक भाषामा हाल अवतार थएलो अनुभवाय छे. श्री वीरमभु मुक्तिमां गया तो पण गंगाना प्रवाहनी पेठे तेमनी पाछळ तेमनो उपदेशेलो तत्वमार्ग पुरुष परंपरा अखंड वहेवा लाग्यो. हाल पण ते प्रमाणे जोवामां आवे छे.
संस्कृत भाषामां तथा मागधी भाषामा हाल ग्रंथो बनाववामां आवे तो प्रायः दश हजारमा पांच माणस पण भाग्येज समजी शके. संस्कृत तथा मागधीमा बनावेला ग्रंथोने पण गुर्जर भाषामां समनाववामां आवे त्यारेज लोकोना समजवामां आवे त्यारे गुर्जर भाषामां ग्रंथो बनाववामां आवे वो घणा लोको समजी के प्रम
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कहे निर्विवादछे. गुजरातमा रहेनार पुरुषो तथा. स्त्रीओ भले संस्कृतनो अभ्यास करे. इंग्लीश भाषानो अभ्यास करे तोपण २४ कलाको पैकी सर्व कलाकोमा गुर्जर भाषामां बोलीनेज सर्वने पोतानुं कार्य करवू पडेछे. मातृभाषामां जे उपदेश आपवामां आवेछे ते सहेजे समजायछे. आम कहेवाथी कंइ संस्कृत अने मागधी भाषानी हलकाइ देखाडवामां आवती नथी. कहेवानुं तात्पर्यार्थ ए छे के गुजरातीओने माटे गुर्जर भापापा लेख लखी समजाववामां आवे तो विशेष उपकार थाय. आ न्यायने अनुसरी गुजेर भाषामा लेख लख्योछे.
आत्मतत्त्व संबंधी मान्यता दरेक दर्शनवालाभोनी भिन्न भिन्न छे. आर्यभूमिमा जैन, वेद अने बौद्ध आ णनां पुस्तको विशेष जोवामां आवेछे. मुसलमान अने स्त्रीस्ति लोकोतो ज्यारे आ देशमां आव्या त्यारे तेमना धर्मना पन्थोनां पुस्तको लेइ आव्या. दरेक दर्शनवाळा ईश्वर, कर्म अने आत्मादि तत्त्वो संबंधी भिन्न भिन्न मत जणावेछे. अने ते माटे पोतपोतानी युक्तियो जणावेछे.
षड्दर्शनमांथी कयुं तत्त्व खरुछे. ते युक्ति अने प्रमाणथी समजी शकायछे. श्री वीरमभुए आत्म तत्त्व एवं सरस बताव्युंछे के ते माध्यस्थ अने ज्ञान दृष्टिवाळाने रुच्या विना रहे नहि.देवगुरु अने धर्म तत्त्वनुं स्वरूपं सर्वज्ञ दृष्टिथी बताव्युछे. आ ग्रंथमां श्रीवरिमभुए कहेलं आत्मतत्त्व सूत्रानुसारे लख्युं छे. जिनागमोनु दोहन करी देवगुरु धर्म तत्त्वादिनुं यथार्थ वर्णन करवामां आव्युंछे.
प्रथम आद्यमां सद्गुरुर्नु मंगलाचरण कर्युछे. पश्चात् गुरुनी केवी शक्तिछे ते जणाववा प्रदेशी राजा अने केशी कुमारनो संवाद देखाडी आत्मानी अस्तिता सिद्ध करीछे. पश्चात् ज्ञान अने क्रियानो संवाद प्रसंगानुसारे जणाव्योछे. पश्चात् योग्य अयोग्य श्रोतानां लक्षण जणाव्यांछे. पश्चात् ६८ मा पानाथी षड्द्रव्यनुं स्वरूप समजाव्युंछे. पश्चात् आत्मधर्म महत्ता दर्शावीछे. पश्चात् आत्म
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(७) धर्मनी महत्ता माटे क्षमा निष्कपटपणुं आदि सदगुणोनी जरुरीयात बतावीछे पश्चात् पत्र १३३ माथी आत्मानी शोध कोई विरला करेछे ने संबंधी एक बादशाह अने फकीरनी वार्ता आपी बागनुं दृष्टांत जणाव्युंछे. पश्चात् पत्र १४६ माथी मतिश्रुत आदि पंचज्ञाननुं स्वरूप दर्शाव्युंछे.
पश्चात् साधुनी आत्मध्यानादि क्रिया दर्शावीछे. पश्चात् आत्म स्वरूप दर्शाव्युछे. पश्चात् अनुक्रमे पत्र १९० माथी भव्यात्माए दश प्रश्न संबंधी विचार करवो जोइए. तेनां नाम जणावी अनुक्रमे वर्णन कयुछे. ते प्रश्नोना सातमा प्रश्नना विषयमांज पत्र १७५ माथी कर्मराजा अने धर्मराजानुं युद्ध वर्णन कर्युछे. ते स्थिर चित्तथी वांचवानी जरुरछे. पत्र ३०३ थी आठमा प्रश्ननो विषय शरु थाय छे तेनुं पूर्णप्रेमे मनन करवू जोइए. पत्र ३१५ माथी नवमा प्रश्ननो विषय शरु थायछे. पत्र ३३१ माथी आत्मा, कर्मनो तथा भोक्ता केवी रीतेछे तेनुं वर्णन कर्युछे. पश्चात् सिद्धस्वरूप दर्शाव्युछे. पश्चात् पत्रं ३५७ थी ईश्वर जगत् कर्ता नथी. तेम संबंधीनुं व्याख्यान कर्पुछे. पश्चात् षट्स्थानकनी सिद्धि करी बतावीछे. आत्मसिद्धि करवामां अनेक जिनागमोना अनुसारे युक्तियो दर्शावांछे. ते गु. क्तियोने जो मुखे करवामां आवे तो जैन धर्म तत्त्वोनी पूर्ण श्रद्धा याय. आत्मा कर्मनो नाश करी अनंत सुख प्राप्त करी अमर थाय छे तेज मुख्य मुद्दो ध्यानमा राखी तेना उपायो दर्शाव्याछे तेथी प्रत्येक मनुष्योनुं आं ग्रंथ वाचतां कल्याण थाय एमां कोई संदेह नथी. परमात्मदर्शन ग्रंथ वांचनार अवश्य ज्ञान दर्शन चारित्र पामी मुक्तिमार्ग पामेछे. जे भव्य जीवो होय त्हेने आ ग्रन्थमा लखेलां तत्त्वानी श्रद्धा थायछे. __• आ ग्रन्थना प्रत्येक पानाना मुखपर मुख्य हेडींग छे तेथी वांचनारने प्रत्येक विषयनी सरलता थशे. आ ग्रन्थमा छेल्ला दुहा तथा चोपाइयोनो अर्थ लख्यो नथी. पण कोइ भक्त पंडित पुरुष
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अवशेष दुहा तथा चोपाइयो उपर अर्थ पुरशे तो धर्मलाभ प्राप्त करशे. समयना अभावे अवशेष दुहा आदि उपर विवेचन थयुं नथी. ते दुहाओ वगेरे सद्गुरुना पासे जे वांचशे ते विशेषतः अर्थ प्राप्त करी शकशे. जडवादियोगी सामे रक्षण तरीके आ ग्रन्थ उपयोगी थशे. आ ग्रन्थने माध्यस्थ दृष्टिथी वांचशे ते सद्गुण रागधी तेनो यथार्थ तस्व रहस्य मेळवी शकशे.
आ ग्रंथ मूळ तरीके - श्री लोदरा गाममां आरंभ्यो हतो त्यांची मेसाणे जई त्यां सं. १९६० नुं चोमासु कर्यु. त्यां अशाड खुदी ५ ना रोज आ ग्रंथ पूर्ण कर्यो. पश्चात् तेज चोमासामां विवेचन जेटलुं लखायुं छे तेटलं अत्र दाखल कर्यु छे: बाकीना दुहानुं विधेचन, कोई भक्त शिष्य पूर्ण करशे.
आ ग्रन्थमां जे कंइ जिनाज्ञा विरुद्ध लखायुं होय ते संबंधी मिध्यादुष्कृत हो. सज्जन दृष्टिथी जे कोइ आ ग्रन्थ वांचशे रहेने अत्यंत लाभ प्राप्त थशे. ज्ञानिने आश्रवनां कारण ते संवररुपे परिमेछे. अने अज्ञानिने संवरनां कारण ते आश्रवरूपे परिणमेछे तेम योग्य जीवने आ ग्रन्थ सम्यग्पणे परिणमशे अने अयोग्य कुपात्र मत्सरी दुर्गुणग्राहीने आ ग्रन्थनुं वांचन, विपरीतपणे परिणमशे. मां तेनी दृष्टि तेज मुख्य कारणछे.
प्रत्येक भव्यजीवो आ ग्रन्थ वांची अध्यात्मस्वरूपमां रमणता करी परमात्म स्वरूप प्राप्त करो. परमार्थ प्रति सर्वनी रुचि थाभो. परमानंद ने सर्व जीवो प्राप्त करो. सर्व जीवो मंगलमाला प्राप्त करते. एजशुभाशीः ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
मुकाम - अमदावाद - झवेरीवाडो. संवत १९६६ कार्तक वदी ८
लि. मुनि. बुद्धिसागर. आंबली पोळनो उपाश्रय.
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॥ अथ परमात्मदर्शन ॥
पंचशती प्रारभ्यते.
श्री संखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः
मंगलम् .
गुरु स्तुति, दुहा.
1
सुरतरु जंगम तीर्थरूप, सद्गुरु साचा देव; त्रिकरण योगे तेहनी, जावे कीजे सेव. १
श्री सद्गुरुनी स्तुति कराय छे. अनादि काळथी जीव अज्ञान ( अविद्या ) थी बहिर वस्तुमां आत्मपणाथी बुद्धि धारण करी अनंतशः दुःखराशि भोक्ता थयो अने बहिरात्मभावे परवस्तुने पोतानी मानी स्वस्वरूप भूल्यो एवा मूढ आ जीवने शुद्ध स्वरूप ओळखावनार श्री गुरुमहाराज सत्य देवरूपे छे. मिथ्यात्व अने सम्यक्त्व स्वरूप समजावी शुद्ध मोक्षमार्ग योजक श्रीगुरुना समान बीजा देव नयी. मुक्ति रूप फळ देवामां श्रीगुरु कल्पवृक्ष छे. कल्पवृक्षो पौद्गलिक सुखदाता छे. अने गुरुरूप कल्पवृक्ष तो अनंत आत्मिक शाश्वत सुख समर्प छे. जो के उपादान कारणरूप गुरु महाराज नयी तो पण उपादान कारणनी शुद्धिकारक तथा सहायभूत निमित्त कारणरूप श्रीगुरुराज छे, ए कल्पवृक्षनी माति महा पुण्योदये थाय छे, गुरु जंगम तीर्थ छे, अन्यत्र के ज्यां श्री तीर्थंकरादिनां कल्याणक थयां छे, ते तीर्थ स्थावर तरीके कवाय
अन्य
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maaaaaaaaaaaaaaaaa
t) केशी भने प्रदेशीनो संवाद. छे, ते तीर्थोनी यात्रा सेवा भक्ति करपाथी सम्यक्त्व निर्मल थाय छे. किंतु ते स्थावर तीर्थनी श्रद्धा ओळखाणकारक पृथ्वीतळ गमनकर्ता श्री सद्गुरु प्रत्यक्ष महाउपकारी छे. येनालंबनेनजीवो । भवांभोधितरतीति तीर्थः जेना आलंबने जीव संसार समुद्रने तरे छे ते तीर्थछे, श्री गुरु महाराजना आलंबने जीव संसार समुद्र तरे छे, माटे गुरु तेज तीर्थ छ, गुरुरूप तीर्थनी सेवाभक्ति झटिति प्रत्यक्ष फलदा छे. श्री गुरुनी वाणीरूप गंगामां जे स्नान करे छे ते पोते उपार्जनकृत कल्मषोने गमावे छे. चक्षुनी विद्यमानताए पण अन्य पदार्थोना निरीक्षणमा सूर्य चंद्र दीपकनी जरूर पडे छे. तेम भव्यात्माओने पोतानुं आत्मिक शुद्धस्वरुप अवलोकनार्थे गुरु सूर्य समान छे तेथी तेनी जरूर पडे छे, विशेष ए छे के, सूर्य अंतरनो प्रकाश करी शकतो नथी.अने गुरु महाराज अंतरना प्रकाशकारक छे.. माटे आ सूर्य करतां पण विलक्षण अलौकिक गुरुरूप सूर्य छे, पूर्वोक्त सद्गुरुनी त्रिकरणयोगे अत्यंत भावे सेवा करवी, सेवा कोजीर ए कहेवाथी एम सूचव्यु के जेने मुक्ति पदनी इच्छा होय तेने सद्गुरुनो बहुमानथी विनय करवो. कारण के धर्मनु मूळ विनय छे. अने विनय विना धर्मनी प्राप्ति थती नथी, अने धर्मनी माप्ति गुरु विना थाय नही माटे श्रद्धा भक्ति बहुमान पूर्वक गुरुराजनो विनय करवो.
मुरतरुनी उपमाथी समजवु के-गुरु अनंत आत्मधर्मना दानी छे.
आत्मधर्मनुं दान ते भाव अभयदान छे. पंचधादान छे. १ अभयदान, २ सुपात्रदान, ३ अनुकंपादान, ४ उचितदान, ५ कीचिदान, ए पांचमां महाउपकारक अभयदान मुख्य छ, द्विधा अभयदानं द्रव्यतो भावतच. अभयदान बे प्रकारे छे. १ द्रव्य अभयदान. २ भाव अभयदान. एकेंद्रियादियी ते पंचेन्द्रिय पर्यंत जी
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परमात्मदर्भन. वोना प्राणोनुं रक्षण करवं तेमनो कोइ घात करतुं होय तो बचाववा तेने द्रव्य अभयदान कहे छे, दरेक जीवने जीव, मिय लागे छे. कोइने मरण शरण यq प्रिय लागतुं नथी. कधुंछे के. मरण समो नाध्य भयंः मरण समान कोइ भय नथी, माटे प्राणीओने कोई मारतुं होय तो अनेकरीत्या तेमनुं रक्षण करवू. जीवनी दयाथी जीव तीर्थकरनामकर्म उपार्जन करे छे, नरस्वर्गादि सुखसंपत्तिनो भोक्ता थाय छे. एक राजानी अणमानीती स्त्रीए चोरने फांसीनी शिक्षा थती अटकावी अने अन्य राणीओए लक्ष रुपैया खरची तेने मिष्टान्न जमाड्यां, किंतु चोरे अणमानीती स्त्रीनो अत्यंत उप. कार मान्यो. अने तेणीए छोडाव्यो त्यारे मुखी थयो, श्रीशान्तिनाथना जीवें पूर्व भवमा एक पारेवानो जीव बचाव्यो तेथी अत्यंत पुण्य उपार्जन कयु, तेम भव्यत्माओए प्रत्येक जीवोनी दया करवी, कोइ जीवनी हिंसा करवी नहीं, मिथ्यात्वे पाप बुद्धिरूप पिशाचिकाना प्रेर्या केटलाक जीवो मत्स्य अज पशुपंखीनां मांस भक्षण करे छे, मांस वेचे छे, मांस भक्षकनी अनुमोदना करे छे ते जीवो घोरकर्म ग्रही अति दारुण दुःखालय अधोगतिभाक् थाय छे अने आ भवमां पण कर्मोदये दुःखनी झाळमा फसाय छे, माटे मन वचन कायाए करी जीवनी हिंसा वर्जवी.
२ भावअभयदान-भव्य जीवात्माओने तेना शुद्ध गुणोनुं दान आपq तेने भाव अभयदान कहे छे तद्विविधभाव अभयदान वे प्रकारे छे. १. स्वभाव अभयदान २. परजीवधर्म अभयदान. पोतानो आत्मा असंख्यातमदेशी छे अने ते प्रदशो अरूपी छे, कोइ काळे पण उत्पन थया नथी माटे अन छे, वर्तमान, भूत अने भविष्यत् कालमा प्रदशो जेरा छे तेवा ने तेवा रहे थे, माटे शायता छे, ए असंख्यात आत्माना प्रदेशो बाल्या पता
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केसी भने प्रदेशांनो संबाद.
नवी, गाळया गळता नथी, एक प्रदेशे आत्मा कहेवाय नहीं, बे मदेशे आत्मा कहेवाय नहीं, असंख्यात प्रदेशमयी आत्मा कहेवाय छे, जंढरूप पुद्गळकी आत्मानुं स्वरूप न्यारुडे, अनंतज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र, अनंत वीर्य, इत्यादि आत्माना अनंत गुणो छे, आत्माना एकेक प्रदेशमां अनंत धर्म रक्षा छे, आत्मामां अनंत सुख अस्तिभावे रधुं छे.
किंतु अनादि कालधी जीव पोतानास्वरुपना अज्ञानथी परवस्तुमा अहंभाव धारण करी, मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योगयी पुद्गल स्कंधोने अटकर्मनी वर्गणा तरीके परिणमावी विचित्र शरीरोने धारण करे छे, जीवनी अनादिकाल मूळ वसति निगोद छे, निगोदना जीव बे प्रकारे छे. १ सूक्ष्मनिगोद २ बादरनिगोद, अनंत जीवो बच्चे एक शरीर होय छे अने चतुर्दश रज्वास्मक ( चउदराज ) लोकोने काजलनी कुंपळीनी पेरे व्यापीने रखा छे, तेने सूक्ष्म निगोदीया जीव कहे छे.
ए सूक्ष्म निगोदीया जीवने मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, अने योग रह्या छे. सदाकाळ ते दुःखना भोक्ता छे. त्रण प्रकारनां जे अज्ञान छे, तेमांथी एक पण अज्ञान टर्पु नथी, तेनामां समजवानी कंड पण शक्ति नथी. ए सूक्ष्म निगोदना जीवोमां केटळक भव्य जीवो अने केटलाक अभव्यजीवो छे. साधारण वनस्पतिना जीबोने बादर निगोदीपा जीव जाणवा, द्विमकारे निगोदम अनंतत्रः जन्म मृत्युना चक्रवेगे जीव भम्यो, त्यांथी भवितव्यतायोगे पृषिबी, जल, ज्वलन, वायु, प्रत्येक वनस्पतिनां शरीरो धारण करी
भ्रमण कर्फ्यू, पण आत्मस्वरूपनो अवबोध थयो नहीं दान ए श्री वस्तु के वेटलं पण जाणवामां आव्यु नहीं अने ते कर्य नहीं.
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परमात्मदर्शन. प्रश्न-जल सरोवरमा भर्यु होय छे त्यारे हजारो पशु पंखी मनुष्यादि तेमाथी जलपान करे छे, त्यारे जले पोतानुं दान बीजाना अर्थे शुं कर्यु ना कहेवाय ?
उत्तर-अन्य जीवो जलपान करे छे ते पोतानी सत्ताथी करे छे, जलपान अन्य जीवो करे तेमां जलना जीवो राजी नथी, जलपान करवाथी जलना जीवोनो नाश थाय छे तेमां पोते राजी नथी, माटे ते दान कहेवाय नहीं. द्वीन्द्रियथी ते चतुरिन्द्रिय पर्यंत जीवो अभयदान पोते करी शकता नथी. पंचेंद्रियना चार प्रकार छे. १. देवता. २ मनुष्य. ३ तियेच. अने ४ नारकी. भुवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिक ए चार प्रकारना देवो द्रव्य तथा भाव अभयदान करी पके छे. सम्यक्वधारकदेवो समकितनी अ. पेक्षाए भाव अभयदान करी शके छे, कारणके समकित पामेला देवताओ पोताना आत्मानुं स्वरूप समजे छे, पोताना आत्माने पोताना समाकित गुपनुं दान आपे छे' तथा अन्यदेवो तथा मनुप्योने धर्मनी श्रद्धा करावे छे, माटे बीजाने भाव अभयदान अर्पे . सर्व जातना देवताओनो मिथ्यात्व गुणस्थानकथी ते समकित गुणस्थानकनी अंदरमा समावेश थाय छे. बहु देवताओ धर्मभ्रष्टोने धर्ममां स्थिर करे छे, पण देवताओना करतां मनुष्यो अभयदानमा विशेष छे, कारण मनुष्यने वउद (चतुर्दश) गुण स्थानक में, जे दान पामवाथी आत्माने कोइनो भय रहे नहीं ए, भावमभयदान संपूर्ण मनुष्य पामेछ, अज्ञानी जीवने सत्यासत्यनी समजण पडती नवी तेने सद्गुरु त्रिजगद् दुःख दावानल मेघ समान धर्म देवनाथी मात्मस्वरुप समजावे छे, जड वस्तुनं स्वरूप समजावे छे, देवगुरु धर्मदं स्वरूप समजावे छे, नवतत्त्वद् विशेषसंस्था स्वरूप समजावे छ; अने अज्ञानी जीवने समजावे छेके
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(६). केसी भने प्रदेशीनो संवाद. अरे पुद्गलोंठना भिक्षुक तारी भूख पुद्गलऐंठथी कंदी भागवानी नथी, तुं परवस्तुनुं ग्रहण करी मुखी थवानो नथी. पोताना घरमां अनंत धन छतां केम परगृहे भीक्षा मागे छे. तारुं घर ओळख, तारो अखूट खजानो ताराथी दूर नथी, पर पुद्गल चुंयतां तने लजा शुं नयी आवती ? तारी ऋद्धि तारी अन्तर भरी छे. अने तेना अज्ञाने तुं दरिद्री थयो छतो अनंत दुःखने पामे छे, माटे तुं तारा आत्माने तारी ऋद्धिनुं दान आप, परमां केम फोफां मारे छे ? हे पामर प्राणी ! तें असत् वस्तुने सत् तरीके जाणी, अने सत् वस्तुने असत् तरीके जाणी तेथी भ्रांत थयो माटे हवे काया मायाथी तुं भिन्न छे. तारुं कोइ नथी. कोइनो तुं नथी, तुं सर्वथी न्यारो छे एम अवबोध, ज्यां कोइनो संचार नथी एवो तुं आत्मा छे जो तुं तारा स्वरूपे रमे तो तृष्णा, काम, क्रोध, मोह स्वतः नाश पामे. मलीन जलमां जेम चंद्रनुं प्रतिबिंब बराबर पडतुं नथी तेम तारुं मनरुप जल ज्यां सुधी विकल्प अने संकल्प वडे मलीन छे तावतू तेमां आत्मरूपी चंद्रनुमतिबिंब बराबर पडीशकतुं नथी, तुं अज्ञाने पोताने भिक्षुक माने छे, पण हे आत्मा तुं तो त्रिभुवनपति छो. हे पामर प्राणी ! तारामांत्रण रत्न छे ते प्राप्त कर अने जो ते आत्माने मळ्यां तो तुं सर्वोत्कृष्ट बने. जोने सिद्ध परमास्माओ, तेमने समये समये अनंत सुख छे तादृश अनंत सुख वारामां छे तेनु दान तुं तारा आत्माने आप के जेथी कोइनो भय रहे वहीं. एम सद्गुरु महाराज पामर प्राणीने उपदेशद्वारा भाव अभयदान अर्षे छे. ए दान पाम्याथी कोइवार जन्म जरा मरण प्राप्त धतु नथी. शुद्ध सच्चिदानंदनी लहेरीयो आत्मामां प्रगट छे. ए भावंदान पामेला जीवो अनंत सुखने पाभ्या, पामेछे, अने पा. मशे. अहो ! सद्गुरुना समान जगत्मां मोटा कोइ दानेश्वरी नथी.
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परमात्म दर्शन.
( ७ )
जेणे मिध्यात्वनो नाश करी सम्यक्त्वनुं दान आप्युं. एवा सद्गुरुनो कदापि काल उपकार वाळवा कोइ समर्थ नथी, धर्मनी श्रद्धा करावनार धर्मगुरुए अनंत जन्म मरणनां दुःख टाळयां, तेमनो उपकार क्षण पण वीसराय तेम नथी.
श्री प्रदेशी राजाने प्रतिबोधक केशी गणधर सदृश सद्गुरु जाणवा. प्रदेशी राजा बिलकुल नास्तिक हतो तेनुं वृत्तांत कथेछे.
श्वेतांबिका नानी नगरीमां प्रदेशीराजा राज्य करतो हतो ते नगरीना मृगवन नामना उद्यानमां केशीकुमार साधु परिवारे परि'वर्या, समवस, धार्मिक नागरिक जनो भगवान्ने वंदनार्थे आ
बा लाग्या, गुरुए देशना आरंभी, ते अवसरे कांबोज देशथी अश्वो आव्या छेतेनी परीक्षाने माटे चित्र सारथीए राजाने विनव्यों, चित्रे रथ जोड्यो, लांबा वखत सुधी अश्वो दोडाव्या. अश्वो थाक्या त्यारे सगयसूचक चित्रे राजाने विनव्युं के स्वामिन् अश्वोने विश्रांति माटे वृक्षनी छायामां बेसाडवा जोइए एम कही राजा सह चित्रसारथि मृगवनमां आव्यो, त्यां आचार्य देशना देता हता त्यां ज़ेम आचार्यनी शब्दध्वनि संभळाय तेम आसन्न मुकाम कर्यो. प्रदेशी राजाए भव्य जनोने उपदेश देता एवा केशी गणधर दीठा.
राजाए मनमां चिंतव्युं के अरे आ मूढ शुं बोलतो हशे, अने अग्रस्थित एवा मूढ मनुष्यो शुं सांभळता हशे अहो खरेखर वक्ता अने श्रोताओ जड छे, एम मनमां विचारी राजाए चित्रसारथी प्रति कहुँ
मदेशी - अरे सारथी ! आ जगत्थी विचित्र वेषधारक कोण हशे ? अने ते शुं बके छे ?
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()ी भने प्रदेशीनो संवाद चित्र-हे महाराज श्री पार्श्वनाथ नामना वीशमा तीर्थकरना प.
रंपरागत शिष्यो छे अने ते देहथी जीव पृथक् कहे छे. प्रदेशी-हे चित्र ! ते केवा प्रकारनी युक्तिओथी शरीरथी भिम
जीवनी अस्तिता कथे छे ? चित्र-हे नरपते ! एनी मने मालुम नथी तेमनी पासे गमन करी
श्रवण करीए तो मालुम पडे.
राजाए कयु " चालो त्यारे तेमनी पासे, एम कही आचार्य पासे जइ स्थाणुनी पेठे विनयरहीत नास्तिक शिरोमणि बेठो. प्रदेशी-तमो का कइ युक्तिओथी शरीरथी भिन्न आत्मा मानो छो? केशी गणधर-हे राजन् ! ए प्रमाणे प्रश्न पुछवाने इच्छा राखे छे . तो केम विनयनो भंग करे छे ? प्रदेशी-शुं में असमंजस कर्यु ? केशीसूरि-दूरस्थ एवा ते अमोने देखी मनमां एवं चिंतव्यु के मा मूढो मूर्खाओनी आगळ शुं असत्य बकेछे तें मनमा विकल्प कर्यो ते सत्य के असत्य ए प्रमाणे मुरिनुं वचन सांभळी
राजा चमत्कार पाम्यो. मदेशी-पराभिमायने तमोए शायी जाण्यो ? सूरी-पांच ज्ञानमाथी मारा विषे चार ज्ञान छे. तत्र प्रथम मतिज्ञानं इंद्रियप्रणोदनोद्भूतं, । द्वितीयं श्रुतज्ञानं तञ्च श्रवणगृहीत पदवाक्यैरर्थावबोधरूपं । तृतीयं अवधिज्ञानं तचेन्द्रियकज्ञानव्यतिरिक्तमात्मनैव प्र. त्यक्षकृतं रूपि द्रव्यगोचरं । चतुर्थमनःपर्यायज्ञानं तच्च मनुष्यलोकवर्तिनां संज्ञिजीवानां ये मनः
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परमात्म दर्शन.
(3)
पर्यायान विचित्रमनोsवस्थाः ताश्चात्मनैव प्रत्यक्षीकृत्य ततोर्थापत्यातश्चितितज्ञानं । एतानि चत्वारि ज्ञानानि मम संति तेन परंमनोविकल्पितं अहंजानामि । यत्तु पंचमं केवलज्ञानं तत्र सर्वायेतानि चत्वारि ज्ञानानि लीयंते सूर्यप्रकाशदन्यताराप्रकाशवत् तच्च ज्ञानं मम नास्ति ॥ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, अने मनः पर्यायज्ञान ए चार मने वर्त्ते छे. तेथी मनः पर्यवज्ञाने अन्य जनोना अभिप्रायने हुं जाणं हूं.
3
प्रदेशी - पोताना मनमां विचार करवा लाग्यो के अहो आ महापुरुष छे, ज्ञानी छे, तेमनी साधे संभाषण लाभार्थे छे एम चिंती बेसवानी इच्छावाळा राजाए सूरिने कहुँ, हे स्वामिन् तमारी आज्ञा होय तो हुं बेसुं. सूरिए कहुं, तमारी पृथ्वी छे जेम सुख थाय तेम कर.
राजा बेसी बोल्यो- देह अने जीवनुं भिन्नत्व तमो कथों छो ते घटतुं नथी. आत्माने सुख दुःखनी अवस्थाना भेदो माटे पुण्य पापनी कल्पना करवी अने पश्चात् पुण्य पाप भोगार्थ प्रति परलोक गत्यागतिनी कल्पना करवी ते प्रत्यक्ष प्रमाणथी विरुद्ध छे. कारण के मारो पितामह अत्यंत पापी हतो, तेनो •मारा उपर अत्यंत स्नेह हतो, जो ते कहेवा प्रमाणे नरकमा गयो होय तो तेणे अत्र आवी केम पापनो निषेध कर्यो नहीं ? कारण के त्यां अत्यंत दुःख मारे भोगबवुं पडे माटे, हे पुत्र तुं पाप मा कर हुं तो पापार्जनथी दुःखी थयो एवो
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केशी भने प्रदेवीमो संवाद जबाप नरकमांथी आवी मारा पिताए केम कह्यो नही ? माटे एवा व्यतिकरना अभाव हुँ एम स्वीकारुं छं के जीव देहनुं
क्य छे, कोइनुं पण परलोकगमन नथी. केशी गणधर-हे राजन् ! जो कोइ पुरुष तारी राणीने भोगवे
अने ते ते जाण्यु तो तुं तेने कोइक दंड आपे वा नहीं ? प्रदेशी-तेने हुं घणी विडंबनाओ करी मारूं. केशी०-ते पुरुष जो एम कहे के मने क्षणवार मूको तो हुं मारा
कुटुंबने शिक्षा आपी आयु के हुं अकृत्य करवाथी अत्यंत दुःखी थयो छ माटे तमारे कोइए अकृत्य करवू नहीं तो तुं तेनु वचन अंगीकार करे ? प्र०-कदी तेनुं वचन मानी छोडं नहीं. केशी०-त्यारे ए प्रमाजे तमारा पितामह पण नरय. आवी __ शके नहीं, ए प्रथम प्रश्नोत्तर. प्रदेशी-मारा पितामह कदापि आवी शके नहीं तेथी मारी प्रतिज्ञा
असत्य ठरती नथी; मारी पितामही तमारा शाशननी अनुरागिणी हती ने धर्म कर्ममां सदा आसक्त हती तो ते तमारी युक्तिए देवलोकमां गइ तेनो मारा उपर अत्यंत स्नेह हतो तो तेणीए अत्रे आवीने केम प्रतिबोध कर्यो नहीं! अरे पौत्र तुं धर्म आचर, हुं धर्म प्रसादथी स्वर्गमा गइ छु, अने तारा पितामहे तो पापना संचपथी नरक गति पामी एम तेणीए केम कह्यु नहीं, तेने तो अहीं आवतां कोइ अटकावी शकतुं नथी, तो तेना व्यतिकरना अभावे मारी प्रतिज्ञा सत्यज छे.
देहथी जीव भिन्न नथी. एतादृशी प्रतिज्ञा मम सत्या. केशीगणधर-ज्यारे तें स्नान करी सुगंधिद्रव्यतुं शरीरे विलेपन
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परमात्मदर्शन. कर्य होय अने अलंकार वस्त्रोथी शरीर अलंकयु होय ते वखते चंडाल आवीने कहे के स्वामिन मारा विष्टाना घरमा क्षणवार
आवी बेसो. एम कहे त्यारे तेनुं वचन तुं स्वीकारे के नहीं ? प्रदेशी-त्यां जq तो दूर रवू पण तेनो संबंध पण हुं करुं नहीं ? केशी-देवताओ निर्मल पवित्र वैक्रियशरीर धारण करी भत्यंतसुख भोगवे छे, मनुष्यो सात धातुथी निष्पन औदारिक शरीरने धारण करनारा छे, मनुष्य लोकनो गंध पंचशत योजन उर्ध्व उछळे छे, मरक्यादि अभावे चतुःशत योजन
दुर्गध प्रसरे छे. यतः चत्तारिपंच जोयण सयाई। गंधोय मणुय लोयस्स॥ उ8 वचइ जेणं । नहु देवा तेण आवंति ॥ १॥ संकंति दिवपेमा । विसय पसत्ता समत्तकत्तव्वा ।। अणहीण मणुअकज्जा। नरभवमसुदंन इंति सुरा॥१॥
इत्यादि विचारी जोतां तारी पितामहीनुं आवागमन असंभवित छे, मनुष्यभव संबंधी मोहना अभावे अने दुर्गंधिस्थान
पणाथी तेर्नु आवागमन थतुं नथी. प्रदेशी-मारी पितामही- अनागम हेतु तमोए बुद्धिथी सिद्ध कर्यु किंतु में जीव देहनी औक्यता घणी युक्तिथी साधी छे. माटे मारो पक्ष सत्य छ, में एक जीवता चोरने निःछिद्र कोठीमां घाली उपर ढांकणुं दीg. पुनर् मृत्तिकादि द्रव्योथ। लिंपी. केटलाक दिन पश्चात् ते उघाडी मृत चोर देख्यो, किंतु तेना जीवने निस्सरवानो निर्गमन मार्ग कोइए देख्यो नहीं, त्यारे में जाण्युं आनी चैतन्य शक्ति आ देहमां लय पामी अने जो
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( १२ )
केशी अने प्रदेशीनो संवाद
विलय ना पामी होय तो जीव अन्यत्र जात, तो तेनो नीकळवानो मार्ग पण थलो जणात, तेना जीवने नीकळवाना मार्गना अभावे मारी प्रतिज्ञा सत्य छे.
केशी - हे राजन् कश्चित् दुंदुभिवादक भूमीगृह (भोयरा ) मां प्रवेशे अने पश्चात् भोंयरानुं मुख बंध करे, जरा पण छिद्र रहेवा दे नहीं, त्यां दुंदुभि बगाडे तो तेनो शब्द बाहिरना लोको सांभळे के नहीं ?
प्रदेशी - बाहिरना लोकोथी शब्द संभळाय.
केशी - ए दुंदुभिना शब्दने निस्सरवानो क्यांय मार्ग जणाय छे ? प्रदेशी - कोई स्थाने जणातो नथी.
केशी - श्रोत्री ग्रहण थाय एवां शब्द पुदगलोने निःसरवानो मार्ग जातो नथी तो आकाशनी इव अरुपी आत्मानुं निर्गमनद्वार कथंरीत्या पामी शकाय ? गमे त्यां थइ आत्मा अरुपी माटे नीकळी शके छे. ते स्थूळदृष्टिथी अवलोकाय नहीं. इति तृतीय प्रश्नोत्तर.
प्रदेशी - हे भगवन् ! आपनी बुद्धिनी युक्तिथी ए बात साधी पण निश्चयसाध्य यती नथी. चोरना कलेवरमां कमीयो उत्पन्न यया ते जीवो छिद्रवाळी कुंभीना कया द्वारथी प्रवेश्या ? चोरने कंइ छिद्र नहोतां तेथी प्रतिज्ञा करूं छं के विकारवा चोरनुं शरीर तद्रूपता ने पाम्युं माटे मारी प्रतिज्ञा सत्यज छे. केशी - हे राजन् भृशंवन्हितप्तायोगोलकमां वन्दि प्रवेश छे के नही ? प्रदेशी - अयोगोलकमां वन्हि प्रवेशे छे.
- केशी- त्यां छिद्रना अभावे अयोगोलकमां वन्हि प्रवेशनी उपलब्धि छे तद्वत् जीव पण द्वार बिना पेसतो छतो. केम अश्रद्धेयक
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rv.h".AAAAAAAAAARI
परमात्मदर्शन.
(१३) थाय ? किंतु द्वार विना पण अरूपी आत्मानो प्रवेश थाय छे
एम सद्दहवें जोइए. (इति चतुर्थ प्रश्नोत्तरं) प्रदेशी-हे भगवन् तमारी युक्ति प्रमाणे तो समलक्षणयुक्त सर्व
जीवो छे ते घटतुं नथी लक्षणनी साम्यताए सर्वमां सरखं बल होवू जोइए ? ते प्रत्यक्ष प्रमाण विरुद्ध छे जे कारण माटे बालके छोडेलो बाण नजीक पडे छे, अने तरुगे छोडेंलो बाण दूर पड़े छे. ए सर्व जीव देहनी ऐक्यताए घटे छ, लघु शरीरे लघुबल, मोटा शरीरे बल पण महत् माटे सर्व जीवोमां लक्षण साम्यताए समबलत्व अयुक्त छे माटे मारी प्रतिज्ञा
सत्या समजवी. केशी-कोइ बलवान् तरूण पुरुष प्रत्यंचा चढावी बाण फेंके ते
ज्यां सुधी भूमि उल्लंघे. ते ज धनुष्य चढावी बालक बाण फेंके ते युवान पुरुषे फेंकेला बाणे जेटली भूमि उल्लंघन करी
छे तेटली भूमि आ उल्लंघन करे के नही ? । प्रदेशी-ते बाण आसन्न भूमीमां पडे पण पूर्वोक्त पुरुषं फेंकेलं
बाण तेना जेटली भूमी अवगाही शके नही ? केशी-भला तेमां शो हेतु ? प्रदेशी-साधन वैकल्य तेमां हेतु छे. केशी-बालनुं शरीर निर्बल साधन छे धातुओना अपुष्टपणाथी,
पृष्ट शरीर सबल साधन छे ते माटे सर्व जीवोमां लक्षणनी
साम्यता अंगीकार कर. (इति पंचम प्रश्नोत्तरं) प्रदेशी-तमोए जीवोमां समलक्षणपणुं कर्तुं ते असन् छे, कारण
के युवान अने बालकनी शक्तिनी (पराक्रम) भिन्नता छे. बाळकनी शक्ति अल्प छे, युवाननी विशेष छे. जो जीव एक
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(11)
केशी भने प्रदेशीनो संवाद.
चिनना
जीवा राजन
सरखो होय तो पराक्रम पण एक सरखं हो, जोइए, परा' क्रममा भिन्नता छे माटे समलक्षणयुक्त जीवो कहेवाय नहीं
अने ते विरोध प्राप्त थतां शरीरथी जीव भिन्न सिद्ध थतो नयी. केशीकुमार-एक पुष्ट अने मोटुं पंखी होय ते जेटला भारतुं उद्वहन करे तेटलो भार दुर्बल नाना पंखीथी उपडातो नथी. त्यां शरीर शक्तिरूप साधननो अभाव हेतु छे. मोटा पंखीमां शरीरशक्ति विशेष, नाना पंखीमां शरीरशक्ति अल्प तेथी तेना जेटलो भार उपाडी शकातो नथी. किंतु जीवो तो सर्व समलक्षणवंत छे, माटे समलक्षण जीवोनुं छे एम हे राजन्
तुं जाण. प्रदेशी-हे भगवन् में जीवता चोरने तुलामां जोख्यो, पश्चात् गळे पाशथी मारी नाख्यो, मरेलाने पश्चात तुलामां आरोही जो. ख्यो तो पण प्रथम जेटला भारनो हतो तेटलोज रह्यो, टंक प्रमाण पण हीन थयो नहीं, तेथी में विचायु के जो देहथी जीव भिन्न होय तो जीवनो अपगम थतां मृतक चोर शरीर करी हीन थर्बु जोइए पण थयुं नहीं, तेथी सिद्ध ठर्यु के-जीव
देहनी ऐक्यता छे. केशी-चामडानी धमणमां वायु पुरीने जोखवी, अने पश्चात् वायु
काढी नांखी जोखवी, वायु पुरीने जोखेली धमण करतां वायु काढी नांखी जोखेली धमणमां वारु भारनी न्यूनता
थाय छे ? प्रदेशी-हे भगवन् ना भारमा कंइ न्यूनता थती नथी. केशी-जो त्यां भार वधतो नथी तेम घटतो नथी तो अमूर्त आ.
मानो देहमां शो भार होय ? के जेथी जीव नीकळ्या पश्चात्
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परमात्मदर्शन. चोरतुं शरीर भारमा घटे ? वायुरूपी छे, शरीरी छे, आत्मा अरूपी, अशरीरी छे, अन्यत्र गतिमां गमनकर्ता आत्मा सूक्ष्म
शरीरी जाणवो. ( इति षष्ठं प्रश्नोत्तरं). . प्रदेशी-एक चोरने में ककडे ककडा करीने जोयो, त्वचादि सप्त
धातुओनुं निरीक्षण कर्यु मल मूत्र पण अवलोक्युं पण क्याय
जीव देखायो नहीं, माटे जीव देहनी ऐक्यता सिद्ध ठरी. केशी-हे राजन् वनोपजीवि जनवत् तुं मूढ छे. प्रदेशी-कोण ते वनोपजीवि. दृष्टान्त. केशी-जे काष्ट छेदन विक्रयथी स्वआजीविका निर्वहे छे, ते वनो
पजीवि पुरुषो कुहाडी करवतादि उपकरणो लेइ तथा पकाववानां अन्न लेइ वनमां गया, त्यां तेओए एक पुरुषने कर्जा के अमो काष्टार्थे आगळ जइशें, तुं आ सूकुं अरणिर्नु काष्ठ अने आकडान काष्ठ बेमांथी अनि उत्पन्न करी रसोइ पकाबजे, एम कही ते वनमां गया, पेलो पुरुष केटलोक वखत निद्राधीन थइ पश्चात् अरणीना काष्टना खंडोखंड करी अग्नि जोयो पण देखायो नहीं, तेम आकडाना लाकडाना खंडोखंड करी जोडे पण अभि दीठो नहीं, तेथी विलखो थयो, चरम महरे ते पुरुषो आव्या, अने आने कहेवा लाग्या केरसोइ तइयार थइ छे ? त्यारे मूढ पुरुषे कयु के अग्नि विना शीरीते रसोइ करूं ? त्यारे तेओए कहुं आ अरणि अने आकडाना लाकडामां अने अग्नि छे तेम कह्यु हतुं. तेनु केम? त्यारे तेने कह्यु के-बन्ने जातिना काष्ठना खंडोखंड करी जोयु पण अनि दीठो नहीं, त्यारे तेओए जाण्यु के, आ महा मूर्ख छे, पश्चात् तेओए अरणिकना काष्ठने नीचे मूकी, उपर सूकं छाणुं मकी आकड़ाना काष्ठथी मथन करी अग्नि उत्पन्न
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कशी भने प्रदेशीनो संवाद.
करी ते वडे रसोइ पकावी. सर्वेए खाधु, पश्चात् सर्वे पोताने
घेर गया, आ दृष्टांतनी पेठे हे राजन् ! तुं पण मूर्ख छे. प्रदेशी-तमो निपुण, बहुविद् छो तो सभा समक्ष तुं मूर्ख छे _एम केम मने कह्यु ? ए केहेबुं तमने अनुचित छे. केशी-मनुष्य लोकमां हे राजन् केटली सभाओ छे ? प्रदेशी-राजसभा, गाथापति सभा, ब्राह्मण सभा, अने चोथी
रूषिसभा जाणवी. केशी-ते सभाओमां अपराध करे तेने दंड शो आपवो ? प्रदेशी-राजसभा, गाथापति सभा, अने ब्राह्मण सभामां अप
राध करनारने अनुक्रमे मोटी लघु शिक्षा करवामां आवे छे
अने ऋषिसभामां अपराध करनारने वाणीवडे तर्जना कराय छे. केशी-हे राजन् ! तुं जाणतो छतो मने केम उपालंभ आपे छे
कारण के तुं कुयुक्तिवडे वारंवार मारी प्रतिज्ञा सत्य छे एम कही वक्रपणुं धारण करे छे. माटे तुं अपराधी अमारो करेलो दंड युक्त छे (इति सप्तम प्रश्नोत्तरं).
" वृक्षनी शाखाओ कंपवा लांगी ते देखीने मूरि कहे छे. केशी-आ वृक्षनां पांदडां डाळीओ कोण हलावतुं हशे ? प्रदेशी-वायु हलावे छे, त्यां शो संदेह छे ? केशी-हे राजन् तुं वायु देखे छे ? प्रदेशी-ना किंतु वायु स्पर्श वडे प्रत्यक्ष देखाय छे पण चक्षुथी
देखातो नथी. कशी-वायु जेम त्वाय प्रत्यक्ष छे, तेम ज्ञान गुणवान् जीव मानस
प्रत्यक्ष छे, एम निश्चय जाण.
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परमात्मदर्शन. प्रदेशी-कुंथुओमा अने हस्तिमां शीरीते समपरिणामी जीव होय?
शी रीते ते साचुं मानवू, लघु स्थानमा लघु वस्तु अव. स्थान युक्त छे, मोटी वस्तुनुं मोटा स्थानमा अवस्थान युक्तछे केशी-हे आयुष्मन्-प्रदीप प्रभानो दृष्टांत अत्र जण, दीपक मोटी
शाळामां मूक्यो छतां तेंटली सर्व शाळाने तेनो प्रकाश व्यापीने रहे छे, तेम-कुंभमा मूक्यो छतां ते कुंभनो ज उद्योत करेछे, तेम आत्मा जेवडा शरीरने अवगाही रह्यो होय छे तेटला शरीरनेज चेतना गुणवडे द्योतन करे छे त्यां जरा पण
शंसय नथी. इति. प्रदेशी-हे भगवन् आपे अनादि कालथी लागेली एवी मिथ्याटेव मारी आज टाळी आपना सज्ञानरूप सूर्यथी मिथ्यात्व अंधकार दूर टळ्यु. हे भगवन् मारो उद्धार करनार आप छो, इत्यादि स्तुति करी वन ग्रही पोताना घेर गयो. बीजा दिवसे अत्यंत आडंबर सहीत भाव अभयदानरूप समकित दाता गुरूने वंदन कयु, विशेष अधिकार रायपसेगी सूत्रमा छे. श्री महावीर प्रभुए श्रेणिकरामाने भाव अभयदान अप्यु, श्री नेमिनाथमभुए श्री कृष्णमहाराजने भाव अभयदान अर्यु, तेना जेवो अन्य कोइ जगत्मा उपकार नथी, मारे सद्गुरू भाव कल्पवृक्ष दृष्टांतने सार्थक छे, सुरनरनी उपमाथी. दानगुग सर्वमा श्रेष्ट छे, अने तेथी धर्मोत्पत्ति छ, एम ज गाणं गुरूश्रीरूप जंगम तीर्थन प्राप्ति दुर्लभ छे, ग्रामानुग्राम वि. चरंता सद्गुरूनी प्राप्ति दुर्लभ छे, स्थावर तीर्थ पण भूत तीर्थकरादिनु स्मरण करावे छे, स्थावर तीर्थ उपर जेवी भाव भक्ति श्रद्धा होय छे तादृशी श्रद्धा भाव भक्ति जो सदगुरू
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(16)
गुरुतीर्थ.
उपर थाय तो आत्मा शिघ्र परमात्मपद पामे, भाव तीर्थ पोतानो आत्मा समजत्रो, अनंत गुग तेमां भर्या छे, जो तेनी यात्रा कोइ मुमुक्षु धारे तो अवश्य मुक्ति पद पामे. आत्मारूप प्रभुना दर्शनार्थम् जतां प्रथम चतुर्दश पगीयांरूप चौद गुग स्थानक उल्लंघतां क्षपक श्रेणिरूप दोरी झाली आगळ चढतां बारमा गुण्डागे चारघातीयां कर्मना संपथी आत्माना अ संख्यातमदेशरूप महेलमां जत्राय छे, अने तेमां विराजित परमात्मानां साक्षात् कैवल्यचमुथी दर्शन थाय छे, पश्चात् आत्मा परमात्मनां दर्शन करे छे, त्यारे अलौकिक स्वरूपवाळो बने छे, अने त्यांने त्यां रहे छे. पश्चात् अघातिक कर्म क्षपणथी परमात्मस्वरूप बनी स्वयमेव प्रकाशे छे. यावत् भावतीर्थनी यात्रा थर नथी तावद सांसारिक भ्रमणपंचमूलभूतरागद्वेषनी ग्रंथि छेदानी नथी माटे तेनी मातिन हेतु स्थावरतीर्थ अने जंगमतीर्थ छे. जंगमतीर्थनी सेवा भक्ति श्रद्धा, नमन, स्तुत्यादिद्वारा भावतीर्थ दर्शन थाय छे, यथा पोतानो आकार जेवो होय तेवो आदर्शमां जोवाथी भासे छे तथा जंगमतीर्थ स्वरूपगुरूमहाराजना आलंबनथी यादृक् आत्मानुं स्वरूप होय तादृक देखाय छे. आत्मानो प्रकाश सूर्य तथा चंद्रथी थतो नथी, किंतु स्वीय आत्मानो प्रकाश सद्गुरुद्वारा थाय छे, परपुद्गलसंगी आत्मा परभावी थइ भवभ्रमणामां भूल्यो, मोह मायामां झूल्यो, आत्मानी अनंत ऋद्धि डुल्यो, पण गुरुनी यात्रा करतां पोतानुं स्त्ररूप समजायुं, माटे गुरु समान अन्य तीर्थ स्वात्म निर्मळकारक नथी, गुरु तेज परम जंगमतीर्थ छे, गुरुनी सेवा तेज गंगा नदी जाणवी, गुरुनी कृपादृष्टि तेज मारी
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परमात्मदर्शन.
(१९) शुभ गति छे, ए प्रमाणे गुरु महाराज तीर्थरूप जाणवा, तीर्थ वे प्रकारना छे. १ लौकिक तीर्थ, २ लोकोत्तर तीर्थ. वेळी लोकोत्तर तीर्थ द्विधा छे, वळी तीर्थ बे भेदे छे, स्वतीर्थ अने परतीर्थ, वळी तीर्थ बे प्रकार छे, द्रव्यतीर्थ अने भावतीर्थ. वळी शुद्ध अने अशुद्ध, ए बे प्रकारे तीर्थ छे. स्थावरतीर्थ करतां पण सद्गुरू विषे अधिक श्रद्धा भक्तिभाव जागशे, त्यारे नक्की समजवू, के आत्मा कल्याण यशे, धर्मपद धर्मगुरुनी स्तुति पोताना आत्माने निर्मल करे छे, गुरुनो राग, भवभ्रमण त्याग करावे छे, गुरुने तीर्थनी उपमा आपवानो हेतु ए छे के गुरुराज संसार समुद्रमांथी भव्य जीवने तारे छे, एवा धर्म गुरुराजनुं शरण मन वचन अने कायावडे याओ, गुरुराजने सत्य देवनी उपमा आपवामां आवे छे, गुरु रूप देव तो पुण्य अने पापकृत्य स्वरुपने अवबोधे छे, अने भव्यात्माओ उपर गुरु देव सदा काल कृपादृष्टि फेंके छे, अज्ञानरुप अंधकार कोइनार्थी नाश पामे नहीं तेवा मिथ्यात्व अंधकारनो नाश गुरुमहाराज उपदेशद्वारा करे छे, गुरु तेज देव छे, श्री गौतम स्वामीना मनमां विद्यानो अहंकार हतो अने आत्मा छे के नहीं तेनी शंका हती, तेमन पण श्री महावीर गुरुए शंका टाळी चारित्र अर्पा हित कयु, देवताओ पण पंचमहाव्रत धारी ध्याननिष्ट महामुनि गुरुने नमस्कार करी स्तवे छे, माटे गुरु तेन सापेक्षतः देव जाणवा, आत्मानी सिद्धि गुरुथी थाय छे सर्व शाश्वत सुखरुप मांगल्यमद गुरुराज छे, माटे आयमां स्तुतिरूप गुरुतुं मंगल कर्यु, आत्मा पोताने स्वयमेव जाणे छे ते दर्शावे छे.
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(२०)
भात्मा पोताने जाणे.
"दुहा." तेने तेहिज ओळखे, अवर म ज्ञाता कोय, ज्ञाता तेहिज आतमा, नित्यपणे जग जोय. २
भावार्थ-आत्मा पोते पोताने ओळखे छे, आत्मा विना अन्य कोइ आत्मानो ज्ञाता नथी, सर्व पदार्थ ज्ञानवडे जे ज्ञाता छे, ते आत्मा जाणवो, आत्मानुं स्वरूप अन्यथा यतुं नथी, एज अद्भूत आश्चर्य छे. जगत् अवस्थितसर्व पदार्थो ज्ञानथी जगाय छे, अने स्वकीय शुद्ध स्वरूप पण ज्ञानथी जगाय छे, स्व परने ज्ञानमा विषयभूत करनार तेज आत्मा छे, आत्माथी भिन्न जड वस्तु. मां ज्ञान गुण नथी, ज्ञान गुण शक्ति अलौकिक छे, निगोदीया जीवोने पग आत्माना आठ रुचक प्रदेश निर्मला छे, ज्ञान त्यां चेतन अने चेतन त्यां ज्ञान सदा रह्यं छे, निमित्तना योगे आत्मा पोताने सयमेव अनायासे ज्ञानयी निहाळे छे, कोइ सिंहर्नु बच्, नानुं धाव' कोइ भरवाड पकडी लाव्यो. पेलं सिंहनुं बच्चु बकराना टोळा भेगुं रमा फरवा लाग्युं, अने मनमां समजे छे के हुँ पण बकरांना जे छु, मारी जाति अने बकरांनी जाति जुदी नथी, एम समजतुं हतुं, प्रतिदिन ते सिंहवाल मोटुं थवा लाग्युं, एक दिवस बकरां सहित वाडामां ते बच्चु बेलुं हतुं त्यारे एक सिंह आव्यो, पेटु सिंहनुं बच्चु मनमां विचारवा लाग्यु के-अहो आ सामुं प्राणी देखाय छे ते विचित्र छे, तेनुं शरीर अने मारु शरीर मळतुं आवे छे हुँ जे टोळामा रहुं हुं तेना शरीरनां लक्षण अने मारा शरीरनां लक्षण भिन्न भिन्न छ, आ सामुं जे प्राणी देखाय छे तेना सरखो हुँ छु, एम ज्ञान थतां एकदम वाडामांधी बहार नीकळी गयो अने सिंह समुदायमां भळ्यो, तेम आत्मा पोतार्नु
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परमात्मदर्शन स्वरूप स्वयमेव आलंबन योगे पामी परमात्मस्वरूपमय बने छे कह्यु छ के
अज कुल गति केसरी लहेरे, निज पद सिंह निहाळ; तिम प्रभुभक्ते भवि लेहेरे, आतमशक्ति संभाळ.अजित. . परमात्म स्वरूप ओळखी तेनुं ध्यान करता पोतानो आत्मा पण परमात्म रूप भासे छे, परमात्मा अने मारामां भेदभाव नथी, मलीन सुवर्ग समान संसारी भन्यात्माओनी स्थीति छे, अने शुद्ध कंचन समान सिद्धात्मानी दशा छे, मलीनतानो अपगम ध्यानयोगे थतां परमात्मरूप बनी त्रिभुवन पदार्थ गुग पर्याय ज्ञाता बने छे, ज्ञातृत्वशक्ति आत्मामा रही छे, जडमां ज्ञातृत्वशक्ति नथी,जा पदार्थ ज्ञेष छे, जेटला ज्ञेय पदार्थ तेटलुं ज्ञान समनg, ज्ञेय पदार्थ अनंत छे, तेथी ज्ञान पण अनंत कहेवाय छे, अने ते प्रमाणे अनुभवमां आवे छे, ज्ञातृ शक्तिनो आधार चेतन (आत्मा) छे, आस्मानो कही नाश थतो नथी, माटे नित्य छ, ययपि अविद्याना योगे अनेक शरीरो धारण करे छे तो पण पोताना स्वरूपने त्यजसो नथी, अज्ञानी जीव एम जो कहेबा लागे के आत्मा नदी पण तेना वचनथीज सिद्ध थाय छे के आत्मानी अस्तिता छे तो ते जीव नास्ति एम कहे छे, अवियानो नाश थतां अवश्य यथातथ्य सहेजे आत्माच भासे छे, आत्मा अनंत सुखनो धगी छे, सुख दुःखनी चेष्टा आत्मानी प्रेरणाए थाय छे, इष्टानिष्ट ज्ञाता आत्मा छे, जो ए आत्मतत्त्व सम्यक् रीत्या ओळखाय अने तेनुं शान थाय तो समानी पेठे सर्व जगत् देखाय, आत्मामां जे चित्तवृत्ति राखी चितवन करे छे ते पुरुषो आत्माने सहेजे ओळखे छे अने अखंड सुख भोक्ता बने छे,
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(२२)
भारमा स्वस्वरूपमा समायछे.
"दुहा." समाय तुं तारा विषे, तारु ताहरी पास; मारु मारु क्या करे, धरतो परनी आश. ३
हे आत्मा तुं तारा स्वरूपमा समाय छे, तारी गति सर्वना करतां न्यारी अने अनंत आनंद आपनारी छे, तुं कोइ अन्य पदार्थमा रहेतो नथी, प्रकाशथी तमः समूह यथा सर्वथा न्यारुं छे, तेम अनंत शक्तिधारक चेतनथी सांसारिक स्वरूप सर्वथा न्यारु छे. अवळी परिणतियोगे परवस्तुने पोतानी मानी ममताना पासमां पडे छ पण सहजानंदी आत्मा विवेकथी तुं विचार के-स्वमामा भासेलुं जगत् जेम मिथ्या छ, तेम बाह्यवस्तु पण तारी नथी, चेतन तारी ऋद्धि ताराथी जरा मात्र भिन्न नथी, जेम मृगथी कस्तुरी भिन्न नथी तेनी दुटीमांज रहेली छे, तेम आत्मानी ऋद्धि पोतानामां भरी छ, परमात्मपद आत्मामां छे, आचार्यपणुं पण आत्मामां छे, तेम उपाध्याय, साधुपणुं पण आत्मामा छ, ज्ञान, दर्शन, चारित्र अने तप वीर्य आदि गुगो पण आत्मामा रह्या छ, अनंत मुख पण आत्मामां छे, तो बहिरात्मभावे हे चेतन परनी आगाथी मृढ बनी मारु मारु एम शुं चिंतवे छे ? परवस्तु तारी कदी थवानी नथी. एम निश्चय जाण, तारी ऋद्धि ताराधी न्यारी नथी, खोजे सो पावे. आ कहेवत आत्मामां योजवी, अनादि कालथी चेतन मिथ्यात्वयोगे स्वस्वरूपना अनुपयोगे परवस्तुने पोतानी मानी जन्म जरा मरण उपाधि पामी, किंतु हवे निर्णयपूर्वक जा. णवामां आव्यु के-परवस्तु अचेतन जड विशिष्ठ छे, हुं एनो नथी, ए मारु नथी, हुं मारा स्वरूपे समायो छु, हुं जे जे वस्तुओ चक्षुथी देखें छु, घ्राणे सुंधु छु, जिव्हाए स्वादु छु, ते ते वस्तुओमा
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परमारम दर्शन, हुं नथी माराथी सर्व पदार्थ जणाय छे, तो पण ते पदार्थोमा हुँ नथी. सर्व पदार्थो प्रकाश्य छ, अने हुँ प्रकाशक छु, मारी जे वस्तु नथी तेनी ममता हुं केम राखं ? पुद्गलनी ऐंठ आ जीवे बहिरात्मभावे वा क्षुधावेदनीना उदये भक्षण करी पण ते पुद्गल अंते मारुं नथी, एम निश्चय करी स्वस्वभावे स्थिर रहेQ एवं हिताकांक्षा.
"दुहा." देखी आत्मस्वरूपने, जाण्यो पुद्गल खेल; न्यारो तेथी आतमा, चिदानंद गुणरेल ॥४॥
भावार्थ-परोपकृतिमान् श्री सद्गुरुद्वारा ध्याननी एकाग्रताए आत्मस्वरूप भास्युं त्यारे आ सांसारिक प्रपंच सर्व पुद्गल खेल जाण्यो, ते खेलथी आत्मा न्यारो छे अहो शुं आश्चर्य, सर्व सांसारिक पदार्थो नाशवंत छे. अने आत्मा अविनाशी छे, आनंद, अने ज्ञाननो धारक आत्मा छे, आत्मस्वरूप बतावे छे.
पद. . चेते तो चेतावं तनेरे, पामर प्राणी-ए राग. आतम रूप देखं आजेरे सकल मुख, अचल अखंड योगी, अभोगी अशोगी भोगी; स्वभावे ते नहीं रोगीरे-सकल सु० आत. १ देहमांहीं वसनारो, देहातीत मन धारो रूप रंग थकी न्यारो रे-सकल.
आत० २ जाणे सुख दुःख सहु, चेतन छे जग बहु; व्यापी घट घट बहरे-सकल
आत० ३ नाम ठाम जेने नहीं, नहीं जाति भाति कही; पोतानामा पापो रही रे-सकल. आत. ४
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भात्मा स्वस्वरूपमा समायछे. निरंजन निराकार, ज्ञानदृष्टि आरपार; बुद्धिसागर सुखकार रे-सकल० आत० ५
परिपूर्णसुखरूप आत्मानुं स्वरूप-निर्विकार अखंड छे, आत्मतत्त्वमापक जीवोने कोइनी स्पृहा रहेती नथी. कोइ निंदा करे वा स्तुति करे तोपण हर्ष शोक रहित आत्मज्ञानी विचरे छे, राग द्वेषनी परिणति मंद पडे छे, समये समये आत्मिक सुख संतति बृद्धि पामे छे, तृष्णानुं मूळ छेदाय छे, परस्वभाव प्रवृत्ति स्वयमेव विरमे छे, अने आत्मस्वभावाष्टत्तिद्वारा नित्ति मुखोद्भव थाय छे, देहमा वसतां देहातीत अवस्थानो भोगी आत्मा बने छ, काकविष्टा सम पौद्गलिक विषय मुख लागे छे, परनिंदातो आत्मज्ञानीने गमती नथी, आत्मस्वरूपना ध्यानी पुरुषने जे सुख थाय छे ते अवाच्य छ, आनंदनो समुद्रज जाणे होयनी एवो अध्यात्म ज्ञानीनो आत्मा बने छे, आत्मज्ञानीनी दशा प्राप्त थया विना आत्मिक सुखनो अनुभव पमातो नथी, आत्मा परम पूज्य छे अंतरात्मयोगी थइ परमात्मपदमय ध्यानथी थता अनहद सुख भोगी आत्मा स्वयमेव स्वस्वरूपी थइ रहे छे.
“दुहा." ध्यानथी दृष्टि फेंकुं ज्यां, त्यां सहु स्वरूपे स्थिर; शत्रु मित्र स्वप्नु भयुं, गइ अनादिकु पीर ॥५॥
भावार्थ-मन, वचन, कायानी एकाग्र आत्म स्वरूपे थतां जगत् विचित्र देखायुं, प्रथम ध्याननी पूर्व सर्व जगत् हस्तिना कजनी पेठे चंचल उन्मत्त लागतुं हतुं, ते हवे ध्याननी एकाग्रताए स्वस्वरूपें स्थिर थतां सर्व जगत् पोताना स्वरूपे स्थिर देखायु, मारुं मन चंचल तो सर्व वस्तु चंचल अने मारु मन स्थिर तो सर्व
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मदन
(५)
वस्तु स्थिर एम देखायुं तेथी सार लीधो के - मन जो आत्मामां रमे तो मोक्ष अने मनः परभावमां रमे तो भवभ्रमणता, एनो निश्चय थयो, आत्मज्ञान विशेष थतां स्थिरता सर्वत्र भासे छे, कछे के
भासे आतम ज्ञान धुरि, जग उन्मत्त समान; आगे दृढ अभ्यास से, पत्थर तृण अनुमान ॥५॥
सारमां सार ग्राह्य, आराध्य आत्मा छे, ध्यानथी आत्मामां रमतां शत्रु मित्र स्वमनी पेठे मासे छे, अर्थात् शत्रु मित्र आत्म ज्ञानीनो कोइ नथी. अनादि कालनी लागेली कुठेव तो नाशी गइ अने शुद्ध चेतना प्रगट थइ, मिथ्यात्वपणुं टळ्युं, आत्मानुं शुद्ध स्वरूप मगट थतां सहजानंद प्रगटे छे, आत्मज्ञानीओ एवी दशामां रमे छे, तेमने पुनः पुनः नमस्कार थाओ.
46
"
दुहा.
अहं बुद्धि परमां धरी, परमांही बंधाउं;
अहं बुद्धि जो आत्ममां, तो हुं क्या रंगाउं ॥ ६ ॥
परवस्तुमां अहंपणानी बुद्धि धारण करी कर्मरूप परवस्तुमां बंधाउं छु, पण जो आत्मामां अहंपणानी बुद्धि थइ एटले आत्मा पोते हुहुं अन्यमां हुं नथी, आवी बुद्धि थतां हुँ आत्मा कोइथी क्यांव रंगातो नथी. अर्थात् कर्मे करी लेपातो नथी, जे महात्माओ आत्मामांज वृत्ति राखे छे ते आत्मानी ऋद्धि पामे छे, परमां चित्तवृत्ति राखवाथी अमुक दुष्ट अमुक लंपट अमुक बेरी इत्यादि बुद्धि थाय छे पण पोताना आस्मानी सत्तालु चितवन कर्याथी पोतानुं स्वरूप प्राप्त थाय छे.
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- ( १६
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गुरूने नमस्कार.
66
दुहा.
(4
"
"
11911
काल अनादि परिणभ्यो आतम जडने संग; अशुद्ध परिणामे करी, करतो नाटारंग, पोताना अज्ञानथी, पाम्यो दुःख अनंत; स्वपदज्ञानाति ग्रही, थयो सिद्ध भगवंत,
॥८॥
भावार्थ - अनादि कालथी जीव कर्माष्टक ग्रही औदारिकादि शरीर ग्रही जड संगे दुग्ध पयोवत् परिणम्यो छतो अने ते कर्मना योगे पोताना आत्माना थयेला अशुद्ध परिणामे करी चतुर्गति रूप संसारमा जन्म जरा मरणनां दुःख ग्रही नाटारंग करतो फर्या करे छे, आत्मानो शुद्ध परिणाम थतां भव प्रपंचनी बाजी नाश पामे छे, पोताना एटले आत्माना अज्ञानयी जीव अनंत दुःख पायो. शरीरने आत्मा मानी बहिरात्मभावे रमतो फरतो पोतानुं स्वरूप भूल्यो, दुःखनो समुह पोताना अज्ञानथीज प्राप्त थाय छे. पण सद्गुरु समागमे आत्मस्वरूप जाण्युं तेमां रमणता करी कर्मनो नाश कर्यो, अने मोक्ष स्थाननी प्राप्ति करी सिद्ध भगवंत थयो ए सर्व आत्मज्ञाननुं फल छे.
दुहा
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99
जेनाथी निज आतमा, समजायो सुखकंद; त्रिकरण योगे भावथी, नमुं गुरू क्रमऊंड. ॥ ९ ॥
सुखकंद अनंतगुणविशिष्ट आत्मस्वरूप जे गुरुना बोधथी समजायुं ते सद्गुरु महाराजना चरण कमळद्वयने भावी मन वचन अने कायाए करी नमस्कार करुछु आत्माने ओळखावनार गुरु छे, गुरु पण आत्मा छे अने भोता पण आत्मा छे, किंतु
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परमात्मदर्शन.
( १७ )
गुरुनो आत्मा ज्ञानवंत छे अने सेवक श्रोताजननो आत्मा निर्मल नयी तेने जगावनार गुरु छे, उपदेशक धर्मतीर्थ छे, माटे गुरुनेज मोढुं तीर्थ जाणवु, सुदर्शना चरित्रमां चारण सुनिए चंद्रगुप्त राजाने महाफळ जाणी उपदेश आप्पो छे, सद्गुरु समान त्रिभुवनमां मोढुं कोई तीर्थ नथी. सद्गुरु मोहुं तीर्थ छे एवं मनमां श्रद्धा थतां सम्यकत्वनी प्राप्ति थशे, हृदयमां गुरुनी मूर्ति स्थापन करी तेनुं एकाग्रचित्तथी भक्ति पूजन ध्यान करवायी आत्माने अलौकित शांति थशे अने दररोज एम ध्यान घरवायी पोताने साक्षात् सद्गुरु जाणे होयनी एम साक्षात् भासे थशे अने गुरु माहात्म्यथी अनुभव ज्ञाननो प्रवाह वहन थथे, अने दुर्गुणोनो अवश्य नाश यतां मन प्रसन्न थशे अने आत्मा सद्गु णधाम थशे.
"
"
44 'दुहा. " सद्गुरु वण भव दुःखनो, परिहारक नहि कोय ॥ ते सद्गुरु नित्य वंदीए, जन्म सफलता होय ॥१०॥
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भावार्थ-भव दुःख अंतकारक सद्गुरु विना अन्य कोइ नथी, ते सद्गुरुने प्रतिदिन वंदन करवायी जन्मनी सार्थकता छे, घोर कर्म करनारा दुष्टजनो पण गुरुना उपदेशथी गुरुता पामी शारीरिक मानसिक दुःख संक्षय करी पंचमीगतिने पाम्या छे, पामे छे, अने पापशे.
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"
दुद्दा.
साधन साध्यापेक्षथी, जे पाळे आचार;
राग रोष मद जीतता, सफलो तस अवतार ॥११॥
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( २८ )
गुरुने मनस्कार.
रागादिक त्यागी शमे, करशे आतम ध्यान; सम्यग् ज्ञान क्रिया थकी, थाशे ते भगवान्. ॥१२॥ी
भावार्थ- जे भव्यात्माओ पंच महाव्रतादिनो आचार साधन साध्यानी सापेक्ष बुद्धिथी पाळे छे, अने राग रोषने जीने छे, तेनो माचार सफळ छे, अने ते दुनियामां जन्म्यो सफळ छे, क्रोध, मान, माया, लोभ, निंदादिनो जय करी शमभावे जे मुमुक्षुओ आत्मध्यान करशे, अने सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्रियानुं अवलंबन करशे ते पोते भगवान् थशे, कर्मपळना नाशथी आत्मा ते सिद्धात्मा थइ शके छे, किंतु अभव्यजीव मुक्तिपद पामी शकता नथी, कारणके अभव्यजीवोमां मुक्ति पामवानो स्वभाव नथी. अभव्य जीवोनुं उपादानकारण शुद्ध थइ शकतुं नथी, भव्यजीवोनुं उपादानकारण शुद्धसामग्री योगे थइ शके छे, संसारमां परिभ्रमण करवानुं मुख्यकारणराग अने द्वेषमाचकर्म छे, नोकषायसहचारि भावकर्ममां छे, क्रोध, मान, माया, अने लोभनो राग द्वेषमां अंतर्भाव छे, सिद्ध थता जीवोने राग द्वेष अनादि सान्त भांगे छे, अभव्यजीवने रागद्वेष अनादि अनंत भांगे छे, रागअने द्वेषनो क्षय संवरथी सर्वथा थाय छे, बहिरात्मभावे राग द्वेषनो क्षय थतो नथी, ज्यारे अंतरात्मपणुं माप्त थाय छे, त्यारे राग द्वेषनो क्षय थइ शके छे. कधुं छे केराग द्वेष के त्याग बिन, मुक्तिको पद नांहि; कोटि कोटि जप तप करे, सवे अकारज थाय ॥ १॥
रागद्वेषना क्षय विना मुक्तिपद प्राप्त धनुं नथी, राग द्वेषना त्याग विना कोटि कोटि जर तप करे तो पग लेखे थतुं नयी, प्रथम आत्मस्वरूप गुरुसमक्ष जाणवामां आवे, जडनुं यथातथ्य
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~
परमारमन. स्वरूप जाणवामां आवे पश्चात् जह अने आत्मानी भिवता मालुम परता विवेक प्रगटे, विवेकयी आत्मतत्वमादेय लक्ष्यमा आहे, अने अनीवतख हेय जाणे पश्चात् आत्मा विचारे के-मारामां अनंत मान, अनंत दर्शन, अनंत क्षायिक चारित्र, अनंत वीर्य छ, हुं स्वतंत्र छु, किंतु अनादिकाळथी राग द्वेषना योगे परतंत्र छु, राग द्वेष ए माई आत्मस्वरूप नथी, एम विषारतां सर्वत्र सर्व माणी उपर तथा वस्तुओ उपर समभाव प्रगटे, दुनीयानी सर्व वस्तुने शमभावे निरखे, राग द्वेषनो क्षप समभावे आत्मध्यामे प्रवर्ततां थाय अने सम्यग्ज्ञान अने क्रियाथी मुक्तिपद मळे माटे जे मुनिवरो रागादिकनो त्याग करी वायुनी पेठे अपतिबद्धताए विचरी स्वआत्महितमां लीन रहेशे, ते. क्षणिक आयुष्यनी सफलता करे छे.
को किरिया जड बोलता, तरशुं अम संसार; कर्मनाश किरिया थकी, सफलो अम आचार ॥१३॥ बहिर क्रियामां रावता, अंततत्त्व न भान; भूल्या भवमां भटकता, क्रियाजडी अज्ञान. ॥१४॥
भावार्थ-कोइक क्रियारूचिनीवो एम माने छेके-अमोक्रिया करवाथी संसार समुद्र तरीशु, अमो जे क्रियाकांडनो आचार आदरीये छीए ते कर्म नाश करशे, माटे किया सफल छे, जे जे क्रिया छे ते सफल छ, यथा दोहन, भक्ष गकिपा, ते प्रमाणे पडि. लेहण (प्रतिलेखन) आदि क्रियाओ पण कर्म नाश करवाथी सफल छ, ए प्रपाणे साध्य आत्मतत्सना अजाणपणे अंतरक्रिया ने ध्यानादिकनु सहा नहीं जाणवायी क्रियाजह पुरुषो भवा
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(३०)
ज्ञान भने क्रियानो संवाद.
भटक्या, भटके छे, अने भटकशे, अने परमात्पश्द केम पामी शके, साध्य सापेक्षताए क्रिया सफल छे, एम एकांत बाह्य क्रियायी जडात्माओ इष्टफळ जे मोक्ष ते पामी शकता नथी.
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"" दुहा.
कोइ ज्ञानने मानता, ज्ञान सत्य जग सार; विना ज्ञान क्यां मुक्तिफल, ज्ञाने भवजल पार॥१५॥ एकांते एम जे ग्रहे, करे कदाग्रह चित्त; आत्मतत्त्व पाम्या विना, होय न तत्त्व प्रतीत ॥ १६ ॥
केटलाक भव्यात्माओ ज्ञानने मुक्तिप्रद माने छे, आत्मतत्त्वना ज्ञान बिना मुक्ति नथी, ज्ञानथी संसार समुद्र तरी शकायछे, आत्मतत्त्वना बोध विना जे भव्यो एकांते हृदयमां हर कदाग्रह धारण करी स्वेच्छार प्रवर्ते छे, ते परमात्मपद पामी शकता नथी, आत्मतत्त्व पाम्या विना मोक्षनी प्राप्ति थती नथी.
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ܕ
दुहा
युवत्यंग निरख्या थकी, विषय तृपिं नहि थाय; भोजनज्ञान थया थकी, भूख न भागे भाय ॥१७॥
भावार्थ - युवतिना अंगनुं निरीक्षण करवाथी विषयिपुरुषोने विषयी तृप्ति यती नथी, तेमन बरफी, दूधपाक, मिष्टान्न भोज ननुं जाणपणुं मात्र थवाथी, उदरपूर्ति यती नथी, माटे तेनी क्रिया कराय तो इष्ट फलनी सिद्धि थाय छे, माटे क्रियानी मुख्यताए फल सिद्धि छे.
ज्ञानवादी - क्रियावादी ! तमो क्रियाने फलदायक कहोछो ते युक्त नथी, क्रिया करवाथी संसारनी वृद्धि थाय छे, रांध,
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युद करवू, ए आदि क्रिया छे तो तेथी मुक्ति नथी, किंतु कर्मबंध छे, माटे क्रिया संसारदिहेतुभूत छ, माटे ज्ञान
तेज सार छ, कर्मक्षय ज्ञानथी थाय छे. क्रियावादी-क्रिया यकीज मोक्ष छे, क्रिया बे प्रकारनी छे, १
कर्मकिया. २ धर्मक्रिया, जे क्रियाथी संसारमा परिभ्रमण करवू पढे अने आश्रवनुं ग्रहण थाय ते कर्मक्रिया जाणवी, तेनो तो त्याग करवो योग्य छे. पण जेनाथी जन्म जरा मृत्युना दुःख नाश पामे एवी धर्म क्रियाओ कही छे, ते करवी जोइए, कारण के तेनाथी कर्मनो नाश थाय छ, किंतु
ज्ञान थकी थतो नथी माटे क्रिका तेज मोक्ष मार्ग छे. मानवादी-धर्मने माटे क्रियानी जरुर नथी, आत्मानी मुक्ति तो ज्ञानयी थाय छे, शरीरनी क्रिया, वचननी क्रिया शुं मोक्ष आपी शके ? ना नहीं. मननी क्रिया विकल्परूप मोक्ष भापी शक्ती नथी, किंतु आत्मानुं ज्ञान थवाथी मुक्ति प्राप्ति छे, ज्या ज्या क्रिया त्यां कर्मनो बंध समजवो, कारण के क्रिया जड छे तो तेथी उत्पन्न थनार फळ पण कर्म जडछे,
तो मुक्ति क्याथी मळे १ माटे ज्ञानथी मुक्तिनी सिद्धता छे. क्रियावादी-क्रियाने जड कहो किंतु क्रियाधी जडनो नाश थाय
छे, कारण के सजातियथकी सजातियनो नाश. थायछे, इंटनो नाश मोगरथी यछे, तेम कर्मछे ते जडछे तो तेनो नाश क्रियाथी थायछे माटे क्रियाथी नाश थवो तेज मोक्ष जाणवू, ज्ञानथी कर्मनो नाश शी रीते थाय? माटे कर्म ना. शिका क्रिया जाणवी, मानसिक, वाचिक, कायिक क्रिया करवायी कर्म नाश थायछे, माटे ते करवी जोइए अने क्रिया ज मोक्ष फलदारे.
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(R)
बान ने किया संवाद.
ज्ञानवादी-तमोए जड थकी जडनो नाश थयो एम को, ते युक्त
नधी तमारा मत प्रमाणे तो एमज सिद्ध थायछे के पाप कर• वाथी पण कर्म नाश थाय, कारण के पाप पण जड छे अने कर्म पण जडछे माटे पापथी कर्मनो नाश थाय तोपश्चात् दया, सत्य, तप करवानी शी जरुर होवी जोइए ? अने जो एम होय तो पापी जीवोनी शीघ्र मुक्ति थवी जोइए अने धी अने पापी एवो भेद भाव पण असत्य थाय किंतु शास्त्रमा वीतराग भगवते तो एम कथुछ के पाप कृत्यथी कदापि मुक्ति
मळतीनथी, माटे ज्ञानने सत्य मानो. अने तेनाथी मुक्ति थायछे. क्रियावादी-हे ज्ञानवादी ! तुं मारं कथन समजी शक्यो नहीं,
प्रतिपक्षी जडथकी प्रतिपक्षी जडनो नाश थायछे, कर्मन पति. पक्षी पाप नथी माटे पापथी कर्मनो नाश थतो नथी, पुण्य अने पाप ए बे परस्पर प्रतिपक्षीछे माटे पुण्यथी पापनो नाश थायले. पुण्यनी क्रिया दुःखनाशक छे माटे धर्षनी क्रिया
अवश्य करवी जोइए. ज्ञानवादी-पुण्यनी क्रियाथी कंइ कर्मनो नाश यतो नथी, कारण
के पुण्य पण कर्मस्वरूपछे, तो पुण्यथी कर्मनी वृद्धि थाय पण कर्मेनो नाश तो थतो नथी, माटे ज्ञानीन मुक्ति थायछे एम मानवू जोइए. क्रियावादी-भला ठीक पुण्यथकी कर्यनो नाश न थाय तोपण
शातावेदनीयकर्म बंधाय अने तेथी उत्तम कूळमा जन्म थाय धन, पुत्रादि ऋद्धि प्राप्त थाय तेथी सुख मळे ते पण क्रियान फल छे, अने तेथी अनुक्रमे कर्मनो नाश धाय माटे कियाकाउनी साफल्यताछे. मानवादी-पुण्यथी शातावेदनीयकर्म बंधायछे अने तेमो भोग
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परमात्मदर्शन.
AAAAAA
भोगवा अवतार धारण करतां जन्म जरा मरंणनां दुःख प्राप्त थायछे, अवे अवतार धारण करतां पश्चात् ते भवर्मा वळी नवां कर्म बंशय पण कर्म बंधनो पार आवे नहीं,
ज्ञानथी कर्मनो नाशथायछे माटे तेनो स्वीकार करचो योग्यछे. क्रियावादी-अमो क्रियाथी कर्मनो नाश मानीये छीए ते सयुक्त
छ, उत्तम अवतार आव्या विना धर्मनां कार्य थइ शकतां नथी, पडिलेहण, प्रतिक्रमण, प्रभुपूजा, इत्यादि क्रियाओ पापनो नाश करे छे, अने नवीन कर्म प्रतिबंधकद्वारा आत्मा नि.
मळ थतां मुक्तिनी प्राप्ति थायछे माटे क्रिया सफलछे. ज्ञानवादी-धर्मनी क्रिया उत्तम कुळजन्म धनसंपत्ति आपनारीछे, पण तेथी कर्मनी वृद्धिछे. पडिलेहण, प्रतिक्रमण, प्रभुपूजा, पण कर्मनो नाश करी शकती नथी, जरा सूक्ष्मदृष्टिथी वि. चारो के-ज्ञान विना क्रिया करवाथी शुं फल थइ शके ? ज्ञानामिः सर्वकर्माणि, भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन ज्ञान अग्नि सर्व कर्म बालीने भस्मीभूत करे छे, माढे हठ कदाग्रह त्यागी, ज्ञान मुक्तिमद मानवू ते योग्यछे. क्रियावादी-क्रिया विना ज्ञाननी उत्पत्ति थती नथी, ज्ञाननो
अभ्यास ज्ञानने उत्पन्न करेछे, प्रथमथी कंई ज्ञान होतुं नथी. विद्याभ्यास करतां करतां ज्ञाननो प्रकाश थायछे, सारमा समजवानुं के ज्ञानाभ्यासरूप क्रियाथी ज्ञान उत्पन थायछे तो "क्रियाथी कर्मनो नाश थाय एमां कंइ शंका नथी, माटे क्रि
याथी कर्मनाश मानवो योग्यछे. शानवादी-ज्ञान विना सर्वत्र अंधारूं, जे कर्मनो नाश करवानोछे
ते कर्मनु स्वरूप जाण्या विना कर्मनो नाश शी रीते थाय ? चैत्रने मैत्र नामना पुरुषे कडं के, तारो चक्रवेग नामनो शत्रु
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(३४)
ज्ञान भने क्रियानो संवाद.
छे ते तने मारवा धारेछे, हवे जो चैत्रने चक्रवेग ओळखतो होय तो चैत्रनो घात करे, अन्यथा तेनो नाश करी शके नहीं. तेम दृष्टांतथी समजवानुं के कर्मनो नाश करतो ते कर्मनुं ज्ञान थया विना बनतो नथी माटे ज्ञानथी कर्मनो नाश मानवो जोइए. · क्रियावादी - फक्त वस्तुनु ज्ञान थवा मात्रथी फलनी सिद्धि यती नथी, एक माणसने भोजन करवानुं ज्ञान थयुं पण भोजननो मुखमा प्रक्षेप करे चावे त्यारे तेनी उदरपूर्ति थाय अने क्षुधा मटे, माटे क्रियाज फलप्रद छे. ज्ञान तो जाणवा मात्र छे, जेम कोइ तारु (तरनार ) जळमां तरवानुं जाणेछे किंतु जलमां प्रवेश करी हाथ पग हलावे नहीं तो बुडी जाय तेम कर्मनुं ज्ञान थतां कर्म नाशकारक क्रिया नहीं कराय तो कर्मनो नाश तो नथी, परंतु क्रियाकरणथी कर्म नाश थाय छे.
ज्ञानवादी - तमारुं कथन ठीकछे, किंतु ज्ञान विना वस्तुनुं यथातथ्य स्वरूप जाणी शकातुं नथी, तो पश्चात् ते आदरी शकार्तुं नथी, मोदक बनाववानुं जाणे अने ते भक्षण कर्याथी अमुक फायदो थायछे ते जाणी शकाय तो त्यार बाद करी शकाय, जे वस्तुनुं ज्ञान नथी ते वस्तुनी क्रिया शी रीते करी शकाय ? - दृष्टांत तरीके जागो के - कोई मनुष्यने बीजा मनुये कं के शास्त्रमां आकाशगामिनी विद्या कहीछे, तेनुं ज्ञान थाय तो आकाशमा उडी शकाय, त्यारे पेला मनुष्ये शास्त्रनी शोध करी आकाशगामिनी विद्या जाणी, त्यार बाद क्रिया करी आकाश गमन करवा लाग्यो. अत्र समजवानुं के आकाशगामिनी विधातुं ज्ञान थतां तेनी क्रिया थइ शके, माटे ज्ञाननी मुख्यता छे, ज्ञान बिना कोई क्रिया थई शकती नथी
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परमात्मदर्शन.
(३५) क्रियावादी-हे ज्ञानवादी! तमो मूळ हेतुथी विरुद्ध उतरोछो,
तमारे विचार, के-ज्या ज्या क्रियाछे त्यां अवश्य ज्ञान रघु होयछे, ज्या साकर त्यां साकरनो रस, ज्यां केरी त्यां तेनो रस अवश्य होयछे, तेम ज्यां क्रिया होयछे त्यां अवश्य ज्ञा. ननी अस्तिताछे, मारे ज्ञाने जाणतां क्रिया करती वखत पण गौणभावे ज्ञान होयछे, मुख्यरूपे क्रियाछे, अने क्रियायी कर्मनो नाश थायछे माटे क्रिया तेज कर्मनाशकछे. ज्ञानवादी-हे क्रियावादी तारुं वचन अयुक्तछे, ज्या क्रिया होय
त्यां ज्ञान होय एवी व्याप्ति नथी, फोनोग्राफ वाजींत्रमा क्रिया बोलवानीछे, पण ज्ञान नथी, आगगाडी (अमिरथ) मां गमननी क्रियाछे पण ज्ञान नथी, माटे तारं कथन असत्यछे, वळी जेना माटे तुं क्रिया करवानुं कहेछे ते आत्मा तो अंते सिद्धपणुं पामी अक्रिय थायछे, अने सिद्धमा क्रिया नथी, अक्रियछे, आत्माना घरनी क्रिया नथी, तो ते क्रिया निष्फलछे, सिद्धमा ज्ञानछे, अने ते तो आत्मानो गुणछे माटे
ज्ञानयी मुक्तिछे एम जाण. क्रियावादी-क्रिया आत्मा करेछे, माटे आत्मानीछे, शरीर कंड
क्रिया करतुं नथी माटे क्रिया प्रमाणीभूता कर्मक्षये जाणवी. ज्ञानवादी-आत्मा कंइ फक्त एकलो क्रियाने करतो नथी, शरीर
धारी आत्मा क्रिया करेछे, अने ज्यारे शरीरनो त्याग करी सिद्धपद पामेछे त्यारे क्रियापणुं टळेछे, आत्मा संसारमा कर्मयोगे सुख दुःख योगे त्रण प्रकारनी क्रिया करी शकेछ, व्यवहार नये क्रियानो कर्त्ता आत्माछे, निश्चयनयथी जोतां क्रियाकारक आत्मा नथी माटे आत्मानी क्रिया कही शकाय नहीं. क्रियानादी-अमि लाकडाने बाळी भस्मीभूत करी स्वयमेव शान्त
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( ३६ )
ज्ञान भने क्रियानो संबाद
( ओळवार) जायछे, तेम क्रिया पण कर्मने बाळी पोतानी मेळे नाश पामे, माटे क्रियाथी मुक्तिछे.
ज्ञानवादी - हे प्रियतम, जरा विचारशो तो मालुम पडशे के -क्रिबाथी मुक्ति एवं साथी जाण्युं. उत्तरमां कहेतुं पड़शे के ज्ञानथी, ज्ञान न होय तो क्रियाने जाणी शकाय नहीं, तो पछी शी रीते करी शकाय ? तमोए कहां के क्रियाथी मुक्ति छे आ वचन मलाप मात्र छे, देखो, प्रसनचंद्र राजर्षि ज्यारे सूर्यना सामी दृष्टि राखी ध्यान करता हता त्यारे ते कोइ क्रिया करता नहोता, अने ज्ञान ध्यानथी केवलज्ञान पाम्या, विचारो के त्यां कइ क्रिया करता हता, कंह नहीं, भरतराजाए आरसा (आदर्श) भुवनमां भावना भावतां भावतां केवलज्ञान उत्पन्न कर्यु, मरुदेवा माताए हस्ति उपर भावना भावतां केवलज्ञान उत्पन्न कर्यु त्यां कं क्रिया करी नथी, फक्त ज्ञानवडे कर्म खपावी केवलज्ञान पाम्या जीवो देखायछे, माटे ज्ञानछे तेज सत्यछे.
क्रिपावादी - हे ज्ञानवादी तमोए मसत्रवंद्र राजर्षितुं दृष्टान्त ज्ञाननी सिद्धिने अर्थे आयुं, ते ज्ञानने सिद्ध नहीं करतां कि याने सिद्ध करेछे, प्रथम समज के ध्यानछे ते क्रियारूपछे, ध्यानना चार प्रकारछे, आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, शुक्लध्यान, ए चारमाथी प्रथमनां वे ध्यान दुर्गति अर्पेछे, काउस्सग्गमां प्रसन्नचंद्र ऋषिए प्रथम दुर्ध्यान ध्यातां नरक गति उपार्जन करी पश्चात् पश्चात्ताप पामी धर्मध्यानादि ध्यावतां कर्म खपावी केवलज्ञान पाम्या तेनुं कारण धर्मध्यान अने शुक्लध्यानरूप क्रियाछे, बार भावनाओ पण धर्मध्यानमां आवी, मरुदेवी माता अने भरतराजाए धर्मध्यानादि ध्यातां
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परमात्मदर्शन,
(३५)
केवलज्ञान पाम्युं, माटे ते पण क्रियायीज, केवलज्ञान, मुक्ति आदि पाम्यांछे. श्री विजयलक्ष्मीसूरीजीए पण कळे के ध्यानक्रिया मनमां आणीजे, धर्म शुक्ल ध्यायीजेरे; इत्यादि, माटे क्रिया कर्म क्षय करीछे.
ज्ञानवादी - हे क्रियामां राचनार हजी तुं पोतानो मत छोडतो नथी, मारा वचन उपर लक्ष आप, ज्ञान विना ध्यान थइ शकर्तुं नयी जेनामां ज्ञान छे ते ध्यान करी शके छे, जुओ भरतराजा. जेनामां ज्ञाननो सर्वथा अभावछे त्यां ध्याननो अभावछे, जुओ, घट जडछे तेमां ज्ञान नथी, जो, ध्याननुं ज्ञान न होय तो ध्यान शी रीते शके ? प्रथम ज्ञान अने पश्चात् क्रिया, वळी समजनुं के ज्ञान विना जरा पण क्रिया थइ शकती नथी, एक दिवसना जन्मेला बालकने पण स्तन पान प्रवृत्तिम संस्कार बुद्धि कारण छे, सुख दुःखने पण जगावनार ज्ञानछे, ज्ञान रुपराजानी क्रिया दासीछे, माटे ज्ञानना हुकम प्रमाणे क्रिया थइ शकेछे, ज्ञानरूप राजाना करतां क्रिया दासी मोटी कहेवाय नहीं. ज्ञान देखतुंछे, अने क्रिया आंधळी छे, ज्ञान बिना चारित्र नयी, ज्ञान बिना वैराग्य तो नथी, ज्ञान विना देव गुरु धर्मने ओळखी शकाता नथी, अरे विचारो तो खरा, ज्ञानथीज आत्मा पण ओळखाय छे, पण क्रिया ओळखी शकती नयी. ज्ञानथी बीजाना मननी बात जाणी शकाय छे, कोइ अंध पुरुष वनमां फरतो फरे किंतु अंधपणाथी - खाडामां चालतां पण पडी जाय, तेना सामो वाघ आवे तो कइ दिशा तरफ जनुं ते देखी शके नहीं, अने जो देखतो होत तो दुःखथी बचे माठे ज्ञान ते देखता पुरुष समान छे अने क्रिया आंधळा पुरुष समान छे.
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ज्ञान भने क्रियानों संवाद.
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aanan
कां छे के
ज्ञान श्वासोश्वास, करे कर्मनो खेह; पूर्व क्रोड वर्षी लगे, अज्ञाने करे तेह; देश आराधक क्रिया कही, सर्व आराधक ज्ञान.
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इत्यादि विचारी जोतां ज्ञानथी कर्म नाश पामे छे, वळी समकित पण ज्ञानथी उत्पन्न थाय छे, माटे ज्ञानना समान कोइ नथी. ज्ञान बे प्रकारे छे, १ व्यवहार ज्ञान, २ निश्चय ज्ञान. गणीत, व्याकरण, ज्योतिष्य, वैदक, नाटक सायन्स आदितुं ज्ञान व्यवहार ज्ञानछे, एनाथी आत्मानुं हित एकांते थइ शकतुं नथी. षड्द्रव्य तेना द्रव्यगुण पर्याय सात नय, भप्तभंगी, स्याद्वादरीत्या आत्मानुं स्वरूप उपयोगे जाणवुं ते निश्चय ज्ञान छे, आत्मानुं स्वरूप ध्यावुं, व्यवहार अने निश्चयनयथी आत्मानुं स्वरूप जाणी आत्म स्वभावमां रमकुं तेनुं नाम निश्चय ज्ञान छे, ए ज्ञाननी प्राप्तिथी कोटी भवनां कर्म नाश पामे छे, माटे ते ज्ञान आदरणीय छे, ए ज्ञाननी प्राप्ति थतां पश्चात् राग द्वेषनो क्षय थाय छे, जे ज्ञानथी आत्मा परमात्म पद पामे ते ज्ञाननी प्राप्ति पूर्व पुण्ययोगे थाय छे, तेनुं नाग सम्यग् ज्ञान छे, ए निश्चय ज्ञाननुं सद्हेतु श्री सद्गुरु महाराज छे, तथा वीतराग शास्त्र छे, एनुं अवलंबन कर वीतराग शास्त्र कथित सम्यग् क्रियानुं अवलंबन करवाथी कर्म क्षय थाय छे, क्रिया वे प्रकारनी छे १ शुभ क्रिया २ अशुभ क्रिया, जे क्रियाथी पुण्य थाय छे, ते शुभ क्रिया, व्यवहार नयथी आदरवा योग्य छे, जे क्रिया करवाथी पापार्जन थाय छे ते अशुभ क्रिया जाणवी. वीतराग भगवंते सम्यग् क्रिया शास्त्रमां प्ररुपी छे, ते सम्यग् क्रिया जाणवी.
सद्गुरु- सम्यग् ज्ञानश्री सम्म क्रिया जाणी शकाय छे मादे
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परमात्मदर्शन ज्ञान पूर्वक क्रिया लेखे छे, ज्ञान क्रिया विना पांगळु छ, अये क्रिया आंधळी छे, ए बेनो संगम था मुक्ति पामी शकाय छे. श्री तीर्थकर महाराजा त्रण ज्ञानना स्वामी छतां चारित्र अंगीकार करे छे, तपश्चर्या अंगीकार करे छे माटे क्रियानी जरुर छे, ज्ञान अने क्रियाथी मुक्ति छे, माटे शास्त्रमा कछु छ के-ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः ए सिद्धान्त वाक्यानुसार प्रवृत्ति करवी. मोक्षाभिलाषी भव्यात्मा
ओने द्रव्यानुयोग ज्ञान अत्यंत उपकारी छे, सम्यग् ज्ञानथी बलिहारी छे. ज्ञानरूप सूर्योदय थतां पिथ्यात्व अंधकारनो नाश थाय छे. जेम जेम आत्म स्वरूपनुं विशेष ज्ञान थतुं जाय छे, तेम तेम क्रोध, मान, माया, लोभनी मंदता थती जाय छे. ज्ञानदशा थया विना जीवनी मुक्ति थती नथी, आत्मज्ञानथी मुक्ति थाय छे. शुष्कज्ञानीनां लक्षण कहे छे.
___ "दुहा." वाक् पटुताए विद्धता, जन मन रंजन हेत; पोथी पुस्तक वाचतो, शाश्वत पद क्युं लेत ॥१८॥ अहं बुद्धि अभिमानी, यावत् परमां थाय ॥ तावत् ज्ञानी को नहीं, पामे नहि शिव ठाय ॥१९॥ ___ भावार्थ-मनुष्योनां मन खुशी करवाने माटे वाणीना वाचाल पणामां जेनी विद्वता समायी छे, एवो शुष्क ज्ञानी पोथी पुस्तक वांचतो छतो अने परने उपदेश आपतो छतो मुक्ति पद पामे नहीं, लोकोमा मारी विद्वत्ता दर्शाववी, लोको मारी प्रशंसा करे अने हुँ जगत्मा प्रसिद्ध थाउं आ प्रकारनी इच्छाथी जे ज्ञाननां पुस्तको भगे छे, व्याख्यान वांचे छे, तेवा पुरुषो मुक्तिपद पामी शकता लथी. आत्मभावे ज्ञान परिणमतां परमात्मपदमय आत्मा बने छ।
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(१०)
ज्ञानयी मोक्ष. श्रावकथी व्याख्यान वांची शकाय नहीं, कारण के ते संसारमा रांची माची विषयसुख भोगवतो संसार असार जाणीने पण पडी रह्यो छे, अहंकारबुद्धिथी परमां अहंपणानी बुद्धि थायछे, हुं मोटो आ सर्व मारुं, मारा समान दुनियामां कोण विद्वान छ ? एवा विचार थायछे त्यां सुधी निश्चयज्ञानीपणुं नथी, शुष्क शा. नीपणुं जाणवू, एवा शुष्कज्ञानी परमात्मस्वरूप तरफ लक्ष आपता नथी अने बहिरात्मपणुं धारी मुक्ति स्थान पामता नधी. ___आत्मज्ञानी लक्षण कहे छे.
“दुहा." वैराग्यादिक गुण वृंद, आतममां प्रगटाय: समभावे निरखे सदा, परमातम पद पाय. ॥२०॥
भावार्थ-वैराग्य, संवेग, समता, सहनशीलता, निलोभता, आदि गुण समूह आत्मामा प्रगटावे अने गुणधारकआत्मा, शमभावे शत्रुमित्र, कंचन, उपल, निंदक, वंदकादिने देखे, त्यारे परमात्म पदनी प्राप्ति थायछे.
“दुहा." त्याग विसंग विना कदी, थाय न आतम ज्ञान; आत्म ज्ञान विना कदी, पामें नहि शिव ठाण ॥२१॥
भावार्थ-संसारपंधनभूतपुत्रस्त्रीधनादिकना ममत्वरूप त्यागाविना अने धैराग्य विना आत्मज्ञान थतुं नथी, अने आत्मज्ञान विना शिवस्थाननी माप्ति नथी, सारांशके-संसारनी मोहमालनो त्याग अने तिस्थिरज्ञान. वैराग्यथी सद्गुरु उपदेशद्वारा आत्मस्वरूप समजी : आत्मस्वरूपमां लीन थायछे, आत्मज्ञानीओने अमुकमा अमुक दोषछे, अमुक क्रोधीछे, अमुक मारो शत्रु, जावी
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परमात्मदर्शन भावना थती नथी, ते तो एमज विचारेछे के जीवनो कोई शत्रु मित्र नथी, तैम संबंधी पण नथी, पारकी निंदा करवी तेमां मने कंइ फायदो नथी, आत्मज्ञानीओ तो एम विचारेछे के-सर्व जीव कर्मना वशे जुदी जुदी सारी नठारी आचरणा करेछे, तेमां हुं सर्व ना आत्मानी निंदा करूं के शरीरोनी निंदा करूं, अलबत विवेक थी विचारता कोइ पण निंदाने पात्र नथी, ज्यां सुधी मनमां निंदा करवानी बुद्धि थायछे त्यां सुधी कोइ अपेक्षाए धर्मी नथी, तेम परनी निंदा करतो साधु वा श्रावक होय तो पण ते चंडाल समान मनोवृत्तिथी जाणवो, शुष्कज्ञानी मुखथी आ संसार असारछे एम मुखथी पोकारेछे, पण संसारमा आसक्ति राखी भवभ्रमण करेछे, शुष्कज्ञानी चारित्र अंगीकार करी शकतो नथी, केटलाक श्रावको उपरथी त्याग विराग देखाडी संसारमा शुकरनी पेठे आसक्ति धारण करेछे तेम ज्ञाननुं फल विरति पाम्या विना स्वजन्म निफल गुमावेछे. केटलाक जीवो उपरचोटीया वैराग्यथी दीक्षा अंगीकार करी पूना माननी लालचे गच्छमतना कदाग्रहे नड्या छता आत्मस्वरूपमा ज्ञान विना बहिरात्मपद पामता परस्पर एक बीजानी निंदा करी टोळं भेगुं करवानी बुद्धिथी, व्याकरण, न्याय आदि अभ्यास करी एक बीजानुं खंडन मंडन करेछे तेवा साधु. ओ आत्मज्ञान पामी शकता नथी पण जे साधुओना हृदयमा सं. सारनी असारता वसी रहेलीछे, अने शांत मुखाकृतिथी विचरेछे, सदगुरुनु तथा गीतार्थ साधुनी संगति करेछे ते आत्मज्ञान पामी कर्म क्षय करी मुक्तिपद पामेछ, संसारमा वसतां त्याग विरागप' पामधुं मुश्केलछे, त्यागी अने वैरागीपणुं अध्यात्म दशावाळा मुनि. वरो पामी शकेछ, अने आत्मामां अनंत सुख अनादि कालथी तिरोभावे रडूंछे, ते पण आत्मानुभवी भव्यो जाणेछे, काया मा.
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आरमज्ञानिनु लक्षणे. याने आत्माथकी भिन्न जाणे ते पुरुषो तेनो त्याग करी शकेछ, संसार बलता अनि समान छे, संसारनां दरेक कार्यों उपाधिमय छ, संसारनी उपाधिमां वसतां आत्मानुं ध्यान थइ शकतुं नथी, माटे संसारी उपाधि त्यागी सद्गुरु उपदेश सांभळबो के जेथी वैराग्य प्राप्त थाय, अने वैराग्य प्राप्त थतां गुरु महाराजने पूछी आ. स्मान स्वरूप ओळखg, अने ते आत्मस्वरूप जाणतां तेनुं ध्यान धरतां कर्मनो नाश थायछे, माटे आत्मस्वरूपाभिलाषिओए त्याग अने वैराग्यनी प्राप्ति माटे प्रयत्न करवो.
__ " दुहा" योग्य होय ते आदरे, हठ कदाग्रह त्याग; वैराग्ये मन वासियुं, तस परमातम राग. ॥२२॥
भावार्थ-आत्मतत्त्व तथा तेनी प्राप्तिना अव्यभिचारी हेतुओने भव्यात्मा अंगीकार करे आत्मतत्त्व जेनाथी पामी शकाय नहीं एवां साधनोमा हठ कदाग्रहपणानी बुद्धिनो त्याग होय, सदगुरु महाराजा भव्यात्माओनी विचित्र प्रकृति जोइ जे साधनथी जेने फायदो थाय ते साधन व्रतादि तेने अंगीकार करावे, त्यारे अतिशय प्रेमभक्तिथी गुरु वाक्यने शिष्य अंगीकार करे, आत्मार्थी जीव भवभयथी बीक पामतो विचारे के-जो दुर्लभ मनुष्यावतार पाभी स्वछंदाचारीपणे वर्तीश तो अनंत भवभ्रमण करवां पडशे माटे गुरुनी आज्ञा मस्तके धारी मत कदाग्रहनो त्याग करे अने संसा. रनी अनित्यता विचारे-कर्मनुं स्वरूप सूक्ष्मदृष्टिथी विचारी सा. रांश ग्रहे के.-आ जगत्मा सम्यग्धर्मथी आत्महित छ, एम चिंतन करी जलपंकजवत् संसारभावी न्यारो रहे, तेवा भव्यात्माओने परमात्मपदनो राग याय किंतु संसारमा विष्टा शुकरवत् अहनिश
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परमादमदर्भन. विवेकथी शून्य हृदयवाला, अने परवस्तुने पोतानी मानी हर्ष शोक धारण करनारा रागांधवहिरात्मीयोने परमात्मपदनो राग यतो नथी, वैरागी, त्यागी, मत कदाग्रहवर्जित जीवो परमात्मपदपामी शके छे. आ आत्मार्थीनुं लक्षण छ.
" दुहा." समकित जेगे अर्पियुं, ते मोटा गुरु देव; निमित्त गुरु ते आत्मना, कीजे तेहनी सेव. ॥२३॥ त्यां त्यां गुरुनी बुद्धिथी, भटके जाणे रोझ; गुरु गुरु शी वस्तु छ, नहीं करतो तस खोज ॥२४॥ धोढुं तेटलुं दुध एम, तेवी गुरुमां बुद्धि; गुरुबुद्धि सर्वत्र जास; तस नहि आतम शुद्धि ॥२५॥ सेवे सद्गुरु प्रेमी, चरणकमल आधीन; पामे ते परमार्थने, थावे शिवसुखलीन.. ॥२६॥ सद्गुरु सम कोनो नही, भवमांहि उपकार; कामकुंभश्रीसद्गुरु, भवजल तारण हार ॥२७॥ प्रत्यक्ष उपकारी गुरु, परोक्ष जिनवर होय; एहवी बुद्धि प्रगटतां, धर्म योग्यता सोय. ॥२८॥ गुरुश्रद्धाभक्ति विना, लागे नहीं उपदेश; भण सुणवू शास्त्र, ते पण हेतु क्लेश. ॥२९॥ सद्गुरु वचनामृत विना, तत्त्वस्वरूप न पाय; सदगुर सेवंतां थकां, समकितरन प्रहाय. ॥३०॥
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॥१॥
तारक बुध्धिथी गुरु, कथन करे उपदेश; . श्रध्धा भक्तिथी सुणी, आदर करो विशेष. ॥३१॥ . भावार्थ-अनंतकरूगायोगे केवलपरमार्थबुद्धिथी अनंत भव दुःखवल्लिछेदककुठारसदृश धर्ममूलभूतसमकित रूप रत्न जे सद्गुरुए अर्पण कर्यु ते गुरु मोटा देव समानछे, देव गुरु धर्मनी श्रद्धाथी समकित आत्मामा उत्पन्न थायछे, देव वीतराग अष्टादश दूषण रहीत होय तेने खीकारवा. यतः जिनेन्द्रो देवता स्तत्र, राग देष विवर्जितः हतमोहमहामल्लः, केवलज्ञानदर्शनः सुरासुरेंद्रसंपूज्य, सद्भूतार्थप्रकाशकः कृत्स्नकर्मक्षयं कृत्वा, संप्राप्तं परमं पदं ॥२॥ जीवाजीवौ तथा पुण्यं, पापमाश्रवसंवरौ; बंधोविनिर्जरामोक्षौ, नवतत्त्वानि तन्मते. ॥३॥ तत्र ज्ञानादिधर्मेयो, भिन्नाभिन्नविवर्तिमान कर्म शुभाशुभं कर्ता, भोक्ता कर्मफलस्य च ॥४॥ चैतन्यलक्षणो जीवो, यश्चैतदू विपरीतवान् ॥ अजीवःसः समाख्यातः पुण्यं सत्कर्मपुद्गलाः ॥५॥
इत्यादि ..वीतराग शासनमा जिनेन्द्र भगवान् देवछे, ते राग द्वेष रहित छे, जेणे मोहरूप महामल्लनो सर्वथा नाश कर्योछे, अने जेमने केवळ ज्ञान अने केवलदर्शन साकार निराकार उपयोग तरीके भास्यांछे, वैमानिक अने भूवनपति आदिनाचोसठ इंद्रोवडे जेनां चरण कम
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परमात्मदर्शन.
पूजायाँछे, एवा वीतराग देव जाणवा, वळी तीर्थकर देव त्रिभुव. नवत्ति धर्मास्तिकायादिक पदव्योना गुण पर्याय आदि सत्य प. दार्थोना प्रकाशकछे, जेवं जगत्तुं स्वरूपछे तेवू तेमणे केवलज्ञाने प्रकारथुछे. असल्य जल्पननुं तेमने कंइ प्रयोजन नथी, दयालु अने उपकारीपणाने लीधे सत्य तत्वनी प्ररुपणा करीछे, भरत, ऐरवत अने महाविदेह क्षेत्रमा तीर्थंकरोनी उत्पत्ति थायछे वीश स्थानकमांनु गमे ते स्थानक उत्कृष्ट परिणामयोगे आराधवाथी त्रिभुवन आराध्य तीर्थकरनामकर्म बंधायछे, अनादिकालसंगी रागद्वेष स्वरूप महामल्ल शत्रुनो जेणे सर्वथा नाश, स्वशुद्धआत्मिकपरि. णामथी कर्योछे. एवा तीर्थकर महाराजाने चोत्रीश अतिशय अनुक्रमे उत्पन थायछे, स्वआचार कल्प अने भक्तिभरथी गमन करी प्रभुनी प्रभुता दर्शाववा माटे चतुर्निकायना देवता देवीओ प्रभुने लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान अने केवळदर्शन उत्पन थतां अ. लौकिक विचित्र मनहर देवताइ अष्टमहापातिहार्य युक्त समवसरण नी रचना करेछे ते उपर बाह्य अने अंतर्लक्ष्मीवडे सुशोभीत त्रिज गतारक तरणि, पांत्रीस वाणीगुणधारक, परमपूज्य परमपवित्र प्रयोदश गुणस्थानवर्ति श्री देवाधिदेव तीर्थकर महाराजा वचना: तिशये युक्त देवता मनुष्यतिर्यचोत्पन्न बार पर्षद अग्रे मधुर ध्वनिथी बहिरात्मा, अंतरात्मा, परमात्मास्वरूप तेमन देवगुरू धर्म अने नवतत्व, षड्द्रव्यनुं म्वरूप, भव्योना कल्याणार्थे प्रकाशेछे, अने देशनान्ते साधु, साधी, श्रावक, श्राविका रूपचतुर्विधसंपनी स्थापना करेछे, तेमां सर्वथी मुख्य चतुर्विध संघमां मुनिराज छे, धर्मनी अपेक्षाए संघछे, वीतराग आज्ञा मुजब ज्या प्रवर्तन नथी, ते संघ कहेवाय नहीं, मोहजनितभ्रमणाए केटलाक श्रावकना कूळमा उत्पन यह भावको साधु साध्वी विना श्रावक वर्गनेज संघ
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( ४६ ) गुरु, प्रणतवन्री अड़ा करावे छे, तरीके अज्ञानथी गणेछे, ए वर्तन वीतरागशाखयकी विरुद्धछे, साधुना सत्तावीस अने श्रावकना एकवीस गुण मळी अडताळीश गुणयुक्त संघ कड़ेवाय छे. ज्ञान दर्शन चारित्रधी भिन्नाभिन्न अने व्यवहारनयथी शुभाशुभ कर्मनो कर्ता तथा भोक्ता, चैतन्यलक्षण युक्तजीवतच्वनी प्ररुषणा तीर्थकरे करीछे. जीवथी विपरीत अजीवतत्त्व प्ररूपण तेमने कछे, एम नव तत्त्वनुं प्ररूपण कर्ता वीतराग देवछे, आयुष्य मर्यादा पर्यंत पृथ्वीतळ पावन करी अघातीयां कर्म खपाची अशरीरी अनामी यह सिद्धस्थानमां पहोंची सादि अनंति स्थिति अजरामर पद भोगवेछे, एवा देवने देव तरीके मानवा, वीतराग आज्ञाधारक पंचाचार, पंचमहाव्रत आ राधक, गुरुने गुरु तरीके स्वीकारवा, वीतरागकथीत मोक्षमार्ग स्वरूप धर्मने धर्मरूपे स्वीकारतो, आ त्रण तश्वनी श्रद्धा गुरु महाराजना उपदेशाथी थाय छे, माटे गुरु महाराज समकितदायक मबल निमित्त कारण छे तेमज गुरु तरीके सदा स्वीकारी तेमनी आज्ञानुसार चालवू. विवेकशून्य अज्ञानवासीत चित्तवाळो मूढपुरुष परमार्थबुद्धिहीन जेटलुं प्रवाही घोळं तेटलं दुग् एत्री अज्ञानताथी रोज पशुनी पेठे सर्व मुंडे मां, सर्व धर्मोपदेशकोम गुरुबुद्धि धारण: करेछे ते अज्ञानी स्वआत्मशुद्धि करी शकतो नयी अने भविष्य काले सद्गुरूश्रद्धा विना करशे पण नहीं, आत्मतत्त्वज्ञ, अध्यास्मोपयोगी गुरुनुं आलंबन अनादिकाल संलग्न अज्ञाननो नाश करेछे, सहजानंदी आत्मानुभव मंदिरमां म्हाळनार गुरु महाराज प्रत्यक्ष मारा उपकारीछे, अने जिनेश्वर परोक्ष उपकारीछे, एम विवेकदृष्टि जेने प्रत्यक्ष थइ छे ते धर्म पामी शकेछ, गुरु श्रद्धा अने क्षद्धान्तःकरणयी गुरु भक्ति करवायी तेमनी उपकार भव्यात्माने लागेछे, अने श्रद्धा भक्ति विना उपदेश लागतो नथी, गुरुती आज्ञा
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परमात्मदर्शन.
( ४७ )
विना स्वयमेव शास्त्र बांचे तो पण यथायोग्य तत्व तेना हृदयमां परिणमे नहीं, अने विपरीत परिणमे तो अपथ्यसेवननी इव उपदेश निष्फल थाय.
परमार्थथी जोतां तारक बुद्धिथी गुरुराज उपदेश अर्पेछे, ते उपदेश विनयथी अति हर्षे श्रवण करी आदरवा योग्य आदरो, अने त्याज्यने त्यागो. सुगुरुमां गुरुबुद्धि थया विना उपदेश कंड असर करी शक्शे नहीं, ए निश्चय जाणवुं. अने गुरुए जिज्ञासु अने श्रद्धाळुने उपदेश आपवो, पात्र विना उपदेश लागतो नथी.
अज्ञानी मूढ मत कदाग्रही कुगुरुओनी संगतिथी जे लोकोनी बुद्धि विपरीतपणे परिणमीछे, तेमने उपदेशथी असर क्वचित् थाय छे, खारी भूमिमां पतितजलनी जेम निष्फळताछे, तेम खल भवाभिनंदी जीवोने उपदेशनी पण निष्फळताछे, जेनां नीचे लख्या प्रमाणे लक्षण होय तेने उपदेश देवो योग्य छे.
१ संसारनी अनित्यताए वासित चित्त होय.
२ हुं कोण? क्यांची आव्यो ? वयां जश? शुं मारे कर्तव्यछे ? ३ हुं ते कोण ? हुं अने मारुं ते शुं ? ए जाणतो होय अथवा जाणवानी जिज्ञासा होय.
४ भवनो भय लागे एटले जन्म जरा मृत्युधी व्याप्त संसार बळताअनि समान छे तेमां पडीश तो वळी मरीश एवो जेने भय होय.
५ गुरु महाराजनी वाणी उपर पूर्ण विश्वास होय तेप प्रीति होय. ६. सत्य अने असत्यने समजी शकतो होय अने कद्राग्रहीन होय. ७ गुरु महाराजना कथनानुसार प्रवर्तनार होय.
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(८) योग्य भने अयोग्यश्रीता लक्षण, ८ कपट वृत्ति जेने होय नहीं, अने सदाचार प्रवृत्तियुक्त होय. ९ लोकविरुद्धनो त्याग करनार होय. १० विनेय होय अने गुरुनी श्रद्धा सहीत सेवामां तत्पर होय.
इत्यादि लक्षणो जेनामां होय ते उपदेश ग्रहनार उत्तम पात्रभूत थावक वा मुनिपणे पण शिष्यो जाणवा. नीचेनां लक्षणवाळाओने उपदेश लागी शकतो नथी.
__ गाथा. रत्तो दुठो मूढो--पुबिवुग्गाहिओअ चत्तारि उवएसस्स अणरिहा अहवासएहिं परिबुजति ॥१॥ १ संसारनेज सार मानी तेमा अत्यासक्ति धरनार. २ हुँ कोण छु ? मारे शुं कर्तव्य छे ? तेनो पण जेने विचार
थाय नहीं. ३ पापना कार्यों करतां भय पामे नहीं, ४ जीवोनो घात करनार धूर्त शठ मूर्खपणुं जेनामां होय, ५ गुरुना दोषो जोनार, तेमनी निंदा करनार अने गुरुनी श्रद्धा ___ तथा गुरुनो विनय बहुमानरहीत होय. ६ गुरुमहाराजनी वाणी उपर विश्वास, श्रद्धा, तेमज तेमना
उपर प्रीतिरहीत होय. ७ कुगुरु अने सुगुरुनी परीक्षा करवानी जेनामा बुद्धि न होय. ८ कपटी, व्यसनी, तेमज निंदक होय, ९ कुगुरुना फंदामा फसाएल होय अने दृष्टिरागी होय. १० जेनुं स्थिर चित्त न होय, जेम भमावे तेम भमे, विवेकशुन्य
हृदय होय.
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परमात्मदर्शन.
(ve :)
११ गुरु करतां पोताने मोटो माननार, अने पोतानो कको खरो
माननार होय.
१२ उपदेश समजे नहीं अने गुरु उपर द्वेष करे.
१३ अविनयी होय.
इत्यादि लक्षणयुक्त जीवो होय ते उपदेश देवाने योग्य नथी, तथापि गुरुसंगतिथी तेवा जीवाने पण लाभ मळे, एकांत नथी, आत्मज्ञानी गुरु महाराज अवसरना जाणछे, माटे स्वपर लाभार्थे प्रवृत्ति करेछे, योग्य लागे तो उपदेश आपे अने अयोग्य कांगे तो उपदेश आपे नहीं, मौन धारण करे, ज्ञान, दर्शन, चारित्र वीर्यादि गुगोमां ध्यानथी प्रवर्ते, सद्गुरु महाराजा सदा स्वतंत्र आत्मोपयो. गपणे वर्तेछे, धर्मध्यान अने शुक्लध्यानना योगे आत्मा परमानंद स्वरूपमां रमण करी तत्पद प्राप्त करे एम गुरुनी प्रवृत्तिछे, एवा गुरुनी आज्ञासह वर्त.
66 दुहा. " त्याज्यने त्यागी ज्ञानथी, उपादेयशुं देत; करता हस्ता कर्मने, शाश्वत पद झट लेत. द्रव्यकर्म ने भावकर्म, तेनो करी परिहार, समता संगे झीलतां, लहीए भवजल पार. स्वच्छंदाचारीपणं, रोकी सद्गुरु सेव; गुर्वाधीन मन करी, पामो शाश्वत मेव. धन्वंतरिम सद्गुरु, कर्ता कर्मनो नाश; उत्तम वैद्यनी उपमा, तेना थइए दास.
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गुरुनी गुरुवा
कोटा
मूळ विना नहि वृक्ष जग, गुरुगम वण क्या ज्ञान; वांचो पोथी पत्र पण, नहीं टळे अज्ञान. ३६ भणदुं गणवू मानथी, जन मन रंजन काज; आत्मलक्ष्यना ध्यान विण, लहे न शिव साम्राज्य.३७ क्रिया कांड कपटे करी, करतो रंजे लोक; शुष्कज्ञान पण एकलुं, जाणो भविजन फोक. ३८ लाभालाभे सुख दुःख, शत्रु मित्र सम भाव; उदासीनता चित्तमां, भवसागरमां नाव. ३९ निंदो निंदक नेहथी, पूजो पूजक कोइ; धूर्तो कहेशे ढोंगीए, समभावे सब जोइ. ४० अंतसृष्टिगुणतणी, आतममांही अनुप; . बांग बहु बोले सुणी, मनमा राखी चुप. ४१
भावार्थ-ज्ञानथी त्याज्य वस्तुने त्यागी आदरवा योग्य वस्तु स्वरूपज्ञानाधार आत्मा प्रति प्रीति अंतरात्मायोगे उत्पन्न थइ छे एवा मुनिवरो आत्मानी साथे एकतानकी प्रीति करता छता कर्मनो नाश करी झटिति सिद्धि साँधमा प्रवेशे छे, हे आत्मा जेना योगे तारी अशुद्ध परिणति थइछे, एवं द्रव्यकर्म अने भावकर्मने स्वतः शुद्धपरिणतिथी असंख्यातप्रदेशथी दूरफर, समतास्त्रीनी साथे ध्यान रुप सरोवरमां, क्रीडा करतां तुं भवपाथोधि सहेजे उतरी मुक्तिनगर प्राप्त करीश, एम मुनिराज ध्यानमा भावे, अष्टकर्मनो आत्मानी साथे जे बंध तेने 'द्रव्पकर्म कहे छे, अने राग द्वेषनी परिणतिने भावकर्म कहेछ, आत्मस्वरूपमा रमणता करवाथी द्रव्य
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परमात्मदर्शन,
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कर्म अने भावकर्मनो नाश थायछे.
हे शिष्य तुं परमात्मपदनी अभिलाषा राखतो होय तो स्वच्छंदताचारीयपणं टाळी गुरुना आधीन मन करी सद्गुरुनुं सेवन कर के जेथी शाश्वतपद पामीश, कर्मरोगनो नाश करणार्थम् गुरु धन्वंतरी वैद्य समान छे, तेमना दास थइएतो कर्मनो नाश थाय, वैद्य विना दवाओ पोताने फायदाकारक थती नथी, तेम गुरुनी आज्ञामतिविना गमे तेलां सद्व्रतो धारण करीए तो पण यथायोग्य आत्महित थतुं नथी.
.
(५१)
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मूळ बिन वृक्ष क्यों ? अने गुरुगम वण आत्मज्ञान क्यों ? श्रावक वर्ग अविया तथा अविनयना योगे स्वयंगुरु बनी ज्ञानी गुरुनी अपेक्षा राख्या विना पोथी पुस्तक वांचे पण ते ज्ञान सत्यज्ञान तरीके थशे नहीं, पोतानी मेळे वांचेला ज्ञानथी वैराग्यादि गुणो जोइएतेवर प्राप्त थशें यहीं अने शंकादि दोषोनुं निराकरण येथे नहीं. सुनिवर्गने पण गुरुगमद्वारा विनयभक्ति बहु मानथी ज्ञान ग्रह योग्य छे, अने तदर्थम् योगवहनादिनुं शास्त्रमां अनंत arit atara भदंते भव्यात्माओना हितार्थे प्ररूपण कर्यु छे.
मानथी पूजावाना अर्थे जनमन रंजनार्थम् विद्याभ्यास करवो, शास्त्र वांचत्रां इत्यादि सर्व मोक्षहेतुभूत कार्य नथी, आत्माना हितने माटे भणवुं, गणवुं, वांचवं, इत्यादि शुद्ध परिणाम थयो नथी त्यां सुधी शिव साम्राज्य पामी शकातुं नथी. बाह्याडंबरी क्रियाकांडना कपटथी देशोदेश विचरतो छतो मनुष्योने रंजे ते पण आत्मलक्ष्यना उपयोग बिना व्यर्थ छे तेमज क्रियाने नहीं माननार, व्रतादिनो खप नहीं करनार जेने सत्यज्ञान थयुं नथी एवा वाक्पटुताथीज पंडित पद धारण करनार शुष्कज्ञानीनुं एकलं ज्ञान पण आत्महित प्रति थतुं नथी,
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गुल्ली गुप्ता,
लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, शत्रु, मित्र, जीवितव्य, मरण: आदि प्राप्त यता जेनुं समचित्त छ अने सांसारिक पदार्थो मति उदासीनता जेना हृदयमा वर्तेछे एवा सद्गुरुमुनिवर संसारूप समुद्रमा नाव समानछे.
निंदक खुशीथी (बेलाशक ) एवा मुनिवरनी निंदा करो, अने पूजक भावथी भले पूजो, धूर्तों भले ढोंगी फहे, पण एवा. महात्मा सर्वने समभावे निरखे छे. बीजाना भला मुंडा कहे तेमा पोताने शुं ?
- ज्ञानिगुरुमहाराजा आत्मानी गुणसृष्टि अंतर्दृष्टि योगे नीहाळी प्रमुदित थायछे, आत्माना असंख्यातमदेशोछे, एकेक प्रदेशे अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्यादि गुणो सदा शाश्वत भावे रबाछे, वळी आत्मा पोताना स्वरूप रूपीछे, पुद्गलनी अपेक्षाए अरूपीछे, झामरूप उपयोगनी अपेक्षाए साकारछे, दर्शनरूप उपयोगनी अपेक्षाए निराकारछे, वळी शाश्वत आत्मामा उत्पादव्यय अने ध्रुव समय समये वर्तेछे, वळी आत्मामां स्थित अगुरुलघु षड्गुणहानि वृद्धि करेछे, ए आत्मा पुदगल द्रव्य साथे मिलेछे तोपण ते थकी न्यारोछे, अनंत ऋद्धिनो भोक्ता मारा आत्मा विना परद्रव्यनी साये मारे कंइ संबंध नथी, मारो आत्मा कर्मे अवरायोछे, पण ते गुगो मारा नष्ट थया नथी, मारा आत्माना गुगोने उपमा आपवी व्यर्थछे, अहो हुं आत्मा अखंडछु, सर्व पदार्थनो हुं समये समये ज्ञाता छ, त्रग भुवनमां एवो कोइ पदार्थ नथी के माराथी अजाण्यो होय, हुं प्रकाशकछु, अन्य द्रव्य प्रकाश्यछे, साता अशाता ए. हुं जाणुंछु, पण तेथी हुं न्यारो छु, मारुं स्वरूप वाच्यावाध्य वैखरी भाषाथी छे, मारा अनंता गुणोछे तो हवे मारे पर. भावमा रमणता केम करवी ? एम विचारी आत्माना मुणो तरफ
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परमात्सर्जन
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पोतानी दृष्टि दीपीछे, जेणे एवा मुनिधरनुं शरण यामओ. एवा मुनिवरो आत्मध्यान ध्याता आपस्वभावमा विचरेछे, बकवादी: ओना पतींगो सांभळी मौन धारण करी सद्गुरुओ विचर छे, कुमुरुरूप विषधरोनी कुदेशनारुप विषज्वालाथी अज्ञान सर्व अनुष्यो प्रायः मुंझाइ गयाछे, कोइ विरला आसन्न कालमां सिद्धिपद पा: मनारा महात्मओवा तेमना अनुयायी शिष्यो सस्यगमार्गे गमन करेछे.
" दुहा." नाटकियानी पेठ ज्यां, धर्मतणो उपदेश; अंतर्दृष्टि ज्यां नहीं, तेनो मिथ्या वेष. ४२ अहो दुःषम कलिकालमां, विरला सुभठरु जोया बाकी फुट्यो राफडो, सर्पतणो अवलोय; ४३ केष गच्छ ममता ग्रही, वळी कदाग्रह चित्त;. मतमतांतस्मां पडया, दुर्गतिनारीमित्त. ४५
भावार्थ-अंतर्दृष्टिना उपयोग विना नाटकीयानी पेठे ज्यां.प मनो-उपदेश साधुनाम परावी आपेछे तेनो वेष मिथ्याछे..
पंचविष ज्यां भेगां मळ्यांछे एवा आ.कलिकालमा विरला शुद्ध मनियो होयछे, बाकी लौकिक अने लोकोचर कुगुरुभोनो: जाणे राफडो फुट्यो होय अने सर्पो फाटी नीकळे तेनी पेठे.कारी नीकळयाछे.
वेषनी ममता, गच्छनी ममता वळी कोइ प्रकारनो मनमा कदाग्रह राखी जे साधु राग द्वेषना उदये मतमतांतरमा रक्त थया. छता, शुद्ध प्ररुपणा भूली पोतानी पुष्टिने माटे मोहांध बनी. आत्मस्वरूपनुं भान भूली परभावमा राचेछे, माचेछे. तेवा कुगुरुओ दुर्गति नासना मित्र जाणवा.
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( ५४ )
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गुरुमी गुरुता.
46
दुद्दा.
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जलधि भरती ओटमांही, मत्स्यो आकुल थाय; तीरे आवे प्राण नाश, गच्छतणो ए न्याय. शरीरपर ममता नहीं, करे शुं तेने देह; गच्छ वस्यो व्यवहारथी, अंतर्गुण गण गेह.
४५
४६
भावार्थ- समुद्रमां ज्यारे भरती ओट आवेछे, त्यारे जलप्रवाइना जोरथी मत्स्यो आकुल व्याकुल थायछे, तेमांथी कोइ कंटाळीने कांठे आवेछे, भरती उतरी जातां जल विना तरंफडी मरण पामेछे, वा धीवरो तेने पकडी लेखे, अने दुःखभागी थायछे, तेम गच्छ सिंघाड़ामां वसतो कोइ मुनि, आवी केवल आत्मनी बात सांभळी एकाकी विचरेछे, तो ते आत्महित करी शकतो नथी, माटे गच्छमांहीं वसीने आत्मसाधन करवुं, वैरागी, त्यागी गीतार्थ ज्ञांनी पोतानी योग्यताथी आत्मस्वरूपना ध्यान माटे एकल विहारी थाय तेनो एकांत निषेध नथी.
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जे मुनिवरोने शरीरपरथी आत्मज्ञानना बलवडे ममताभाव उठी गयोछे, तो ते मुनिवरोंने शरीर राग द्वेषनुं कारण यतुं नथी. तो पश्चात् व्यवहारथी गच्छमां वसेला तथा वसता एवा मुनियोने गच्छ उपर केम ममता थाय. अने केम गच्छ राग द्वेषतुं कारण थाय ? अलबत याय नहीं. गच्छ एटले साधुनो समुदाय, समूह, तेम ज्ञानीने केम मोह थाय ? अने अज्ञानी तो गच्छतो स्वीकार करे नहीं, तो पण शरीरपर ममता धारण करे. ज्ञानना अभावे संवरनां कारणो पण अज्ञानीने 'आश्रवरुपे परिणमेछे. जेनाथी बंधायछे, तेनाथी ज्ञानी छुटेछे, माटे ज्ञानी गुरु मराराजा अंतरमांथी संसार खेलयकी न्यारा रही वर्तेछे, ज्ञानिको भोग
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परमात्मदर्शन.. सबी निर्जराको हेतुहेशानी भोग कहे तो पण तेथी निर्जरा थायछे. ज्ञानीन कोइना प्रतिबंध नथी, राग द्वेषनुं जे कारण लागे तेनाथी दूर रही आत्मध्यान करेछे. श्री यशोविजयजी प्रमुख सुगुरुओ जाणवा.
कपटी मुनिनुं लक्षण कहे छे.
"दुहा." मनभीतरनी ओरने, वर्ते बाहिर ओर; कहेणी रहेणी सम नहीं, ए पण चऊटा चोर. ४७.
मनमा कइ अने वाहिर आचरण कंइ कहेणी प्रमाणे रहेगी न होय, श्रावनी आजीजी करनार होय, कपटपणाथी वर्ते ते पण चउटानो चोर जाणवो, कदापि व्रतादि पाळी शकतो होय नहीं पण प्ररुपणा वीतरागमार्गना अनुसार करे ते आराधक छ, पण कपटी. तो विराधक छे.
योग्य जाणतां खोलता, पेटी धर्म विशाल; सेवा साचा दीलथी, सदगुरु महा कृपाल.॥४८॥ . ज्ञानी गुरु महाराजा योग्य जीव जाणीने धर्म रत्ननी पेटी मनोहर विशाळ खोले छे, अने तेना आत्मानुं कल्याण करेछे, भन्योने उपदेश द्वारा मोक्ष मार्ग दर्शावे छे, अयोग्य मनुष्यनी आगळ मौन धारण करे छे, जे दृष्टिरागी न होय अने विनयी होय तेनी आगळ योग्यता प्रमाणे अवसरे उपदेश आपेछे, एक सरखो उपदेश प्रत्येक मनुष्यने परिणमतो नथी, माटे योग्यनेज उपदेश देवो, मेघन मल, सीप, झाड, सर्प आदिना मुखमां पडयं,
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गुरुनी दुमता.
पतुं भिन्न भिन्न परिणमे छे तेम अत्र पण दृष्टांत जाणवू.
कोइ एम कहेशे के-मुनिओए सर्वने उपदेश आपको अने उपदेश आपवा माटे तो साधुपणुं अंगीकार कर्यु छ, अने न आपे तो अन्य कोण आपे ? तेने प्रत्युत्तरमा कहेवानुं के जेम सेनापति लश्करी सिपाइने तरवार खेलता मारतां शीखवे छे, पण जेनी योग्यता थइ नथी तेवां लघु बालकने कंइ हाथमां तरवार (खड्ग) आपतो नयी, ने आपे तो बाळकनो नाश थाय तेम ज्ञानी गुरु योग्यता जेने प्राप्त थइ छे तेने उपदेश आपे छे. उपदेशमां पण पात्रना आधारे फेरफार रहे छे, केटलाक स्थाने संसारमा राचेला माघेला श्रावको विरतिधर्मना भाषणरूपे उपदेश आपे छे, पण तेमर्नु वैराग्य त्याग विना सर्व अलेखे जाणवू. गुरुना उपदेशी जे वैराग्य थाय छेते अन्यथीथतो नथी.पंचमारकमा श्री तीर्थफरादिना अभाव तथा पंचविषना योगे योग्य जीवो अल्प जाणवा माटे हे भव्यात्माओ मोक्षनी प्राप्ति माटे निर्मल मनथी सद्गुरुर्नु शरण करो, अने ते फरमावे तेज श्रदायी अंगीकार करशो तो परमपद पामशो.
"दुश." बने बने नहीं हस्तियो, युगे युगे नहि देव; मुंड मुंड नहि गुरुपणुं, जाणी सद्गुरु सेव. ४९ विषय भीख भोगी नहीं, ब्रह्मचारि गुणवंत; कपट वृत्ति त्यागी सदा, नमुं सद्गुरु महेत. ५०
वन वन प्रति हस्तियो होता नथी, अनेभरत ऐवतनो प्रत्येक मारकमा कइ तीर्थकरोनी उत्पत्ति यती नयी, ते प्रमाणे मस्तक
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रिमारमदीन
(१७)
मुंढावी रजोहरण मुहपत्ति झाली लीघेला गृहस्थ जेवानां सर्वमां कह गुरुपं होतुं नथी, जीव अजीवनुं स्वरूप जाणे नहीं अने दुःखगर्भित वैराग्यथी साधुवेष ग्रहण करी राग द्वेषना फेदमा फसाय, इसे, तोफान करे, क्लेश करे ते सर्व कुगुरुओजाणवा, जे महात्माओ विषयभिक्षाना भोगी नथी, ब्रह्मचारीछे, क्षमादि गुणवंतछे, अने कपट तिनो जेणे त्याग कर्योछे अने जे गाडरीयानी पेठे चालता नथी तेवा सद्गुरुने हुं पुनः पुनः नमस्कार करुंछु, बाकी वेष घरवा मात्रथी शुं ? माटे परीक्षा करी आत्मतत्वना उपयोगी गुरुकुं शरण करबुं, एकगुरुनी आज्ञा प्रमाणे वर्त्तनुं, पतिव्रतानी पेठे माथे एक धर्ममद गुरु होय; एक गुरुनी भक्ति श्रद्धाथी शिष्या-वक सद्गुणधाम बनेछे, अनुभवधी जोतां एम जो न वर्त्ताय तो संपूर्ण धर्म पामी शकाय नहीं, कोई गुरु कंइ कहे अने कोई गुरु कंइ कहे, हवे बेमांथी कोनी आज्ञा मानवी, जेवो जोइए तेवो एकथी अधिक गुरुओपर भक्तिभाव, रहे नहीं, घणा पक्का अनुपवीओने आ वाक्य सत्य लागशे, नहीं लागे तेनुं भाग्य, बाकी अन्य सुसाधुओ मानवा पूजवा योग्यछे. तेमनी भक्ति करवी अने सदुपदेश सांभळवो. आ बात गुरुव्रत ग्रहणनी अपेक्षाएछे.
16
"
दुद्दा
धर्मरत्न जेथी मुदा, लदीयुं गुरु रसाळ;
शरण शरण तेनुं सदा, अवर म झंखो आळ ॥१५९॥ भटकी गुरु गुरु वंदीया, शिर पटक्युं सोवार; ज्यां त्यां माथु नामियुं, लह्यो न किंचित् सार ॥ ५२॥
भावार्थ - जेनी पांसेंथी धर्मरत्न समेजी समकित ग्रहण कार्य हर्षवढे ते गुरुनुं सदा मन वचन अने कायाए करी शरण अंगी
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भारमाथि-शिष्यलक्षण.
कार करंछु, अने भव्यात्माओ करो, अन्य आळ पंपाळ झंखो नहीं.
कुगुरुओमा गुरुनी बुद्धि धारण करी वांधा, तेमना चरणे शतवार शिश पटक्यु अने हराया ढोरनी पेठे ज्या त्या माधु घाल्युं अने माथु नमान्यु पण सार कंइ पाम्यो नहीं, अने ते प्रमाणे वर्तवाथी आत्महित थवानुं नथी.
यतः अगीयथ्य कुसीलेहिं, संगं तिविहेण वोसिरे ॥ मुख्खमग्गंसिमे विग्छ, पहंमि तेणगे जहा ॥१॥ ____ अगीतार्थ अने कुशीलियानो संग त्रिविधे वोसिराववो, पंथमा चोरनी पेठे मोक्ष मार्गमा विन करनाराछे.
एम अनंता भव भमी, पाम्यां दुःख अपार सद्गुरु स्हेजे ओळख्या, तार तार मुज तार ॥५३॥
भावार्थ-एम अनादिकालथी कुगुरुनी संगतियोगे आत्माना अशुद्ध परिणामे, चतुर्गत्यात्मक संसारमा अनंतिवार भ्रमण करी विचित्र शरीर धारण करी ताडन तर्जन, क्षुधा, तृषा, रोग, शोक, वियोगादियी अनंत दुःख लघु, हवे भवितव्यतायोगे सद्गुरुने
ओळख्या, जीव आनंद पामी, गुरु विश्वासयो कहेछे के हे गुरु तुं मने तार तार, तार तार ए शब्द पुनः पुनः कथनथी संसार भय साये मुक्ति मार्गनी अति आकांक्षा जणावी, आस्माथी ध्यानी समकित दाता धर्मगुरुनी आज्ञा प्रमाणे वर्तवू.
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परमात्मदर्शन, ___ " परमात्माथि मुरुभक्त शिष्योनुं लक्षण कहेछे."
"दुहा." गुरु विनयी भक्ति घणी, श्रद्धा ए मन स्थिर; शिवपद अर्थी साहसी, मनमा आत गंभीर ॥५४॥
गुरुनो विनय मन वचन अने कायाथी करवामां तत्पर होय, यथाशक्ति भावथी अत्यंत भक्ति गुरुनी करनार होय, गुरुक्त तत्वने विषे जेनी श्रद्धा स्थिरपणे होय वा गुरुना द्वेला इावाळा तथा तेपना प्रतिपक्षी कुगुरुओ तथा कुभक्तो आई अवलं समजावे, गुरुना दोषो देखाडे कुयुक्तिथी गुरु महाराज कहेलां तत्त्वतुं खंडन करे, वळी एम कहे के-एनामां शो भलीवार छे, एतो कंह जाणतो नथी. कपटीछे, एम पोतानी मरजीमां आवे तेम बोले पण तेथी सुशिष्योनी गुरु उपरनी श्रद्धा जरा मात्र पण कमी थाय नहि, उलटुं सुवर्णने जेम जम गाळीए तेम तेम दिप्तिमंत थाय तेम गुरु भक्त शिष्योनी श्रदा उलटी वधती जाय, अने गुरुओनी संगतिथी श्रद्धा उठे तो पीतळ समान भक्तो जाणवा, एवा भक्तो ४ चार गतिमां भटक्या, भटकेछे, अने भटकशे, श्रद्धा वे प्रकारनी छ, हळदरना रंग समान अने अन्य मजीठ समान, हळदर समान श्रद्धानो कारण पाम्याथी नाश थायछे, माटे गुरु उपर मजीठना रंग समान श्रद्धा थवी जोइए वळी श्रद्धाना बे भेदछे. १ प्रशस्य श्रद्धा, अने २. अप्रशस्य श्रद्धा ते प्रत्येकना पण बे भेद छे, हलदर रंग समान, मजीठ रंग समान, वळी लौकिक गुरु अने लोकोत्तर गुरुनी श्रद्धा जाणवी.
वळी श्रद्धा के प्रकारनी छे, व्यवहार नय गुरु श्रद्धा,-व्यवहार नययी गुरु अनेक प्रकारनाछे, पापनी विद्या शिखये ते पाप
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(.) योग्य भने अयोग्य भलोनुं लक्षण. गुरु, आजीविकानी विद्या शिखवे ते आजीविका. गुरु, पण ए गु. को व्यवहारथी छ, धर्मनुं स्वरूप समजावे ते व्यवहारथी शुद्ध गुरु जाणवा, अस्ति नास्ति भेदोवडे करी आत्मानुं स्वरूप सम. जावनार धर्मगुरु समान अन्य कोइ गुरु नथी. बीजा गुरुभोने तो अनंतिवार जीव पाम्यो, पण तेथी आत्महित थयुं नहीं, अने समकित प्रगटयुं नहीं, पण धर्मगुरुयोगे समकितनी श्रद्धा थइ, माटे धर्मगुरु समान कोइ गुरु नथी, व्यवहारनयथी सत्यप्रशस्य धर्म-गुरु श्रद्धा जाणवी. आदरवा लायक छे. निश्चय नयथी पोतानो आत्मा गुरु जाणवो, गुरुनी श्रद्धा भक्तिमां खामी तेटलीन धर्ममा खामी समजवी.
मोक्ष जिज्ञासु अने ते माटे उद्यम करनार शिष्य होय, धर्मकार्यमा साहसिक विक्रमराजानी पेठे होय, बीकण ना होय तेमज कोइथी दबाय नहीं, कोइना तेजमा अंजाइ जाय नहीं. वळी मनमा अति गंभीर होय, एटले गुरुए कहेल वातो हित वचनो पोताना मनमा राखे अने गुरुना दोष अन्य आगळ बोले नहीं, गुरुनो विश्वासी होय, श्रद्धा अने विश्वास ए बे मोटा गुणछे, गाडरीया प्रवाहथी गुरुनाम धरावनाराओ कूलाचारमा आसक्त जीवो गुरुनी गुरुता जाणी शकता नथी. एवं शिष्यनुं लक्षण कडूं.
गुरुभक्त शिष्योटु लक्षण.
“दुहा." वैराग्ये मन वाळीयुं, वार्या विषय कषाय; धीरज जस सुरगिरिसमी, वश जश मन वत्र काय५५
भावार्थ-संसारनी अनित्यता भावी मन जेनुं वैराग्यरंगमां सायं. अने जेणे विषय कषायने यथाशक्तिए वार्याछे अर्थात्
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परमात्मदर्शन. .
विषय कषायनी परिणति जेनी मंद थइछ, आत्मामा रहेल धर्ममा प्रोनु मन वळ्युंछे, बाकी सांसारिक कार्यमा जेतुं पित्त लागतुं नधी, अने सांसारिक कार्य करेछै तोपण ते थकी न्यारो रही लुखा परिणामे करेछे, मेरुपर्वत सम जेने धैर्यता प्रगट थइछे, देववाथी पण डगायो डगे नहीं, एको धैर्यवंत. होय, मन वचन अने कायाना योग जेना वशवति थयाछे, एवा गुरुभक्तशिष्यो भवनो पार पामशे.
___ "दुहा." समता चित्त अंगी करी, अदेखाइनो नाश; करता गुरु भक्तो सदा, पामे शिवपुर वास ॥५६॥ गुरु आज्ञाए चालतो, करे न आज्ञालोप; शिक्षा गुरु देतां सदा, कदी करे नदि कोप ॥५७॥ गुरु सेवामां रत सदा, गुरु गुण करे प्रकाश; गुरु अवगुण दाखे नहीं, ते गुरु भक्तो खास ॥५०॥ ____भावार्थ-जे शिष्योए समता पोताना मनमां अंगीकार करीछे, लोभादिक अवगुणोनी मंदता थइछे, अने अदेखाइनो नाश जेणे फर्योछे, गुणिनी अभिवृद्धिथी जेना मनमां इर्ष्या थती नथी, अथवा गुरुमहाराज कोइ शिष्य उपर विशेष प्रीति राखे पण तेथी अन्य शिष्यनी अदेखाइ करे नहीं, गुरुमहाराजना जेटला भक्तो होय तेटला उपर पोताना प्राण पाथरे, एवा गुरु भक्तो आ तोफानी दुनियामा रह्या छता पण अंतरंगथीन्यारा रह्या छता गुरुनी भक्ति द्वारा ज्ञान पामी अनंत सुखसमय सिद्धि सौध पामे. मुमुक्षु शिष्य गुरु आज्ञामां धर्म मानतो गुरुनी मरजी प्रमाणे चाले, मन, वचन
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(१२)
भारमार्थि शिष्यवाण. अने कायाने गुरुनी आज्ञा मरमी अनुसार प्रवावे, कदी गुरुनी आज्ञानो लोप करे नहीं, विपरीत मार्गमा अज्ञान, प्रमाद, मतिभ्रमयी चालतां गुरु भक्तोने गुरु महाराज शीखामण आपता क्रोध थाय नहीं, गुरु प्रत्यक्ष होय वा परोक्ष होय तो पण देवनी पेठे तेनुं सदा ध्यान करे, परोपकारनी स्मृति लावे. अने गुरुनी भक्तिमां शिष्य सदा आसक्त रहे, अने गुरुना गुणोनो सर्वनी आ. गळ प्रकाश करे, कोइ गुरुनी निंदा सांभळवाना करतां पृथ्वीमां पेसी जवू सारु, कोइ एम कहेशे के गुरुमां दोषो होय तो केम गुरुने मानवा ? अत्र समजवानु के अन्यना कहेवाथी दोषोनी शंका लाववी नहीं, दोषो होय तो पण ढांकवा, उपकारीना उपकारर्नु लक्षण ए छे के कोइ कर्म उदयनी प्रबळताथी गुरु अवळा मार्गे चाले तो गुरुभक्त बुद्धियुक्तिप्रयत्नथी ठेकाणे लावे. पण प्राण जतां तेमनी अन्यना आगळ निंदा करे नहीं, निंदा करवायी कंड फायदो यतो नथी माटे परोपकारबशिष्य, गुरुना अवगुण प्रकाशे नहीं, गुरुद्रोही गुरुनिंदक कुशिष्यने आत्मज्ञान सवलं परिणमतुं नथी, अरिहंतनी स्तुतिथी जेटलो लाभछे, तेटलो गुरुनी स्तुतिथी लाभ जाणवो. दीक्षादायक पण धर्मगुरु होयछे, उपर कहेला लक्षणो जेनामां होय तेने गुरुभक्तो जाणवा, पवा गुरुभक्तो संसार समुद्रनो पार पामी शकेछ, सत्य असत्य धर्मनी परीक्षा करनार पण शिष्य होवा जोइए, तेम देवनु लक्षण पण जाणनार अने कुदेवने परिहरनार शिष्य होवा जोइए, अन्यथा कुगुरुमा गुरुनी बुद्धि धारण करी भवपाशमां सपडाय माटेशिष्य मुगुरुना परीक्षक होय ते मुक्तिपद पामे.
" दहा." विधिए सदगुरु वंदता, निंदे अवगुण नीज;
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परमात्मान. क्षणे क्षणे गुरु देखतां, राखे मनमां रीज ॥५९॥ अनुभव पचिशी कह्यो, विनय तणो अधिकार,
गुरुभत्तको विधि पूर्वक त्रिकाल सदगुरु वंदन करे, अने पो. तानामा रहेला दोषो गुरु आगळ निंदे, के जेथी ते दोषोनोझाटीत नाश यह शके. जेटलीवार गुरुने देखे तेटलीवार मनमा आनंद पामे.
विनयनो विशेष अधिकार अस्मदीयकृतअनुभवपंचविंशति नामक ग्रंथमां को छे. ते रीते जे चालशे, ते लेशे भवपार ॥ ६०॥
ते क्रम प्रमाणे जे चालशे ते भव्यात्मा संसार समुद्रनो पार पामशे, अमुक मारु कल्याण करशे के अमुक एवं जेनुं अस्थिर चित्त छे, ते गुरुनो विश्वास पात्र यतो नथी.
"दोहा." रमणिक रामा देखतां, प्रेमी मनमां प्यार तेहथी अधिको सद्गुरु, शिष्य तणो निर्धार ॥६१ ॥
शोळ शणगारे अलंकृत नवयौवना सुंदर अंगवाळी स्त्री उपर तरुण प्रेमी पुरुषनो जेटलो राग होयछे, ते थकी अधिक सद्गुरु उपर प्यार शिष्यनो होय तो शिष्यनुं कल्याण थाय. अने गुरु भक्तोनुं कल्याण थाय, अन्यथा आत्महित थर्बु मुश्केलछे, आ रहस्य अनुभवथी अवबोधवा योग्यछे, मूर्खात्माओने माटे आ लखाण नथी, दुःखाधिभवनो नाश करवाने जे तत्पर थयाछे, अने जेमने तत्व रहस्य प्राप्त करवूछे तेने माटे आ लखाणछे. चंचक, अस्थिरचित्तवाळा प्रपंची, कृतगुणने नहीं जाणनारने सद्गुरु तत्त्वरहस्य बतावता नथी. रासभने शर्करा अवगुणकारीछे, सर्पने
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रिमार्थि शिष्यलक्षण.
दुग्धपानसदृश अयोग्यने तत्त्वोपदेशछे, योग्य अने अयोग्यनी परीक्षा करवी गुरुमहाराजना हस्तमांछे, बिडालना उदरमा खीर टकती नथी तद्वत् अयोग्यना हृदयेधर्मतत्त्व टकतुं नी. अविनयीने गुप्तधर्मतत्त्वरहस्य आपq आत्महितकर यतुं नथी.
संप्रति काले धर्मतत्त्वनो उपदेश शाक भाजीपालानी पेठे योग्य अयोग्यनी परीक्षारहीत दृष्टिगोचर थायछे, तेथी वाक्क्लेश वा अल्पफळनी प्राप्ति थायछे, खेडुत पण भूमीनी परीक्षा करी वाववा योग्य धान्यकाळे बावेछे, तो धर्मरुप बीज योग्यायोग्यनी परीक्षा कर्या विना काळविना कोइपण मनुष्यना हृदयमा रोपवू, ते अनुचित्त, चिंतनीयछे. जगत्मां मनावा पूजावानी लालचे जगवना प्रवाहमां पडेला गुरुनाम धरावनाराओ गमे तेम उपदेश आपी भोळा जीवोने फसावी पोताना वशमां करी लेइ राचेछे, माचेछे, ते पोतानु तथा अन्यतुं यथायोग्य भलं करी शकता नथी. सद्गुरु स्वतंत्रछे, योग्य होय तेहने उपदेश आपे, अन्यथा मौन रहेछे.
कुयुक्ति करनारा अने पोतानी पंडिताइ जणावनारने सद्गुरु अंतकरणथी उपदेश आपता नथी, तेमज गुरुना वचन उपर विश्वास नथी तेनी साथे गुरुजी माथाकूट करता नथी. पत्थर उपर कमल उगे तो अविश्वासीने गुरुनो उपदेश लागे. गुरुना उपदेशथी वच्चमां पोतानु डहापण चलावनार गुरुभक्त कही शकाय नहीं, हालना काळ मां गुरुभक्त थर्बु मुश्केलछे, केटलाक पत्थर समान कुगुरुओछे, पोते संसार समुद्रमां बूडे अने स्वआश्रितोने बुडाडे, संसार समुद्र तरवामां केटलाक पांदडा समान गुरुओछे, अने केटलाक वहाण समान छे, एमजाणी सद्गुरुर्नु अवलंबन कर, ए
परमार्थ छे.
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परमात्मदर्शन.
दुहा
समकितदायक सद्गुरु, तेनुं नहिं मन भान; परोपकारी बुद्धि वण, ते भटके अज्ञान. ॥ ६२ ॥
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समकित दायक सद्गुरुना उपकारनुं जेने भान नथी ते परोपकृतिथी अजाण सम्यकत्वनो सार फल पामी शके नहीं, उपकार बुद्धिनी विफलताए गुरुना विनयना अभावे राखमां घी होम्या जेवुं थाय ते संसार समुद्रनो पार पामी शके नहीं. " दुहा.
( ६५ )
समतिदायक गुरु अने, दीक्षा गुरुमां भेद; अंतर रवि खजुआ समो, सुशिष्य मनमां वेद. ६३ दीक्षा दायक महामुनि, धर्मगुरु जग जोय; समजे समजु सानमां, करो न संशय कोय ६४
भावार्थ- सम्यक्त्व दायक धर्मगुरु अने दीक्षा गुरुमां घणो भेद छे क्यों, रवि अने क्यां खद्योत एटलो अंतर हे सुशिष्य मनमां जाण. दीक्षा प्रदायक गुरु बाहुलताथी धर्मगुरु होइ शके छे. कारण के - धममाप्ति जेनाथी थइ होय ते दीक्षा आपे तो ते होइ शकेछे, समजु सानमां समजशे शंसयनुं कंइ प्रयोजन नथी. धर्मगुरुनो उपकार कोइ पण रीत्ये वळे तेम नथी.
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दुहा.
एवा गुरुने सेविए, थइए सद्गुण धामः गुण धारी शिष्यो लदे, शिवपुरनो विश्राम. ६५ सद्गुणधाम भूत गुरुपदपंकज सेवत अनेक गुणधाम भूत
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गुरुमी गुरुता. शिष्यो थाय, अने गुगधारी शिष्यो शिवपुरनो विश्राम लइ शके छे, सद्गुणी थनारने प्रथम गुरुनी आवश्यकताछे, दुष्पंथथी सुपंथे लावनार गुरुमहारानछे, जेने गुरु नथी ते पोते गुरु थइ शकतो नथी.
"दुहा." सहस्र सूर्योदय हुवे, चंद्र उगे शतवार; दीपक करो हजार पण, अंध न जुवे लगार. ६६ ज्ञानी सद्गुरु जो मले, अतिशय दे उपदेश; मूरखने लागे नहीं, उलटो थावे क्लेश. ६७
भावार्थ-सहस्रगमे सूर्यो प्रकाशे, हजारवार चंद्रनो उदय थाय, हजार दीपक सळगावो, पण जे अंधपुरुषछे ते जरा मात्र पण देखी शकतो नथी. तेम मूर्खात्मा मोहांध जडपुरुषने ज्ञानी सद्गुरु मळे अने अतिशय उपदेश आपे तोपण मगशैलीया पाषाणनी पेठे जरा मात्र असर थती नथी. उलटो मूर्खने क्लेश थायछे, अने सद्गुरुने पण वाक्क्लेश अवशेष फल जाणवू.
“दुहा." जडताए जड थइ रहे, गुरुमां कुगुरु बुद्धि रासमपुच्छ ग्रही इव, करे न आतम शुद्धि. ६८ सद्गुरुनो विश्वास नहि, कुगुरुनो विश्वास; अज्ञानी पशु आतमा, सर्व दुःखनो वास. ६९
भावार्थ-आत्मस्वरुपनी अज्ञानताए जड जेवो थइ जइ दृष्टिरागयी तथा मोहांधपणाथी गुरुस्वरुप समज्या विना कुलनी म. यादाए गुरुपणु मानतो अज्ञानी जीव गुरुमा अगुरुपणुं मानेछे,
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परमात्मदर्शन.
( ३७ )
अने अवळी परिणतियोगे कुगुरुमां गुरु बुद्धि धारण करेछे, ते पोतानी कुटेवने गछापुच्छ ग्रहनारनी इव भवभ्रमण दुःख राशि पामतां सद्गुरुनो उपदेश लागतां पग पोतानी हठ मुकतो नथी. तेवो अज्ञानी जीव पोताना आत्मानी शुद्धि करी शकतो नथी. जेने सद्गुरुनो विश्वास नथी अने कुगुरुना वचननो विश्वासछे, ते अज्ञानी पशु आतमा सर्व दुःखनुं पात्र बनेछे, अवळी परिणतियोगे अवळा मार्गे भवितव्यतायोगे गमन करे छे. तेवा जीवने योग्यतानी प्राप्ति विना उपदेश पण क्लेशभूत थायछे, राजा, दीवान, शेठ, लक्षाधिपति होय पण योग्यता विना सद्गुरुनो उपदेश असर करतो नथी.
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" दुहा.
तर्कशक्ति जेनी घणी, वाणी जस गंभीर; मोक्षाशा मनमां वशी, धर्मकार्यमां धीर. ७० एवा शिष्यो पामशे, अनेकान्त सुपंथ, गुरुगम ग्रंथो वांचीने, थाशे महानिग्रंथ. ७१
भावार्थ - जेनी तर्कशक्ति घणी होय, अने वाणी गंभीर होय, खप पडे तेटलं बोले, मोक्षाशा जेना मनमां वशी होय. अने धर्म कृत्यमां मेरुवत् अडगवृत्ति होय, गुरुनां वचनो वज्रना टांकणानी पेठेज जेम जेना हृदयमां कोतरातां होय, एवा सद्गुणी शिष्यो स्याद्वाद अनेकांत मार्ग पामशे अने स्वच्छंदाचारीपणुं तथा अहंपणुं त्यागीने गुरुगम ग्रंथाने वांची धारी श्रावकपणुं अंगीकार करशे. अथवा शक्ति परिणामयोगे निग्रंथ अवस्था ग्रहण करशे, योग्यता पोतानी केटलीछे अने कया ग्रंथो वांचवा योग्यछे. ते गुरुमहाराज जाणेछे माटे तेमना फरमावेला ग्रंथो वांचवा
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गुरुनी गुरुता. एवी हिताकांक्षा धारवी.
" दुहा." सदा महानिग्रथथइ, पाळे पंचाचार; पंचमहाव्रत पाळता. शुद्ध धरे व्यवहार. ७२ निश्चय आत्मस्वरुपमां, रमता रहे निशदीन; गुणपर्याय विचारने, करवामां लयलीन. ७३
भावार्थ-द्रव्यथी धन धान्यादि नवविध परिग्रह त्यागी भावथी राग द्वेषनो त्याग करी निर्ममत्त्वपणे वायुवत् अप्रतिबद्ध. पणे सदा विचरे, व्यवहारयो पंचमहावत. अने ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपःआचार अने वीर्याचारने पाळे, आदरे, निश्चयनयथी पोताना आत्मस्वरुपमा निशदिन मुनिवर रमे हवे प्रसंगतः प्रथम षड्व्य नु स्वरुप बतावेछे.
१ धर्मास्तिकाय द्रव्य-चलण सहावो धम्मो,-चालताने सहाय आपवानो गुण धर्मास्तिकायनोछे, ते अजीवद्रव्यछे, अरुपी, अचेतन, अक्रिय, चलनसाह्यगुण तेनो जाणवो. माछलं पाणीमां तरेछे तेनो ए स्वभावछे, पण पाणी तेने साह्यकारकछे. धर्मास्तिकायना असंख्याता प्रदेशोछे, प्रत्येक प्रदेशमा उत्पातव्यय थया करेछे, द्रव्य स्वरूपथी ध्रुवपणुं असंख्याता प्रदेशोमां अनादि अनंतमे भांगछे. अगुरु लघुथी प्रत्येक प्रदेशमा षड्गुण हानि वृद्धि थया करेछे. धमास्तिकायद्रव्य अन्य द्रव्यमा परिणमतुं नथी. अने अन्य द्रव्पना गुणोनु घातक नथी, केवलज्ञानवडे धर्मास्तिकाय द्रव्य देखी शकायछे. अन्य जीवोने केवलीना वचननी श्रद्धा गम्य छे, धर्मास्तिकायना कोइपण प्रदेशनो नाश थतो नथी, एक ठेकाथी अन्य स्थाने तेना प्रदेशो जता नथी, लोकाकाशमों पापीने
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परमात्मदर्शन. रहेछे, धर्मास्तिकायने कोइ उत्पन्न करनार नथी, मैटयां बलमा ज्यां न्यां धर्मास्तिकाय व्यापी रमुछे, तेनामा वर्ण गंध रस अने स्पर्श नथी. समये समये अनंता जीवोने तथा अनंत पुदगलमय परमाणुओने गमनमा साहाय्य आपछे. प्रदेशे प्रदेशे अनंता गण अने अनंता पर्यायछे. पोताना स्वरूपे धर्मास्तिकाय अस्तिरूपेछ. अने परस्वरूपे नास्तिले. प्रदेशे प्रदेशे अनंत स्वगुगनी अस्तिना समये समये परिणमी रहीछे, तेमन धर्मास्तिकायना प्रत्येक प्रदेशे अनंत पर द्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, अने परभावनी नास्तिता परिणमीछे, तेमज प्रदेशे प्रदेशे अनंत पर्यायनी समये समये अस्तिना जागवी. तेमज धर्मास्तिकायना असंख्यात प्रदेशमा समये समये परद्रव्यना अनंत पयायनी नास्तिता परिणमी रहीछे, जे समयमां अनंत निजगुणनी अस्तिता तेन समपमा अनंत परगुगनी नास्तिता जाणवी. जो धर्मास्तिकायमा परद्रव्य, गुणपर्यायनी नास्तिता न रहे तो अन्य द्रव्यरूपे धर्मास्तिकाय परि गमे अने द्रव्य द्रव्यनो भेद रही शके नहीं, माटे स्वगुण स्वव्यनी अस्तिताना समयमां परद्रव्यनी नास्तिता मानवाथी प्रत्येक द्रव्य पोताना स्वरूो परिगमे, अस्तिपणुं धर्मासिकायमा रह्यं छे, ते पग अवक्तव्यछे, अने अनंत नास्तिपणुं रहुं छे, ते पण अवक्तव्यछे, एक शब्दनो उनार करतां असंख्याता समय कश्तीत थाय छे, तो एक समयमां स्थित अस्तिता अने नास्तितार्नु कथन अशक्यछे, ज्ञानवडे जाणी वैखरी भापाथी तेनुं स्वरूप कही शकातुं नधी, थोडं कही शकाय छे, जेटलं जाणवामां आवे तेटलुं वैखरी वाणीथी कही शकातुं नथी. माटे वक्तव्यावतव्यपणुं तेमां जाणवू. इत्यादि विचारतां सप्त भंगी उत्पन्न थाय छे, बळी धर्मास्तिकाय छे ते द्रव्यपणे नित्य छे,
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१७.) श्रीगुरु पदम्पनुं ध्यान धरे छे. अने उत्पाद, व्ययनी अपेक्षाए अनित्य छ, द्रव्यर्थिक नयनी अ. पेक्षाए धर्मास्तिकाय शाश्वतछे, अने पर्यायास्तिकनयनी अपेक्षाए धर्मास्तिकाय अशाश्वतछे, धर्मास्तिकाय ज्ञेयछे, पण तेनामा ज्ञातापणुं नथी, जड छे माटे.
२ अधर्मास्तिकाय-स्थिर रहेवामा साहाय्यदायक गुग अधर्मास्तिकायनो छे, मनुष्य मार्गमां चालतां थाके छे, त्यारे झाड जेम तेन बेसवामा सहाय्यकारक छे, तेम अधर्मास्तिकार्यनी साहाय्यथी जीव पुद्गल स्थिर थायछे, ए द्रव्यना चारगुण छे, अमूर्त, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श थकी रहित, जीवत्वथी रहीत माटे अचेतन, विभाविक क्रिया रहित माटे अक्रिय, निश्चयनयनी अपेक्षाएतो स. क्रिय छे, स्थिर पदार्थने साहाय्य करे छ, माटे स्थिर साहाय्यगुण अधर्मास्किाय असंख्यात प्रदेशमयी छे, लोकाकाशमां व्यापीने रघुछे, अनादि कालथी छे, माटे तेनो उत्पन्न कर्ता कोइ नथी, कोइ पण काले तेनो अंत नथी, माटे अनंत छे, अधर्मास्तिकायना प्रत्येक प्रदेशमां अगुरु लघुथी समये समये षड्गुण हानि वृद्धि परिणमी रही छे, अधर्मास्तिकाय चर्म चक्षुथी देखी शकातुं नथी. अधर्मास्तिकायना चार गुण छे, रुप रहित माटे अमूर्त, अचेतन एटले जीव रहीत, अक्रिय एटले विभाविक क्रिया रहीत, अने स्थिर सहायगुग ए चारगुण अनादि अनंतमे भांगे अधर्मास्तिका यमांछे, समये समये अनंत जीवोने तथा पुद्गलोने स्थिति सहाय आपे छे, एकेक प्रदेश अनंता गुण पर्याय रह्या छे. अधमास्तिकायद्रव्यमा स्वगुण पर्यायनी अस्तिताछे, परगुग पर्यायनी नास्तिता छे, द्रव्यत्वनी अपेक्षाए दरेक अधर्मास्तिकायना प्रदेशो एक साखा छे, कारण के दरेके प्रदेशमां द्रव्यत्वपणुं रह्यं छे, किंतु अगुरुलघुथी थतीषड्गु गहानिवृद्धि प्रदेश प्रदेश प्रति भिन्न भिन्न परिणामी
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परमात्मदर्शन..
(१) रही छे. ते अधर्मास्तिकायना प्रदेशमा अनंतगुणनी हानी छे, त्या अनंत गुणहानी मटीने असंख्यात गुणहानि थाय छ, संख्यात गुणहानि होयछे, त्यां अनंतगुण हानि थायछे, एम असंख्याता प्रदेशोमां षड्गुण हानिवृद्धि समये समये भिन्न भिन्न परिणमवाथी सर्व प्रदेशो अपेक्षाए एक सरखा नथी, एक स्थानथी बीजे ठेकाणे प्रदेशो गमन करता नथी. माटे प्रदेशो अचल छे, वळी प्रदेशना कडका थता नथी, माटे अखंडछे. अधर्मास्तिकायमा जाणवानो गुण नथी माटे जडछे, पोताना स्वरूपे अधर्मास्तिकायमां अनंत शक्तिछे, तेनी केवली भगवान्ना वचनथी श्रद्धा करवी. आ द्रव्य लोकाकाशमां व्यापक छतां कोइ द्रव्यना गुगर्नु घातक नथी. अने ते अन्य द्रव्यमा परिणमतुं नथी, पोताना स्वभावनो त्याग करतुं नथी. अधर्मास्तिकायने पुण्य पाप लागी शकतुं नथी, परद्रव्यनी साथे परिणम स्वभाववाला जीवद्रव्यने पुण्य पाप लागी शकेछे. अधर्मास्तिकाय द्रव्य जाणी शकायछे, माटे अधर्मास्तिकाय प्रकाश्यछे, अने ज्ञान प्रकाशक छे, अधर्मास्तिकाय ज्ञेयछे, अने जीव ज्ञाताछे, द्रव्यार्थिक नयापेक्षया अधर्मास्तिकाय शाश्वत छे. पर्यायार्थिक नयापेक्षया अधर्मास्तिकाय अशाश्वत छ, अन्य द्रव्य साथे परिणमतुं नथी. माटे अधर्मास्तिकाय अपरिणामीछे, अधर्मास्तिकाय द्रव्यरूपे नित्य छे. अने पर्यायरूपे अनित्य छ, अनंत अस्तित्व धर्मथी युक्त अधर्मास्तिकायछे. आ द्रव्य जाणवा योग्यछे, अने ते आदरवा योग्य नथी फक्त ते द्रव्यनुं स्वरूप ज्ञानदृष्टिथी जणायछे, आत्मानी साथे तेने कंइ संबंध नथी. एकेक प्रदेशे अनंत धर्म अनंतगुण अनंतपर्यायनी अस्तिता छे, अने अधर्मास्तिकायना एकेक प्रदेशमा परद्र०५ना अनंतधर्म अनंतगुण अने अनंतपयायनी नास्तिता व्यापी रहीछे, प्रत्येक प्रदेशमा रहेला धर्मनी अस्तिता
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( ७२ )
श्री गुरु द्रव्यनुं ध्यान धरेछे.
तथा परधर्मनी नास्तितानी अपेक्षाए सप्तभंगी उत्पन्न थाय छे, जेम जेम सम्यग् ज्ञान थतुं जायछे, तेम तेम उपयोगनी एकाग्रताए विशेष ज्ञान थतुं जायछे.
३ आकाशास्तिकाय - अधर्मास्तिकायादिकने अवगाहना आपवानो स्वभाव आकाशनोछे, आकाशना वे भेदछे, १ लोकाकाश अने २ अलोकाकाश, जेमां छ द्रव्यनी स्थीति छे, ते लोकाकाश जाणवु, जेमां आकाश सिवाय अन्य पदार्थनी स्थीति नथी तेने अलोकाकाश कहे छे. तेना चार गुण छे, अरूपी एटले रूपरहीत, आकाशनुं काळं, पीलुं, घोलुं, नीलुं, श्वेतआदि रूप नथी. प्रश्न- आकाशनं चक्षुथी जोतां काळं रूप देखा यछे, अने तमे केम ना कहोछो ?
उत्तर - आकाश सामुं देखतां जे कालीमा देखाय छे ते कइ आकाशनी कालीमा नथी. किंतु पुद्गलद्रव्यनी कालीमाछे, माटे आकाश रूप नथी.
प्रश्न - निर्मळ जलथी परिपूर्ण स्थिर सरोवरमां आकाशनुं प्रतिबिंब पडेछे, देखो, सरोवर माटे आकाशनुं रूप मानवुं जोइए. उत्तर - विशेष सूक्ष्मबुद्धिद्वारा परीक्षा करतां अवबोधाशे के आकाशनुं प्रतिबिंब सरोवरमां पडतुं नथी, अने सरोवरमां जेनुं प्रतिबिंब पडेछे ते पुद्गलद्रव्यछे, तेमां जोतां मालुम पछे के वादळां विगेरेनुं प्रतिबिंव सरोवरमा देखायछे, साकारनुं प्रतिबिंब पडेछे, निराकारनुं प्रतिबिंब पडतुं नथी, छ द्रव्यमां एक पुद्गल द्रव्य सांकारछे, बांकीनां पांच द्रव्य निराकारछे, साकारतुं साकारने विषेज प्रतिबिंब पडेछे, आकाश निराकारछे माटे तेनुं प्रतिबिंब पडी शंकतुं नथी.
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परमात्मदर्शन
प्रश्र-आत्माने विषे अन्य द्रव्य भासे छे, त्यारे आत्मामां अन्य - द्रव्यतुं प्रतिबिंब पड्या विना केम भासे ? उत्तर-दर्पणमा मुखनुं प्रतिबिंब जेम भासेछे, तेम आत्मामां अन्य
पदार्थानां प्रतिबिंब पडतां नथी, ज्ञान गुण पोतानी शक्तिथी सर्व पदार्थोने जाणेछे, तेथी सर्व पदार्थोनां प्रतिबिंब आत्मामां पडतां नथी. ए उपरयी सिद्ध थायछे के-आकाश अरुपी छे, अचेतन एटले जीवरहित, विभाविक क्रियारहीत आकाश जाणवू. केटलाक मतवादी एम मानेछे के-आकाशथी जलनी उत्पत्ति थइ पण ते मंतव्य नथी. कारण के-आकाश निराकार अक्रियछे अने तेनाथी कोइ पण पदार्थनी उत्पत्ति थती नथी, जळादिक साकारछे, अने आकाश निराकारछे, माटे निराकारथी साकार वस्तुनी उत्पत्ति थइ शके नहीं, वळी आकाश अनादि कालर्नु छ, अने कदी तेनो अंत आववानो नयी माटे अनंत छे, माटे आकाशनो बनावनार कोइ नयी, वळी आकाशनो उत्पन्न करनार कोइ होवो जोइए, एम कोई कहे तो विकल्प के-आकाशरूप कार्यनु उपादान कारण कोण ? अने निमित्त कारण कोण ? प्रथम पक्ष-आकाशनु उपादान कारण इश्वर जो कहेशो तो ते संभवतो नथी, कारण के इश्वर ज्ञानवान् छ, अने आकाश जडछे, इश्वरनो ज्ञान गुण आकाशरूप कार्यमा आववो जोइए, पण तेम नथी. माटे इश्वर आकाश- उपादान कारण कहेवाय नहीं, अलबत आकाश- उपादान कारण कोइ नथी. जेने उपादान कारण नथी तेने निमित्त कारण पण नथी. इश्वर आकाशनुं निमित्त कारण नथी. आकाश अनादि कालथी स्वयंसिद्ध छे, आकाशमा अवगादना गुणछे, तेथी अन्य द्रव्योन रहेवा माटे
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अवकाश आपछे. आकाशना एकेक प्रदेशे अनंता धर्म, अनंता पर्याय रखा छे. आकाश द्रव्यना प्रत्येक प्रदेशो द्रव्यत्व पणाथी एक सरखाछे, अने प्रत्येक प्रदेशमा अगुरु लघुथी षड्गुण हानि वृद्धि समये समये थइ रहीछे तेनी अपेक्षाए एक सरखा नथी. आकाशमां स्वद्रव्य स्वक्षेत्र, स्वकाल, अने स्वभावनी अपेक्षाए अस्तिपणुं छे. अने परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल अने परभावनी अपेक्षाए नास्तिपणुं छे. आकाशमा परद्रव्यनी जे नास्तिता ते पण अस्तिपणे छे. परद्रव्यनी नास्तिता अस्तिपणे आकाशद्रव्यमां न रहे तो अन्यद्रव्यनी अस्तितानो नाश याय अने अन्यद्रव्य कहेवाय नहीं, जे समयमा स्वद्रव्यादिकनी अस्तिता छे तेज समयमां परद्रव्यादि. कनी नास्तिता छ, अस्तिता अने नास्तिता वैखरी वाणीथी कही शकाय सर्वथा माटे अवक्तव्य छे. इत्यादि विचारता सप्तभंगी उत्पन्न थायछे. आकाशमां जाणवानो स्वभाव नथी. माटे जडछे. वळी तेना प्रदेशना कडका थता नथी माटे अखंडछे, ज्ञानगुणे जणायछे माटे झेयछे. लोकालोक व्यापी आकाशद्रव्य छे. जलमां थलमा ज्या त्यां अरुपीपणे आकाशद्रव्य व्यापीने रडुंछे, आत्मगुणोनु घातक आकाशद्रव्य नथी. अने ते अन्य द्रव्यमा संयोगपणे परिणमतुं नयी. अन्य द्रव्यो तेनामा रहेछे. माटे अन्य द्रव्य आधेय छे. आकाश द्रव्य आधार छे. आकाशद्रव्यना स्कंध, देश, प्रदेश, केवलज्ञानयी जाणी शकायछे, आत्माना एक प्रदेशमा ज्ञाननी एवी शक्ति छ के-आकाशद्रव्यना अनंता गुण-अनंता पर्याय, अनंत धर्म एक समयमा जाणी शकेछे. ५ पुद्गलास्तिकाय-वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श यकी युक्त पु
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परमात्मान गद्रव्यछे, तेना चारगुणछे. मूर्त अचेतन जीवपणायकी सीत. सक्रिय एटले मळवा विखरवारूप क्रिया करेछे, शुमलपरमाणु अनंतछे. परमाणु बाळयो चले नहीं, भेयो भेदाय नहीं, परमाणु दर्शन चक्षु अगोचर जाणवु. द्विपरमाणु संयोगी स्कंधने द्विप्रदेशी स्कंध कहेछ, अनंत परमाणु संयोगी कंध रष्टिगोचर यायछे, ते व्यवहार परमाणु कहेवायछे. निश्चयनये तो स्कंधकथायछे. एक परमाणुमा एक वर्ण एक गंध एक रस अने बेम्पर्श रह्याछे, परमाणुथी बनेला केटलाक स्कंधो चक्षुधी देखाय पण हाथमा पकडाय नहीं, केटलाक स्कंधोनो स्पर्श ग्रहाय किंतु चक्षुषी देखाय नहीं जेम वायु. केटलाकनो गंधग्रहाय पण पक्षुग्रास थइ शकतो नथी जेम कस्तुरीना पुद्गल स्कंधो विगेरे. एम विचित्र स्वभावयुक्त पुद्गलस्कंधो थायछे. अने विचित्र पदार्थ बनेछे. पधात् विखरी जायछे. यावन्त पदार्थो चर्मचक्षुयी ग्राह्यछे ते सर्व पुद्गल छे. केटलाक पुद्गल स्कंधो चर्मचक्षुधी पण अग्राह्य छ, अंधकार तथा प्रकाश पण पुद्गल द्रव्यछे. कर्म पण पुद्रल ट्रव्यछे, पंचधा औदारिकादि शरीर पण पुद्गल द्रव्यछे. बादर पदार्थना ज्ञानथी सूक्ष्म पदार्थ स्वरूप अनुमाने जणायछे, पत्थर मृत्तिका आदि सर्व पुद्गल द्रव्य जाणवां. एकेंद्रिययी यावत् पंचिद्रि जीवोए पुद्गल स्कंधोने शरीरपणे ग्रही स्वसत्तामा लीधाछे, ते सर्वपुद्गलद्रव्यछे, पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्यना गुणोने आच्छादन करे. पुद्गलद्रव्यरूपी छतां जीवद्रव्यने बाधा करेछे. प्रश्न-जीवनी अनंति शक्ति छ, तेने पुद्गल द्रव्य शुं करी शके ? उत्तर-अधुना कर्मधारक जीवोनी अनंति शक्ति तिरोभावे सत्तामा
पर्ने छ, किंतु आविर्भावे शक्ति प्रगट या नथी अनादि का.
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( ७६ )
षड्वव्य स्वरूप.
art आत्माने कर्म लाग्युंछे, तेथी अनादिकालथी आत्मानी शक्ति तिरोभावे वर्ते छे. जो आविर्भावरूपे शक्ति यह होय तो कर्मनुं कंइ जोरि नथी, माटे कर्मना योगे जीवनी शक्ति अवराइछे, जेम सूर्यने वादळां आच्छादन करेछे तो सूर्यना प्रकाशनुं आच्छादन थायछे, प्रकाश ढंकाइ जायछे, किंतु यदा वादळां बिखराइ जायछे त्यारे प्रकाश स्वच्छ पडेछे. एम आत्मा अने कर्म विषे जाणवुं. आत्मा सूर्य समान छे, अने कर्म वादळां समानछे, दृष्टांत एक देशी जाणवुं. प्रश्न- अरुपी आत्माना गुणोनो उपघातरूपी कर्मथी शी रीते यह शके ? उत्तर- ब्राह्मी औषधिरूपी, अरूपी बुद्धि वृद्धिमां उत्तेजकछे, मदिरा
रूपी छतां ज्ञानीना अरूपी ज्ञाननुं आच्छादन करी ग्रथिल बनावेछे, तथा रीत्या आत्माना असंख्यात प्रदेशे लागेलां ज्ञाना वरणीयादिक कर्मरूपी अरूपी आत्मगुणोनी आविर्भावतानुं आच्छादन करेछे.
विषयांतरथी निवृत्त थइ पुद्गल द्रव्यनुं स्वरूप कथतां अन्य प्रश्न करेछे.
प्रश्न- पृथ्वी, पाणी, वायु विगेरेनी उत्पन्न कर्त्ता इश्वरछे, अने तमे सेने केम अन्य स्वरूपे कथोछो.
उत्तर - पृथ्वी, पाणी, वायु विगेरेनो कर्त्ता इश्वर नथी. अनादि कालथी ते वस्तुओछे. इश्वर अरूपी निरंजनछे तेनाथी रूपी पृथ्वी आदि जगत् बनी शकतुं नथी, सर्व द्रव्य पोतपोताना स्वभावे वर्त्तेछे. पुद्गल द्रव्यमां जाणवानो स्वभाव नथी माटे जडछे, प्रत्येक परमाणुनां उत्पात, व्यय, अने ध्रुवपणुछे. वर्ण, गंध, रस अने स्पर्शनी परावर्त्तना प्रत्येक परमाणुमां थायछे. पुद्गल द्रव्यमां स्वगुण, स्वधर्म, स्वपर्यायनी अस्ति
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परमाऽमदर्शन,
AAAA
ताछे. परद्रव्य, परधर्म, परपर्यायनी नास्तिता दल द्रव्यमा छे. जे समयमा अस्तिताळे, तेज समयमां नास्तिताछे. अस्तिता अने नास्तितानुं स्वरूप वक्तव्या वक्तव्य रूपेछे. पुद्गल द्रव्य चतुर्दश राजलोकमां व्यापीने रझुंछ, पुद्गल परमाणुआ अनंताछे. पुद्गल द्रव्यने आ जीवे शरीर, आहार, इंन्द्रियादिपणे अनंतिवार ग्रहण कर्यु अने मूक्यु पण पुद्गल द्रव्य कोइ काले आत्मानुथयुंनी अने थवानुं नथी एनुं विस्तारथी
स्वरूप गुरुमुखथी धार __ ५ काल-कालना त्रण भेद छे, अतीत काल, अनागत काल अने वर्तमान काळ, कालनो समय अति सूक्ष्म छे, सर्व द्रव्य उपर कालनी वर्तना वर्ती रहीछे, काल द्रव्य आत्मगुणोतुं घातक नथी. - ६ जीवद्रव्यास्तिकाय-जीव द्रव्य अरूपीछे, शरीरधारी जीव व्यवहारनयथी रुपी कहेवाय छ. जीव चेतन छे, पोतानं स्वरूप निश्चयनयथी अक्रिय छे, अने वळी निश्वयनयथी पोताना धर्मनी क्रिया जीव करेछे, माटे जीव सक्रिय छे, व्यवहारनयथी जीवकर्मनी साथे भन्यो छतो परद्रव्ययोगे गमनादिक क्रिया करेछ माटे सक्रिय छे. जीवद्रव्य अनंत छ. जीवना बे भेद छे. एक संसारी अने सिद्धना जीवो संसारी जीव पण अनंतछे, अने सिदना जीवो पण अनंत छ, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, उपयोग ए जीवनुं लक्षणछे. जीवमा स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र कालादिकनी अस्तिता छे, परद्रव्यना द्रव्य क्षेत्र काल भावनी जीव द्रव्य मां नास्तिताछे, स्वद्रव्यादिकनी अनंत अस्तिता अने परद्रव्यादिकनी अनंत नास्तिता समये समये जीवद्रव्यमा चर्ते छे. द्रव्यार्थिक नयी जीव शाश्वतो छ, अने पर्यायाथिकन यथी जीव अशाश्वतो
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है. भीषमा उत्पाद, व्यय अने ध्रुवपणुं व्यापीने रचु छ, जीवना असंख्याता प्रदेश छ, एकेक मदेशे अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत वीर्य, अनंतभोग, आदि ऋद्धि रहीछे, पंचद्रव्यना द्रव्य, गुण, पर्याय धर्मनुं जाणवापणुं एक आत्माना प्रदेशमा रहुं छे तो असंख्याता प्रदेशनी तो वातज शी कहेवी ? निश्चयनये स्वगुणादिकनो कर्ता आत्मा जाणवो, व्यवहारनपथी कर्मनो कर्ता आत्मा जाणवो. व्यवहारना घणा भेदछे. शुद्ध व्यवहारनय, अशुद्ध व्यवहारनय. शुभ व्यवहार, अशुभ व्यवहार, अनुपचरित व्यवहार, उपचरित व्यवहार नय, वळी व्यवहारनयना बे भेदछे. १ सद्भूत व्यवहार, बीजो असद्भूत व्यवहार. एक द्रव्याश्रित ते सद्भुत व्यवहार अने जे परविषयनो आश्रय करे ते असभूत व्यवहार नय जाणवो.
प्रथम सद्भूत व्यवहारना बे भेदछ, एक उपचरित सद्भुत व्यवहार अने बीजो अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय. सोपाधिक गुण गुणीनो भेद देखाडे. जेम जीवस्यमतिज्ञानं. अत्रमतिज्ञान सोपाधिक गुणछे, अने जीव गुणी तेनो भेद देखाड्यो, ते उपचरित प्रथम भेद जाणवो. ___ तथा निरूपाधिक गुण अने गुणीना भेदे पीनो अनुपचरित सद्भूत व्यवहार जाणवो. जेम जीवस्य केवलज्ञानम्. जीवन केवळ मान, अत्र केवळझान निरूपाधिक गुणछ, अने जीव गुणी छे, माटे निरूपाधिकपणे गुण गुणीना भेदे बीजो भेद जाणवो.
असद्भुत व्यवहारनयना बे भेद छे, एक उपचरित असद्भूत व्यवहारं, अने बीजो अनुपचरित असद्भूत व्यवहार जाणवो.
प्रथम भेद असंश्लेषितयोगे एटळे कल्पित संबंधे होयछे, जेम
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বলাফল
आ देवदत्तनुं धनछे, अत्र देवदत्त अने धनने उपर उपरनो संबंध छे, स्वस्वामीभावरूप कल्पित संबंधछे, ते माटे देवदत्तनुं धन कहेवू ते उपचारथी जाणवू. तथा देवदत्त अने धन एबे एक द्रव्य नथी, माटे ते धननो आरोप देवदत्तने विषे असद्भूतछे ए उपचरित असद्भूत व्यवहार जाणवो. आत्मानी साये कर्मसंश्लेषपणुंछे, पट आत्मानी साथे कर्म, तथा देहना संश्लेषपणाना (जोडावा वा मळवा) ना योगे अनुपचरित असद्भूत व्यवहार जाणवो.
आत्मानी साथे अष्टकमनो संबंधछे ते धन संबंधनी पेठे कपित नथी. वळी औदारिक-वैक्रिय, आहारक, तैजस अने कामण शरीरनो आत्मानी साथे संबंधछे ते पण धन संबंधनी पेठे कल्पित नथी. विपरीत भावनाए निवर्ते नहीं, जावज्जीव रहे तेमाटे ए अनुपचरित अने कर्मादिक भिन्न विषय माटे असद्भूत जाणवो.
अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनये जीव कर्मनो कर्ता जाणवो, अने उपचरित असदभूत व्यवहारतः गृह धननो कर्ता जाणवो, तथा स्वजाति उपचरित असद्भूत व्यवहारे पुत्र पुत्रीनो कर्ता जीव जाणवो. पुत्र पुत्री पोतानी जातिनां छे, पुत्रादिक जीवना नथी तेम छतां जीवनां कहेवा ते उपचार, पुत्रादिक पोतानाथी भिन्नछे माटे असद्भूत जाणवो. विजाति उपचरित असद्भूत व्यवहारे धनादिकनो कर्ता जीव जाणवो. धन विगेरेनी जीवना करता जुदी जातिछे एटले ते पुद्गल जातिछे, माटे विजाति धनादिक जाणवं, धन वि. गेरेनो का जीवने कहेवो ते उपचार छ,कल्पितपणुं छे. धनादिक पोतानाथी भिन्न द्रव्यछे माटे असद्भूतपणुं तेमां जाणवू.
स्वजाति विजाति उपचरित असभूतव्यवहारनप्रतः नगरादिकनो कर्ता जीव जाणवो. नीव, अजीव बनो. समास
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( ८० )
आत्मार्थि शिष्यकक्षण.
मां थयो. अशुद्धनिश्रय नये राग द्वेषनो अशुद्ध स्वभावे जीव कर्त्ता जाणवो.
शुद्धनिश्वयनये स्वकीयनिरुपाधिकज्ञान दर्शनादिक गुणोनो कर्त्ता जीव जाणवो.
आत्मानं केवळज्ञान ते शुद्ध सद्भूत व्यवहार जाणवो, धर्म अने धर्मांना भेदथी ए व्यवहार थयो, तथा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, आत्मानुंछे एम कहीए ते अशुद्ध सद्भूत व्यवहार जाणवो.
परद्रव्यंनी परिणति भळवाथी द्रव्यादिकमां नवविध उपचा रथी असद्भूत व्यवहार थायछे.
१ द्रव्ये द्रव्योपचार, २ गुणे गुणोपचार, ३ पर्याये पर्यायोपचार ४ द्रव्ये गुणोपचार, ५ द्रव्ये पर्यायोपचार, ६ गुणे द्रव्योपचार, ७ पर्याये द्रव्योपचार ८ गुणे पर्यायोपचार ९ पर्याये गुणोपचरिं. एनुं स्वरुप कहे छे.
१ द्रव्ये द्रव्योपचार- क्षीरनीरन्यायवत् जीव पुद्गल साथे म. यो छे माटे जीवने पुद्गल कहीए ए जीवद्रव्ये पुद्गल द्र व्यनो उपचार जाणवो.
२ गुणे गुणोपचार - भाव देश्या ते आत्मानो अरूपी गुगछे तेने जे कृष्ण नीलादिक काळी लेश्या कहीएछीए ते कृष्णादि पुद्गल द्रव्यना गुणनो उपचार करीएछीए ए आत्मगुणे पुद्गल गुणनो उपचार जाणवो, इति गुणे गुणोपचार. ३ पर्याये पर्यायोपचार - अश्वहस्ति प्रमुख आत्मद्रव्यना असमान जातीय द्रव्यपर्याय तेने स्कंध कहेछे, आत्मपर्याय उपरे पुद्गल पर्याय जे स्कंध तेनोउपचार कहीए छीएते पर्याये पर्यायोपचार. ४ द्रव्ये गुणोपचार- हुं गौरवर्णछु एम बोलतां हुं एटले आत्म द्रव्य अने गौरपणुं ते पुद्गलनुं उज्वलतापणुं, आत्मद्रव्यमां
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परमात्मदर्शन.
(८१)
गौररूप जे पुद्गलनो गुण तेनो उपचार कर्यो माटे द्रव्ये गु.
णोपचार जाणतो.
५ द्रव्ये गुणोपचार- हुं गौरवर्णछु एम बोलतां हुं ते आत्मद्रव्य अने देह तो पुद्गल द्रव्यनो सामान्य जातीय पर्याय जाणवो. ६ गुणेद्रव्योपचार - यथा दृष्टांत ए गौर देखायछे, गौरतारूप पुद्गल गुण उपरे आत्मद्रव्यनो उपचार ते गुणे द्रव्योपचार. ७ पर्यायेद्रव्योपचार - देहने आत्मा कहेवो त्यां देहरूप पुद्गल पर्यायने विषे आत्मद्रव्यनो उपचार कर्यो ए सातमो भेद जाणवो. ८ गुणेपर्यायोपचार - मतिज्ञान ते पंचइंद्रिय अने मनोजन्य छे माटे शरीरज कहीए अत्र मतिज्ञानरूप आत्मगुणने विषे शरीररूप पुद्गल पर्यायनो उपचार कर्यो.
९ पर्यायेगुणोपचार - शरीर ते मतिज्ञानरूप गुणजछे अत्र शरीररूप पर्यायने विषे मतिज्ञानरूप गुणनो उपचार करायछे, ए नवम भेद व्यवहारनये अनेकधा जीव व्यवहरायछे, निश्चय नये सर्व जीवनी सत्ता एक सरखीछे. सर्व वस्तुथी जीव न्यारोछे, अनादि कालयी आत्मानी अशुद्ध परिणतियोगे आत्मा कर्मादिक ग्रहेछे, यथा मदिरापानथी सुज्ञ मनुष्यनी बुद्धि फरी जायछे, तेम कर्मनायोगे आत्मा परस्वभावमां राज्यो माच्योछे, यदा उपयोगनी एकाग्रताए स्वध्यानमां आत्मा रमे तदा कर्मी दिनो नाश थाय छे. जे रूद्धिने माटे जीव फांफां मारेछे, ते रूद्धि आत्मामां समायीछे. आला पोतानुं स्वरूप ज्ञानवडे जाणेछे अने परद्रव्यनुं स्वरूप पण ज्ञानवडे जाणेछे. आत्माना समान कोइ उत्तम वस्तु नथी, आत्मा आदेय, आराध्य पूज्यछे. आत्मानी ऋद्धि आत्मस्वरूपना ज्ञानथी प्राप्त थायछे. त्रण जगत्नो स्वामी आ प्रत्यक्ष देखाता शरीरमां रहेलो
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( 63 )
आत्मज्ञान महसी.
आत्माछे, तेना करतां चमत्कारी बीजी कइ वस्तुछे? सुरमणि, कामकुंभ, कामधेनु पण आत्माना आगळ हीसाबमा नथी. आत्मा तेज परमात्माछे. आत्मा ते निश्वययी विचारतां पोतानो गुरुछे, स्याद्वाद रीते आत्मानी ओळखाण कोइ भाग्यवंत पुरुषने थायछे, आत्मानुं स्मरण करवुं प्रवृत्ति मार्गमां प्रवृत्ति त्यां सुधी थायछे के ज्यां सुधी आत्मानुं ज्ञान तथा रमण नथी, आत्मानुं स्वरूप ज्यां सुधी जाण्युं नथी, त्यां सुधी प्रवर्धमान गुणठाणानी माथिती नथी कांछे के
आया सामाईअ आया सामाइयस्स अहे;
बळी कांछे के
जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ; जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ || १ || एको भावः सर्वथायेन दृष्टः सर्वे भावाः सर्वथातेन दृष्टाः सर्वेभावाः सर्वथायेन दृष्टाः एकोभावः सर्वथातेन दृष्टः २
यथातथ्य एक आत्मानुं स्वरूप जेणे जाण्युंजे, तेणे सर्व द्रव्यनुं स्वरूप जाण्युंछे. कारण के- ज्यां सुधी भव्यात्मा आत्मानुं स्वरूप जाणतो नथी तावत् अन्य द्रव्योनुं स्वरूप जाणी शकतो नथीं, सर्व शाखनी रचना पण आत्मज्ञान थकीछे. सर्व शास्त्रकारो आत्मानी स्तुति करेछे.
स्तोत्रम् - अनंतदेवेश जगन्निवास, त्वमक्षरं त्वं पुरुषः पुराणः त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोता, त्वमस्य विश्वस्य परंनिधानम् १ भावार्थ - हे आत्मातुं अनंत. तारो कदी अंत नथी, तुं आत्मा
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परमात्मदर्शन
(1)
देवतानो पण स्वामीछे-चतुर्दश रज्वात्मक लोकमां तारी स्थितिछे. तुं असंख्यात प्रदेशमयी छे, त्यारा प्रदेशो क्षरे तेम नथी. तारु स्वरूप नाश पामवानुं नथी. माटे तुं अच्युत अने अक्षरछे, अनादिकाळनो तुं आत्माछे, तुं अव्यय स्वरूपछे. सनातन शुद्धधर्ममय तुंछे, भव्यामाओने मोटामा मोटुं निधान तुंछे. तुंज परमेश्वररूपछे, आम पोते मुनिराज शरीरमा व्यापी रहेला आत्मानुं ध्यान करे.
"दोहा." नव तत्व षड् द्रव्यना, ज्ञाने छे उपयोग; अनंत गुणनी रूद्धिनो, कर्ता नित्यज भोग. ७४ भोगी नहि परभावनो, आत्मस्वरुपे ध्यान; ध्यान नहिं परभावनें, देखे चरण निधान. ७५
भावार्थ-जीवतत्त्व, अजीवतत्त्व, पुण्यतत्त्व, पापतत्त्व, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध, ने मोक्ष ए नवतत्त्व- द्रव्य अने भावथी जेने ज्ञान थयुछे, अने षड्द्रव्य, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावथी ज्ञान जेने थपुंछे, ते ज्ञानी जाणवो नवतत्त्वनोषड्द्रव्यमा अंतर्भाव थायछे. षड्द्रव्य विना जगत्मा अन्य कोइ पदार्थ नथी, षड्द्रव्यमा पण एक आत्मद्रव्य पोतार्नुछे. आत्मद्रव्यनी श्रद्धा थवी मुश्केलछे. कोइक तो आत्माने जळ पंकजवन सर्वथा अलिप्तमानी व्यवहार निश्चयनयना ज्ञान विना एकांत मिथ्यात्व स्वरूपे आत्मानुं ध्यान करता समकित विना चतुर्गत्यात्मक संसारना त्रिविध तापोने पुनः पुनः प्राप्त करी विवेक शून्यताए ग्रथिलनी पेठे कृत्याकृत्यने नहीं गणता मोहनीयना उदये नरभवनी निष्फलताए संसारना चतुरशितिलक्ष जीवयोनिना म वाहमा रोग शोकथी पीडाता चक्र खाता तणायछे, जेटला विद्वानो प्रख्यातवंत थया, थायछे, अने थशे ते सर्व ज्ञानना प्रताप थकी
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( ८४ )
आत्मज्ञान महसा.
अने ते ज्ञान आत्मद्रव्यमां रहुंछे, दुनीयामां जेटलां शास्त्रछे ते आमामाथी नीळ्यांछे. अभ्यासादिक ज्ञाननां साधनछे, अनंत गुणोनो भोक्ता आत्माछे, आत्मानी ऋद्धि सदाकाल आत्मामां रहीछे, आत्म ऋद्धिन कदापि नाश थनार नथी. निश्चयनयथी जोतां आत्मा पराभावनो भोगी नथी. आत्मार्थी परभावनुं ध्यान निवारी स्वशुद्ध आत्मस्वरूपनुं ध्यान करे तो चरणनिधान देखे, क्रियाकांडथी भगवदाज्ञा डोळघालु कपटीओ अज्ञानी जीवने पोताना फंदमां फसावी धर्मना विश्वासमा फसावी पोते पण अज्ञानमां बुरेछे, अने अन्योने पण बुडाच्छे, सिंहना पराक्रमनो अभिमानथी पोतानामां आरोप करनारो शृंगाल क्यां सुधी कपट दृति चलावी शके. आत्मज्ञान तेज धर्मछे, तेज आदेयछे, अधुना पंचविषना योगे आ भरत क्षेत्रमा कृष्ण पक्षीण जीवोनी बाहुल्यताए गीतार्थना, सद्गुरुना समागम तथा विश्वास विना अने भवाभिनंदीपणाना त्याग विना अशुभ व्यवहारना त्याग विना मुमुक्षुना योग्यगुणो विना अज्ञानी जीवो ज्यां त्यां दृष्टिरागनी अंधताए विवेकनयनशून्य थया छता उपर उपरथी धर्मनामे टीलां टपकां करता अने करभ विवाह प्रसंग रासभ प्रशंसाना आचरणमां पोतानी वाहवाहमां कृत कृत्यता समजनार अज्ञानी जीवा सद्गुरुनी वाणी विषना प्याला समान लेखवी, कुगुरुनी वाणी अमृतना प्याला लेखवता, कुधारामां सुधारानी बुद्धि माननार, अस्थिर चित्तवाळा पामर प्राणीओ आध्यात्मिक शास्त्रोना ज्ञान विना अने देवगुरु धर्मनी श्रद्धा विना स्वच्छंदाचारीपणाने लीघे आत्मप्रशंसा अने परगुणापकर्षताए अज्ञानश्रद्धाए तत्व पाम्या जाणे होयनी ? एम संसारमां पराभव प्रवृत्तिथी स्वआयुष्य पूर्ण करी नृभवचिंतामणि रत्नसमान हारी, नरकादिक गतिना
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परमात्मदर्शन.
(४५) मेमान थइ आधि ब्याधिनी दुःख श्रेणि परंपराने पामेछे. ___आत्मार्थि जीव स्वपरवस्तुनो विवेक करी हेयज्ञेय उपादेय समजी गुणठाणानी परिणति समजी व्यवहार निश्चयनयर्नु स्वरुप गुरुगमद्वारा समजी वैराग्यनी तीक्ष्णताए सद्गुरु आज्ञाभक्ति विनययोगे सालंबन अने निरालंबन ध्याननी अभिलाषाए अंतःकरण शुद्धिपूर्वक स्पाद्वाद आत्मिक धर्मनुं आराधन करतो जल पंकजवत् वर्तन चलावतो व्यवहारमा वर्तेछे, परभाव प्रवृत्तिमूलरागद्वेषमहा मल्लछेदक आत्मस्वभावपरिणतिमां वर्तता भव्यात्माओ ज्ञान ध्यानयोगे क्षयोपशमभावे वा उपशम भावे मोहनीय कर्मनो उच्छेद करी समकित पामी स्वल्पकालमां कर्मक्षय करी केवलज्ञानादि संपदा पामी चउदमुं गुणठाणुं आयुष्य मर्यादाए उल्लंघी सादि अनंति स्थिति पामी अनहद आनंददायक शाश्वत शिवसुख स्वरुप मुक्तिधाम पामी शकेछ. समये समये जीव सात वा आठ कर्म बांधे छे, स्वभावमा रमे तो कर्मबंध टळेछे, माटे आत्मतत्त्वनी प्राप्ति अर्थे सद्गुरु वचनामृततुं विनयभक्तियोगे पान करवू एज हिताकांक्षा.
" दुहा." अखंड अक्षय शाश्वतुं, देखी आतम रूप; चित्ते चमक्यो आतमा, अरे हुं तो महा भूप.७६
भावार्थ-अखंड, अक्षय, शाश्वतस्वरुप पोतानुं पोते आत्मा देखी चित्तमा चमक्यो अर्थात् आश्चर्य पाम्यो, अने कहेवा लाग्यो के-अरे हुं तो महाभूपर्छ, अद्यापि पर्यंत में पोताने अज्ञानी जाण्यो, हुँ गरीब छु एवी मने भ्रांति हती पण हवे ए भ्रांति चाली गइ, हुं निर्धनछु एम हुं पोताने मानतो हतो पण जाण्यु के-मारा आत्मामा अनंत धन रांछे, तेनी संपति काले खबर पड़ी, चक्रवर्ति आदि
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आत्मज्ञान महता.
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राजाओने हुं महाभूप तीरके स्वीकारतो हतो पण हवे आत्मानुं स्वरुप ओळखतां मालुम पडयुं के इंद्र, चंद्र, नागेंद्र करतां पण आ शरीरमा व्यापक आत्मा मदाभूपछे. एनी प्रभुताइने कोइ पामी सके तेम नथी. स्त्री पुत्रादिकपर जेटली ममता थाय छे तेटली जो आत्मा उपर ममता थाय अने तेनुं ध्यान करवामां चित्त लागे तो आत्मा परमात्मस्वरूपने पामे. बहिरात्मिसाधुओने शिष्यो करवा उपर जेटली चाहनाछे तेटली जो आत्माना उपर चाहना थाय तो परमात्मपद अवश्य पामी शकाय. बाह्यधन तो मळेछे अने पापना उदये विणशी जायछे पण आत्मानुं अंतर्धन कदापि काळे नाश पामी शकतुं नथी. दुनीयाना प्रवाहमा जे तणायछे ते आत्मिक लक्ष्मी पामी शकता नथी-घणा भव कर्या, घणां शरीर छोड्यां, पौद्गलिक माया सर्व नाश पामी किंतु त्रणे कालमा आत्मा चेतन स्वभावेज वर्तेछे माटे आत्मा शाश्वतछे, वांचवा अगर कहेवा माथी नहीं पण ते अनुभवगम्यछे.
" हा." रझळ्यो हुँ परदेशमां, लहियां दुःख अनंत; शुभ देखी निजदेशने, शान्त थयो शिवकंत. ७७ ___ भावार्थ-पोताना आत्माना असंख्यात प्रदेश ते पोताना प्रदेश जाणवा अने पृथ्वीना जे देश ते पुद्गलास्तिकायछे, पुदगलास्तिकाय द्रव्य जडछे, पृथ्वीना प्रदेशोने पोताना प्रदेश मानी परदेशमा रझळ्यो, क्षुधा पिपसाए ताडनतर्जन छेदनभेदन आदि आत्माए अनंत दुःखो सहन कर्या, अने नाना प्रकारनां शरीरो धारण की पण दुःखनो अंत आव्यो नहीं, पण हवे सद्गुरुयोगे आत्मानुं स्वरूप जाणता पोतानो देश ओळख्यो अने आत्मा मुक्तिनो स्वामी शान्त
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परमात्मदर्शन.
( ८७ )
थयो, ध्यानथी आत्मा अने परमात्मानो मेद टळेछे. कछे केआत्मनोहि परमात्मनियो भूद्भेद बुद्धि कृत एव विवादः ध्यानसंधि कृदमुंव्यपनीय द्रागभेदमनयोर्वितनोति. १
आत्मा अने परमात्मामां भेद बुद्धिनो विवाद हतो, अर्थात् मां पंडितना विवादरूप झघडा हता तेने ध्यानरूप संधि पाले ध्यानी पुरुषे जलदीथी बेनुं अभेदपणं करी आप्युं, ध्यानम आत्मा अने परमात्मानो अभेद थाय एटले ध्याननी सिद्धि जाणवी. ध्यानीने पौद्गलिक देश उपर क्यांथी ममता होय. भरनिंद्रामां शुन्यतानी पेठे ध्यानो पुरुष रागद्वेषशून्य थाय छे, खरं सुख ध्यानी पुरुष जाणेछे, शब्दज्ञानियो भले व्याकरण न्यायना वाक्पंडितपणाथी इदंभवति इदं न भवति इत्यादिथी भोळा लोकोनी आगळ भ्रमजाल रचे. किंतु आत्मिक सुख मळतुं नथी, अने निरर्थक बाह्याचारनिंदकी थइ मनुष्य जन्म हारेछे, एवा शब्द ज्ञानीओने स्वदेशनी ममता थवी मुश्केलछे, शब्दज्ञानियों खंडनमंडननी संकल्प जाळमां पडी आत्मिक सुख प्राप्त करता नथी, अने तेमनुं परदेश पर्यटन बंध थवानुं नथी; बाह्य क्रियाकांडनी खटपट मां शब्दज्ञानीयो मतभेद चलावी परस्पर राग द्वेष करेछे, तेमनुं कल्याण मत कदाग्रहत्वथी थवं दुर्लभछे. स्वदेश अने परदेशनुं ज्ञान नथी त्यां सुधी जीव मिथ्यात्वी जाणवो. आत्मतत्त्वनुं ज्ञान थाय त्यारे मनुष्य जन्म लेखे जाणवो, खरेखर आत्मज्ञ महाशयो आत्मानी तात्त्विक शांतताने पामेछे; उपर उपरनी हलदरना रंग समान जे शांतता ते अंते टकी शकती नथी. केटलाक जीवो उपस्थी बगनी पेठे कपटत्तिय शांत देखायछे, अने अंतरां कपटी भरेला होय छे, केटलाक जीवो उपरथी देखतां शांत जणाता नथी अने अंत खरेवर शांत होयछे, केटलाक जीवो उपरथी पण शांत होयछे अने
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( ८८ )
आत्मज्ञान महत्ता.
अंतर पण शान्त होयछे, केटलाक अंतर्थी शांत होता नथी अने उपरथी पण शांत होता नथी. शांतावस्थानुं सुख आत्मज्ञानीयो पाम्या, पामेछे, अने पामशे.
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दुहा.
परपुद्गलना देशने, मान्या मारा देश; तेनी ममता करी, ग्रहिया पुद्गल वेष. ७८ ठाम ठाम हुं भटकियो, चार गति दुःख खाण; त्यां पण ममता देशनी, कीधी गुणनी हाण. ७९
भावार्थ- पौद्गलिक देशने पोताना मानी राग द्वेषयी कर्म ग्रहण करतो छतो विचित्र प्रकारनां शरीर धारण कर्या, नाना देहो धारण करी दुःखनी खाणभूत चार गतिमां ठेकाणे ठेकाणे चेतन भटक्यो, अने ज्यां ज्यां उत्पन्न थयो त्यां पण देशनी ममता धारण करी पोतानुं भान भूली आत्मगुणनो तिरोभाव कर्यो, आ मारुं घर, मारुं क्षेत्र, मारी पृथ्वी, आदिना अभिमानथी रुशिया जापाननी पेठे हजारो जीवोनो नाश थयो तेनुं कारण परपौद्गलिक देशनी ममताछे, अज्ञानी जीवो स्वदेशाभिमानमां एम. ए. सुधी भण्या होयछे तो पण अज्ञान प्रवाहमां तणाइ जायछे. पोतानो देश कयो छे ते गुरुभक्तो निश्चयतः जाणी शकछे. मन बाह्य विषयमां धावे छे, तावत् जीव कर्मनी राशि अशुद्ध परिणामे ग्रहेछे, गुजरात, बंगालादि देशो माराछे अने हुं एनोछु, आ राज्य मारुंछे अने हुं एनोछु, आ कुटुंब मारुंछे, अने हुं एनोछु, एवी बुद्धि यावत् थायछे तावत् जाणवुं के चेतन जडता अनुभवेछे, आत्मा अने परमात्म स्वरुपनुं ज्ञान थाय तेने ज्ञान कहेछे, अने आत्मा अने. परमात्मानी ध्यानयागे अक्यता थाय तेने विज्ञान कहेछे,
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- परमात्मदर्शन.
(८१)
उक्तश्चअन्य शास्त्रेऽपि क्षेत्र क्षेत्र ज्ञयोर्ज्ञानं, तज्ज्ञानं ज्ञानमुच्यते;
विज्ञानं चोभयोरैक्यं, क्षेत्रज्ञ परमात्मनोः१ स्वकीय अज्ञानथी आत्मा भटकायछे, अने पोताना ज्ञानथी कर्म विमुक्त आत्मा बनेछे, आत्मानो उद्धार आत्माज करी शकेछे, आत्मानुं उपादान कारण आत्माना गुणोछे, उपादाननी शुद्धि अर्थे भव्य जीवो निमित्त हेतु अवलंबी परमात्मपद पामेछे, अभव्य जीवोमा उपादान कारणनी शुद्धि थाय तथा प्रकारनो स्वभाव नथी. निमित्त कारण तो पामेछे, किंतु अभव्य जीवमां भव्य स्वभाव नथी, तेथी उपादान कारण शुद्ध थतुं नथी भगवद्गीताना छठा अध्यायना पांचमा श्लोकमां कडंछे के
श्लोक. उद्धरेदात्मनात्मानं, नात्मानमवसादयेत्, आत्मैवह्यात्मनो बन्धु, रात्मैव रिपुरात्मनः १
आत्मा उद्धारवो पोते, आत्माने मारवो नहि; बंधु पोतेज पोतानो, पोतेज रिपु छे सहि. १.
आत्मा स्वशुद्धपरिणामयोगे पोते पोतानो उद्धार करेछे अर्थात् परमात्मपद पामेछे, ज्ञपुरुषो कहेछे के-आत्माने भव्यात्माओए मारवो नहीं, पोताना आत्मानो घात करवो तेना समान पाप नथी, अध्यात्मगीतामां कांछेकेस्वगुण रक्षणा तेह धर्म, स्वगुण विध्वंसना ते अधर्म; भाव अध्यात्म अनुगत प्रवृत्ति, तेहथी होय संसार छित्ति.१
आत्माना अनंत गुणो कर्मयोगे ढंकायाछे, तिरोभावे रह्याछे,
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(40)
आत्मधर्म महत्ता.
तेनु रक्षण कर एटले ते अनंत गुणोने आविर्भाव करवा, कर्मशथी अवरावा देवा नहीं तेनुं नाम धर्मछे, धर्मना चार भेदछे, १ नामधर्म, २ स्थापनाधर्म, ३ द्रव्यधर्म, ४ भावधर्म. कोइनुं धर्म एवं नाम आप ते नामधर्म, कोइ पण वस्तुमां धर्मनो आरोप करवो ते स्थापनाधर्म, धर्मना हेतुओनुं अवलंबन करवुं ते द्रव्यधर्म वा उपयोग शून्य जे धर्म ते द्रव्यधर्म जाणवो, आत्मानी उपयोगताए नयनिक्षेपा सप्तभंगीथी आत्मानं अनेकान्त स्वरुप जाणी श्रद्धा करवी, तेनुं रक्षण कर तेनुं नाम भावधर्म जाणवो.
ते भावधर्म आत्मामा रह्योछे, शुद्ध, सत्य, अखंड, अक्षयरुप भावधर्म अरुपीछे अने ते भव्य जीवोने प्राप्त यायछे, समकितवंत जीवने भावधर्मनी प्राप्ति थायछे, भावधर्म विना सर्व क्रिया निफल जाणवी.
द्रव्यधर्मना वे भेदछे, लौकिक द्रव्यधर्म बीजो लोकोत्तर द्रव्यधर्म, लौकिक द्रव्य मिथ्यात्वनुं कारणछे, भावधर्म सापेक्ष लोकोत्तर द्रव्यधर्म परमात्मपद साधक निमित्त कारणछे, आत्मीय गुणोनुं रक्षण ते धर्म, अने आत्माना गुणोनो नाश करवो एटले आत्माना गुणो तिरोभावे वर्ताय तेम रागद्वेषयोगे ज्ञानावरणीयादि कर्म ग्रहण कराय तेनुं नाम अधर्म जाणवो, नाम अध्यात्म, स्थापना अध्यात्म, द्रव्य अध्यात्म अने भाव अध्यात्म ए चार ४ निक्षेपाए अध्यात्म जाrg. आयनां ३ त्रण अध्यात्म अनुपयोगी जाणवां, भाव अध्यामथकी कर्मकलंक नाश पामेछे. माटे भाव अध्यात्म अनुगत प्रवृत्ति थाय तो तेथी संसारनो उच्छेद थायछे, माटे ज्ञानी पुरुषो कहे छे के आत्माने मारवो नहीं, आत्मानी जो अशुद्ध परिणति थइ तो आत्माए आत्माने मार्यो कहेवायछे, आत्मा पोते पोतानो बंधुछे, एम कवाथी सिद्ध थयुं के पोतानुं भलं करवा पोते आत्मा समर्थ
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परमात्मदर्शन.
( ९१ )
छे, राग द्वेषने आत्मा जीते तो आत्मा बंधू समानछे, सगा सहोदर बंधुनी ममताथी आपणा पोताना आत्माने राग द्वेष लाग्याछे ते दूर थवा नयी, माटे बीजाने बंधु तरीके मानवा ए तो संसार व्यवहारनी कल्पनाछे, व्यवहारिक कार्योंमां सहोदर बंधुनी जरुरछे, किंतु आत्मा परमात्मस्वरूपमयथाय तेमां तो आत्माज पोते बंधुछे, त्यां अन्यनुं कथं चालतुं नथी, रागद्वेषना प्रवाहमां आत्मा अशुद्ध परिणामयी वछे तो आत्मा पोते पोतानो शत्रुछे एम जाणवुं. आत्मा परभाव त्यागी स्वभावमां रमे तो आत्मानो कोई शत्रु नथी, आत्मा विना आत्मानो शत्रु अन्य कोइ व्यवहारथी कल्पना मात्र जाणवो. राग द्वेषे संसारमां राच माचनुं, तथा आत्मानी अज्ञानताथी मिथ्यात्व परिगतिए करी आत्माने परमात्मपद पामवामां आत्मा शत्रु भूतछे, यावत् जीव समकित पाम्यो नयो अने मिथ्यात्व भावे रमो परने पोतानुं मानेछे तावत् ताविक सुख पामी शकतो नयी, माटे आत्मिक अ संख्यातमदेशमां ध्यान देवु.
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दुहा.
धर्माधर्माsकाशना, प्रदेश हान न लेश; पुद्गलना जे देश छे, दे अज्ञानी कूलेश. ८०
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकायना प्रदेशयी आत्मगुणोनी हानि लेशमात्र पण थती नथी, पण पुद्गल स्कंधो अज्ञानीने क्लेश आपेछे धम्मा धम्मा गासा तिन्निवि ए ए अणाइया । अपज्जवसियाचेव सव्वद्धं तु वियाहिया.
धर्म, अधर्म अने आकाश ए त्रग द्रव्य अनादि कालनांछे अने अनं छे १४ चउदराजलोक व्यापि धर्मास्तिकायछे, अधर्मास्तिकाय
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(९२ )
भास्मधर्म महत्ता. ~nrmmmmmmm पण चउद राजलोक व्यापीछे, आकाशास्तिकाय लोकालोक व्यापी छे. अशुद्ध परिगति योगे आत्मा पुद्गलास्तिकायना स्कंधोने ज्ञानावरणीयादि अष्टविधकर्मराशिरूप बनावी ग्रहण करी संसारमा परिभ्रमण करेछे. ___आत्मा शुद्धस्वरूप जोतां अरूपीछे, छतां रूपी एवा कर्मथी आत्माना अनंतगुणोनुं आच्छादन थायछे, आत्माना एकेक प्रदेशे अनंति कर्मवर्गणाओ लागीछे, किंतु आत्माना आठ रूचक प्रदेशे कोइ कर्म लागतुं नथी ते आठ रूचक प्रदेश सिद्ध समान सदाकाल निर्मल अनादि कालनाछे, ए आठ रूचक प्रदेशे पण जो कर्म लागे तो जीवनुं जीवखपणुं चाल्यु जाय. रूचक प्रदेशनो एवो स्वभावछे के तेने कोइ कर्म लागी शके नहीं, जेम जेम एकेंद्रियादिक भवनुं उल्लंघन करी उच्च गतिमा आवेळे तेम तेम तरतमयोगे सामान्यतः मतिज्ञान श्रुतज्ञाननी प्राप्ति थाय छे. शिष्यप्रश्न-आत्माना असंख्यात प्रदेशी शी रीते कहेवाय ? असं
ख्यात प्रदेश कहेवाथी आत्माना असंख्यात भाग थया त्यारे आत्माना खंड थया अने अखंड आत्मा कहेवाशे नहिं माटे
आत्माना असंख्यात प्रदेशो कहेवा ते शीरीते= सद्गुरु-आत्मा असंख्यातप्रदेश मळी कहेवायछे, असंख्यात प्रदेश कहेता आत्माना असंख्याता भाग थइ शकता नथी. कारणके प्रदेशो एक एकथी जुदा पडता नथी, प्रदेशो बाळ्या वळता नथी, छेद्या छेदाता नथी, हण्या हणाता नथी. केवली केवली समुद्घात करे त्यारे आत्माना प्रदेशो लोक प्रमाण विस्तारेछे छतां पण प्रदेशो एकमेकनी साये नित्य संबंधयी संबंधितछे. तेथी असंख्यात प्रदेशे मळी आत्मा कहेवामां कोइ जातनुं दूषण नथी आंवतुं, आत्माना प्रदेशो अरूपीछे, तेथी
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परमात्मदर्शन,
असंख्य प्रदेशात्मक आत्मा पण अरूपो कहेवायछे. आत्माना खंड कोइनाथी पाडी शकाता नथी, अने कोइ काले खंड थता नथी. माटे अखंड आत्मा कहेवाय छे, असंख्यातप्रदेशो कल्पना मात्र नथी पण ते सत्यछे. कल्पना मात्र कहेवामा प्रत्यक्ष प्रमाण नथी, अनुमान प्रमाण नथी, उपमान प्रमाण पण नथी. अने आगम प्रमाणमां तो आप्तमुख्य श्री सर्वज्ञ वाक्य प्रमाण कहेवाय छे-श्री सर्वज्ञ भगवंते कझुछे के-लोगागासतुल्लाअषपएसा माटे लोकाकाशना जेटला आत्माना प्रदेश के एम सत्य
श्रद्धा करवी. प्रश्न-कोइ एक गिरोलीनी पुंछडी कपाइ जइ त्यारे एक तरफ पुंछडी
कूदेछे. उछळेछे, अने एक तरफ धड उछळेछे त्यारे जीव
बेमां समजवो के एकां ? ऊत्तर-पुंछडी अने धडमां एम बेमा आत्माना असंख्य
प्रदेशो हेोवाथी मां अपेक्षाए जीव कहेवाय छे. केटलाक प्रदेशो पुंछडीना भागमा रहेला होयछे तेथी ते हाले छे पग धडना भागमां ते सर्व प्रदेशो भळी जायछे त्यारे पुंछडी हालती नथी. ते समये धडमां जीव कहेवायछे ए उपरथी सिद्ध थायछे के आत्माना प्रदेशोथी एवो बनाव बने छे, सूक्ष्मबुद्धि अने गुरुगमथी आ दृष्टान्त मनन करवू. ज्ञानावरणीय कर्म सर्व जीवने एक सरखं होय तो स जीव एक सरखा ज्ञानवाळा होवा जोइए पग ज्ञान एक सरखं होतुं नथी माटे ज्ञान, प्रतिबंधक ज्ञानावरणीय कर्म जीव जीव प्रत्ये भिन्न भिन्न नाना प्रकारचं होयछे. तेथी नेना क्षयोपशम भावे पक जीवन भिन्न भिन्न प्रकारचें ज्ञान थायछे. उपाधि भेदे ज्ञानाननीयाम पंचविधछे, ज्ञानावरणीयादि
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(९४)
आत्मधर्म महत्ता. अकर्म आत्माना अष्ट गुणोनु आच्छादन करेछे. अष्टकर्मना नाशथी अष्ट गुगो आविर्भाो थायछे, ययपि जो के कर्म बलवान्छे तथापि आत्मा ज्ञानयोगे स्वस्वरूपमां रमे तो क्ष. णयां कर्ममो नाश करी शकायछे. भगवद्गीतामां पण कयुं छे के
___ अध्याय चोथो श्लोक ३७ मो. यथैवांसि समिद्धाऽग्नि, भस्मिसात् कुरुतेऽर्जुन. ज्ञानामिः सर्व कमाणि, भस्मसात् कुरुते तथा. ३७ नहि ज्ञानेन सदृशं, पवित्र मिह विद्यते, तत्स्वयं योग संसिद्धः कालेनात्मनि विंदति. ३८ अपिचेदसि पापेभ्यः, सर्वेभ्यः पापकृत्तमः सर्वज्ञानप्लवेनैव, वृजिनं संतरिष्यसि.
. भावार्थ-महामेरुना ओळंघनारने वालुका जेम ले यछे, अनि काष्ट समूहने वाली भस्म करेछे तेम ज्ञानरूप अग्नि सर्व कर्मोने बाळी भस्म करेछे आत्मानुं अनेकांतपणे यथातथ्य ज्ञान थाय तो कर्मनो नाश थायछे. परम पुरुषार्थ साधन ज्ञान समान कोइ नथी, अपवित्रने पण ज्ञान पवित्र करेछे, माटे ज्ञान सदृश अन्य कोइ पवित्र नथी, ज्ञानी सर्व पापनो नाश करेछे, हुं आत्मा परमात्मा स्वरूपर्छ एम स्वसत्ताने भव्यात्मा ध्यावेछे. __ मोटामां मोटुं पाप करनारो तुं होइश तो पण हे अर्जुन तुं ज्ञान नौकाथी सर्व पाप तरी जाइश एम कृष्ण कहेछे. शिष्य-आ ठेकाणे तमो केम भगवद् गीतानो दाखलो आपोछो ? जैन-जैनधर्म एक देशी नथी पण सर्व देशीछे, जैनोमां जेम ज्ञानन महात्म्य कथ्युंछे, तेम गीतामां पणछे ते जणाववा माटे साक्षी
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परमात्मदर्शन.
(१५) आपीछे.अन्य शाखना श्लोकोने समकिती जीव अनेकान्तनयनी अपेक्षाए ग्रहण करीसमकित रूपे परिणमावेछे,एक शरीर त्यागी अन्य शरीर धारण करवानु कारण कई पण होवू जोइए. ते कारण कर्मछे, अने कर्म आत्माथी भिन्नछे, भिन्नछे त्यारे ते चैतन्य नथी, विपरीत जड द्रव्य सिद्ध ठयु, माटे तेनो पुद्गलास्तिकाय द्रव्यमा अंतर्भाव थायछे. लोहचुंबक पोतामा रहेली शक्तिवडे जेम से यने पोतानी भणी खेंचेछे तेम आत्मा अशुद्ध परिणतियोगे स्वमायोग्य पुद्गलोने राग द्वेषयोगे कर्मरूपे ग्रहण करेछे. अने कर्मथकी चार गतिनां दुख जीव पामे छे. नैश्चयिक शुद्ध आत्मिक स्वरूप ध्यावे अने आत्म ने सर्व थकी न्यारो माने अने परवस्तु उपरथी अहंममवभाव उठाडे तो सिद्ध बुद्ध परमात्म स्वरूपमय आत्मा थाय.
वर्ण पांच जेमा रह्या, गंध दोय ज्यां खास; षांचे रसनी स्थीति ज्यां, स्पर्श आठनो वास. ८१ एवा पर्यायो रह्या, तेहिज पुद्गल द्रव्य; व्याप्युं लोकाकाशमां, कर्ता नदि कोइ भव्य. ८२ काल अनादिथी रां, रहशे काल अनंत; नित्यानित्यपणे सदा, रूपी द्रव्य कहंत. ८३ ___ भावार्थ-पांच वर्ण, बे गंध, पांच रस, अने आठ स्पर्शरुप पर्यायो जेमा रह्याछे, तेने पुदगलद्रव्य कहेछे, ते लोकाकाशमां व्याप्युंछे, पण अलोकाकाशमां पुद्गलद्रव्य नथी, पुद्गलद्रव्य अनादिकालथीछे, अने अनंत काळ सुधी रहेशे, द्रव्यार्थिक नये पुद्गलद्रव्य नित्यछे, अने पर्यायार्थिक नये पुद्गलद्रव्य अनित्यछे, पुद्गल द्रव्यरूपीछे.
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( ९६ )
आत्मधर्म महत्ता.
"" दुहा.
घटपट वस्तु जे दिसे, ते सहु पुद्गल जाण । ते आतमथी भिन्न छे, शास्त्र वचन प्रमाण. ८४ पुद्गल देशे म्हालतां, मार्यो चेतन जाय; तेमां ममता मानता, मरी मरी दुःख पाय. ८५ पृथ्वी थइ नहि कोनी, कोटी करे उपाय, लक्ष उपायो लेखवे, नहि आकाश झलाय. ८६ पुद्गल वस्तु कारमी, घर हाटां ने म्हेल; सोनुं रूपं धन सहु, पुद्गलना छे खेल. ૮૭ दृष्टा पुद्गलनो सदा, सुख दुःखनो जे जाण; वास वस्यो पुद्गल विषे, आतम गुणनी खाण.८८ पुद्गल जे देखाय छे, तेथी चेतन भिन्न कर्त्ता चेतन कर्मनो, परपरिणति रस पीन आत्माऽसंख्य प्रदेश छे, प्रति प्रदेशे ज्ञान; अनंत जिनवर भाषियुं, छति पर्याये जान ९० विशेष सामान्ये करी, दो भेदे उपयोग; असंख्यात प्रदेशथी, वर्त्ते निजगुण भोग. अस्ति धर्म अनंतनो, भोगी आतम राय; नास्ति धर्म अनंत त्यांय, समय समय वर्ताय ९२ - उज्वल आत्मप्रदेश छे, समता रस भंडार; तेनो कर्त्ती आतमा, शुद्धनये निर्धार.
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परमात्मदर्शन,
वसतां तेह प्रदेशमां, रमतां समता संग; सुखसागरमां उछळे, हर्षानंद तरंग. ममता पर परदेशनी, भागी जागी ज्योत; सहजे आत्म स्वरूपनो, थयो महा उद्योत. ९५ भिन्न जाति पुद्गल तणी, मारी तेथी भिन्न भिन्न जातिशुं संग श्यो, तेथी थइयो खिन्न. ९६ संग अनादि कालथी, तेने मानी मित्रा राग द्वेषना योगथी, अहियां देह विचित्र. ९७ दुग्धनीरसंयोगवत्, आतम पुद्गल संग; थयो अनादि कालथी, करतां कर्म कुटुंग. ९८ तेथी अवळी परिणते, कर्ता कर्म कहाउ; सवळी परिणति योगथी, शुद्ध निरंजन थाउ. ९९ पुद्गल खावू पहेरवं, पुद्गल वसति महेल; वास वसी तेमां मुधा, मानी सुखनी स्हेल. १०० रमुं हवे शुं बाह्यमां, जेनी कूडी चाल; संगे तेनी माहरे, थ, पडयुं बेहाल. . १० मित्र नदि ते माहरो, अवलो तास सहाव; हाय हाय तस संगथी, बनिया एह बनाव. १०२
भावार्थ-आ प्रत्यक्ष घट पट दंडादि वस्तु चक्षुषा विषय गोचर थायछे. ते पौद्गलिक वस्तु जाणवी. अने ते आत्म द्रव्यथी भिनंछे, एम श्री तीर्थकर महाराजा शास्त्रमा कथेछे.
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पात्मज्ञान महासा.
पृथ्वी आदिक रूपे स्थित उपवन, गिरि, वख दि, गुजरात, पंजाब, इंग्लांड, युरोप, अमेरिकादि देशोमां मारापणानी बुद्धिथी राची माची तल्लीन बनी तेमां म्हालतां चेतन मार्यो जायछे, देश, गृह, धनादिकां मारापणानी बुद्धि धरतो मृत्यु पामी पुनः पुनः तद्गत वासना योगे जन्म धारण करी आधि व्याधि उपाधिना दुःखो पामेछे. हे चेतन शुं तृष्णा जाळमा फसायछे ? स्वभावाभावरूप अज्ञानतमः राशिमां विवेक नयन शून्यात्मा अत्र तत्र ऐहिक सुखनी भ्रान्तिए भ्रमण करतो, मनोराज्यनी संकल्प विकल्प श्रे. णिए चढयो छतो धूम्र वृन्द ग्रहण पुरुषवत् क्षणिक तुच्छ सर्वदा जड पृथ्वीने पोतानी मानी तदर्थे सहस्रशः जीव घातक बनी शोफापुरुषवत् स्वमहत्वतामा अन्य भव्यात्माओने पर्वतारोहण पुरुष दृष्टिवत् लघु गणी पारमार्थिक तत्त्व शून्यात्मा क्षणिक तुच्छ स्वाथमा राची परवस्तुमां ममतानो दृढ भाव संकल्पी रात्री दिवस तिल. पीलक यंत्र वृषभवत् असदाचरणोमा स्वकाल अज्ञानी पशुवत् निगंमेछे, पोतानाथी अत्यंत भिन्न पृथ्वी कोइनी थइ नथी, अने थवानी नथी मारी मारी मानवी ए केवल भ्रांतिछे, लक्ष उपायो करतां पण आकाश हाथमा झाली शकातुं नथी. तेम कोटि उपायो करतां पण पृथ्वी देश, घरबार पोताना थवानां नथी, देश, घरने जीव मूकी परभवमां चाल्यो जायछे, जे घर हाट म्हेल बंधावतां रक्षण करतां चेतने जरा पण शांति लीधी नहीं, ते घर हाट मूकी मरण समये जीव टगमग जोतो जीववानी सहस्रशः आशाओ करतो पण परभवमां चाल्यो जायछे, साथे कोइ पण वस्तु आवती नथी, ज्यां जे वस्तु हती ते त्यांने त्यां रही, अनंता भव कर्या पण कोइ बस्तु साथे आवी नहीं, तो आ भवमां तुं कइ वस्तु पोतानी साथे लइ जइश ? हा अलबत कोइ पण वस्त पोतानी साये आवनार
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परमात्मदर्शन.
( ९९ )
नधी, पौद्गलिक वस्तु उपर शो राग अने द्वेष करवो ? केटलीक वस्तुओ मळे अने केटलीक वस्तुओ नाश पामेछे, सग संबंधी वर्गनी मीति पण स्त्रार्थना लीघे क्षणिक छे. खरी वस्तु आत्माछे, बाह्य पदार्थोंमां मारापणानी बुद्धि थाय छे तेनो नाश थइ अंतर आत्मतत्त्वमां मारापणानी बुद्धि थाय तो परमात्मपद पामी शकाय. घर हाट म्हेल आदि पौद्गलिक वस्तु कारमीछे, सुवर्ण, रुपुं, मोती, हीरा आदि सहु धन जे कहेवाय जे ते कारमुंछे, हे जीत्र तेमां तुं शुं ममता धारण करेछे ? जेनो संयोग तेनो अवश्य वियोग थवानोछे, पूर्वोक्त पुद्गलनो दृष्टा अने सुख दुःखनो ज्ञाता आत्मा देहरूप पुनलमां वस्योछे, अनंतगुणनो धणी आत्माछे, पांच प्रकारना शरीरथी आत्मा भिन्नछे, पर परिणतिमां लीन थलो चेतन व्यवहारथी कर्मनो कर्त्ता जाणवो.
आत्माना असंख्याता प्रदेशछे, प्रत्येक प्रदेशे अनंतु ज्ञान श्रॉ जिनवरे कछे, आत्मामां अनंत धर्मनी अस्तिता रहीछे तेमज आत्मामां अनंत धर्मनी नास्तिता रहीछे, अस्ति अने नास्ति धर्म समये समये आत्मामां बतेंछे, सत्ताए संसारी जीवोना प्रदेश निfa सिद्ध समान जाणवा अने ते समता रसनो भंडारछे, शुद्धन यथी स्त्रज्ञानादिक गुणनो कर्त्ता आत्मा जाणवो.
आत्माना असंख्यात प्रदेशमां रमतां असंख्य देशरूप आत्मा पोते पोताना स्त्ररूपे स्थिर थतां अने शत्रु मित्रपर समपणुं ते रूप समता साये रमतां क्षणे क्षणे अनंत अनंतगणुं सुख थायछे, आत्म स्वरूपनो स्ववीर्यध्याने उद्योत थतां परपरदेशनी ममता नष्ट यइ अने जाण्युं के - पुद्गलनी जाति माराथी भिन्नछे, अने हुं तेथी भिन्नहुँ, तो मारे पुद्गल जातिथी शो लाभ ? अने तेनो संग केम करवो जोइए ? अरेरे हूं अनादि कालथी तेनी संगतिथी खिन्न थयो,
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NAAM
(...)
मात्मज्ञान महता. वळी पुद्गलने शत्रु तरीके छतां मित्र तरीके मानी राग द्वेषना योगे विचित्र देहो ग्रहण की.
हवे आत्मा अने पुद्गल स्वरूप कर्मनो परस्पर कोना जेवो संयोग थयो ते कहेछे क्षीर नीरवत् दुग्ध अने जलना संयोगनी पेठे.
जे देखायछे ते पुद्गलद्रव्य हे चेतन तारुं नथी अने तुं तेनो नथी तेम उतां तुं केम तेमा मारापणानी बुद्धि धारण करछे, ज्यां सुधी चेतननी अबळी परिणतिछे त्यां सुधी संसार जाणवो, सबळी परिणति थतां कर्मनो क्षय क्षणमां थायछे, अने आत्मा शुद्ध निरंजन परमात्मपद प्राप्ति करेछे.
पुद्गलर्नु भोजन तरीके तथा पुद्गल पाणी तरीके खान पान करवं, तथा वस्र तरीके पहेरवू, पण पुद्गल जाणवू, स्थान, मासादरूप पुद्गलद्रव्य जाणवू. फोगट आत्माए पुद्गलमां वसी सुखनी सहेल भ्रांतिथी मानी. - हवे हुं पुद्गल द्रव्यमां केम राची माची रमुं ? तेनी संगतिथी मारी खराब अवस्था थइ, मारा अनंत गुणोनो पुद्गलद्रव्य घातकछे, माटे ते मारो मित्र नथी, कारण के मारा करतां तेनो अवळो स्वभावछे, मारो चेतना गुणछे तो तेनो जड गुणछे, अरेरे तेनी संगतिथी आ संसारमा परिभ्रमण करतां विचित्र बनाव बन्या. .
" दुहा." चार गतिना चोकमां, लख चोराशी बजार, त्यां बहु जन्म मरण करी, पाम्यां दुःख अपार १०३ पुद्गल संगे राग छे, पुद्गल संगे रोग; रुचि अरुचि पुद्गले, पुद्गलनो छे शोग. १०४
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परमात्मदर्शन.
...)
घर पुद्गलनी लालचे, लडाइ करता लोक; राजन साजन मोटका, जन्म गमावे फोक. १०५ विरोधिनी मित्रता, करतां निज गुण हाण; अज्ञानी मूढातमा, रणना रोझ समानः १०६ चुंथी पुद्गल एंठनें, रमतो तेनी संग; विष्टाना कीडापरे, धरतो कर्म कुटंग १०७ भ्रमित थइ भूली गयो, अविचल आत्मस्वरूप; अशुद्ध परिणतिथी अरे, पडियो भवजल कूप. १०८ चेत चेत ज्ञट आतमा, शुद्ध स्वरूप निहाल; आ संसार स्वरूप सहु, परगट माया जाल. १०९ अधुना भ्रान्ति छोडीने, देखो अंतर्दृष्टि, अंतर्दृष्टि देखतां, प्रगटे निजगुण सृष्टिः ११० तिरो भाव निजऋद्धिनो, आविर्भाव प्रकाश; परमातम पद ते कयुं, ते पदनो हुँ दास. १११ ते पद जेणे ओळख्यु, तेमां जेनुं ध्यान; साधुपद तेणे ग्रह्यु, तेनुं शुधुं ज्ञान. ११२ तत्पदना उपयोग वण, चाले जे व्यवहार; घाणी वृषभ तणीपरे, मटे नहीं संसार. ११३ राचो नव रस ज्ञानथी, काव्य करो को लाख; तत्पदना उपयोग वण, घी रंडो ज्यु राख. १११
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भारमशान महत्ता.
तर्क नरक गति दीये, जेने नाहे निज भान; शब्दशास्त्रथी भिन्नछे, आतमपद गुणवान्. ११५ कथा पुराणी बहु करे, जन मन रंजे भाट, वाद वाघरी घेरछे, धर्म विना सहु वात. ११६ क्रियाकांड नवि मुक्ति दे, जो नहि आतमभान, आत्मोपयोगी साधुने, धर्मक्रिया गुणखाण. ११७
भावार्थ-चतुर्गति संबंधी चतुरशिति लक्ष जीवयोनिमां आ प्रत्यक्ष शरीरनिष्ठनीवे जन्म मरण करी अनंत दुःख पाम्यां.
पुद्गल ममता वा अरूचिथी जीवनी परिणति रागद्वेषमय थइ जायछे, रूचि अरूचि पण पुद्गलना संबंधेछे, पुद्गल संबंधे शोक थायछे, देशधनादिक पुद्गलनी लालसाए दुनियाना जीवो सहस्रशः जीना प्रागनी आहुति युद्धानिमां होमे छे. रूशिया, जापान, विगेरे युद्ध करेछे ते पग पुद्गलनी लालसाथी जाणवी. महमद गीजनीवत् नृपो पुद्गल लालसामां रक्त बनी शोफा पुरुषवत् स्वमहत्वनी भ्रमणामां भूली तत्व विवेचन विवेकशून्य अंत:करणवाळाओ अजागल स्तनवत् स्वआयुष्यनी निष्फलता करेछे.
पुदगल द्रव्य आत्मगुग विरोधीछे, तेनी मित्रता करतां स्व. कीय गुणनी हानि थया विना रहेती नथी, पुद्गलथी पोताने भिन्न नहीं माननार अज्ञानी मूढात्मा रणना रोझ समान ज्ञानशून्य जाणवो.
"आहार, पाणी आदि पुद्गलने अनंता जीवोए भोगव्युं तेज पुद्गलने आ जीव भक्षण करेछे, अनंता सिद्ध भगवंतोए संसारापस्थामा अनंता भव करी पुद्गल स्कंधोने खाधा, पीधा, पळी
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परमात्मदर्शन.
( १०३ )
तेज पुद्गल द्रव्यने अभव्यादि जीवोए पण पोताना भोगमां ग्रह्मा माटे पुद्गल सर्व जीवोनी वमन करेली ऐंठ जाणवी. ते ऐंटने हे जीव ! तें अनंतिवार चूंथी, हाल पण चूंथेछे, भविष्यकाले पण कोण जाणे शुं थशे ? हजी तुं केम चेततो नथी, तारी अनंति ऋद्धि तारी पासेछे ते मूकीने तुं ऐंठ चुंथे ते तारी ओछी अज्ञानसा! अरे जीव तुं जरा मात्र पण शरमातो नथी, शुं तने भिक्षुकनी पेठें पुद्गल ऐंठ चुंथवाथी तृप्ति वळवानीछे ? ना कदी नहीं, जेटला पुद्गल ऐंठ चुंथेछे ते गमे तो इंद्र, चंद्र, नरेंद्रादिक होय तो पण भिखारीना सरखा जाणवा. प्रश्न - हे सद्गुरु ! त्रयोदश गुणस्थानवर्ति श्रीतीर्थंकर केवली पण
आहार पाणी ग्रहण करेछे तेथी ते पण शुं भिक्षुक जाणवा ? उत्तर - हे शिष्य - श्री त्रयोदश गुणस्थान वर्त्ति तीर्थकर महागजे मोहनीय, अंतराय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, ए चार ४ कर्मनो सर्वथा क्षायिक भावे क्षय कर्योछे, वेदनीयादिक चार अघातीयां कर्म अवशेष रह्यांछे, क्षुधा लागवी, तृषा लागवी ए वेदनीयकर्मनो विषयछे, मोहनीय कर्मना अभावे क्षुधा वेदनीयना उदये क्षुधा शांत्यर्थम् गृहभटकवत् आहारादिकनुं ग्रहण करेछे, तेथी पुद्गल अॅट चुंथी कहेवाय नहीं, ममताभावे आहारादिक जे ग्रहण करे ते पुद्गल अॅट चुंथनारा जाणवा.
मुनिराजो के जे स्वस्वभावमां रमनारा अने परस्वभावना त्याग करनारा कदाग्रह त्याग करनारा शत्रु मित्र सम दर्शक अध्यात्मनिष्ट चित्तवृत्तिवंतो पुद्गलने माटे क्षुधा तृषा शांतिने माटे आहार पानादि ग्रहण करेछे, पण तेमां राचता नथी तेथी ते पुद्द्रगलनी अॅठ चुंथनारा जाणवा नहीं, मेवा मिष्ठान्न आदि भक्षण करतो नथी पण ते भक्षण करवानी जेना मनमां लालसांछे, अने
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(308)
आत्मज्ञान महसा.
ते मिष्टानां राचे माचेछे तेने पुद्गल अॅठ चुंथनार जाणवो.
बाह्य स्त्री भोगवानुं पञ्चरुखाण कर्युछे, पण अंतरमां स्त्री भोगववानी लालसा बनी रहीछे तो ते स्त्री भोगवनारज जाणवो. जो एम न मानीये तो घणा दोषो आवे.
प्रश्न- कोइ बहुचराजीनो फातडो ( पुरुष पण स्त्रीनो वेष पहेरनार ) छे ते स्त्री काया करी भोगवतो नथी तो शुं ते ब्रह्मचारी कवाय के नहीं ?
उत्तर - जो फातडाना मनमां स्त्री भोगववानी इच्छा बनी रहीछे तो ते व्यभिचारी जाणवो. कारण के रागथी कर्म बंधायछे, ते राग तो मनमां स्त्री उपर बनी रह्योछे माटे ऋजुसूत्र नयना मते व्यभिचारी जाणवो.
प्रश्न- कोइ ठेकाणे एम को छे के मन जाय तो जाने दो, मत जाने दो शरीरः बिन चढावी कामठी, क्युं लगेगा तीर. १ आ उपरथी सिद्ध थायछे के मन कदापि आई अवलं जाय तो हरकत नथी किंतु शरीर जवा देशो नहीं, कारण के शरीरथी कर्म बंधायछे, माटे शरीरथी ब्रह्मचर्य पाळे तो शुं ब्रह्मचर्य का नहीं ?
उत्तर - ए कथननो सार ए छे के मनमां कदापि स्त्री भोगववानी इच्छा थइ पण हे भव्य शरीरथी स्त्री भोगवीश नहीं, कारण के तेथी एक तो कर्मबंध, ताडन तर्जन, निंदा, अवहेलनादि विशेष दोषो प्राप्त थशे, ते जणाववाने माटे अने वळी जाणवु - मनयोगी साधे काययोग भळे तो विशेष कर्मबंध थाय, तेथी एम शिक्षा वाक्य लख्युंछे.
प्रश्न - कोइ माणसे मनमां एम चितव्यं के मारे विष खा अने अन्य मनुष्ये विष भक्षण कर्यु, ए वे मध्ये कोने वधारे हानि
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परमात्मदर्शन.
थाय ? तथा एक नुध्ये-कार करी लाख मनुष्य मार्ने अने एक मनुष्ये मनमां चिंतवना करी लाख मनुष्य मायाँ
तेषां विशेश दोष कोने लागे ? उत्तर-कायाए करी विष भक्षकने विशेष हानि याय कारण के
ते मनोयोगथी चिंतनपूर्वक विष भक्षण करेछे, अने तेथी ते मृत्यु पामेछे. मनोयोगयी तेटली हानि थती नथी माटे प्रायः योडो दोष जाणवो. कायाए लक्ष मनुष्य मारनारनी साथे मनोयोग भळेलोछे, तेथी विशेष दोष लागे तथा फक्त मनमा चितवनाथी लक्ष मनुष्य मारनारने तेना करतां थोडोदोष लागे.
प्रसनचंद्र राजर्षिए मनमा युद्ध करवाथी घणां कर्म उपाया तेथी कर्मबंधा पननी मुख्यता जाणवी, मननायोगे अन्यमति थायछे, मनमा विकरा संकल्प थाय नहीं तेने माटे ध्याननी अ. गत्यता छ, घणां कर्म ध्यान करवाथी नष्ट थाय छे. श्री यशोविजयजी उपाध्यायनी कहे छे के
श्लोक यत्र गच्छति परं परिपाकं, पाकशासनपदं तृणकल्पं ॥ स्वप्रकाशसुखबोधमयं तद्,ध्यानमेव भव नाशि भजध्वं ।
भावार्थ-ज्यां ध्याननी परिपक्वता थएछत मुनिराज इन्द्रनी पदवीने पण तृणखला बरोबर जाणे, गगे, मारे पोताना आत्माना स्वरूपन प्रकाशक एवा ध्य नथी दुःखनी भ्र न्ति टळे छे, अनुभषयी भासे छेके-ध्यानविना आत्मिकसुखनो अनुभव थतो नथी, केवल सुखनुं निधान छ, तथा ध्यानथी आत्मानुं शुद्ध ज्ञान प्रगटे, माटे हे भव्यात्माओ! मुनिवरो! तमोए बाह्य उपाधिने त्यागीछे तो रागद्वेषमोहादिक अंतर उपाधियी भरपूर एवो जे चार
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भावधर्म वाता.
गतिरूप संसार तेनो नाश करनार जे ध्यान सेने सेवो, तेनो आदर करो, तेना उपर राग धरो. अने ध्यानवंत पुरुषोनी संगति करो के जेथी मति श्रुतज्ञाननी स्फूर्ति थाय जे ध्याननु अवलंबन करता मसमचंद्र राजर्षि कर्मग्रंथी छेदी मोक्षे गया ते ध्याननुं अवलंबन करवायी मनुष्य जन्मनी साफल्यता जाणवी..
श्लोक. आतुरैरपि जडैरपि साक्षात्, सुत्यजाहि विषयाननुरागः ध्यानवांस्तु परमद्यनिदर्शी, तृप्तिमाप्य नतमृच्छति भूयः२ ... भावार्थ-कामातुर अने जड पुरुषोवडे पण कारण पामी पंचेंद्रियना विषयो त्यजायछे. जेमके-कोइने स्त्री भोगवनीछे पण केदखानामांछे, तेथी सुखे विषय त्यागे. कोइ रोगी दवाखावाना मसंगे चरी पाळेछे, तेथी शाकादिकनो सुखे त्याग करेछे, पण ते विषयनो कारणीभूत जे राग तेनो नाश थतो नथी. राग दशा त्यागवी दुर्घटछे. किंतु ध्यानवंत पुरुष तो मात्र परमात्म स्वरूपने देखनारछे तेथी ते ध्यानमा तृप्ति मानी पुद्गल वस्तुने न्यारी गणी बात्म स्वरूपमा मम थयो छतो अत्यंत आनंद भोगवेछे, तेवी ध्यान, दशा पामी फरीथी विषयर्नु मूल कारण रागदशाने वांछता नथीं, कारणके ध्यानीने विषयमा थती जे सुखनी भ्रांति ते टळीछे तेवी राग थाय नहीं.
श्लोक. यानिशा सकलभूतगणानां, ध्यानिनो दिनमहोत्सव सएषः । यत्र जाग्रति च तेऽभिनिविष्टा, ध्यानिनो भवति तत्र सुषुप्तिः ३
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परमात्मदर्शन.
( १०७ )
सर्व प्राणीने निद्रामा जे रात्रि जायछे, ते रात्रि ध्यानदशावंत निने दिवसना महोत्सव रूपछे, अहो ध्यानिनी केटली उसमता तेनुं सुख अनुपमछे. अने संसारी जीव विषयमां लीन थइ जे बेलाए जागेछे ते वेळा ध्यानवाळा मुनिराजने शयनरूपछे, एमां केटलो भेदळे ते विचारखो.
श्लोक. बध्यते न हि कषायसमुत्थैर्मानसैर्नततभूपनमद्भिः अत्यनिष्टविषयैरपि दुःखै र्ध्यानवान् निभृतमात्मनिलीनः १
भावार्थ - ध्यानवान् पुरुष, रागद्वेषरूप कषाय जनित मनधी बंधातो नथी. ध्यानीने नृपतितति आवी नमस्कार करे तोपण तेनुं चिरा डोळातुं नथी, अर्थात् तेना मननी स्थिरता पूर्वना जेवी बनी रहेछे. अत्यंत अनिष्ट विषयना दुःखे पण निश्चळपणुं छोडे नहीं तेने आत्मामां लीन जाणवो.
लोक. स्पष्टदृष्टसुखसंभृतमिष्टं, ध्यानमस्तु शिवशर्मगरिष्ठं । नास्तिकस्तु निहतो यादन, स्यादेवमादि नयवाङ्मयदंडात्
4
भावार्थ- स्पष्टदुष्टसुखे भर्यु एवं इष्ट ध्यान ते मोक्षना:-: सुख करतां पण अधिक छे, पण ज्यांसुधी शास्त्राना दंड थकी नास्तिक भावने अतिशयपणे हण्यो नथी त्यां सुधी नथी, पण नास्तिक भावे रहित जे ज्ञान ते मोछे.
श्लोक. ज्ञातेद्यात्मनि नोभूयो ज्ञातव्यमवशिष्यते । अज्ञानपुनरेतस्मिन् ज्ञानमन्यन्निरर्थकम् ॥१॥
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आत्मधर्म महत्ता.
( १०८ )
जेने आत्माने जाण्यो तेने पुनः किंचित् अन्य जाणवानुं शुं नथी, अने यावत् आत्माने जाण्यो नयी तावत् अन्य सर्व जाण्यं निरर्थक छे.
श्लोक. नवानामपि तत्वानां ज्ञानमात्मप्रसिद्धयेः येनाजीवादयो भावाः स्वभेदप्रतियोगिनः १
aaj ज्ञान पर आत्मज्ञान प्रगट करवाने माटेके, कारण के अजीवादिक जे भाव ते पण आत्मज्ञानवडे शमायछे. श्लोक. एक एवहि तत्रात्मा, स्वभाव समवस्थितः । ज्ञानदर्शनचारित्र, लक्षणप्रतिपादितः प्रभा नैर्मल्यशक्तीनां यथा रत्नान्न भिन्नता. ज्ञानदर्शनचारित्र, लक्षणानां तथात्मनः आत्मनो लक्षणानां च व्यवहारो हि भिन्नता । षष्ठयादिव्यपदेशेन, मन्यते न तु निश्चयः ३ घटस्यरूपमित्यत्र यथा भेदो विकल्पजः । आत्मनश्च गुणानां च, तथा भेदो न तात्त्विकः४
२
त्यां आत्मा एक पोते स्वस्वभावपणे रह्योछे, ते आत्मा ज्ञानं दर्शन, चारित्ररूप लक्षणे करी युक्त छे.
रत्ननी कांति अने निर्मलता शक्ति कंड रत्न थकी भिन्न नथी तेम ज्ञान, दर्शन, चारित्र लक्षणथी आत्मा भिन्न नथी. आत्मा अने आत्मानुं लक्षण ए वे व्यवहारे जुद्दाछे ने षष्ठी विभक्तिना व्यपदे ret मनायछे किंतु निश्वयथी नहीं.
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परमात्मदर्शन.
( १०९ )
जेम घट अने घटनुं रूप तेनो भेद विकल्प मात्र ते ममाणे आत्मा अने आत्माना गुणोंनो भेद ताविक नथी.
--
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श्लोक. वस्तुतस्तु गुणानां तद्रूपं न स्वात्मनः पृथक् आत्मास्यादन्यथानात्मा, ज्ञानाद्यपि जडं भवेत् ॥
भावार्थ- वस्तुतः जोतां गुणोनुं अने आत्मानुं रूप जुदु नथी यदि भिन्न कथीए तो आत्मा ते अनात्मा थाय ज्ञानादिक पण.
जड थाय.
श्लोक. मन्यते व्यवहारस्तु, भूतग्रामादिभेदतः । जन्मादेव व्यवस्थातो, मिथो नानात्वमात्मनां न चैतन्निश्वये युक्तं भूतग्रामो यतोऽखिलः नामकर्म प्रकृतिजः स्वभावोनात्मनः पुनः
जन्मावस्था बाल, युवान, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि भेदयी आत्माओनुं विचित्रपणुं व्यवहारनयवाळो मानेछे, पण ए बात निश्चयनये जोतां युक्त नयी अर्थात् सत्य नथी, ते नय एन कहे छे के - जीवने सर्व अवस्था नामकर्मना स्वभावथी प्रगटेछे पण ते आत्मानो स्वभाव नथी.
श्लोक. जन्मादिकोपिनियतः परिणामो हि कर्मणां; न च कर्मकृतो भेदः स्यादात्मन्यविकारिणि
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P
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___श्लोक.
(१०)... भारमधर्म महत्ता.
निश्चयनयथी जोतो जन्म जरा मरणादिक परिणाम ते आत्मानो नयी पण ते कर्मनों परिणाम माटे अविकारी आत्माने विष कर्मनो वास्तविक संबंध नथी. यथा तैमिरकश्चंद्र, मप्येकं मन्यते विधा; अनिश्चयकृतोन्माद स्तथात्मानमनेकधा २ __भावार्थ-जेम तिमिर रोग बालो एक चंद्रने के तरीके मानेले तेम निश्चयनयना ज्ञान विनानो उन्मादक प्राणी आत्माने अनेक प्रकारे मानेछे.
श्लोक. व्यवहारविमूढस्तु, हेतूंतानेव मन्यते । बाह्यक्रियारतस्त्वान्त स्तत्वं गूढं न पश्यति १
भावार्थ-व्यवहारनयमों रक्त विसूढात्मा परपर्यायने पोताना फलहेतु मानेछे माटे जेनुं मन बाह्य क्रियामा रक्तछे तेवा पाणी गुप्त तत्त्वने देखी शकता नथी.
श्लोक. अज्ञानी तपसा जन्म, कोटिभिः कर्मयनयेत् । अन्तं ज्ञानतपो युक्तं, तत्क्षणेनैव संहरेत् ।।
ज्ञानविना एककोटि भवसुधी अज्ञानी जेटलां तप करे ते तपमा जेटला कर्मनो क्षय न थाय तेटला कर्मोने एक क्षणमा ज्ञान सहित तपश्चर्याए खपावे.
_ श्लोक. तध्यानं सा स्तुतिभक्तिः सैवोक्ता परमात्मनः । पुण्यपाप विहीनस्य, यद्रूपस्यानुचिंतनं ॥
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परमात्मनः
श्लोक.
शरीररूपलावण्य, वपछत्रध्वजादिभिः । वर्णितैर्वीतरागस्य, वास्तवीनोपवर्णना.॥
पुण्यपापरहित परमात्माना स्वरूपर्नु चितवन करतेने ध्यान कहेवु अने स्तुति तथा भक्ति पण तेज जाणवी.
पण शरीरना वर्ण लावण्य-वम, छत्र ध्वजाओथी परमात्माओने करी परमात्माने खाणवा एवी जे स्तुति ते वस्तुतः वास्तविक स्तुति मथी. व्यवहार स्तुतिः सेयं वीतरागात्मवर्तिनां । ज्ञानादीनां गुणानां तु, वर्णना निश्चयस्तुतिः ॥ पुरादिवर्णनात् राज, स्तुतिः स्यादुपचारतः। तत्वतः शौर्यगांभीर्य धैर्यादि गुणवर्णनात् ॥
श्री तीर्थकरना शरीरादिकनुं वर्णन कर, एवी जे स्तुति ते व्यवहारे जाणवी. अर्थात् ते व्यवहार स्तुति जाणवी. पण वीतराग परमात्माना ज्ञानादिक गुण प्रशंसवा अने ते गुणो पोताना आत्मामां सत्ताए रखाछे एम जाणी तेनुं ध्यान करवू. तेज खरी स्तुति के परमात्म स्वरूप हुँ छु, एम सतत दृढ निश्रयथी चिंतवq ते निश्चय स्तुति जाणवी.
जेम देश नगरादिकना वर्णनथी राजने वखाणेलो ते उपचारे स्तुति जाणवी अने राजानुं बल गांभीर्य धैर्यादिक गुणोनुं वर्गन ते निश्रय स्तुति जाणवी.
श्लोक. पुण्य पाप विनिर्मुक्तं तत्वतस्त्वविकल्पक । नित्यं ब्रह्म सदा ध्येयमेषा शुद्धनयस्थितिः ॥
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भास्मधर्म महत्ता.
ananmannanorammamarinaamannamrunmannaanaamanna... .
पुण्य पाप रहित अने तस्वथी जोता निर्विकल्प एवो शायत आत्मा ध्यान करवा योग्यछे. भव्योत्माओए तेनुं ध्यान करवू एवी भुद्धनयनी स्थिति जाणवी. ए ध्यानथी.घातिकर्मनो पण सहजमा क्षय थायछे. ___ आत्मध्यानीने . क्रोधादिक शत्रुओ उपद्रव : करी शकता नथी, अदेखाइ पण यती नथी. आ स्थळे क्रोधादिक वर्णन करेछे.
क्रोधादिकनुं स्वरूप. आत्माना गुणोनो घातक क्रोधरूप चंडालछे, क्रोधरूपि अमि इदयने बालेछे. तथा शरीरने तपावेछे. वळी क्रोधथी चितनी निमलता नाश पामेछे अने मन शान्त बहु वखते थायछे. कोइ महास्माने कोइ शिष्ये प्रश्न कर्यु के हे पूज्य, हुं क्रोधथी क्यारे मुक्त थाउं ? त्यारे प्रत्युत्तरमा जणाव्यु के समताने आदरे त्यारे. क्रोधरूप अमि धर्मवक्षने बाळी भस्म करेछे, मुमुक्षुए धैर्य धारण करी उपजता क्रोधने सहनशीलताथी जीतवो. जे मनुष्यना ह्रदयमां क्रोधरूप. अग्नि रहेछे ते अपवित्र जाणवो. मनुष्य ते गंगाना जलमा स्नान करे तो पण क्रोधदोष गया विना पवित्र थतो नथी. मनुष्य ज्यारे अन्यना उपर क्रोधायमान थायछे त्यारे कर्म क्रोध करनारना उपर क्रोधायमान थायछे, क्रोधरूप चंडाल छिद्र जोइने ह्रदयमा प्रवेश करेछे, कोइ वखत तो तेनुं एटलं जोर थायछे के ते क्रोधना उदये मनुष्य पणा जीवोने मारी नांखेछे.. क्रोध बुद्धिनो शत्रुछे. समतासागरमा क्रोध वडवानल समानछे, क्रोधरूपी अनि हृदयमा प्रगट थायछे त्यारे तेनो धूमाडो शरीरमा प्रसरेछे. क्रोधन कारण परस्वभाव रमण जाणवू. परवस्तुमाथी मारापणानी बुद्धि टळी आ-. त्मस्वरूपमा जेनुं मन लीन थयुंछे तेवा महात्माओना हृदयमा क्रोधरूप अभिवास करतो नथी. कारण के तेमना इदयमा समाप
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परमात्मदर्शक
गंगा नदी सदा वह्या करेछे. त्यां मलीनता रही शकती नथी.आहार, वस्त्र, स्थान, धन, अपमानथी क्रोध उत्पन्न थायछे, आहारादिक उपर ममता थवाथी तेनु कोइ हरग करे तो क्रोध उत्पन्न थायछे. मीति ज्यां होय त्यां पण क्रोध करवाथी थायछे. वैर क्रोधने क्षमाथी जीतायछे. अदेखाइ संतोषयी जीतायछे. क्षमाथी क्रोधरूप अमि शान्त थायछे.
यतः श्लोक. क्षमा नाथः क्षमा तातः क्षमा माता क्षमा सुहृत् । क्षमा लयश्च लक्ष्मीश्च, क्षमा शोभा क्षमा शुभ. १ क्षमा श्लाघा क्षमाचारः, क्षमा कीर्तिः क्षमा यशः क्षमा सत्यं च शौचं च, क्षमा तेजः क्षमा रतिः २ क्षमा श्रेयः क्षमा पूजा, क्षमा पथ्यं क्षमा हितं । क्षमा दानं पवित्रं च, क्षमा मांगल्यमुत्तमं... ३ क्षमा तुल्यं तपो नास्ति, न संतोषात् परं सुखं । न मैत्री सदृशं दानं, नास्ति धर्मो दयासमः ४ कामक्रोधसमेतः सन् किमरण्ये करिष्यति । अथवा निर्जितावेतौ किमरण्ये करिष्यसि. ५ सकषायस्य चित्तस्य, कषायैः किंप्रयोजनं । अथवा निष्कषायत्वं, कषायैः किंप्रयोजनं. किंमरण्यैरदांतस्य, अदान्तस्य किमाश्रमैः । यत्र यत्र वसेदांतः, तदरण्यं स आश्रमः
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(118)
क्षमाथी आत्मक्षति.
कमा खड्गं करे यस्य, दुर्जनः किं करिष्यति; अतृणे पतितो वन्हिः स्वयमेवोपशाम्यति
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क्षमा एज भव्यात्माओनो नाथ जाणवो, माता पिता मित्र समान पण क्षमा जाणवी. क्षमा एज मोटी शोभाछे. क्षमा एज कीर्त्ति जाणवी. कारण के जेनामां क्षमा नथी अने क्रोधे करी धमधमायमान सदा रहेछे. तेनी कीर्त्ति जगमां थती नथी. क्षमाथी कीर्त्ति उत्पन्न थायछे. क्षमा तेज सत्य जाणवुं क्रोधीमां सत्य क्यांथी होय. क्षमा एज मोटी पवित्रता छे. क्षमा विना स्नान पण लेखे नथी. दान पण लेखे नथी. क्षमा रहीत साधु होय तो ते नामनो साधु जाणवो, ज्यां क्षमा नथी त्यां गंभीरता रहेती नथी. क्षमा एज मोडुं तेजछे, सुखकारक आनंदप्रदा पण क्षमाछे, जे क्रोधी होय ते आनंदक्यांथी पामे ? क्रोधीना अनेक वैरियो दुनीयामां होयछे तेथी क्रोधीने निरांते उंध पण आवती नथी. वळी क्रोधी मनुष्यनो कोइ मित्र पण होतो नथी. कारण के ज्यां त्यां क्रोधथी तेना उपर अमीति जलनी दृष्टि थया करेछे, क्षमा कल्याणकारीछे, जे मनुष्यमां क्षमा नथी ते पोताना तथा परना आत्मानो घातक बनेछे. क्षमा मोटी पूजाछे. कर्मरूप रोगथी रहीत थवा माटे क्षमा पथ्यछे क्षमा एज मोडं हितछे, क्षमा ए मोहुं दानछे. जेनामां क्षमाछे ते पोताना आत्माने ज्ञान दर्शन चारित्र गुणोनुं दान आपेछे. क्षमा तुल्य अन्य कोइ तप नथी. क्रूरगड ऋषिए क्षमारूप तपथी आत्महितनी सिद्धि करी. श्री वीरभगवाने क्षमावडे अनेक उपसर्गो सहन कर्या, श्री मेतार्यमुनिए क्षमाथी आत्महित साध्युं. श्री स्कंधकसूरिना शिष्योने घाणीमां घाली पील्या पण तेमणे क्षमाथी कर्म शत्रुनो पराजय करी. आत्मिक लक्ष्मी प्राप्त करी. समरादित्य केवळीए साधु अवस्थामां क्षमाए करी घोर उपसर्ग सहन कर्या. क्षमाधारक अनेक मुनिवरोए
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परमात्मदर्शन.
( ११५ )
परमात्मपद प्राप्त कर्तुं भविष्यत् काले पण करशे, अंतरमां क्रोधरूप अनि सलगी रह्योछे अने बाह्यथी छठ अहम विगेरे करे तोपण आत्महित यतुं नथी. क्रोध नरकनुं बारछे. क्रोध फणीधर सर्प समानछे ते क्षमारूप नागदमनी औषधीथी वश थाय छे. क्षमाना समान तप नथी, संतोष समान सुख नथी. दया समान धर्म नथी.
काम अने क्रोध सहीत जे प्राणीछे ते जंगलमां जोगी थइ वास करशे तो पण शुं थयुं ? अलबत कंई नहीं. अथवा जेणे काम क्रोध जीत्याछे ते अरण्यमां जइ शुं करशे ? अलबत् कं नहीं. काम क्रोधनो तें जय कर्योछे तो तुं अरण्यमां जइ शुं करीश ? जेनुं चित्त काम क्रोधादिक कषाय सहीतछे तो तेने कपायलां aa पहेरवावडे करी ? अथवा जो चित्तम काम क्रोधादिक कपायनी उत्पत्ति नथी तो तेवा पुरुषने कषायलां वस्त्र पहेरवाथी शुं ? अर्थात कंड नहीं.
जेणे इंद्रियो दमी नथी तेने अरण्य थकी शुं ? तथा अदांतने आश्रमोवडे करी शुं ? अर्थात् कंइ नहीं. जेने इंद्रियीने जीतीछे एवो दान्त पुरुष जे ठेकाणे वसे ते अरण्य तथा आश्रम जाणवु, माटे भव्यात्माओ क्षमा धारण करो. क्षमा रूप खड्ग जेना हाथमांछे तेने दुर्जुन शुं करशे ? अर्थात् कंद नहीं, तृण विनानी जगाए पडेलो अंगारो पोतानी मेळे शान्त थइ जायछे, तेम आपणा उपर अन्य पुरुषे क्रोध कर्यो पण आपणे क्रोध करीभुं नहीं अने क्षमा राखीभुं तो अन्य पुरुषे आपणा उपर बरसावेलो क्रोध पोतानी मे शान्त थशे.
श्लोक. क्रोधान्धाः पश्य निघ्नंति पितरं मातरं गुरुम् | सुहृदं सोदरं दारा नात्मानमपि निर्घृणाः ॥ १ ॥
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( -३१६ )
क्षमाथी आत्मोन्नति.
हे भव्य देख क्रोधान्ध जीवो पिता माता अने गुरुनो पस नाश करेछे तेमज मित्र सहोदर खी तथा पोताना आत्मानो पण निष्ठुरः पुरुषो क्रोधवशे घात करेछे. माटे क्रोधने त्यामी क्षमा-भारण करवी, भव्य प्राणी क्षमा धारण करी सामायक- समभाव स्वरूप करे आत्मा अने आत्माना गुणो ज्ञान दर्शन चारित्रादिकनुं स्वरूप मनमां विचारे
यतः श्लोक. नचात्मनः पृथक्ज्ञाना, दि त्रयं विद्यते कचित् । ज्ञानादि त्रयमेवात्मा, नास्य कापि परा भिदा ॥१॥ आत्मानमात्मनां वेत्ति, मोहत्यागाद्य आत्मनि । तदेव तस्य चारित्रं । तज्ज्ञानं तच्च दर्शनम् ॥१॥ आत्माथी पृथक् ज्ञानादित्रिक नथी, ज्ञानादित्रिक स्वरूप आत्मा छे, व्यवहारथी तेनो भेद जाणवो.
श्री हरिभद्रसूरियोगप्रदीपमां सामायिकनुं लक्षण कहे छे. श्लोक. अतीतं च भविष्यं च यन्न शोचति मानसं । तत् सामायिक मित्याहु, निर्वातस्थानदीपवत् १ निस्संगं यन्निराकारं, निराभासं निराश्रयं । पुण्यपापविनिर्मुक्तं, मनः सामायिकं स्मृतं ॥२॥ गते शोको न यस्यास्ति नैव हर्षः समागते । शत्रु मित्र समं चित्तं, सामायिकं मिहोदितं भावार्थ अतीतकालमा जे थइ गयुं, आपणा संबंधी वा परसंबंधी तेनो विकल्प संकल्प करे नहीं, वा अतीतकाल संबंधी कोइ
॥३॥
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परमात्मदर्शन.
(- ११७ )
बात याद करे नहीं. सारांश के अतीतकाल संबंधी शोक करे नहीं. . तेम भविष्यकाल संबंधी व अने पर आश्रयी विकल्प संकल्प करी शोक करे नहीं. विकल्प संकल्प रहीत आत्मानी स्वउपयोगे अब- स्थीति - तेने सामायिक कहेछे कोनी पेठे ते दर्शावेछे, वायु रहीत - दीवानी ज्योतिनी पेठे दीवाने वायु लागतां ज्योति चंचळ पायछे, तेम आत्मामां पण विकल्प संकल्प थतां आत्मा चंचल थइ परख. भावमां पडेछे. माटे एकाग्रचित्ते स्थिरपणे एक आत्मस्वरूपमां उपयोग सखवो ते सामायिक जाणवुं मनमां कोइ पण वस्तु चिंतaat नहीं, मननी साये कोइ पण वस्तुनो संग थाय नहीं. अर्थात् मन - अन्य वस्तुना संगथी रहीत होय, कोइपण वस्तुनो आकार मनमां finest नहीं, मनमां कोइ पण वस्तुनो आभास रहे नहीं. कोइपण वस्तुना आश्रय रहीत मन निराश्रित होय, मन पुण्य अने - पापना व्यापार रहीत होय, मनने आत्म स्वरूपमां लीन करी देवं, - जेम भरउंघमा कोइ पण वस्तुना व्यापार रहीत बाह्यथी देखतां जशायछे, तेम भरडंघनी पेठे पस्वस्तुने भूली अखंड निर्मल आत्म स्वरूप मां आत्म स्वभावे जागनुं, अने परस्वभावनी चितवना करवी नहीं अने तेने सामायिक कछे.
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गतकाल, गतअवस्था, गतवस्तु आदिने विषे मनमां शोक थाय नहीं, अने आवतो काल, आवनार भावीकाले वस्तुना इष्ट संयोग तेनो मनमा हर्ष थाय नहीं, अने शत्रु तथा मित्र उपर समचित होय एवी जे आत्मानी अवस्था तेने सामायिक कहेछे. आ उपरना aण लोको कथाकोष ग्रंथमां काछे, जे भव्यात्माओने क्षमावडे तथा समपणे सामाय वर्तेछे तेमने क्रोधादिक शत्रुओ पराभव .करी शकता नथी.
भव्यात्माए मुक्तिपदनी चाहना राखतां अदेखा इनो नाश क
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( 116 )
अदेखाइनो नाश करवो.
वो जोइए. अदेखाइ रूप नागण हृदयमां पेसतां आत्माना गुणो हणामछे. परना गुणो सांभळी तथा परजीवनी कीर्त्ति सांभळी प्राणी विचारे छे के हाय, हाय ते माराथी वधारे वखगायछे लोकोम तेने वधारे मान मळेछे, एनी जो भूल का वा एना उपर कंड कलंक चढे तो ठीक थाय एम पाप विचार करी लोकोनी आगल निंदा करे. खोटां कलंको चहाववां. ए सर्व अदेखाइनुं फलछे. नागण कदापि कोइने करडे तो सारी पण अदेखाइरूप नागिणी जे प्राणीने डसेछे तेनुं आ भवमां तथा परभवम पण खराब थायछे, अदेखाइ ज्यां सुधी हृदयमांछे त्यां सुधी आत्मज्ञान
तुं नथी. वकील वकीलनी साये अदेखाइ, साधु साधुनी साये अदेखाइ, वेपारी बेपारीनी अदेखाइ, शोक शोक ने अदेखाइ प्रायः रहेवानो संभवछे, माटे आत्मार्थी प्राणी मनमा विचारे के सर्व प्राणी, पोतानां कर्मयोगे शाता वा अशाता भोगवेछे. कोहनी कीर्त्ति थाय ते मारेशा कारणथी अदेखाइ करवी ? जेवां कर्म ते प्रमाणे यश वा अपयश थया करेछे, तेमां मारे शुं ? यश वा अपयश, मान वा अपमान ए कई आत्मिक वस्तु नथी हुं आत्मा तेनाथी भिन्नछु, हुं कर्मयोगे कोइ बखत राजी थयो ते वखत याचकोए कीर्त्ति गाइ, पण मनुं आजे कंइ नथी. वळी कोइ भवमां अपमान पण घणां थयां हशे पण तेमांनुं हाल कंइ नथी. जे पोतानी वस्तु नथी तेमां अहंभाव संकल्पी केम रति अरति करवी जोइए, कछे केsafe काजी कहि पाजी, कबहिक हुआ अपभ्राजी, कहि जगमें कीर्त्ति गाजी, सब पुद्गलकी बाजी. आप स्व० १
धवलशेठ श्रीश्रीपालनी अदेखाइथी अंते मरण पाम्या अने दुर्गतिमां गया. धवलशेठे अदेखाइथी शुं शुं कृत्य कर्यु नथी, दुनीयामां अदेखाड़ करनारनी पडती थया विना रहेती नथी, अदेखा
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परमात्मदर्शन.
(118)
इथी निंदा कपट हिंसा, असत्यादि दोषो उत्पन्न थायछे, विशेषे भुं कहे ? आत्मार्थी पुरुषे अदेखाइनो नाश करवो. तेनो नाश करवा संत पुरुषोनी संगति करवी.
जे पुरुषने मानदशा होयछे ते मानी कहेवायछे, मानी पुरुष कृत्य अकृत्यने विचारतो नथी, तथा तेने जरा पण शान्ति मळती नयी अने ते विद्या धन पामी शकतो नथी, लघुताथी प्रभुता थाय माटे लघुता भावी माननो नाश करवो. रावण दुर्योधनादि पुरुषोए मानवी दुःखराशि ग्रहण करी. गमे तो राजा होय. करोडाधिपति होय तोपण मान दशा ज्यारे छूटे त्यारे कल्याण थायछे, बाहुबल मुनिवरने मान केवलज्ञानमां विघ्नकारक थयो. अने ज्यारे मान दशा छोडी त्यारे केवलज्ञान उत्पन्न थयुं श्री यशोविजयजी उपाध्याय मान नामना पाप स्थानकनी सझायमां कहेछे केविनयश्रुत तपशील त्रिगुण हणे सवे, माने ते ज्ञाननो भंजक होय भवोभवे; लंपक छेक विवेक नयणनो मानछे, एहने छंडे तास न दुःख रहे पछे.
इत्यादि विचारी भव्य पुरूषोए मानदशा त्यागी आत्मस्वरूपमां आयुष्य गाळवं. मायास्वरूप कथाकोश ग्रंथे आ प्रमाणे छे.
माया परित्याग मदो विधाय, सदार्जवं साधुजना विधत्ते यथैहिकामुष्मिक कामितानां, सिद्धिर्भवेद्धः परमार्थशुद्धा यतः श्लोक.
दंपती पितरः पुत्राः सौदर्य्याः सुहृदो निजाः । ईशा भृत्यास्तथान्येऽपि माययाऽन्योऽन्य वंचकाः ॥ १ ॥ सर्व जिम्हं मृत्युपद मार्जवं ब्रह्मणः पदं । एतावान् ज्ञान विषयः प्रलापः किं करिष्यति. ॥२॥
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120)
सरकता शंखवी.
॥३॥
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॥५॥
समग्र विद्या वैदुष्येs, धिगतासु कलासुच । धन्यानामुपजायेत | बालकानामिवार्जवं अज्ञानामपि बालानां, आर्जवं प्रीतिहेतवे । किं पुनः सर्व शास्त्रार्थ परिनिष्ठित चेतसां. श्रुतान्धि पारमाशोपि । गौतमो गणभृद्धरः । अहो शक इवाश्रोषीत आर्जवाद्भगवद्गिरः अशेषमपि दुःकर्म रुज्वा लोचनया क्षिपेत् । कुटिला लोचनां कुर्वन् अल्पीयोपि विवर्धयेत् काये वचसि चित्तेच समंतात् कुटिलात्मनां । न मोकः किं तु मोक्षः स्यात् सर्वत्रा कुटिलात्मनां ७ तपः क्रिया ज्ञान विचक्षणा अपि । कौटिल्यमेकं न परित्यजंतः ॥ दुर्योनि दुःखानि लभांत ते नराः । साध्वी यथा वीरमतीति नाम्नी.
॥६॥
॥ ८ ॥
अहो आ जगत्मा जे खरेखरा गुणोथी साधुजनोछे ते कपना त्याग करी सरलताने धारण करेछे, आ भव अने परभव संबंधी इच्छित कार्योंनी सिद्धि सरलताथी थायछे. अने परमार्थथी विचारतां धर्मनो अधिकारी पण निष्कपटी भव्यात्माछे. स्त्रीओ पिताओ, पुत्रो, मित्रो सहोदरो, स्वामीसेवक आदि मायावडे परस्पर वंचक जाणवा. मृत्युने देमार ( मृत्युपद ) कपट जाणवु. सरलता' fi स्थान आत्माने हितकारकछे.
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परमात्मदर्शन.
(१२.) समग्रविद्याएकरी विद्वान होय अने सर्वकलानो वेत्ता होय तोपण कपटनो त्याग थवो मुश्केलछे. धन्यछे एवा पुरूषोने के नानां भोळां बाळकोनी पेठे सरलताने धारण करेछे.
जेने तत्त्वनुं ज्ञान नथी एवा बालकोनी सरलता पण प्रीति माटे थायछे तो जे सर्व शास्त्रार्थना पारंगामीछे, एवा पंडितोनी सरलता आत्माने विशेष हितकारी थाय तेमां शुं कहेवू ?
श्रुतज्ञाननो दरियो एवा गौतम गणधरे पण सरलताथी भगवाननी वाणी सांभळी अहो केवी आश्चर्यता ?
सरलपणे आलोचना करवाथी घणां कर्मने पाणी खपावेछे, कुटिलताथी आलोचना करतो अल्प पापी होय तो पण पाणी पापने वधारेछे, जेनी कायामां मनमां वचनमा कुटिलताछे, एवा जीवो उत्कृष्ट तप तपे, आकरी क्रिया करे, वैराग्यरंगमां झील्या होय एवा देखाय तोपण तेनो आत्मा कर्मरहीत थइ मोक्षपद पामतो नथी, मायाए रहीत जीवोनो मोज थायछे एमां संदेह नथी. विचित्र प्रकारनां तप अने विचित्र प्रकारनी धर्म संबंधी क्रिया अने ज्ञानमां विचक्षण एवा पुरूषो पग एक समग्रदुःखमूलभूता कुटिलताने सेवता दुर्यो निमां उपजी विचित्र प्रकारनां भयंकर दुःखोना भागी थायछे. जेम वीरमती नामनी साध्वी कुटिलताथी दुःख पामी तेम कपटी पुरुषो पण धर्म विषयमा कुटिलता करी चतुर्गतिरूप संसारमां परिभ्रमण करेछे, माटे आत्मार्थि पुरूषोए मने करी वचने करी तथा कायाए करी कुटिलतानो त्याग करवो, निष्कपटी मनुष्यने धर्म परिणमेछे. उदायीराजानो घातक बाह्यथी साधु अने अत्यंत विनयवंत एवो विनयरत्न कुटिलताथी मरी नरकमां गयो, तेम तेनी पेठे जे धर्माचारमा बाह्य थी जुदा आचरण अने मनमा जूद एम करशे ते धर्मरन्न पामी शकशे नहीं. अने दुःखना
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( १२१ )
सरला.
भागी थशे. भार्मनी प्राप्ति कोई विरला जीवोने थायले. द्रव्य धर्म तो कपटी पण आदरेछे, आत्मज्ञानी समकिती जीवने भावधर्मनी प्राप्ति थायछे, सारांश के मायानो त्याग करशे ते परमात्मपद पामवाने योग्य थशे. श्रीयशोविजयजी उपाध्याय कहेछे के
श्लोक. दंभेन व्रतमास्थाय यो वांछति परंपदं । लोहनावं समारुह्य, सोऽब्धेः पारंयियासति केश लोधरा शय्या, भिक्षा ब्रह्मव्रतादिकं । दंभेन दुष्यते सर्व, त्रासेनैव महामणिः सुत्यजं रस लांपट्यं, सुत्यजं देह भूषणं । सुत्यजाः कामभोगाद्या, दुस्त्यजं दंभसेवनम् स्वदोष निन्हवो लोक, पूजास्यात् गौरखं तथा । इयतैव कदर्थ्यते, दंभेन व्रत बालिशाः अहो मोहस्य माहात्म्यं, दीक्षा भागवतीमपि । दंभेन यद् विलुंपंति, कज्जलेनेव रूपकं आत्मोत्कर्षात् ततोदभात् परेषां चापवादतः । बध्नाति कठिनं कर्म, बाधकं योग जन्मनः
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॥१॥
॥२॥
६
कपटवृत्तिथी पंचमहाव्रत ग्रही जे जीवो परमपदने वांछे छे, ते जीवो लोहनी नामां बेसी समुद्रनो पार पापता इच्छता होय तेम जाणवा.
केशनुं लुंचन करं साधुने सहेल छे, सूर्यसामी दृष्टि राखी आतापना लेवी सहेलछे, पृथ्वीने विषे शयन करनुं, कज्जानो
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परमात्मदर्शन.
( १२३ )
त्याग, गृहे गृहे भिक्षा मागवी, काम विकारने जीती ब्रह्मचर्य पा ळ आदि सर्व सहेलछे किंतु साधुने कपटनी त्याग करवो मुश्केलछे. सर्व व्रत, तप क्रियादि कपटथी दुषित थाय छे. जेम सुंदर निर्मल मणिने डायलागवाथी तेनी कांति मंद थायछे तेनी पेठे अत्र समजवु.
रसनुं लोलपीपं सुखे त्यागी शकाय, देह भूषग पण त्यागी शकाय. कामभोगादिने पग सुखे त्यागी शकाय पग कपटनो त्याग करवो घणो विकट छे. जेम जेम विद्वत्ता वृद्धि पामे तेम तेम आत्म उपयोगी शून्य मुनि कपटमा पोतानी विद्याने उपयोग करे छे कपटभाव त्यागवाथी सुख थायछे, कोइ प्राणी मान पूजानी लालचे उपरथी बाह्य चारित्र शुद्ध पाळे, पंचसमितिनो बाह्यथी खप करे, ग गुप्तिनेो बाह्ययी सारी रीते खप करे. उपरथी एवो वैराग्य जगावे के लोको तेना उपर फीदा फीदा था जाय पण अंतरमां आत्मानो उपयोग होय नहीं अने अभ्यंतर निर्मल परिनाम न होय पोताना गच्छनो मतनो पक्ष सबल करवानी लालसा बनी रही होय, आत्मा अने परमात्मानुं स्वरूप शुं छे ? तेनो तो विचार पण करे नहीं, व्याख्यान वाणीथी हजारो जीवोने रंजन करे, बोलवानी कला एव। होय के जंथी विचारा मुग्ध जीवोने वश करी दृष्टी रागीया करे, एवो साधु कपटट्टत्तिथी परमात्म स्वरुप पामी शकतो नथी. ज्यारे साधुनी पग आवी स्थीति छे तो अल्पज्ञ संसारना खाडामां पतित श्रावको भाग्ये कप
नो त्याग करी शके. कपट रुप काळो नाग जे भव्यना हृदयमां पर निंदा, स्त्रमहत्वता, परापकर्षरूप फणीवडे करी सहीत वसतो होय ते प्राणी दुःखनी परंपराने पामेछे. अल्पज्ञ पुरुषो कपटीयोना
पटने पारखी शकता नथी, जे मुनि बाह्य क्षणिक मान पूजा कीतिनी लालचे श्रावक आगळ ठीकठाक आचरण देखाडी रंजन
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(१२४)
सरलता.
करे ते श्रावकनी आगळ एवं बोलेके ते भद्रिक महामुनि तेमने जाणे पण पोतानामां कंइ होय नहीं.
श्री चिदानंदजी महाराज कहेछे केकथनी कथे सहु कोइ, रहेणी अति दुर्लभ होइ
जब रहेणीका घर पावे, तब कहेणी लेखे आवे. १ निष्कपटी अने कपटी साधुओनी परीक्षा करवी दुर्घटछे, महा बुद्धिना धणी एवा अभयकुमार सरखा कपटी वेश्या श्राविकार्नु कपट जाणी शक्या नहीं, तो बालजीवोनुं शुं कहेवू ? जेने मान पूजा कीर्तिनी लालच गइछे एवा पुरूषोने धन्यछे, विवेकी सुज्ञ पुरूप हंसनी पेठे कपटी अने निष्कपटी साधुओनी परीक्षा करी देछे, कपटी एम धारेछे के हुं अन्यने छेतलं छं पण कपटथी तेना आत्माने कर्म छेतरी पोताने वश करेछे ते आणी शकतो नथी. आखी दुनीयामां कपटजाळ मोह राजाए पाथरीछे तेमां मनुष्यादिक रूप माछलां बिचारां अंतरना अज्ञाने सपडायछे. अने विविध दुःख पामेछे, जे ने खरेखहें निज आत्मानुं ज्ञान थायछे ते कपटजाळने छेदी नाखेछे, निष्कपटी पुरूषोनी वाणीमां द्विधाभाव रहेतो नथी, निष्कपटी मनुष्य जेवू होय तेवू कहेछे. कपटीनी वृत्ति काक सदृशछे. पोताना दोपने गोपवनार लोक पोतानुं गौरव मान पूजा जेम थाय तेम दंभथी आचरण करेछे, अहो केटली अ. ज्ञानता ? जेनो अंते त्याग करवानोछे तेनामां मुंझावु ए बालजीवोनुं लक्षणछे. प्राणी मनमां परमार्थबुद्धिथी विचारे तो कपट करवानुं कंइ कारण नथी. एम विश्वास थाय. गुरुमहाराजने पण कपटी शिष्यनो विश्वास आवतो नथी. ज्ञानी गुरुराजनी पासे जइ कोइ प्राणी कपटथी पृच्छा करे तो ते तुरत जाणी लेछे. अने तेथी पृच्छकने अयोग्य जाणी मौन धारेछे, कपटी एवं जाणीने कपट
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परमात्मदर्शन.
(१२५) करेछ के, हुं युक्ति रचुं छु, हुं कळा करूंछु, हुं बोलछु, ते अन्य कोइ जाणतुं नथी. पण याद राख के प्रथम तो कपटने जाणनार तारा शरीरमा रहेलो तारो आत्माछे. बीजुं सिद्ध भगवंत ज्ञाने करी तारं कपट जाणी रह्याछे, कोनाथी छानुं तारुं कपटछे. हे मूर्ख जीव ! तुं चार घडीना चांदरणानी पेठे आ दुनीयामां थोडो काल रही परभवमा चाल्यो जनारछे, तारा शरीरनी खाख थइ जशे, हाडकांना चूरेचूरा थइ जशे. करेलां कर्म परभवमा भोगववां पडशे. तुं तारी मेळे विचार तो तारा आत्मा न्यायाधीशनी पेठे न्याय करी आपशे, कपट विनानी तारी केटली जींदगी गइ ? तेनो विचार कर-तारुं कपट कदापि तुं अत्र छार्नु राखीश पण परभवमां केम छूटीश ? राजा, राणा, शेठ, गरीव आदि सर्व कपट करशे तो ते तेनुं फल भोगवशे. पोताना आत्माने सुबुद्धिथी प्रश्न करो के हे आत्मा तने कपट मियछे ? त्यारे आत्मा तरफथी विचार थशे के कपट करवू ते महापापछे. ____अहो मोहराजानुं माहात्म्य तो जुओ के प्राणी श्री तीर्थकर रोक्त भागवती दीक्षाने पण काजळे करी चित्रामणनो जेम लोप थाय तेम कपटे करी लोपी नाखेछे.
पोताना आत्मानी वडाइ करे, घणुं कपट धरे अने पारका अवर्णवाद बोले तेथी प्राणी कठीन कर्म बांधेछे, तेवा पुरुषो योगीना जन्मने बाध कर नाराछे. ते शुद्ध चारित्र पामी शके नहीं. श्री यशोविजयजी उपाध्यायजी "माया" विष कहे छे के
नममास उपवासीया सुणो संताजी । शीत लीए कृश अन्न गुणवंताजी ॥ गर्भ अनंता पामशे सुणो संताजी ।
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सरलता.
जे छे माया मंन गुणवंताजी ॥
इत्यादि वांची आत्मार्थी पुरुषे कपटनो त्याग करवो. श्लोक. जैनैर्नानुमतं किंचित् निषिद्धं वा न सर्वथा । कार्ये भाव्यमभने त्येषाज्ञा पारमेश्वरी. अध्यात्मरतचित्तानां दंभः स्वल्पोपिनोचितः छिद्रलेशोऽपि पोतस्य, सिंधुं लंघयतामिव.
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तीर्थकरे एकांते आज्ञा पण करी नथी तेम सर्वथा निषेध पण नथी कर्यो, सो पण जे कार्य करवुं ते कपट रहीतपणे कर, एवी पारमेश्वरी आज्ञा सत्य मानवी. जेम वहाणमां छिद्रनो लेश होय तो पण समुद्र तरवामां योग्य नथी तेम अध्यात्मने विषे जेनुं मन रंगायुंछे, तेने जरा पण कपट कर ए योग्य नथी.
स्याद्वाद रीते आत्मस्वरूप जाणवाथी कपट वृत्तिनो त्याग धशे. दगा, प्रपंच, छळभेद, एक बीजानी निंदानो त्याग करी एक आत्मस्वरुपमां रमण करनार जे मुनिवरोछे तेने सहश्रशः वंदन थाओ. बाकी जे छळ भेद प्रपंच विकल्प संकल्ये करी भरेला नाम धारी साधुओ वा श्रावकोथी आत्महित दूर जाणवुं.
लोभ स्वरूपं. श्लोक = योगशास्त्रे.
आकरः सर्वदोषाणां गुणग्रसनराक्षसः । कंदो व्यसनवल्लीनां, लोभः सर्वार्थबाधकः धनः हीनः शतमेकं, सहश्रं शतवानपि । सहश्राधिपतिः लक्षं, कोटिं लक्षेश्वरोऽपि च
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مرخرخر شيك
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परमात्मदर्शन कोटीश्वरो नरेंद्रत्वं, नरेन्द्रश्चक्रवर्तिनां । चक्रवर्ती च देवत्वं, देवोऽपींदत्व मिच्छति. इंद्रत्वेपिहि संपाते, यदीच्छा न निवर्त्तते । मूले लघीयांस्तल्लोभ, शराव इव वर्धते । हिंसेव सर्व पापानां, मिथ्यात्वमिव कर्मणां । राजयक्ष्मेव रोगाणां, लोभः सर्वागसां गुरुः अहो लोभस्य साम्राज्य, मेक छत्र महीतले । तरखोपि निधि प्राप्य, पादैः प्रच्छादयंति यत् ६ अपिद्रविणलोभेन, ते घित्रिचतुरिदियाः। स्वकीयान्यधि तिष्टंति । प्राग् निधानानि मूर्छया भुजगगृह गोधाखु मुख्याः पंचेंद्रिया अपि । धनलोभेन लीयंते निधानस्थानभूमिषु पिशाचमुद्गलप्रेत भूतयक्षादयोधनं । स्वकीयं परकीयं वाप्यधितिष्टंति लोभतः भूषणोद्यान वाप्यादो, मूछितास्त्रिदशा अपि । व्युत्वा तत्रैव जायते । पृथ्वीकायादि योनिषु १० प्राप्योपशान्त मोहत्त्वं, क्रोधादि विजये सति । लोभांशमात्र दोषेण । पतंति यतयोपिहि ११ लोभाद् ग्रामादिसीमान मुद्दिश्यगत सौहदाः प्राम्यानियुक्ता राजानो । वैरायंते परस्परं १२
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(10) लोभ पापर्नु मूळ जाणीने तेनो त्याग करवो. आरभ्यते पूरयितुं, लोभगतॊ यथा यथा। तथा तथा महचित्रं, मुहुरेषो विवर्धते १३ लोभस्त्यक्तो यदि तदा, तपोभिरफलरलं लोभस्त्यक्तोनचेतर्हि, तपोभिरफलैरलं लोभमूलानि पापानि, रसमूलानि व्याधयः स्नेहमूलानि दुःखानि, त्रीणित्यत्का सुखीभव. १५
सर्व दोषनुं स्थान लोभछे, गुणनो ग्रास करवाने लोभ राक्षस समान छे. व्यसनरुप वल्ली कंदभूत लोभ जाणवो. एम सर्वार्थनो बाधक लोभ जाणवो. निर्धन सो रुपीयाने इच्छे, अने सो रुपीया मळे हजारनी इच्छा, अने हजारनो अधिपति थये लाखनी इच्छा थाय. लक्षमळे करोडनी इच्छा थाय कोटीश्वर नृप रुद्धि चाहे, राजा चक्रवर्तिनी पदवी इच्छे अने चक्रवर्ती देवतानी ऋद्धि चाहे छे. देवताने इंद्रनी पदवानो लोभ रहे छे. एम मूलमां लघु अने अंते वृद्धिने पामनार लोभ शरावनी पेठे जाणवो. __ पापर्नु मूळ हिंसा अने कर्मनुं मूळ जेम मिथ्यात्व, अने रोगोने विषे जेम राजरोग ( क्षयरोग ) सर्व रोगर्नु मूळछे. तेम लोभ सर्व प्रोपनो गुरु छे. अहो लोभनुं साम्राज्यतो जुओ. पृथ्शीने विषे एक छत्र लोभनु राज्यछे, वृक्षो पग निधानने पामीमूलीए करी संताडेछे. .. द्रव्यना लोभमां द्वीन्द्रियादि जीवो पण सपडायाछे पूर्व भवना निधान उपर मूच्छावडे अधिरोहण करे छे.
सर्प, उंदर, गिरोली प्रमुख पण धनना लोभमां पूर्व भवनी मीना योगे फसायछे. अने निधानना उपर वास करेछे. - भूत प्रेत पिशाच यक्षादिक पण धनना अधिष्ठाता तरीके रहे छे, अहो लोभनी केवी सत्ताके देवताओ सरखा पण धनादिकनी माए नीच योनिमा अवतरेछे. मोटा मोठा मुनिवरो के जे उपशा
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परमात्मदर्शन. mammmmmmmmmmmmmmms न्तमोह गुणठाणे क्रोधादिकने झीती चढ्याछे तो पण तेमने लोभ धक्को देइ पाडी नाखेछे.
लोभथी राजाओ ठाकोरो विगेरे गामनी सीमोनी तकरारमां हरसाल क्लेश करी वैर धारण करी लडी मरेछ, जुओ प्रत्यक्ष रुशीया अने जापान देश लोभना कारण माटे मोटी मोटी हाल लडाइओ करी अने तेमा लाखो जीवोनो संहार थयो. ___ लोभरूपी खाडाने पूरवा माटे जेम जेम प्रयत्न करीये छीए तेम तेम वृद्धि पामेछे. अहो केबु आश्चर्य ? ... लोभ त्याग्यो तो तपवडे पण तूं ? अर्थात् लोभना नाशथी तप तपवानी कंइ जरुर नथी अने कदाप जो लोभ हृदयमा छे तो तपश्चर्यावडे करीने शुं ? अर्थात् कंइ नहीं. लोभ मूळ भूत पाप कृत्य जाणवां, रसमूळ भूत व्याधियो जाणवी. स्नेह मूल दुःखो जाणवां, एटले स्नेहथी सर्व दुःखो उत्पन्न थायछे, माटे हे प्राणी. ए त्रण वस्तुओनो त्याग करी तुं मुखी था.
लोभथी कपट थाय लोभथी जीवहिंसा थाय, लोभथी असत्य वचन बोलवू पडे, लोभथी चोरी करवानुं मन थाय, लोभथी कृत्य अकृत्यनुं भान रहे नहीं. लोभथी लज्जा दूर रहे, लोभथी धर्मनाश पामे, लोभथी विवेकनो नाश थायछे. लोभी पुरुषने मुखे निंद्रा पण आवती नथी, लोभी पुरुष गरज वखतेगधेडाने पण बाप कहेछे. लोभी पुरुष सदा पारकुं खराब चाहेछे, लोभी पुरुष मातापिताने पण छतरेछे, लोभी पुरुष साधु पुरुषतुं पण अपमान करेछे, मम्मण शैड मेवा लोभी पुरुषो परभवमां पण सुख पामी शकता नथी, आ दुनीयामां लोभी पुरुष शुं शुं कृत्य करी शकता नथी. लोभी पुरुष धनने माटे अन्यनो घात करेछे तेनु मरण इच्छेछ, जुओ लोभ वशे धवळ शेठ श्री श्रीयाळ राजाने मारवा माटे गया, पण खोदे ते पडे
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(
६०)
लोभस्वरूप.
तेनी पेठे पोते मरण पाम्या अरे दुर्गतिमां गया. लोभथकी सागर शेठ समुद्रमा बूडी मरण पाम्या. लोभथी पुत्र. पोताना पितानो राज्यने माटे घात करेछे, करावेछे, वांछे, लोभी पुरुषनी पासे लाखो रुपैया होय तो पण सुखे उंघी सकता नथी, लोभी पुरुष पापकर्मथी जरा मात्र पण डरतो नथी. साधुओने वस्त्र पात्र शिव्यादिकनो लोभ होय छे. ज्ञानी पासे तेमांगें कंइ नथी. ज्ञानी वन पात्रादिक राखे छे छतां ते उपर मोह राखतो नथी. ज्ञानी मनमा एम विचारे छे के हुं कइ वस्तुनो लोभ करूं. जे वस्तुनो लोभ थाय छे ते वस्तुक्षणीकछे अने मारी नथी, राज्य धन, कुटुंब, पुत्र, पुत्रीओ, घर, हाट, वस्त्र, विगेरे वस्तुओ आत्मानी नथी अने आत्मानी साथै आवनार पण नथी. फक्त अज्ञानताए जीव परवस्तुने पोतानी मानी तेना लोभमां विचित्र दुःखो पामेछे. मरी गया बाद सर्व वस्तुओ ज्यां हशे त्यांनी त्यां रेहेशे. माटे अरे जीव जरातो विचार!! पृथ्वी,घर, हाट, राज्य, लक्ष्मी मूकी घणा मनुष्यो चाल्या गया तेम तुं पण एक दिवस सर्व मूकीने चाल्यो जवानो, जे कायामां सारं सारं मिष्टान्न तुं भरेछे, जे कायामां तुं वस्योछे, जे कायावडे तुं हाली चाली शकेछे, जे कायाने तुं न्हवरावे धोवरावेछे ते काया पण अंते तारी थवानी नथी. तो तुं लोभ शा माटे करेछे ? धूमाडाना वाचक भरवा जेम नकामाछे ते परवस्तुने पोतानी मानी लोभ करवो ते पण खोटोछे. खारुं जल पीवाथी जेम तृप्ति वळती नयी तेम लोभ करवाथी शान्ति सुख मळतां नथी. माटे अमृत समान संतोष गुणनुं हे जीव तुं सेवन कर के जेथी शान्ति सुख मळे.
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परमात्मदर्शन संतोषमहिमा.
संतोष स्वरूप
श्लोक-कथाकोष ग्रंथे.
यथा नृणां चक्रवर्ती, सुराणां पाकशासनः तथा गुणानां सर्वेषां संतोषः परमोगुणः संतोषयुक्तस्य : यते रसंतुष्टस्य चक्रिणः तुलयासंमितोमन्ये प्रकर्षः सुख दुःखयोः किमंद्रियाणां दमनैः किं कायपरपीडनैः ननु संतोष मात्रेण मुक्तिस्त्रीमुखमीक्षते यत् संतोषवतां सौख्यं, तृणसंस्तारशायिनां । क्वतत् संतोषवंध्यानां तुलिकाशायिनामपि
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( १३१ )
२
३
४
जेम मनुष्योमां चक्रवर्ती देवताओमां जेम इंद्र, तेम सर्व गुणोमां संतोष मोटामां मोटा गुणछे. संतोष युक्त यतिना जेटलं इंद्र चंद्र नागेंद्रने पण सुख होतुं नथी. इंद्रियोना दमन करवावडे करीभुं, कायाने पाडवावडे शुं ? संतोष मात्र वडे मुक्तिखी मुखनुं निरीक्षण थाय छे. तृणना संधारा उपर शयन करनार एवा संतोष बाळा मुनिवरोने जे सुखछे ते सुख संतोष बंध्य तूलिकामां शयन करनार नृप गृहस्थाने होतुं नथी. संतोषी नर सदा सुखी जाणवो. असंतोष पुरुषने संतोषी वा भिक्षुक जेटळं पण सुख होतु नथी. संतोषीने चिंता होती नथी संतोष कल्पवृक्ष समानछे. संतोष अ. नहद आनंददायकछे. संतोषी पारकानो उपकार करवा समर्थछे. असंतोषी मरीने परभवमां पण सुख पामतो नथी. संतोषी मोटो धनवान् जाणवो. संतोषमां जे सुखछे ते सुख अन्यत्र नथी. आ
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( १३३ )
निन्दानों त्याग करवों जोइए.
त्मज्ञान थया विना तात्त्विक संतोष थतो नथी माटे आत्मज्ञान कतां सर्व दोषो नाश पामशे. चक्रवर्ती सरखा मोटा राजाओ पण लक्ष्मीनो त्याग करी सुखी थया.
आत्मार्थी भव्योए पारकी निंदानो त्याग करवो, कारण के निंदक चंडालछे. निंदक मोटो पापीछे, नाम देइने निंदा करे तो अधम जाणवो. परमां भूल होय पण तेना पूंठे निंदा करवाथी कई फायदो थतो नथी. पापमां शक्तिवाळा पुरुषोने निंदा करवानो स्वभावछे. गंगाजलमां स्नान करनार होय, अडसठ तीर्थनी यात्रा करे किंतु जो ते निंदक छे तो ते अपवित्र अने दुष्ट जाणवो, बहादूर पुरुषो निंदा करता नथी. निंदक कागडाना करतां पण
डोछे. अदेखाइथी निंदा उप्तन्न थायछे अने निंदाथी क्लेश उन्न थाय छे अने ते सामा पुरुषना जाणवामां आवे तो परस्पर वैर बंधायछे, निंदक आभवमां तथा परभवमां पण दुःख पामेछे, निंदा करवाथी मित्रनी मित्राइ पण तूटेछे.
जो तमे गुणी थवाने चाहताहो के मनुष्यनी घोळी बाजू तरफ दृष्टिद्यो. पण काळी बाजु तरफ दृष्टि द्यो नहीं, हालना वखतमां कोइ सर्व गुणी नथी, कोइ पुरुषनी कोइ निंदा करे तो तेने मनम एम विचारखुं के भले ए निंदे. हुं जो सारो मनुष्य हुं तो तेनी निंदाथी मारे शुं ? निंदकना उपर मारे केम क्रोध करवो जोइए ? सामा मनुष्यनुं हित इच्छवुं होय तो तेना गुण गावा. कोइ निदक निंदा करे तो उलडं निंदकनामां जे गुण होय ते आपणे वखावो पण खराब लागणीथी सामु तेनुं बुरुं करवा प्रयत्न करवो नहीं. कोई आपणा उपर दुष्टता करे तो पण आपणे तेनी तरफ शुभ भावना राखवी, तेनु सारुं करवा शुभ संकल्प करवो एम कस्वाथी सामो पुरुष अंते दुष्टतानो त्याग करशे आ नियमनो अनु
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Anamnawww
परमात्मदर्शन.
(१३) rünnainimimmisimiminnan भव करवाथी खातरी थशे.
आत्मज्ञानीओ कोइनी पण निंदा करता नथी तेओ तो आ“त्म रूवपमा तल्लीन रहेछे. परना तरफ दृष्टि देता नथी अने कदापि उपकारने माटे परतरफ दृष्टिछे तो पण आत्महितथी अन्य प्रहात्त करता नथी. ___ कोइ विरला जगत्मा आत्म तत्त्वनी शोधमां स्वकाल निर्गमन करेछे, अने कोई विरला परमात्मपदने पामेछे, सत्य तरफ प्रायः दुनीया प्रवृत्ति करती नथी पण असत्य तरफ करेछे ते उपर एक दृष्टांत मुसलमानी धर्ममां प्रगट थयुं छे ते एवी रीते के कोइ एक महान् पादशाहना वखतमां एक फकीरे प्रश्न कर्यो के-हे पादशाह आ सब खलक बुरे रस्तेपर कयुं चल रही हे ? त्यारे एना उत्तरमां पादशाहे फकीरने विज्ञप्ति करी कह्यु के-आपकुं मेरा मुकाम दो वर्षतक रहेना चाहिए. जब आपका सवालका जवाब में देनेकुं शक्तिमान होउंगा-आ उपरथी फकीर बावा त्यां रथा के तुरत पादशाहे पोताना राज्यमांना तमाम अमीर उमरावोने बोलावी हुकम आप्यो के-अमारा खजानामांथी तमाम लक्ष्मी खर्ची एक महा मोटो बाग बनाववो जोइए ने ते बागमां तमाम सृष्टिनी सर्व वस्तुओ प्रगट करीदेवी. बाद तमाम जगत्मांनी सर्व प्रजाने ते वाग जोवा बोलाववी, ने तेमनो तमाम खर्च तेमनी जग्यापर पहोंचाइया सुधी नो आपणे करवो जोइए. आवा प्रकारनो हुकम मळतां सर्व कचेरी मंडळे ताबडतोब आखी पृथ्वीमा रहेला तमाम कारीगरोने बोलाव्या ने तेमना कह्या प्रमाणे असंख्य जातनां साधनो पुरां पाडवा लाग्या. जे उपरथी बसे कोसनी वच्चमां जमीन पहाड समुद्र नाना प्रकारनां तमाम दुनीयामा रहेलां पशुपंखीओ तथा अढारभार
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( १३५) भारमानी शोध माटे बादशाहे बनावेक वाग. वनस्पति, मेवानां झाड, विचित्र प्रकारना अमूल्य वन रब स्वाहिर भातभातनां पक्वान्न, बागमां फरवाना मनोहर लताना मंडपोवाळा रस्ता, ठेकाणे ठेकाणे सुंदर वेश्याओ नाटक करे तेम गोठवण थइ, स्थळे स्थळे विचित्र प्रकारनांनाटका.तेमज खेलाडुओनीगोठवण थइ, साकरीयां पाणी, गुलाबजल लोकोना उपभोगने माटे तैयार कराव्या. अनेक तरेहना जानवरोना तमासानी रमतनी गोठवण थइ. बाग जोनाराने बेसवाने माटे अनेक खुरशीओ आदिनी सगवड थइ. बागमां सुंदर सरोवरो हवा खावाने माटे बंधाव्यां अने ते सरोवरनी आसपास चारे तरफ लीमडा ववराव्या. घटा करावी, ठेकाणे ठेकाणे पाणीना कुंवारा मूकी दीधा, विषेश शुं ? अपरंपार तेनी शोभा बाह्य जगत्नी वस्तुओथी बनावी दीधी, अने राजवर्गे पादशाहने खबर आपी. पादशाहे जगत्मां एवी जाहेरात् खबर आपी के-मारा बसो कोशना बागना मध्यभागमा एक महेल में रचावेलो छे, ते महेलमां अमुक दिवसे बपोरना त्रण वागे हुँ एक कलाक संताइ रहीश, तेवामां जे पुरुष मने शोधी काढशे तेने हुं मारी तमाम पादशाही आपी देश. एवी रीतनी जाहेर खबर दुनीयामां फेलावी दीधी. ठरावेला दिवसे तमाम लोको बादशाही बाग जोवा आव्या. तमाम प्रजा बाग जोवा मशगुल थइ कोइ फुलनां झाडो जोवा लाग्या. कोइ वाघसिंहादि पशुओने जोवा लाग्या, केटलाक शोखीन तळावनी शोभा जोवा लाग्या अने ठंडो पवन खावा लाग्या, नाटक जोवाना रसीया नाटक जोवामां लीन थया. मेवाना रसीया मेवा खावा लाग्या, कोइ पुरुष बीजा पुरुषने कह्यु के-भाइ चालो आपणे बादशाहने शोधी काढीए, त्यारे सामा पुरुषे जवाब आप्यो के-तुं तो चेलो थयो छे, शुं राजा ते महेलमां संताय ? एने एवं राज्य व्हालुंके
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परमात्मदर्शन.
( १३५ )
माटे आपणे तो वेश्याओनो नाश जोवामां आनंद मानीशुं - कोइ व्याकरण शाखना विद्वाने नैयायिकने कां हे नैयायिक तुं बादशाह महलमां संतानो छे ते वातने खरी बात माने छे के खोटी त्यारे नैयायिके कां वे - बादशाह वाक्यं प्रमाणं वा अप्रमाणं वा, तस्य वाक्यं सत्यं वा असत्यं वा एतत् कार्यस्य किं प्रयोजनं, इदृशं पूर्व न भूतं कदापि बादशाह गांडो थयो हशे, कदापि महलमां तेने शोधवा जतां बादशाह मारी नांखे तथा बळी एक एवी शंका थाय छे के-बादशाह महलमां छे तेषां शुं प्रमाण ? प्रत्यक्ष प्रमाण प्रत्यक्ष विरुद्ध छे. अनुमान प्रमाणमां कोइ हेतु अव्यभिचारी सिद्ध यतो नथी, उपमान प्रमाण पण सादृश्यना अभावथी बाधितछे. आगम प्रमाणनी पण अत्र सिद्धि यती नथी, माटे अमो तो बादशाहने शोधवानुं बंध राखी आ प्रत्यक्ष देखाती वस्तुओ जोवामां आनंद मानीभुं त्यारे व्याकरणशास्त्रवेताए कयुं सत्यं सत्यं भवतां कथनं पादशाह वाक्यं प्रमाणीभूतं मया न ज्ञायते - कोइ स गां संबंधीनी वातो करवा लाग्या, बागनी मनोहरतानी एवी खुबी हती के पगले पगले विचित्र जोवानुं मळे, खावानुं मळे, केटलाक तो वृक्ष तळे सुइ गया, केटलाकएक बीजाने वस्तुओ ओळखावा लाग्या, केटलाक रुपैया खर्ची टीकीटो करावी तमासा जोवा लाग्या, केटलाक एम विचारखा लाग्या के बादशाह बुद्धिमान् छे, तेनी ओछी माया नथी ते एवो संताणो हशे के आपणा हाथमां आववो मुइकेलछे, माटे आपणा करता होइए ते करो. केटलाक एम चिंता लाग्या के ज्यारे आ बागमां पण एवी भूलवणी चुकवणी छे के आपणे भूला पडीयेछीये तो बादशाहना महेलमां तो बहु भूलवणी चुकवणी हशे के जेथी शोधवाने बदले आपणे भूला पडीए तो अतोभृष्ट ततोभृष्ट थइए. केटलाक सुंदर परीओ देखी सेमां
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(३६)
बादशाहनी शोध. मोह पाम्या. केटलाक रागरागणीना तानमा गुलतान थया. केटलाक व्यापार करवा लाग्या, केटलाक विषयनी वातो करवा लाग्या केटलाक एम चिंतववा लाग्या के आ बागमां सदा रहेवानुं थाय तो ठीक. एम सर्वजन बागनी मोहमायामा फसाया. कोइए बादशाहने शोधी कहाडवानो प्रयत्न कयों नहीं, एवामां एक डाह्यो पुरुष हतो तेणे विचार्यु के-खरेखर आ जगत्नी तमाम प्रजा गांडीने मूर्ख छे, केमके ते जोवामां मशगुल थइ पडी पण तेमनामां एटली समजण नथी के प्रथम बाग जोवाना करतां बादशाहने शोधी कहाडवो जोइए बादशाहने शोधी काढे तो आ सर्व बाग तथा बादशाही तेने मळे, माटे आपणे तो प्रथम बादशाहने शोधी काढवो जोइए एम निश्चय करी आ पुरुषे महेल तरफ प्रयाण कयु. कोइ वस्तु तरफ दृष्टि दीधी नहीं, अंते महेलमां गयो, बादशाहने शोधी काढ्यो, के तुरत बादशाहे एक हजार तोप फोडावी मान साथे पोतानी बादशाही तेने हवाले करीने तुरत पेला फकीर बावाने पादशाहे कछु के-फकीर साहेब देखो. ऐसी दुनीया दिवानीकी रीति है के सब खलक जूठा बाग देखने में मशगुल हुइ, लेकीन कीसीका ध्यान मेरी शोध तरफ नहीं आया. सारांश के एवी रीते आ दुनीयाना जीवो असत्य मोहमायाथी जगत्मा फसायाछे. मोहमायानो त्याग करी जिनाज्ञा सत्य मानी पोतानी कायारूपी महेलमां अनंत शक्तिमान् अनंत सुखभोक्ता एवा आस्मारूपी बादशाह रहेलोछे तेने शोधवा ध्यान लगाडे तो जीव पोते परमात्मा बनी त्रण जगतनो स्वामी थाय. संसाररूप बागमां सर्व जगत् मोहमायाथी फसायुंछे, कोइ विरला प्राणी आत्मज्ञानने माटे सद्गुरुनु संसेवन करेछे, जेम झांझवाना पाणीश्री तृषा शान्स थती नथी तेम संसारनी मोहमायाथी आत्माने शान्ति मळती नथी, संसारनी सर्व खटपटने त्यागी आत्मस्वरूप प्राप्त कर एज
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परमात्मदर्शन...
( १३७ )
सारमां सारछे, पुनः पुनः मनुष्यभव मळवानो नथी, गयो वखत पाछो आवनार नथी सद्गुरुनां वचन ह्रदयमां ठस्यां नयी एम लागेछे, जो ठस्यां होत तो संसारना पदार्थोमा मन जाय तही, हे चेतन तुं क्षणमां सारं सारां भोजन जमवानी इच्छा करेछे पुनः स्त्रीविषयाभिलाषे तुं बहेछे पण समजतो नथी के स्त्रीमा उपर मोह पामवानुं शुं कारण ? स्त्रीनुं शरीर सात धातुथी भरेलुछे, खीनी कायामथी मळमूत्र fic amr करेछे, एना शरीरमां जरा पण पेवित्रता देखाती नथी. परसेवो, मेल, मस्तकना कशमां जू विगेरे प्रत्यक्ष देखायछे माटे हवे तुं वैराग्य लावी ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर. ब्रह्मचर्य स्वरूप श्लोकः
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वन्हिस्तस्य जलायते जलनिधिः कुल्यायते तत्क्षणात मेरुः स्वल्प शिलायते मृग रिपुः सद्यः कुरंगायत; व्यालो माल्य गुणायते विषरसः पीयूष वर्षायत, यस्यांगेऽखिल लोक वल्लभतमं शीलं समुन्मीलति १ ऐश्वर्यस्य विभूषणं सुजनता शौर्यस्य वाक् संयमो, ज्ञानस्योपशमः श्रुतस्य विनयो वित्तस्य पात्रे व्ययः, अक्रोधस्तपसः क्षमा प्रभवितुः धर्मस्य निर्व्याजता, सर्वेषामपि सर्वकारणमिदं शीलं परं भूषणं.
तथा गाथा
शीलं कुल आहरणं, शीलं रूवं च उत्तमं जयइ; शीलं चिय पंडिचं, शीलं चिय निरूवमं धम्मं. १
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ब्रह्मचर्य स्वरूप महिमा.
तथाच श्री ९.
तथाच श्री हेमसारिपादाः प्राणभूतं चरित्रस्य, परब्रह्मैककारणं; समाचरन् ब्रह्मचर्य, पूजितैरपि पूज्यते. २ . तथा च दशमांगे श्री प्रश्न व्याकरणे यस्य ब्रह्मचर्यस्य नामानि गुणाचैवमुच्यते तथाहि जंबू. एत्तोय बंभचेरं उत्तम तव नियम जाण दंसण चरित्त सम्मत्त विणयमूलं गुणप्पहाणजुत्तं हिमवंत महंत तेय मत्त पसथ्यं गंभीर थिमितमज्जं अज्जव साहुजणा चरितं मोख मम्गं विसुद्ध सिद्धिगति निलयं सासत मव्वाबाहं अपुण भवं पसध्यं सोमं गुमंसिव मयल मख्खर करंजति वरसा रख्खियं मुसाहस्सहियं नवरि मुणिवरेहिं महा पुरिस धीर सूर- धम्मिय घितिमंताणय सया मुविसुद्धं भव्वं भव्वजण समुचिणं निसंकियं निभ्भयं नित्तुसं मिरायासं निरुखलेवं निव्वुइ घर नियम निप्पकंपं तव संजम मूल दलियणेमगं पंचमहव्वय सुरख्खियं समिति गुत्ति जाणवरं कवाड मुकयरख्खण दिग्ण फलिह सण्णद्धोध्ययि दुग्गतिपहं सुगतिपह देसगं च लोगुत्तमं च वयमिणं पउमसर तलाग पालिभूयं महा सगडअर तुंब भूअं महाविडिम रुरुख खंधभूतं महानगर पागार कवाड फलिह भूअं रज्जपिणद्धोव इंदकेउं विसुद्धणेग गुणसंपिणद्वं, जम्मिा भग्गम्मि होइ सहसा सव्वसंभग्गसद्धिय महिय चुण्णिय कुशल्लि तपल्लट्ट पडिअ खंडिय परिसडिय विणासियों विणयसील तव नियम गुण समूहं तं बंभं भगवंतं गहगण णख्खत्त तारगाणं वाजहाउलुपति मणिमुत्त सिलप्पवाल रत्त रयणागराणंव जहा समुद्दो वेरुलि उन्वेव जह मणीणं जह मउडो चेव भूसणाणं वथ्थाणं चेवख्खोम जुअलं अरविंद चेव पुफ जेठं गोसीसंचेव चंदणाणं हिमवंता चेव ओसहीणं सीतो आचेव निम्मग्गाणं उदहीसु जहासयंभूरमणो रुअगवरो चेक मंडलि अपध्वपाण पबरे ऐरावणो इव कुंजराणं सीहोच-ज
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परमात्मदर्शन,
( १३९ . )
हामिगाणं पवरो पनगाणं चेव वेणुदेवे धरणे जणपण इंदराया काणं चैव बंभलोए सभासु अजह भवे सुहम्मो ठिती लवसच मगासव्वपवरा दाणाणं चेव अभयदानं किमिराओ चैव कंबला - संघयणे चैव वज्जरिसभे संठाणे चेव चउरंसेझाणेसुअ परमसुकझाणं णाणेसुअ परम केवलं सिद्धं लेसामुअ परम सुक्बलेसा तिथ्यकरो जहवेव सुणीणं वासेसु जहा महाविदेहे गिरिरायाचेव मंदरवरे वणेसु जहा नंदणवणं परंच दुमेसु जह जंबू सुदंसणा वीसुजसा जीसे नामेण अयं दीवो तुरगावती रहवती नरवती जहवीसु ते चैव राया रहिए चैव महारह मते एवं अणेग गुणा अहीणा भति एकम्मि बंभचेरे जम्मित्र आराहि अं वयमिणं सच्चे सीलं तवो ओय विणओय संजमोय खंती मुत्ति तहेव इह लोइअ पारलोइय जसोकित्तिय पव्वओय तम्हा निहुएण बंभवेरं चरिअव्वं सव्वओ विसुद्धं जावजीवाए. इत्यादि महिमा ब्रह्मचर्य व्रतनो को छे.
दुद्दा.
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-44
आतम सुखनी: चाइतो, विषयेच्छा परिहार; विषयेच्छा मनमा घणी, तो शुं ? आत्म विचार. १ आत्म स्वरूपे ध्यानतो, विषयेच्छानो नाश. प्रतिपक्षी वे धर्मनो, नहीं एकत्र निवास. सावर्ते नहीं वर्ते त्यां छे दंभ; भोगज कर्माधीनथी, त्यां शुं दोय अवंभ. दुर्गंधीनी कोथळी, मळमूत्रे भरी देह; कान्ता काया एहवी, अपवित्रतानुं गेह. रंग रूप खोटा सहु, श्रवे अशुची नित्य;
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३
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भास्ममा रमणता कर.
मोह करे शुं जीवडा, समज समज तुं चित्त- ५ भोग रोगः सममानतो, स्वप्ने पण नहीं आश; अनित्य आ संसारमां, क्याथी तेनो वास. ६ दुर्लभ आत्मस्वरूपनी, वातो करवी सहेल; किंतु आत्म स्वरूपनी, प्राप्तिछे मुस्केल. ७
निंदा, आलस्य, असत्यादि दूषणो निवारी निःसंगी थइ आत्म तत्त्वनी खोज करनार आत्मतत्त्व पामी शकेले. आत्मतत्त्वनी वातो करवी सहेलछे पण आत्म तत्त्वनी प्राप्ति थवी मुश्केलछे. कोइ विरला प्राणी आत्मा उपर रुचि करेछे. ___आचेतन अज्ञानयोगे भ्रमित थइ कदापि चलित थइ जाय छे. एबुं आत्म स्वरुप भूली गयो तेथी परवस्तुमा मोह पाम्यो, अशुद्ध परिणत्तिथी औदारिका, वैक्रिय आहारक, तेजस, कार्मणादि शरीरो धारण करी तेना योगे ताडन तर्जन छेदन भेदनादिक दुःखो लयां, हवे जो तने सुखनी आशा थइ होय तो हे आत्मन् चेत. चेत समय चाल्या जायछे मनना मनोरथ मनमा रहेशे, सद्गुरु संगे रही आत्म स्वरूप समन अने तेना ध्यानमा रहेता आश्रयतुं दुरी करण थशे. अने अंतरं तत्त्वोपयोगे संवरनी प्राप्ति थशे तारुं स्वरूप तुं देखे एटले तारो मोक्ष थशे.
श्री देवचंद्रजी पण कहेछे के
" दुहा." तत्वते आत्म स्वरूपछे, शुद्ध धर्म पण तेह; परभावानुग चेतना, कर्म गेहछे एह. तजीपर परिणति रमणता, भज निज भाव विशुद्ध
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परमात्मदर्शन. आत्म भावथी एकता, परमानंद प्रसिद्ध. २ स्यावाद गुण परिणमन, रमता समता संग; साधे सुद्धानंदता, निर्विकल्प रसरंग. मोक्ष साधनतणुं मूळ जे, सम्यग्दर्शन ज्ञान; वस्तु धर्म अवबोध विj, तुस खंडण समान. ४
आत्मबोध विणुं जे क्रिया, तेतो बालक चाल; तत्वार्थनी वृत्तिमं, लेजो वचन सभाल. ५
इत्यादिथी पण आत्मज्ञाननी खास जरुरछे, आ जगत्मा राग देवव्यापी गयोछे ने आत्माना अज्ञानने लीधे जाणवो. आ शरीरमा रहेला आत्माना सरखा अन्य शरीरोमां पण रहेला आत्माओछे एम जो जाणवामां श्रद्धा पूर्वक आवे तो कोइ दुःख कोइ जीवने आपे नहीं, अने कोइ जीवना उपर कोइ जीव वैर राखे नहीं. आत्मज्ञानी सर्व जीवने सिद्धसमान गणे तो पछी कया जोवनी साये ते विरोध करे ? अलबत कोइ जीवनी साथे ते विरोध करे नहीं, ए वातनो अनुभव करवाथी मालम पडशे, आत्मिक शुद्धानंद पण त्यारे अनुभवमा आवशे. राग द्वेषयी जेनु मलीन छे तेने मुख मलतुं ननी. जगत्मा तात्विक सुखना भाक्ता आत्मज्ञानी मुनिवरोछे. तेमने स्त्री नथी. पण समता रुपस्त्री भावथी जाणवी. राजाओ शेठीयाओ वकीलो, दाक्तरो, ज्यारे ताप आदिना निवारण माटे छत्री धारण करेछे तो तेना बदले आत्मज्ञानी मुनिवरो क्षमारूप छत्रीने धारण करेछे. क्षमारूप छत्रीथी क्रोधरूप ताप लागतो नथी, अने अदेखाइरूप उष्ण प्रवन तो जरा मात्र लागतो नथी. वळी मोहरूप मेघनी घटियी पडेलु तृष्णारूप पाणी तेने क्षमा छत्रीथी बीली श
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(१४२) भात्मज्ञानी राजाधी पण अधिक सुखीजे. कायछे, अन्य राजाओ पादशाहो ज्यारे एक देश बे देशना मालिक होयछे त्यारे मुनिराज तेना करतां पण अधिक पोताना आत्माना असंख्यात प्रदेशना मालीक होयछे. ज्यारे अन्य राजाओ घणी लक्ष्मी भेगी करेछे. त्यारे मुनिराज आत्मानी ज्ञान दर्शन चारित्र लक्ष्मी भेगी करेछे. तफावत एटलो के राजानी लक्ष्मी खोटी, क्षणिक छे अने मुनिनी लक्ष्मी सत्य अने अचल अखूटछे, राजा पादशाहने मनवचन कायाए करी संतोष रहेतो नथी. त्यारे मुनिने मनवधन कायाए करी संतोष रहेछे. राजा ज्यारे नृपादिक शत्रुओनी साथे युद्ध करेछे, त्यारे मुनीश्वर रागद्वेषरूप शत्रुओनी साथे युद्ध करेछे, राजाओ ज्यारे बागमां क्रीडा करेछे त्यारे मुनीश्वरो धर्मध्यानरूप बागमा क्रीडा करेछे-धर्मध्यानरूप बाग केवो छे ते कहेछे-धर्मध्यानरूप वागनी चारे तरफ उदासीनतारूप वाड करेली छे. ज्ञानरूप कूपधर्म ध्यानरूप बागमां शोभी रहेलोछे. संवेगादिक वनस्पति त्यां खीली रहीछे. त्यां मुनिराज स्थिर चित्तरूप आसन उपर बेसी विचरेछे. ते वागनी शोभा अनहदछे. तेनी सुगंधीथी अनेक जातना रोगो नाश पामेछे. ए बागनी अंदर क्षुद्र प्राणीओ प्रवेश करी शकतां नथी. जेनी योग्यता होय ते त्यां जइ शकेछ. जगतनी मोह मायामा फसाएला प्राणीओने ते बागर्नु मुख यतुं नथी, वळी ए बागमा एक चारित्ररूप महेल शोभी रह्योछे. तेनी अंदर जन्म जरा मरणनां दुःख नाशक अनेक औषधो रह्यांछे तेनेो मुनीश्वर उपयोग करी शकेछे. अने ते औषधोनुं भक्षण करी अजरामरपद पामेछे. वळी ते वागमा रहेला ज्ञानकूपमांथी मुनिश्वर जलपान करेछे. ज्यां परोपाधिरूप तापतो आवी शकतो नथी. वळी ते बागनी असंख्यात प्रदेशरूप जमीन स्वच्छ निर्मलछे. मुनीश्वरनी साथे शुद्ध चेतना रहेछे. बळी ते मुनीवर आत्मा अने परमात्मानी जैक्यतारूप भागने कायारूप स
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प्रमात्मदर्शन. लमां यूंटी मनरूप प्यालाथी पीवेछे. तेथी शुद्ध चेतनारूप नीशो मु. नीवर महाराजने एवो चढे छे के ते वखते अगम निगम दर्शाय छे. अने ते समये शरीर अने शरीरीनु पण भान रहेतुं नथी अने ते वखते अनहद आनंद थायछे. आवा मुनिराजने सुख थायछे ते अनंत छ. श्री यशोविजयजी उपाध्याय अध्यात्मसारमा कहेछे के
श्लोक. कान्ताधर सधा स्वादात्, यूनां यज्जायते सुखं । बिंदुः पार्थे तदध्यात्म शास्त्रस्वादसुखोदधेः १ अध्यात्मशास्त्र संभूत-संतोष सुख शालिनः गणयंति न राजानं नश्रीदनापि वासवम्. २
भावार्थ-स्त्रीना अधर रूप अमृतना स्वादथी युवान पुरुषोने जे सुख थायछे तेतो भ्रमणा मात्र छे, तात्विक सुख नथी, ते सुख तो अध्यात्म शास्त्रना स्वादथी उत्पन्न थयेलं दरिया समान सुख तेनी आगळ बिंदु समान छे. अध्यात्म शास्त्रथी उत्पन्न थयेलं संतोष रूप सुखना भोक्ता जे पाणी छे ते पाणी राजाने तथा धनदने तथा इंद्र सरखाने पण लेखामां गणता नथी.
श्लोक. रसो भोगावधिः कामे, सभक्ष्ये भोजनावधिः अध्यात्म शास्त्र सेवाया रसो निरवधि पुनः १
कामने विषे भोगवतां मुधी रसछे, मिष्ट भोजनने विषे जमवाना वखत पर्यंत मथुरपणुंछे. पण अध्यात्म शास्त्रनी सेवानो जे रस ते तो निरवधि छे. कारण के अध्यात्मशास्त्रनो रस प्रारंभ पालथी मांडीने प्रतिदिन वृद्धि पामेछे. ते रस कोइ वखत बदलातो
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सरलतमः
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नथी, ज्यारे आत्मानंदी मुनिराजने अत्यंत सुख थामछे त्यारे सिद्ध भगवंतोने अनंत सुख छे तेमां शुं कहेवू ? अनुभवथी सुखनी. प्र. तीति थायछे. वळी मुनीश्वर उपर कहेला एवा बागमां सदाकाल वास करेछे, तेमने कोइ जातनी स्मृहा नथी आवा मुनींद्रना बागनी तोले राजा वा शाहुकारोना बाग आवी शकता नथी. राजाने तो मनुष्य सेवेछे किंतु मुनीश्वरने सुर असुर इंद्रादिक पण सेवेछे. राजाने परशत्रु थकी भय रहेछे. किंतु मुनीश्वरने जय होतो नथी. राजानी पासे अनेक सुभडो होयछे त्यारे. मुनीश्वर रूपी राजानी पारो क्षमा, वैराग्य, ज्ञान, दर्शन चारित्रादि अनेक सुभटो हायछे. राजानी लक्ष्मी जन्मांतरमा साथे आवती नथी. पण मुनींद्रनी लक्ष्मी तो परभवमा साये आवेछे अने मोक्षमां पण साथे रहेछे, राजा पोताना देशमा पूजायछे, अने मुनींद्र तो ज्यां विचरे त्यां पूजायछे. राजा वैभव छतां दुखी थायछे, अने आत्मज्ञानी मुनीश्वर तो वैभव विना पण अंतर वैभवथी सुखी रहेछे, राजाने पोताना राज्यथी संतोष रहेतो नथी. अने मुनींद्रने तो सदा संतोष छे. राजाने आ भवमां तथा परभवमा क्लेश सहन करवो पडेछे, अने मुनीश्वरने आ भव तथा परभवमा सुखनी प्राप्ति थायछे, राजा संसारमा प्रवृत्ति करेछे. त्यारे मुनीश्वर प्रवृत्तिनो त्याग करेछे, राजा हाथी उपर बेसी बखतरथी शोभा पामतो तीक्ष्ण भालाने धारण करेछे त्यारे मुनीश्वर संवेग रूप हाथी उपर बेठा थका ब्रह्मचर्यरूप बखतरथी शोभा पामता ध्यानरूप तीक्ष्ण भालाथी रागद्वेष रूप शत्रुनो शिरच्छेद करेछे, मुनीश्वरने तो कोई शत्रु नथी. किंतु व्यवहारथी शत्रुनी कल्पना जाणवी. पोते पोताना आत्म स्वभावमा रमेछे एटले स्वतः सग द्वेषनो क्षय थायछे, राजाने जरापण शांति मळती नथी, अने मुनीपरता सदा शान्तिमा रहेछे. राजा ज्यारे वाद्यवस्तु उपर ममता
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परमात्मदर्शन,
1११५) राखेछे त्यारे मुनीश्वर अंतर्धन उपर ममता राखेछे. क्या मेरु अने क्यां सरसवनो दाणो, क्यां सागर अने क्या तळाव, क्यां रात्रि अने क्या दिवस एटलो तफावत आत्मज्ञानी मुनीश्वर अने राजा बच्चे जाणवो. दुनियामां आत्मज्ञानी मुनिसदृश अन्य कोइ सुखी नथी, शेठ, वकील, बारीष्टरादि लोको तत्त्वथी विचारतां सत्य सुख भोगवता नथी. सत्य सुखनी प्राप्ति तो आत्पज्ञानीने थायछे. अंत. दृष्टिना अभावे बाह्यदृष्टिजीवो सत्य मुस्खनो अनुभव करी शकता नथी. आत्मज्ञानी मुनि सदा निर्भय रहेछे, अहो ते जीवता जीवन्मुक्तनी दशाने अनुभवेछे. आत्मज्ञान विना खंडनमंडननी विद्वताथी आत्महित यतुं नथी. दुनीया ज्यारे परपरिणतिमा म्हालेछे त्यारे मुनीश्वर स्वपरिणतिमा म्हालेछे. आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पश्यति
आ वाक्यनो अनुभव पण आत्मज्ञानी मुनीश्वर करी शकेले. शुष्कज्ञानी जीवो वाक्पटुताथी आत्मज्ञानीनो डोळ भले बतावो पण तेना अनुभवथी थतुं सुख ते पामी शकता नथी. आत्माना केवल ज्ञानादिगुणोनी प्राप्ति आत्मार्थिने थायछे. ___ संसारी जीवने ज्ञान दर्शन चारित्रादिक ऋद्धि सर्व तिरोभावे छे. ते तिरोभाव ऋद्धिनो आविर्भाव थाय, तेज आत्मानुं परमात्म पद जाणवू. ते परमात्मनो हुँ दास एटले उपासकछु ते परमात्मपद जेणे ओळख्युं अने परमात्मपदमां जेनुं एकाग्र चित्तथी ध्यान वर्तेछे. तेने साधुपद ग्रह्य एम जाणवू. अने शुद्धज्ञान पण ते पाम्यो एम जाणवू. नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव ए चार निक्षेपे साधु जाणवा. ___ कोइनु साधु एवं नाम ते नाम साधु, स्थापना करीए ते स्थापना साधु तथा जे पंचमहाव्रत पाळे क्रियानुष्ठान करे शुद्ध आहार ग्रहण करे पण ज्ञान ध्याननो जेवो उपयोग जोइए तेवो उपयोग न
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होय ते द्रव्य साधु जाणवा. जे भाव संवरपणे मोक्षनो साधक थइ भाव साधुनी करणी करे ते भाव निक्षेपे साधु जाणवा.
कोइ जीवनो ज्ञान एहवो नाम ते नामज्ञान तथा जे पुस्तकमां अक्षररूपे लख्युंछे ते स्थापना ज्ञान, अने उपयोग विना सिद्धान्तनो मणवो अथवा अन्यमतिनां सर्व शास्त्र भणवां तथा शरीरादिक ते सर्व द्रव्यज्ञान. अने नवतत्त्वनी नय निक्षेपाए जाणवां अने आत्मतत्त्व आदर, ते भावज्ञान जाणवू. ए आगमसारमां कईछे. शुद्ध झाननी प्राप्ति पंचमकाळमां कोइक महा पुरुषने थायछे. ज्ञानना पंच प्रकारछे. १ मतिज्ञान, २ श्रुतज्ञान, ३ अवधिज्ञान, ४ मनःपर्यवज्ञान. देवद्धि वाचक कहेछ के-पाठ, से किंतं मइनाणं दुविहं मइनाणं पन्नत्तं तंजहा सुयनिस्सियं च असुयनिस्सियं च सेकिंतं असुयनिस्सियं अमुयनिस्सियं चउविह पमत्तं तंजहा उप्पत्तिया वेणइया कमिया परिणामिया बुद्धि चउम्विहा पनत्ता.
भावार्थ-मतिज्ञान के प्रकारेछे. श्रुतनिश्रित मतिज्ञान, वीजें अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान. प्रायशः श्रुतज्ञानना अभ्यास विना सहज भयोपशमवशे जे उत्पन्न थाय तेने अश्रुतनिश्रित कहे छे ते चार प्रकारछे. उत्पादिकी धुद्धि, वैनयिकी बुद्धि, पारिणामिकी बुद्धि तथा कर्मजा घुद्धि.
पोतानी मेळे उत्पन्न थाय ते औत्पातिकी बुद्धि अने गुरूनो विनय शुश्रूषा सेवा करतां आवे ते वैनयिकी बुद्धि, कर्म करतां उपजे जे ते कार्मिकी बुद्धि अने परिणामते दीर्घकालर्नु पूर्वापर अर्थन अवलोकन करतां उपजे ते पारिणामिकी बुद्धि.
पूर्वश्रुत परिकर्मित मतिना उत्पादकालने विषे शाखार्थ पर्यालोबन करतांज जे उत्सन थाय तेने श्रुतनिश्रित मतिज्ञान कहेछ. तेना
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परमात्मदर्शन चार प्रकारछे. अवग्रह, इहा, अपाय अने धारणा तेमा अवग्रह के भेदेछे. व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह. किमिदं एटले आ शुंछे ? एवो (अव्यक्त) अमंगट ज्ञानरूप अर्थावग्रह थायछे. तेनी पूर्व अत्यंत अव्यक्ततर (अति छानुं जे ज्ञान) होयछे तेने व्यंजनावग्रह कहे छे. वंजणवग्गहचउहा-एटले व्यंजनावग्रह चार प्रकारेछे. ते नीवे. मुजब-मणनयण विणिदिय चउका-मन तथा नयन ए वे विना बाकीनी चार ४ इंद्रियोने आश्रयी चार भेदेछे. श्री नंदीसूत्र पाठ. से किंतं वंजणुग्गहे चउबिहे पत्ते तंजहा, सोइंदिय वंजणुग्गहे घाणिदिय वंजणुग्गहे, रसेंदिय वंजणुग्गहे, फासिंदिय वंजणुग्गहेश्रोत, घ्राण, जिव्हा, स्पर्शेन्द्रिय व्यंजनावग्रह जाणवो.. मन तथा नयन ए बे इंद्रियो अपायकारीछे. चक्षुरिनिय छे ते विषयदेश मति जाइने देखती नथी, तेम प्राप्त अर्थ नुं अवलंबन करती नथी, तेम मन- पण जाणवू.
आ कंइपणछे ? एवं अनिर्धारित सामान्यरूप अव्यक्तपणे अ. थ जे ग्रहण तेने अर्थावग्रह कहेछे, ते पांच इंद्रियो अने मने करी छ प्रकारनोछे. श्रोतेंद्रियार्थावग्रह, चक्षुरिंद्रियार्थावग्रह, घ्राणेंद्रियार्थावग्रह, रसनेंद्रियार्थावग्रह, स्पर्शनेंद्रियार्थावग्रह तथा मानसार्थावग्रह. अवग्रहगृहीत वस्तुने विष जे धर्मनी गवेषणा करवी एटले आ स्थाणुछे ? अथवा पुरुषछे ? तेमां पण हाल संध्याकालछे अने महा अरण्यछे, वळी सूर्य पण आथम्योछे, माटे पुरूष नथी. इत्यादि व्यतिरेक धर्मनुं निराकरण कर. अने एने पक्षीओ भजेछे. वचमाथी वांकुछे, अने कोटर सहितछे. इत्यादिक अन्वय धर्मनो अंगी. कार करवो, एवं जे ज्ञान विशेष तेने इहा कहेछे. ए पण पंच इंद्रियो अने मने करी छ प्रकारेछे. तथा इहित वस्तुने विषे आ निश्चये करी स्थाणुजछे, एवो एक कोटिना निधयरूप जे बोध तेने
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(१५४
मतिज्ञामस्वरूप. अपाय कहेछे. स्थाणुरेवायं इत्यात्मकरूपो अपायः तथा निश्चित वस्तुने विषे अविच्युतिपणे अथवा स्मृतिपणे अथवा वासनापणे ने धारण कर तेने धारणा कहे छे. ते पण पंचइंद्रियो अने मने करी छ प्रकारे छे. एम छने चारे गुणतां चोवीस भेद अने व्यंजनाग्रहना चार मेळवता २८ अहावीश भेद मतिज्ञानना जाणवा एमा चार भेद अश्रुत निश्रितना मेळवतां बत्रीस भेद थाय छे. तथा जाति स्मरण पण अतीत कालना संज्ञी पंचेंद्रियना संख्याता भव देखे. मतिज्ञाननोज ते भेद जाणवो. श्री आचारांग सूत्रनी टीकामां जातिस्मरण ज्ञानने धारणानो भेद कह्यो छे-यतः जातिस्मरणं त्वाभिनिबोधिक ज्ञान विशेषमिति. कोइ एक सभामा घणा पुरूषो बेठाछे ते वखते शंख, तथा भेरी, रणशिंगुं, आदि वाजींत्र वागवा लाग्योश्रोताजनोए सर्व वाजिंत्रनो शब्द समकाले सांभळ्या छतां सर्वनी क्षयोपशमनी विचित्रताथी अधिक न्यूनादिक सांभळवामां आवेछे जेमके कोइने ते शंख भेरी आदि. वाजींत्रनो शब्द भिन्न भिन्न सांभळवामां आवेछे तेना जाणवामा एम आवे के अमुक भेरीओ आटला शंख वागेछे एम जणाय तेने बहु कहेछे. १ कोइने मात्र वाजींत्र वागेछे एम जणाय तेने अबहु जाणवो. २ तथा ते शब्दमा पण कोइकने मधुर मंदत्वादि बहुपर्यायोपेते जे शंखादिक ध्वनि पृथक् पृथक् घणा प्रकारे सांभळवामां आवेछे तेने बहुविध · कहीए. ३ कोइने एक बे पर्यायोपेत ते ध्वनि सांभळ्यामां आवेछे ते अबहुविध जाणवो. ४ कोइकने तुरत ते नाद सांभळवामां आवे छे ते क्षिम जाणवो. ५ कोइक विचारी विचारी घणी वार पाछळथी 'जाणे ते अक्षिम जाणवो. ६ ध्वजारूप लिंगेकरी जेप देवकुलं ओळखायछे तेम लिंग सहित जाणे तेने निश्रित कहेछे, ७
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परमात्मदर्शन.
तेने
कोई उक्त प्रकारे लिंगरहीत जाणे कोइने शंसयरहीत संभळायछे तेने कोइने शंसयसहीत संभळायछे तेने
संदिग्ध कहेछे. १०
कोइ एक वेळा सांभळी ग्रहण करी लीघेलं ते सदा सर्वदा स्मरण रहे पण वीसरे नही तेने ध्रुव कहे छे ११. अने कोइक एकवार ग्रहण करेलुं सर्वदा स्मरणमां रहे नहीं तेने अधुव कहे छे. १२. एवी रीते बार भेदे ज्ञान थायछे तेने पूर्वोक्त mardia भेदोथी गुगतां त्रणरोंने छत्रीश भेद मतिज्ञानना थाय. तथा तेमां अश्रुत निश्रितना चार भेद मेळवीए तो त्रणसेने चाळीस भेद मतिज्ञानना थाय छे. अर्थावग्रह एक समय प्रमाणछे.
अने अपाय अंतर्मुहूर्त्त प्रमाण छे. धारणा संख्यात असंख्याता काल सुधीछे अथवा द्रव्यक्षेत्र कालभावथी मतिज्ञान चार प्रकारमुंछे.
( १४९
अनिश्रित कछे. ८ असंदिग्ध कहेछे. ९
मतिज्ञानी आदेशथी सर्व द्रव्य जाणे पण देखे नही. क्षेत्र की सर्व क्षेत्र लोकालोक जाणे पण देखे नही. Timent आदेशे सर्व काल जाणे पण देखे नही. भावकी आदेशे सर्व भाव जाणे पण देखे नही.
श्रुतज्ञान स्वरूप
श्रुतज्ञान चौद तथा वीश प्रकारछे चौद भेद करेछे
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गाथा.
अख्खर सन्नी सम्मं, साईयं खलु सपज्जवसियं च । गमियं अंग पवि, सत्तविए ए सपविख्खा
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(५०)
অবলব. भावार्थ-अक्षरभुत, अनारश्रुत, संशीभुत, असंज्ञीश्रुत, सम्यश्रुत, असम्यग्श्रुत, आदिश्रुत, अनादिश्रुत, पर्यवसितश्रुत, अपयवसितश्रुत, गमिकश्रुत, अगमिकश्रुत, अंगमाविष्टश्रुत, तथा अंग बाह्यश्रुत, ए चौद भेद जाणवा. १ अक्षरश्रुत-अक्षरश्रुतना त्रण भेदछे संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर
तथा लब्ध्यक्षर. तेमां प्रथम संज्ञाक्षर-अढार प्रकारनी लीपी, तथाहि-हंसलिवी, भूयलिवी जरुखातह रख्खसीय बोधवा । उड्डी जवणी तुरुक्की कीरी दवडीय सिंधविया १ माल विणी नडिनागरि लाडीलवी पारसीय बोधव्वा । तह अनमित्तियलिवी चाणकी मूलदेवीय. २ बीजो व्यंजनातर प्रकार ते अकारथी हकारपर्यंत बावन अक्षर मुखे उच्चारवारूप जाणवो ए बने प्रकार यद्यपि अज्ञानात्मकछे तथापि श्रुतना कारण होवाथीं उपचारे करी ए बे प्रकारने भुतझाननी
संज्ञा आपीछे. ३ शब्द श्रवण तथा रूप दर्शनादिक थकी अर्थ परिज्ञान गर्मित जे अक्षरनी उपलब्धि रूप लब्ध्यक्षर श्रुत जाणवू, करपल्लवी आदिके जेथी अक्षर संख्या- ज्ञान थायछे तेनो समावेश लब्धि अक्षर भ्रुतज्ञानमां जाणवो. २ अनक्षरश्रुत-शिरकंपन, हस्तचालन प्रमुख तथा समश्याए
करी गमनागमनादिक मनना अभिमायनुं जे परिज्ञान तेने जाणवू. यथा कोइ मनुष्य कोइ मनुष्यने पृच्छा करे के भाइ बाहेर जावु छ के ? तेनो प्रत्युत्तर मुखथी नहीं देता मस्तक हलावीने अथवा हाथवती शान करीने पोतानी नामरनी अणाववी. पूछनारने तेना मनना अभिमायनुं परिज्ञान (माणपणुं) थाय तेने अनक्षरश्रुत कहेछे.
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परमात्मवन
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(१५१)
३ त्रीजु संगीत - संज्ञा त्रण प्रकारनीछे १ दीर्घकालिकी, २
हेतुवादोपदेशीकी, तथा दृष्टिवादोपदेशिकी.
केम कर ? हवे केम थशे ? इत्यादिके करी अतीत तथा अनागत घणा कालनी घणा काल पर्यंत विचारणा करवी ते दीर्घकालिकी संज्ञा जाणवी. तात्कालिक इष्ठ अनिष्ट वस्तु जाणीने प्रवृत्ति निवृत्ति करवी ते हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा. क्षयोपशम ज्ञाने सम्यग् दृष्टिपणं होय ते दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा जाणवी. विकलेंद्रिय असंज्ञीने हेतुवादोपदेशिकी संज्ञाछे. संज्ञी पंचेंद्रियने दीर्घकालिकी संज्ञाछे. कारण के ते विचार चिंतवना करी शकेछे, समकिती जीवने दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा जाणवी. मन तथा इंद्रियोथी उत्पन्न थयेलं जे ज्ञान तेने संज्ञीत कहे छे.
४ मन विना मात्र इंद्रियोए करी थयेलुं ज्ञान ते असंज्ञीनुं श्रुत जाणवु.
५ पक्षपात विना कोइ विषयना स्वरूपने जे यथार्थ जाणवुं तेने सम्यक्त कछे, अर्हत् प्रणीत आगमने सत्य मानवुं पक्षपात विना ते.
६ यथावस्थित बोधना अभावथी मिथ्यादृष्टिए अर्हत्प्रणीत अथवा मिथ्यादृष्टि प्रणीत वाक्यादिकनुं जाणवुं एटले पक्षपात प्रमुख बुद्धिए करी कोइ विषयना स्वरूपने यथार्थ न जाणवुं तेने असम्यक् श्रुत कहे छे..
८ श्रुतज्ञान सादि पर्यवसितछे, तेमज अनादि अपर्यवसित पण छे. १० द्रव्यथी एक पुरूष आश्री लइए तो सादि सपर्यवसितछे, अने घणा पुरूषो आश्री लइए तो अनादि अपर्यवसित पण छे. क्षेत्रथकी भरत तथा भैरवतने विषे ज्यारे तीर्थकरनो तीर्थ
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t
१५२)
शुतज्ञानस्वरूप.
बड़े त्यारे द्वादशांगी रूप श्रुत होयछे, अने ते तीर्थनो विच्छेद थवाथी ते श्रुतनो पण विच्छेद थायछे. तेथी ते सादि सपर्यवसित जाणवुं. महाविदेहमां तीर्थनो विच्छेद धुतनो पण विच्छेद थतो नयी थी त्यां अनादि अपर्यवसितत जाणवुं कालथी उत्सपिणि तथा अवसर्पिणीमां चोथे तथा पांचमे आरे श्रुतज्ञान होय अने छठे आरे विच्छेद थायछे तेथी सादि सपर्यवसित जाrg. महाविदेह क्षेत्रमां एवं कालचक्र नहीं होवाने लीधे त्यां श्रुत ज्ञान पण अनादि अपर्यवसित जाणवुं.
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+
भावथी - भव्यसिद्धि जीवने ज्यारे सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय छे त्यारे आदि अने केवलज्ञाननी प्राप्ति थायछे त्यारे अंत होवाथी सादि सपर्यवसित श्रुतज्ञान जाणवुं.
११ अग्यारमुं गमिकत ते ज्यां सूत्रना सरखा आलावा आवे ते जाणवुं दृष्टिवाद सूत्रमां जाणवुं.
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१२ बार अगमिक श्रुत अणसरखा अक्षरोना आलावा होय ते जाणवु.
१३ तेरमुं अंग मविष्ट ते द्वादशांगीरूप जाणवु.
१४ चौदमुं अंग बाह्यश्रुत ते आवश्यक तथा दशवैकालिक जाबुं तथा श्रुतज्ञानना वीश भेद पण कर्मग्रंथ विगेरेथी जाणी लेवा.
"
अवधिज्ञान स्वरूप.
अनुगामी, वर्धमान, प्रतिपाति, अप्रतिपति, हीयमान, अर्ने
नुगामी ए छ प्रकार गुण प्रत्यय अवधिज्ञानना छे. उक्तंच. नन्द्य
ध्ययने “ तं समासओ छव्विहं पन्नत्तं तंजहा आणुगामियं अणा
णुगामियं वद्रुमाणयं हीयमाणयं, पडिवाइ, अपतिनाह.
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परमात्मदर्शन.
( 14 )
१ प्रथम जे ठेकाणे अवधिज्ञान उत्पन्न थयुं होय ते ठेकाणुं मूकीने बीजे देशांतर प्रमुख जाय त्यां लोचननी पेठे जे साथ आवे ते अनुगामिक अवधिज्ञान कहे छे. ज्यां पुरुष जाय त्यां साथै आवे ते.
२ बीजुं जे ठेकाणे रह्यां अवधिज्ञान उत्पन्न थयुं होय ते स्थानके आवे तेवरेज होय. पण अन्यत्र स्थाने जाय तेवारे साथ न होय तेने अननुगामि अवधिज्ञान कहे छे.
से किंतं णानुगामीयं अहीनाणं ओहीनाणं तंजहा नाम एगेइ पुरिसेगममहं जोइठाणं काउं तस्सेव जोइठाणस्स परि पेरं तेसुपरिहिंडमाणे परिहिंडमाणे परिघोलमाणे तमेव जोइठाणं पास अन्नथ्थगए न पासइ एतमेव अणाणु गामियं ओहिनाणं जय्येव समुपज्जइ तथ्येव संखिज्जाणि वा असंखिज्जाणि वा जोयणाई पासइ
न अनध्य.
भाष्यकारोप्याह- अणुगामिउ अणुगच्छ गच्छंतं लोयणं जहा जहा पुरिसं इयरोउ नाणु गच्छठियप्पइवञ्चगच्छतं - इति. ३ श्रीजुं जे वृद्धि पामे तेने वर्द्धमानअवधिज्ञान कहे छे, जेमके शळगतिअग्रिम जेम जेम बलतण नाखीये तेम तेम बघती ज्वाला थायछे तेनी पेठे यथायोग्य प्रशस्त अतिप्रशस्त तर अध्यवसायने लीये पूर्वावस्थाथी ते उत्तरोत्तर समय समय वधतुं वचतुं जाय तेने वर्धमान अवधिज्ञान कहे छे अर्थात् प्रथम उपजती वखते अंगुलन असंख्यातमा भाग जेटचं क्षेत्र जाणे. देखे पश्चात् वधतां वधतां यावत् अलोकाकाशने विषे लोक जेवडा असंख्यातां खांडवां देखे.
४ चोथुं पूर्वे शुभ परिणामवशे घणुं उपजे पश्चात् तथाविधं
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amanaraamananmarnamarana......
(१५."
মিখানা, सामग्रीनो अभाव थयाथी पडता परिणामे करी हानि पामे तेने हीयमान अवधिज्ञान कहेछे. ५ पांचमुं संख्याता असंख्याता योजन उत्कृष्टपणे यावत् समग्र
लोक देखीने पण पडे एटले जे आव्यु जाय तेने प्रतिपाति कहेछे. ६ छटुंजे उत्पन्नथया पछी क्षीणताने न पामे ते लोक समग्र देखीने
अलोकना एक प्रदेशने देखे ते अप्रतिपाति ज्ञान जाणवू. ते ज्ञान आव्यु जाय नहीं. प्रश्न-हीयमान अने प्रतिपाति ए बन्नेनां लक्षणो तो सरखाछे
तेम छतां जूदां बताववानुं शुं कारणछे ? उत्तर-पूर्वावस्थाथी हळवे हळवे घटतुं जाय एटले क्षीणताने पामे ते हीयमान कहेवायछे अने जे विध्मात प्रदीपनी पेठे एक कालने विषेज निर्मूल थायछे ते प्रतिपाति कहेवापछे.
अवधिज्ञानना असंख्यात भेदछे, वळी अवधिज्ञानना चार प्रकारछे तथा चाह.
तंसमासओ चउन्विहं पनत्तं तंजहा दबओ खित्तओ कालो भावओ दबओणं ओहीनाणी जहन्नेणं अणंताई रुविदव्वाइं जाणइ पासइ उकोसेणं सव्व रूविदवाइं जाणइ पासइ, खित्तओणं ओहीभाणी जहनेणं अंगुलस्स असंखेजभागं उक्कोसेणं असंखिज्जाई अलोए लोयप्पमाण मित्ताई खंडाइं जाणइ पासइ कालोणं ओहिनाणी जहन्नेणं आवलियाए असंखिज्जभागं उकोसेणं असंखिज्जाओ उस्सप्पिणी अवसप्पिणी अतीयं च अणागयं च कालं जाणइ पासइ भावओणं ओहिनाणी जहनेणंवि अणते भावे जाणइ पासइ उक्कोसेणं वि अणंतेभावे जाणइ पासइ सन्चभावाणं अगंतभागं.
अवधिज्ञानी द्रव्यथी जवन्यपणे अनंतारूपी द्रव्यने जाणे देखे
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परमारमदर्शन.
उत्कृष्टपणे सर्वरूपी द्रव्यने जाणे देखे ते द्रव्यथी अवधिज्ञान.
क्षेत्रथी जघन्यपणे अंगुलनो असंख्यातमो भाग जाणे देखे अने उत्कृष्टपणे अलोकाकाशने विषे लोक प्रमाण असंख्याताखांचा जाणे देखे.
कालथी अवधिज्ञानी जघन्यपणे आवलिकानो असंख्यातमो भाग जाणे, देखे अने उस्कृष्टथी असंख्याती उत्सर्पिणी अवसर्पिणी पर्यंत अतीतकाल अनागतकाल जाणे देखे ते कालावधि ज्ञान..
भावयी अवधिज्ञानी जघन्यपणे अनंतभावने जाणे देखे अने उत्कृष्टयी पण अनंता भावने जाणे देखे ते भावावधिज्ञान जाण.
मनःपर्यवज्ञानस्वरूपं. मनःपर्यव ज्ञानना बे भेदछे. एक रुजुमति, बीजो विपुलपति अमुक पुरुषे घट चिंतव्योछे एम सामान्यपणे मननो अध्यवसाय आहे ते रुजुमति जाणवू.
तथा अमुक पुरुषे घट चिंतव्योछे ते द्रव्यथी सुवर्णनोछे, क्षेत्रथी पाटलीपुरनोछे. कालथकी शीतकालनोछे, अने भावथी पीतवर्ग सुकुमाळ द्रव्यादि विशेष प्राहिणीमति तेने विपुलमति ज्ञान कहे.
अथवा मनःपर्यवज्ञान ४ चार प्रकारच्छे, द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावथी उक्तंच तं समासओचविहं पत्रतं तंजहा दवओ खेतओ कालो भावओ. दम्बओणं रिउमइणं ते अगंतपएसिए खंवे माणइ पासइ ते चेव विउलमइ अभहियतराए विमल तराए जाणइ पासइ. ___ भावार्थ-द्रव्यथी रुजुमति अनंत प्रदेशी अनंता स्कंध जाणे देखे अने विपुलमति तेहिज स्कंध काइक अधिकेरा विशुद्धपणे जाणे देखे, क्षेत्रयकी रुजुमति नीचे रत्नप्रभा पृथ्वी क्षुल्लक प्रतर लगे:
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( १५६ )
मन:पर्ययज्ञानस्वरूप.
अने जंतुं ज्योतिषिना उपरीतल लगे तीच्छु अढीद्वीप के समुद्र पनर कर्मभूमि त्रीश अकर्मभूमी अने छप्पन्न अन्तरद्वीपने विषे संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्ताना मनोगत भाव जाणे देखे अने विपुलमति तेहिज क्षेत्र अढी अंगुले अधिक देखे अने विशुद्ध देखे. कालयकी जघन्यपणे जुमति पल्योपमनो असंख्यातमो भाग अने उत्कटपणे अतीत अनागत जाणे देखे. अने विपुलमति तेथी अधिक अने विश्वतर जाणे देखे. भावयकी रुजुमति अनंताभाव जाणे देखे. अने विषुलमति तेथी अधिक जाणे देखे.
केवलज्ञानस्वरूप.
केवलज्ञान उत्पन्न थतांग समकाले सर्व पदार्थोंना द्रव्य क्षेत्र काल तथा भाव जाण्यामां आवी जायछे, तथा दीठामां आवी जायछे, माटे केवलज्ञान एक प्रकारनुं छे.
आत्मानुंछे, केवलज्ञानमां मतिज्ञानादिनो अंतर्भाव थाय छे, आत्मज्ञानी समकिती मुनिने शुद्ध ज्ञाननी प्राप्ति थायछे.
आत्मस्वरूपना उपयोग विना जे संसारमा चालेछै तेनो तिल पीलक यंत्र पमनी पेठे संसारनो पार आवतो नथी.
'काव्यना नवरस ज्ञानयी राचो अने लाखो काव्य करो किंतु आत्मपदना उपयोग विना अन्य सर्व राखमां घृत सींचननी पेठे निष्फळ जाणवुं तर्कशास्त्र पण आत्मतत्वना उपयोग विना मिथ्याभावे परिणमेलं नरकादिक गति भ्रमण हेतुभूतछे. व्याकरण शास्त्रथी पगं आत्मपद भिन्न छे.
सारांश - व्याकरण शास्त्र भगतां छतां पण जो आत्मानी ओळखण थइ नहीं तो तेथी शुं धर्यु ? अलबत आत्मतत्व ज्ञानम व्याकरण हेतुभूतछे पण आत्मतत्वना रहता उपर दोराय तो लेखे थायः व्याकरण भणीने वादविवाद मिथ्या करवाथी वैरविरोध क्ले
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परमात्मदर्शन,
( १५७)
ग्रमी उत्पत्ति थायछे. मारा जेवो कोण विद्वानछे ? सभाषां मने कोण जीतनारछे ? इत्यादि अभिमानना आवेशमां सपडाइ जवायछे. माटे व्याकरण शास्त्र भणीने पण आत्मच जिज्ञासु थर्बु. एज परमोपदेश रहस्य छे, आत्मतत्व जाणतां रागद्वेष क्रोध मान माया लोभ विगेरेनो नाश थायछे, वैरविरोध कदाग्रहनो आत्मतत्त्व जाणतां नाश थायछे. जेना अज्ञानथी संसारनी मायामां लपटावानुं थयुं अने जेना ज्ञानथी अनंतकाल पर्यंत चतुर्गत्यात्मक संसारमां जडवत् स्वचेतना नष्ट प्रायः थइ परिभ्रमण करवुं पड्युं तेनुं जो ज्ञान थाय तो संसारनी उपाधिथी मुक्तज थाय अने अत्यभूत अनहद शुद्ध अखंड निर्मल शाश्वत आत्मसुख अनुभवी शकाय पोतानुं ज्यां अज्ञान त्यां रागद्वेष अने पोतानुं ज्ञान थतां सूर्योदयधी अंधकार जेम स्वतः नाश पामेछे तेम रागद्वेष स्वतः नाश पामे छे.
अन्य दर्शनियो पण आत्मतत्व नुं गान करेछे ते नीचे प्रमाणे छे. फकीर फकीर क्या कहो, फकीर जगत्का पीर; फकीरसें तो ढूंढ निकाला, पूर्ण रूप अमीर. मन मारे तन वश करे, सोधे सकल शरीर; दया धर्मकी कफनी पहरे, आप रूप फकीर. वेद वेद शुं कहो, वेद छे धर्म तारो; वेदथी वस्तु छे न्यारी, अखंड तरखलो मारो - कुवा देखी तळाव देखा, न्हाया देवकी कुंड; गोळकी गंगडीके उपर, मख्खीकी बहोत हे झुंड, ४ चल चल बोलो मत, खोलो पडदा अपना;
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१
३
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( १५८ )
आरममहत्ता.
गुफामें तो साहेब देखा, सुरत नुरतसें जपना. हा कहुं तो है नहीं, ना कह्यो न जाय; दाना के भितर, कीडी साकर खाय शास्त्र भयो पुराण भन्यो, वेद तो मने खटक्यो; अनंतरूपे प्रभुजी मारो, आकाशमांहि चटक्यो. ७ जोगी जंगम सेवडो, सन्याशी दरवेश; चक्षु सामे प्रभुजी दीठा, वृत्ति आतमदेश. वगर पाणीना तळाव मांहि, खील्युं कमळनुं फूल; बत्ती विना अजवाळु आपे, झगझगति तेनी गुल९ रत्नाकर सागर मांहे, गागर फूटी जाय; पाणी मांहे पत्थर लडे, अगम निगम परखाय. १०
आवां अनेक भजनपद अन्य मतावलंबीयो गायछे, किंतु एकांते तेनो अर्थ करवाथी जेवो जोइए तेवो सम्यग् लाभ थतो नथी. अनेकान्तमत ज्ञाता आत्मार्थि अवळाने पण सबळा तरीके परिणमावेछे.
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५
आत्मज्ञानने माटे प्रयत्न करतो ते अति उपयोगी छे.
कथा मात्र कहेवाथीज जो आत्महित थतुं होत तो पुराणीओ बहु कथाओ कछे माटे तेमनुं तो कल्याण धनुं जोइए किंतु तेथी कल्याण थतुं नथी. आत्मतच्चतुं ज्ञान नथी तो एक उदर पोषक कथाथी शुं थाय ? अलबत् कंइ नहीं. मनुष्योना मनतुं रंजन करवायीज जो धर्म थाय तो भाट चारण, नाटकीआ विगेरे जनमनरंजन करेळे ते मने धर्म थवो जोइए परंतु समजवानुं के
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परमात्मान
( १५९ )
आत्मधर्म समज्या विना अने आत्मार्थिपणाना गुणो मगटया विना जनमनरंजनताथी पोतानी वाहवाहमां आत्मधर्म साधी शकातो नथी. माटे भव्यात्माओए कीर्त्ति वाहवाह जनमनरंजनता प्रति लक्ष्य नहीं देतां आत्मधर्म उपर लक्ष्य देवं आत्मधर्म प्रति जेनी दृष्टि ते प्राणी त्रण भुवनमां पूज्यताने पामेछे, व्याख्यान द्वारा जनमनरंजनपर ध्यान आपवुं ते अयोग्यछे. भव्यात्माओ आत्महित शी रीते करे ते उपर लक्ष आपवुं, अने तेवा शुद्ध अंत:करणना अभिप्रायथी उपदेश देवो ते स्वपर हितकारक छे.
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परस्पर क्लेशोत्पादक वादथी कंह आत्महित थतुं नथी. गाली देवीने लेवी एवो वादतो वाघरीना गृहे पण छे परमार्थ शून्य वादथी कायक्लेशादि मात्र फळछे. आत्मतत्त्व रमण तथा आत्मज्ञान विना सर्व वात निष्फळछे. व्याकरण, न्याय, वादादि आत्मतत्त्वमां उपकारकछे माटे तेमनुं स्वरूप जाणी तेमां रमण करे तो वादादि सफलछे. दीर्घ आयुष्यना अभावे अवश्य ज्ञातव्य आत्मतत्त्वनुं अवलंबन करी रागादि दोषोनो नाश करवा प्रयत्न करवो ए हित शिक्षाछे.
आत्मानुं ज्ञान जो नथी तो क्रिया कांडथी पण मुक्ति थती नथी, आत्मस्वरूपना उपयोगी मुनिराजनी सर्व क्रिया गुणनी खाण जाणवी, तद्धेतु, अमृत क्रियाना अधिकारी मुनीश्वरछे. अध्यात्मसार ग्रंथे श्लोक,
अपुनर्बधकस्यापि या क्रिया शमसंयुता । चित्रा दर्शन भेदेन, धर्मविप्रक्षयाय सा अशुद्धापि हि शुद्धायाः क्रियाहेतुः सदाशयात् । ताम्रं रसानुवेधेन, स्वर्णत्वमधिगच्छति
२
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भारममा रमणता कर. समभाव सहित विचित्रदर्शनभेदे अपुनर्बधी जे चोथु गुगठाणुं तेनी जे क्रिया ते पग ययपि धर्मना विघ्नने कर. नारीछे, तो पण भला आशय थकी अशुद्ध क्रिया करे ते पण भुदकडेवाय जेम ताम्ररसानुबेये सुवगताने पामेछ, तेम अत्र समजवू, अन्योऽन्य क्रिया, विषक्रिया, गरलक्रिया, तहेतुक्रिया, अमृलाक्रिया एपंच प्रकारनी किया जाणवी. तेमांनी आय त्रग क्रिया त्याज्य जाणवी.तद्धेतु, अने अमृत क्रियानी प्राप्तिथी मुक्ति थाय छे, अनेकान्त मार्गमां कदाग्रह करवो नहीं, समयसिंधुन बिंदुग्रही मकलावू ते व्यर्थ छे, मतकदाग्रहग्रस्तपना जीवोनी रागद्वेषयोगे सर्व क्रिया दुःखनु धाम एटले स्थान छे, स्वात्मोत्कर्ष मान पूजा कीर्तिने माटे परात्मापकर्षकारक क्रियावादी स्वात्महित निरपेक्ष पणाने लीधे साधन साध्य बुद्धि शून्यताथी परमात्म पद साधी शकतो नथी, सापेक्षपणे व्यवहार निश्चय पूर्वक जिनाज्ञा सहित तोतु अमृत क्रियानु अवलंबन करीने भव्यात्माओ अखंड निर्मल शाश्वत सुखमय शिवस्थाननी प्राप्ति करे छे, जे भव्यो क्रिया, अजीरणजे निंदा तेनु सेवन करेछे ते मुक्तिपदना अधिकारी यता नथी, अमुकमा अमुक दोषछे, अमुक तो आम करेछे, इत्यादि परभाव परिणति ज्या सुधीछे त्यां सुधी आत्तध्यान अने रौद्र ध्याननी क्रिया जाणवी. अंतर्दृष्टि थतां धर्मध्याननी क्रिथा थइ शकेछे, जगत्मा रोगो अनेक प्रकारना होयछे, तेमज औषधो पण अनेक प्रकारांछे, कोइने उधरस थइ होय ते अमुक औषधथी मटे अने ते उधरस कोइने ते दवाथी मटती नथी. सूरतथी विहार करता मीयागाम आव्या त्या श्री दुर्लभविजयजी साथे दीपविजयजी तपस्वी हता तेमने उधरस घणी हती, तेम ताव पण हतो ते गाममा मोटा मोटा मरचा खाबाथी उधरस मठी तो भव्यात्माओने समजवान के भावरोगी जी
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परमात्मदर्शन.
( 441 )
वा अनेक प्रकारनाछे, कर्मरोग पण अनेक प्रकारनाछे, तेना उपर धर्मनां औषधो पण अनेक प्रकारनांछे, कर्मरोगने टाळनार सद्गुरू वैद्यो पण अनेक प्रकारनाछे, कोइ जीवने कोइ धर्म औषधथी लाभ थाय, कोइ जीवने कोइ मुनीश्वर वैद्यथी लाभ थाय, माटे पक्षपात करी एकान्तमतरूप कदाग्रहनुं अवलंबन करवु नहीं, पंचमारके अल्पपुण्यवंत बहुपापकर्मीजी वो प्रायशः धर्मनुंनाम धरावी मारा तारा पणानी बुद्धि धारण करी पक्षपातरूपविषनु पान करी अ नंतभवभ्रमण करनारा थशे. अज्ञानरूप निद्रामां सुतेलाने तो सद्गुरू महाराज सहेल | इथी उठाडी शकेछे किंतु जे मत कदाग्रह पक्षपातरूप दारूतुं पान करीने अज्ञानरूप निद्रामां सुइ रहेलाछे ते पुरुषने तो गुरूमहाराज पनीश लाकडीओ मारीने आत्मस्वरूपे जगावाने समर्थ नथी. कारण ते विलकुल बेशुद्ध बनी गयाछे, सत्यतत्व समजवाने शक्तिमान्छे किंतु जेणे मतकदाग्रह रूप मदिरानुं पान कछे, एवा पुरूषनी आगळ सत्यतत्त्वनी हित शिखामण गुरूमहाराजा आपेतो ते व्यर्थ जायछे, उलडं ते गुरूमहाराजने पण निंद्य वचन संभळावेछे, केटलाक जीवो तो एवा होयछेके पोताना मतमां बेटुं ते खरूं अन्य सर्व खोडं मानेछे तेवा जीवाने ज्ञानी गुरूमहाराज बहु प्रयासे सत्यमार्गे दोरेछे, व्यवहार अने निश्चय नयना जाण ज्ञानी गुरूमहाराजा क्रियावडे कर्मनो नाश करेछे, ए परमार्थ.
·
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66
" 'दुहा.
आत्मोपयोगी साधुने, किरिया सद्गुण धाम; मतकदाग्रह लालचु, सहु किरीया दुःख ठाम. ११८ जलनी उपाधिथकी, जुदी अवस्था थाय; तेवी जे जननी थती, भवमां ते भटकाय
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( १६२ ) योग्य साधु सक्रियाथी आत्मधर्म साधी शकेछे.
उपादान समजे नहीं, समजे नहीं निमित्स; कारण कार्य समजे नहीं, तत्वे शुं शुभ चित्त १२० द्रव्यभाव समजे नहीं, वर्ते बाह्याचार; अनुपयोगिआत्मनो, पामे नहि भवपार.
१२१
भावार्थ - प्रथम दुहानो अर्थ उपर लखायोछे जलनी उपाधिथी जेम भिन्न भिन्न अवस्थाओ थायछे- एटले जेम जलमां लाल रंग नाखीए लाल देखायछे. पीळो रंग नाखीए तो जळ पीळं देखाय छे, लीलो रंग नाखीए तो जल लीलुं देखायछे, एटले जल अन्यनी साथै मिश्र थवाथी व्यवहारथी स्वशुद्ध रूपनो त्याग करेछे. तेम जे जीवो असत् संगतिरूप उपाधिना योगे जेवा मळ्या तेवा थइ जायछे, ते भवमां अटकेछे, अर्थात् सारांशके-जे जीव पादरीनी संगतथी तेना उपदेशवडे इशुने पूज्यमाने, अने ख्रीस्ति धर्म स्वीकारे, कदापि ते जीवने कोइ बौध गुरुनी संगति थइ. बौधे कर्तुं स्त्रीस्ति धर्म तो अनार्य धर्मछे, ते धर्मथी मुक्ति मळती नथी, बौध धर्म सत्यछे माटे ते स्वीकार. त्यारे तेना उपदेशथी बौध धर्म स्वीकारे, 'वळी ते कोई मुसल्मान मळ्यो तेणे कां बुद्ध धर्म तो खोटोछे, सत्य धर्म तो खुदाका है, बुद्ध धर्म में तो अमुक जूठा कहाहे, ओ तो काफरों का धर्म है, इसलिये खुदाका धर्म मानेगा तो दोझखमे पडेगा नहीं, एम मुसलमानना उपदेशथी मुसलमान धर्म स्वीकार्यो. स्यारे ते पुरुषने कोइ वेदांति मळ्यो. वेदांतीए कह्युं सर्व धर्मनुं मूळ वेदान्त छे, वेदथी मुक्तिनी प्राप्ति थायछे इत्यादि कथनथी वेदधर्मनो स्वीकार कर्यो. त्यारे कोइ कालीकाना भक्ते कां. अरे मनुष्य तुं कालिकानो भक्तथा, कालिका पुत्र धन स्त्री वैभवने आपनाररीछे, माटे कालिका तेज खरीछे, वेदथी तो कंड सुख मळतुं नथी,
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परमाग्मदर्शन, इत्यादि कथनथी कालिकानो भक्त थयो, त्यारे वळी नास्तिकवादी तेने मळ्यो तेणे कथु. भला मनुष्य तने धर्म धुताराओ छेतरेछे केमके जे वस्तु आपगी आंख देखाती नथी. ते वस्तुनी इच्छा राखवी ते व्यर्थ छ, कालिका तो पत्थरनी मूर्ति छे ते कर फल आपना समर्थ नथी इत्यादि कथनयी नास्तिक थाय इत्यादि अबस्था जे मनुष्यनी थायछे ते कदापि आत्म मुख पामी शकतो नथी. कारण के ते अज्ञानी अविवेकी अने श्रद्वा रहीतछे, तेथीभवभ्रमण कर्या करेछे.
बळी जे भव्यो उपादान कारणने समजता नथी अने निमित्त कारणतुं स्वरूप पण जाणता नथी, अमुक कार्य अने तेनुं कारण अमुक ते पण समजी शकता नथी. साधन अमुक अने साध्य अमुक ते पण समजी शकता नथी एवा अज्ञानी जीवोनु तत्वमा चित्त होतुं नथी.
द्रव्य अने भावथी चारित्रने समजता न होय. फक्त ओघदृष्टिथी बाह्याचारमा धर्म मानी प्रवर्ते, आत्मतत्त्वनो उपयोग होय नहीं तेवा जीवो भवनो पार पामी शके नहीं श्री यशोविनयजी उपाध्याय कहेछे के-.
ढाळ. ज्यां लगें आतम तत्त्वजें, लक्षण नवि जाण्यु; त्यां लगे गुणठाणुं भलं, किम आवे ताण्यु. आतम.१ .. ए प्रमाणे विचारतां आत्म तत्वावबोध विना क्रिया मुक्ति मार्गप्रतिकारणीभूत थती नथी. हुं क्रिया कोने माटे करुंछ, क्रियाथी भुं थायछे, क्रियानो कर्ता कोणछे ? एनी यथायोग्य समजण विना अनुपयोगताए परमात्मपदरूपसाध्यसंसिद्धि यह
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मात्मज्ञानी कर्मनो माश.
शकती नथी, उलटुं ते अनुपयोगताए क्रिया करी अन्य फल प्राप्त करेछे यथा विनायकं प्रकुर्वाणो, रचयामास वानरं । विनायकनी मूर्ति बनावतां वांदरो रच्यो तेनी पेठे-आत्मानी अज्ञानताए अन्योन्य, विष, गरल, ए त्रण क्रियानुं सेवन थायछे-अने ए त्रण क्रियाथी जीव अशुध्धपरिणतियांगे शुभाशुभ कर्मपुद्गलो ग्रही अनेक जन्म ग्रहतो त्रिविध तापथी पीडातो कूटातो दुःख संततिनो भोगी बनेछे. जड चेतननुं विशेषतः भेद ज्ञान थयु नथी त्यां सुधी बहिरात्मपणुं टळतुं नथी. अने बहिरात्मयोगे चेतन जड जेवो भासेछे, अने अज्ञानी जीव परवस्तुमां अहत्व परिणाम धारतो जडता अनुभवेछे-श्री यशोविजयजी उपाध्याय कहेछे केहुँ एहनो ए माहरो, ए हुँ एणी बुधि; चेतन जडता अनुभवे, न विमासे शुद्धि. आतम. १ आतम अज्ञाने करी, जे भव दुःख लहीए; आतम ज्ञाने ते टळे, एम मन सदहीए. आतम. २ . आत्माना अज्ञानथी जे भवदुःख परंपरा पमायछे, ते भव दुःख परंपरानो नाश आत्मज्ञान थतां थायछे. अर्थात् आत्मज्ञान थतां अनादि काळथी परमां परिणमन थयुंछे ते टळेछे. रागद्वेष योगे जीव परवस्तुमा परिणमेछे अने यदा रागद्वेषनी परिणति टळछे, तदा आत्मा परवस्तुमा परिणमतो नथी. ज्यां सुधी सम्यम् रीत्या आत्मस्वरूप जाण्यु नथी. त्यां सुधी जीव रागद्वेष पारणामे मोही बनेछे. आत्मज्ञानथी रागद्वेषनी परिणति उद्भवेछे, आत्मज्ञाने सहज स्वभावे रमतां रागद्वेषनी परिणति नाश पामेछ, आत्मोपयोगे स्थिरता थतां निर्विकार अखंड शाश्वत सुख भोगवाय छ, माटे आत्मोपयोगी साधुने सर्व धार्मिक क्रिया मुखनी खानि
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परमात्मदर्शन.
भूत थायछे, अज्ञानीने संवरना हेतुओ आश्रवरूपे परिणमेछे अने स्याद्वादरूपे जेणे आत्मतत्त्व जाण्युंछे एवा ज्ञानीने आश्रवना हेतुओ पण संवररूपे परिणमेछे, एम ज्ञानीओन कथनछे.-प्रथम कोई अपेक्षाए अजीवतत्त्वनुं ज्ञान करवू जोइए. कारणे अजीवने अवबोधतां सहेजे तेथी भिन्नजीव जाण्यो जायछे, जीवाजीवादि नवतत्वोनो सम्यगवबोध भेदज्ञान थवामा मुख्य हेतुछे.
आत्मज्ञानथी मुनिवर्यो मुक्तिपद प्राप्त करेछे. कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्र पण कहेछे के
श्लोक. योगशास्त्रे. मोक्षः कर्मक्षयादेव, सचात्माज्ञानतो भवेत् । ज्ञानसाध्यं मतं तच, तड्यानं हितमात्मनः १ न साम्येन विना ध्यानं नध्याने न विना च तत् । निःकंपं जायते तस्माद,द्रयमन्योन्य कारणम् । मोक्षपद प्राप्ति काष्टकक्षयतः थायछे, अने भवसंतति वृद्धि कारणीभूतकर्माष्टकनो क्षय आत्मज्ञानथी थायछे. इत्यादिथीविचारतां आत्मज्ञान थq एज सर्व शास्त्रनो स्पष्ट रहस्यभूत उद्देश समजायछे. मतिज्ञान अने श्रुतज्ञाननायोगे अस्ति नास्ति धर्ममय आत्मानुं ध्यान थायछे, अने ध्यान पण आत्मानुं समजवं. ध्यानयोगे स्थिरतापगटतां अनंत सुख अनुभवी आत्मा बनेछे, अने अनुभव ज्ञानयोगे भव्यात्मा सुखनो आस्वादी बनछे. कोइ वस्तुपर राग नहीं अने कोइ वस्तुपर द्वेष नहीं एवी आत्मानी अवस्थाने साम्य अवस्था कहेछे. मूर्यना समान ज्ञान गुणे प्रकाशी आत्मा समजवो. सूर्य अभ्रयी भाच्छादित थता तेना किरणोना प्रकाशनु पण आच्छादन थायछे,
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(११)
साधुनी किया. वायुना योगे वादळां दूर यतां जेम सूर्य किरणोथी प्रकाशेछे तेम
आत्मारूपसूर्य कर्मरूपवादळांथी अवरायोछे तेथी सर्व वस्तुओ 'आत्माना ज्ञानमां ज्ञेयरूपे भासती नथी. पण मतिज्ञानने श्रुतज्ञानना 'योगे ध्यानरूप वायु वातां कर्मरूप वादळ आत्माथी दूर थायछे. त्यारे आत्मारूप सूर्य ज्ञानरूप किरणोथी लोकालोकने प्रकाशेछे. ध्यानपरंपराए आत्मोपयोगीपणुं मुनिराजने सतत बन्यु रहेछ, भावचारित्रनी प्राप्ति विना आत्मोपयोगता वर्तती नथी. द्रव्य चारित्रथी कर्म नाश यतुं नथी, चारित्र शुं छे ? ते जे जीवो. अज्ञानयोग समजता नथी, ते भाव चारित्रनो स्पर्श करी शकता नथी, भावचारित्र प्राप्ति प्रति रजोहरण मुहपत्ति साधुवेष दीक्षा आदि निमित्त कारणोछे, अने तेवी दीक्षा प्रत्येक तीर्थकरोए ग्रही भाव चारित्र प्रगटाव्युं, तेम अन्य भव्यात्माओए पण प्रभुना पगले चाली तेमनु अनुकरण करी भावचारित्र प्रगट करवू, ते भाव चारिवनी निरपेक्षताए बाह्याचारमा सरागदृष्टिथी मुंझाता एवा जीवो उपयोगनी शून्यताए संसाररूप समुद्रनो पार पामी शकता नथी. प्रश्न-भार चारित्र विना साधुवेष असमंजसछे तो ते केम ग्रहण
करवो जोइए? उत्तर-रजोहरण मुहपत्तिथी युक्त माधुवेष अंगीकार करी ,जीव
बाह्यग्रंथिनो त्याग करेछे ते आभ्यंतरग्रंथि नाश प्रति कारणछे. माटे दीक्षा अंगीकार करवाथी बाह्य उपाधि टळेछे.अने छकायना जीवोनी रक्षा थायछे, पंचमहावत पाळवायी आश्वना मार्गों नाश पामेछे. सर्वतीर्थकरभगवंतोए. एवी भागवती. दीक्षा अंगीकार करीछे. अने तद्वारा विकल्प संकला त्यागी आस्मध्यानमा प्रवर्ती परमात्मपद साध्युं, मारे भव्यात्माए. पण भागवती दीक्षा अंगीकार करवा प्रयत्न करतो. संसारमा
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परमात्मदर्शन. पृहस्थावासमा बसी सर्वतः विरतिपणुं पाम, मुश्केलछे, माटे दीक्षा अंगीकार करता राग द्वेषनी हीनता थतां आत्मस्वरूपे रमण करतां भावचारित्र प्रगटेछे, ए राजमार्ग जाणवो. मोक्ष पद लक्ष्यमा राखी सद्गुरू संगति करता आत्मज्ञान प्रगटेछे. उपाधिमां अहर्निश राचीमाची रहेनार गृहस्थ जीवोने दुःख संततिरूप फलनी प्राप्ति थायछे. आत्मज्ञानना अभिलाषि पुरूषोए सद्गुरूनुं सेवन करवू. सद्गुरू सेवनथी जे ज्ञान मळेछे ते तांत्विक फळने प्रमटावेछे, अने ते ज्ञानी संयमनुं ग्रहण थायछे. अने संयमयी पोताना स्वरूपमा स्थिरता प्रगटेछे, अने स्थिरतायोगे जीव स्वगुणोने आविर्भाव रूपे प्रकाशेछे. माटे द्रव्यचारित्र एटले साधुवेष दीक्षाअंगीकार पंचमहावत धारण आदि द्रव्यचारित्र कदापि असमंजस कहेवाय नहीं, भावचारित्रनी सापेक्षताए द्रव्यचारित्र निमित्त कारणीभूत आदरणीयछे. माटे भागवती दीक्षा अंगीकार करवी एन हिताकांक्षा-निज गुण स्थिरता तेज वस्तुतः चारित्र जाणवू. व्यवहार चारित्रथी निश्चयचारित्र प्रगटेछ, आत्म परमात्मपद ए माटेज व्यवहार चारित्रक्रियारूप कथथुछे, निश्चय पारिजनी सापेक्षताए व्यवहारचारित्र सममाण निमित्त कारणछे.
. “दुहा." शिथिलाचारी आळसु, विषय वासना राग कृष्ण सर्प सम ते गुरु, करवो तेनो त्याग. १२२ ब्रह्मचर्य उपदेश दे, मनमा ललना वास; कृष्णसर्पसम ते गुरु, संग न कीजे खास. १२३
भावार्थ-वळी जे शिथिळ आचारवंत-धर्मध्यानमां आळसु
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(६८)
साधुनी किया. परस्वभाव रमणतामां तत्पर, वळी जेना हृदयमा विषयवासनानो राग सदा बन्यो रहेतो होय. तेवा कुगुरूओ कृष्णसर्पसदृश जाणवा, तेनो धर्माभिलाषी जीवोए त्याग करवो जोइए. कृष्ण सर्प संगतिथी एकवार मृत्यु थायछे, अने एका कुगुरूनी संगतिथी मिथ्यातत्त्वोपदेश पामतां रागद्वेष परिणति योगे अनेक जन्मधारण करवा पडेछे. वळी जे गुरू नाम धरावता ब्रह्मचर्यत्रत पाळबानो उपदेश आपछे. अने अंतरां स्त्रीनो वासछे एवा कृष्णसर्प सदृश कुगुरूनी संगति करवी नहीं. विषयना जे रागी होयछे तेनी संगतिथी आत्या निर्विषयी बनतो नयी. विषयो विषना करतां पण अति दुःखदायकछे. कां छे के
श्लोक. विषस्य विषयाणा च, दृश्यते महदंतरं उपजुक्तं विषं हंति, विषयाः स्मरणादपि. १
विष अने विषयोनुं महद् अंतर देखायछे, विष तो खाधु छतुं प्राणनो नाश करेछे. अने कामादिक विषयो तो स्मरण मात्रथी आत्माना गुणोने हणेछे तो जे विषयना संगी होय तेनी संगतिथी आत्महित यतुं नथी तेवा कुगुरूओनी पण निंदा करवी नहीं. मनमा एम चिंतवq के ए विषयना भिखारी अशुद्ध परिणतियोगे हेयज्ञेय उपादेय विवेक शून्य चित्तवाला थइ चिंतामणि रत्नसमान आत्मधर्मनो अनादर करी परपुदगलरूप ऐंठमांराचीमावी रह्याछे, ए तेमनी भवितव्यतानो वांकछे. एम विचारी माध्यस्थपणे वर्ती तेमनी संगति त्यागवी. कुगुरुनु लक्षण जणाववान मुख्य कारण ए छे के-भव्यजीवो जेवू आलंबन मळे तेवा थइ जायछे, सारं आलंबन मळे तो आत्मा सारा रस्ते वळेछे. अने नठारं आलंषम
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परमात्मदर्शन.
( 145 )
मळे तो आत्मा अधोगति भाक् थायछे माठे भव्यजीवो असत्य आलंबननो त्याग करी सत्य सद्गुरूरूप निमित्त कारणतुं अवलंबन करे, एज हिताकांक्षाछे.
" दुहा. " विषय त्याग वैराग्यता, वनितानो नहि संग; धन कंचननो त्याग जास, नमीए सद्गुरु चंग. १२४ विषयाशा मनमां मटी, मन मर्कट वश जास; भवभीरु भ्रमणा मटी, तेना थइए दास.
१२५
सुगुरु लक्षण कथेछे- जेओए विषयनो त्याग कर्योछे. अने जेवनुं मन वैराग्यथी सतत वासीत थयुंछे. अने जे वनितानो संग करता नथी. धन कंचन ए उपाविछे, तेथी विकल संकल उदूभवेछे. एम जाणी जेणे त्याग कर्योछे, एटले बह्य परिग्रहनो त्याग कर्योछे. एवा सुंदरगुरूने नमस्कार करीए, विषयनी आशा तृष्णाना अंकुरा जेना हृदयमां उत्पन्न थता नथी. अने जेणे मन रूप मांकडुं वश कर्युछे, अशुद्ध राग द्वेषनी परिणति योगे मनमां आर्तध्यान वा रौद्रध्यान थायछे, ते मन वश करवाथी थतुं नथी. चित्तने वश करतां विकल्प संकल्पनो नाश थायछे. मन वश कर ते अत्यंत दुर्जयछे कोई धनुष्यधारी स्वबुद्धि विचक्षणतायी रात्रावेध सहज मात्रमां साधी शके तेवो पण मनने पोताना मां करी शकतो नथी.
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".
यतः श्लोक. चित्तमेवहि संसारो, रागादि क्लेशवासितं । तथैव तैर्विनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते ॥१॥ रागादि क्लेशी वासीत चित्त तेज संसारछे, अने रागद्वेषा
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(१७.)
भालस्वरूप.
vvvvvvvvvv.
दिकी रहित मन थतां भवान्त कथायछे. एवं चित्त पण जेणे वश कयुछे एवा सुगुरुमहामुनिराजने देखी प्राणी पण शान्त भावने पामेछे. तेमना उपदेशथी अनेक जीवोने सर्व कथीत तश्वनी श्रद्धा धायछे. कोइ श्रावक व्रत अंगीकार करेछे. कोइ साधु व्रत अंगीकार करेछे, बळी जे सद्गुरू ज्ञान दर्शन चारित्रथी मोक्ष मुख आराछे, ते सद्गुरू मुनिराज चोराशी उपमाए विराजीग होयछ ते ग्रंथान्तरथी जाणवी वळी मुनिराज अनेक उपमाओने धारण करनाराछे. यथा. गाथा. कसे संखे जीवे, गयणे वाउय सारए सलिले । पुख्खरपत्ते कुभ्मे, विहण खग्गेय भारंडे ॥१॥
कंस पात्र समान उज्जवळ, शंख,जीव, गगन,वायु,शरदऋतु जल, कमलपत्र, काचवो, पंखी, खड्गी, भारंडपंखी, हाथी, वृषभ, सिंह, मेरुपर्वत, समुद्र चंद्र, सूर्य, सुवर्ण, पृथ्वी, अनिनी आदि उपमाओने धारण करनार मुनीश्वर जाणवा. वळी मुनीश्वर लक्षण कथे छे-भवभीरु-एटले संसारमा अनेक प्रकारना दुःख भाँछे, ज्यां मुधी संसारछे त्यां सुधी तात्विक सुख नथी. पुनः पुनः रागद्वेषयी बीता होय माटे रागद्वेषने सेवे नहीं. भ्रमणा मटी-जड वस्तुमा आत्मबुद्धि हती ते टळी हुं अने मारूं आवी भ्रमणारूप बुदि परवस्तुपा थती हती, ते भ्रमणा बुद्धिनो जेणे नाश कर्योछे, एवा म. हात्मामुनीश्वर आत्मतत्व साधी शकेछे, वळी जे पुरूष शिष्यभाव तथा वैराग्यथी रहितछे. एका अनधिकारी पुरूषने मायः उपदेश देवा पण प्रवृत्ति करता नथी. अन्य शास्त्रोमा पण कडूंछ के
- श्लोक. नापृष्टः कस्यचित् ब्रूया । नचान्यायेन पृच्छतः ।। जाननापिच मेधावी, जडघल्लोकमाचरेत् ॥ १॥
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परमात्मपर्शन. विद्वान् मुनिवर्य प्रश्न कर्या विना कोइनी साथे चोछे नहीं, अन्यायथी पृच्छकने पण उपदेश करे नहीं, किंतु सर्ववखनो जाण छतो पण मेधावी जगत्मा जडनी पेठ विचरे बळी जे मुमुक्षु मु. निनी आत्मज्ञान तरफ धारणाछे, अनेक प्रकारमी वासनाओधी वासित चित्त ज्यां सुधी होयछे त्या सुधी आत्मस्वरूप प्रतिलक्ष लागतुं नयी जेम मलीन दर्पणमा प्रतिबिंत स्वच्छ पडी शकतुं नथी. ज्यारे दर्पणने राख विगरेची उटकीएछीए त्यारे तेनी अंदर स्पष्ट प्रतिबिंब भासेछे तेम मनोरूप दर्पण रागद्वेष तेमन. अनेक प्रकारनी वासनाओथी युक्त होयछे त्यां सुधीतेनामां आत्मस्वरूप भास तुं नथी, पण ज्यारे रागद्वेष इच्छा वासनारूप मलीनतानो नाश थाय छे त्यारे आत्मस्वरूप भासछे, निर्मल चित जनुं थर्पुछे एवा मुनिबर्यो आत्मतत्वना अधिकारीछे.अन्य के जेना मन ममत्व वासनायी मळीनछे एवा पुरूषो गृहस्थो-तत्व प्राप्तिमा अधिकारी नथी.
वळी मुनीश्वर निंदा वा स्तुतिथी संतुष्ट थाय नहीं. कारण के मायाना फंदमां पडेली दुनीया दोरंगीछे, कोई कंइ कहे अने कोइ *इ कहे, लोक कीर्ति अने लोकनी स्तुति अर्थे जे आचरण पाच. रवा ते मायानी वृदिने माटेछे पण आत्मसुख माटे नथी. माटे लाकेकीर्ति स्तुतिरूवासनानो मुनि त्याग करे.-स्वकीय आत्मानं हित कर, तेज योग्य छ,
यतः श्लोक, विद्यते न खलुकश्चिदुपायः। सर्वलोक परितोषकरो यः। सवेथा स्वहितमाचरणीयं । किं करिष्यति जनोबहुजल्प:
आ दुनीयामा एको कोई उपाय नथी के जेथी सर्व लोक स्तुति करे. माटे आत्मतत्त्वाधि पुरुषे लोकवासनांनो सर्वथा परि
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भारमस्वरूप
त्याग करी आत्महित आचर. लोकनी निंदा स्तुति तरफ देखतुं नहीं, बळी अन्य शास्त्रोमां कहुं छे के
श्लोक. न लोकचित्तग्रहणेरतस्य ।नभोजनाच्छादन तत्परस्या। न.शब्दशास्त्राभिरतस्य मोक्षोन चातिरम्यावसथप्रियस्य
जो पुरूष सर्व प्रकारसें लोकोंके चित्त रंजन करणे विले प्रीतिवाला हे तथा जो पुरूष भोजन आच्छादन विषेही तत्सरी. तथा जो पुरूष व्याकरणादिक अनात्मशास्त्र विषे अभिनिवेशवाला है. तथा जो पुरुष अत्यंत रमणीय गृहो विषे प्रीति वाळाहै ऐसे पुरुषकुं मोक्ष प्राप्त होता नहीं, यात मोक्षकी इच्छा करनेवाले मुनिवर्यकुं सा लोकवासना सर्व प्रकार परित्याग करणी चाहियै.. .
एश्लोकी पण विचारता मुनिवर्यने सर्व प्रकारनी वासना. नो परित्याग थवो जोइए. वासनारहित मुनिवर्य अनेक प्रकारनां धार्मिक कार्य करतां बंधाता नथी.
__ अंतर्थी वासना आदिनो त्याग विना बहिरनो निष्फळ स्याग जाणवो. आत्मायी भिन्न सर्व जगत्ने देखनारा मुनिराजना हृदयमाथी सर्व वासनानो नाश थायछे.
असंख्यात प्रदेशी आत्मा तेज हुं परमात्माछु, अन्य जडबस्तुओ हुं नथी. अने अन्य जरवस्तुओ मारी नथी आ प्रमाणे दृढ निश्चय भावनाभावे, अने अंतर्थी न्यारो वर्ते. आत्माभिमुख चेतनापणे वते. एवा परमपूज्य करूगासागर मुनिश्वर महारानना दास थइने रहीए. एका मुनिना दास महामाग्य होय तो थवाय. एमनी से चाकरीथी भवोभवनां दुःख नाश पामे. अने सर्व उपाधि टळे, आत्मा परमात्मरूप थाय. मादे भव्य सशिष्योए.एवा
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परमात्मदर्शन.
(१५) मुनिवर्यना दास थइ रहे, एमनी आज्ञा मस्तके चढाववी. कदी एवा मुनिवरनी आज्ञानो लोप करवो नहीं, तेमनुं सदाकाल ध्यान स्मरण करवू, तेमनी वैयायच्च करवी. प्रश्न-गुरू अने मुनिमां आपना वोलवा प्रमाणे कंइ भेद स- मजाय छे तेनुं शुं कारण ? उत्तर-जेण उपदेश देइ सम्पक्त पमाडघु होय ते धमाचार्य गुरू
जाणवा.
ते मुनिराज छते पण धर्म पपाडवाथी धर्माचार्य गुरू मुनिरान जाणवा. अने ते विनाना उपरोक्त लक्षण सहित जे होय तेवा रजोहरण मुहपत्तिना धारक मुनिराज जाणवा. समकितदान दात. चथी बेमां एटलो भेद जाणवो. उपकारथी भेद जाणवो. हवे सर्व जीवने धर्मनी प्राप्ति केवा लक्षणथी थाय ते देखाडेछ, अत्र मुनि तेमन श्रावकनो भेद पाडया विना बनेने हितकारक आत्म धर्म जाणी वनेने उपदेश आपेले.
रहीए आप स्वभावमां, लहीए तत्त्व स्वरूप ॥ आपोआप विचारतां, मिटे अनादि धूप ॥ १२६ ॥ जाति नहीं हे आत्मकुं, जस जाति अभिमान ॥ पामे नहि ते धर्मने । नकी मनमां जाण ॥ १२७ ॥
भावार्थ-मोक्ष पदपाप्त्यर्थम् अात्मस्वभावमा रमणता करवी जो आत्मस्वभावमा रमण करीए तो तत्व स्वरूप एटले परमात्म पद पामीए, वेष बदलो, देश बदलो, किंतु आत्मस्वभावमा रमणता विना मुक्ति नथी. परवस्तु संवरे यता अनेक प्रकारना विकल्प संकल्पो तेने मनथी दुर हावी केवल आत्मानुं ध्यान करवं. आ.
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भास्मस्वरूप. .
त्मा पोते सुखनुं स्थानछे. आत्मा पोतानी मेळे ज्ञान गुणधी पोतार्नु स्वरूप जाणेछ, हुं आत्मा सदा सच्चिदानंद स्वरूपनो धारण करनारछ. हुं मायाथी न्यारोछ. सर्व उपाधियी हुँ भिमछु. मारूं पोतानुं स्वरूप रागद्वेष रहितछे तो हुँ केम तेनो एटले परपुदगलनो संग करूं ? हुँ अरूपी छु तो रूपीवस्तु ने केम पोतानी मार्नु? ९ विजातिथी न्यारोटु तो माराथी मिन विजातिय पुदगल द्रव्य तेने फेम पोतानुं मार्नु ? मारा शुद्ध स्वरूप हुँ र तो हुँ अखंड आनंदमयछु, विकला संकला रहित हुं हुं तो विकल्प संकल्पने हुँ पोताना केम मार्नु ? अने विकल्प संकल्प हुं कम करूं ? अने ज्यां मुधी विकल्प संकल्प करूं त्या सुधी सुखी केम या ? तेपज निर्विकल्प ए, मारूं स्वरूप पण शी रीते पामुं ? विकल्प संकल्प करवा ए मारा आत्मानो शुद्ध स्वभाव नथी तो हवे हुँ स्थिर असंख्यप्रदेशमय उपयोगी था ? अने गाढ निद्रानी पेठे सर्व माया जाळने भूली जाउं, तो मारो अनुभव आपो आप विचारता थाय अने एम निर्विकल्प दशामा रहेतां आत्मशक्ति मारी आविर्भावप्रकाशे, क्षायिकभावे, द्रढध्यान संततियोगे आत्म गुणो स्फुरायमान थाय, विकल्प संकल्प श्रेणि परंपरानाश पामतां सहज अनुभव सुखराशि प्रगटे, अने अनादिकाल संलम आधि व्याधि उपाधिरूप धूप नाश पामे. सारांश के-आधि व्याधि उपाधिनी दुःखोनुं मूल कारण कर्मनी प्रकृतियोछे. अने द्रव्य कर्मरूप प्रतियोनु आत्मानी साथे जे बंधावू ते रागद्वेष परिणति याज्यछे.
रागद्वेष. परिणतिनी नष्टता ज्ञान ध्यानथीछे, आत्मा स्वस्त्रभावमा रमण करतो अनंत भवोपार्जित कराशिने दूर करेछे अनुक्रमे सर्व कर्म प्रकृति विकृति समूलतः क्षय करी परमात्मपद मात्मविषे प्रगटाचेछे, आत्मज्ञानथी पताह सुखोत्पतिज्ञान क्रि
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यामां प्रवर्तवाथी थायछे.
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परमात्मदर्शन.
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( १७५ )
आत्मानुं स्वरुप दर्शावेछे.
" जाति नहि हे आत्मकुं " - आत्माने जाति नथी एटले ब्राह्मण जाति, वणिक् जाति, कणबी, सोनार, लुवार. ढेड, चंडाळ, इत्यादिजाति आत्मानी स्वरुपत; विचारी जोतां बिलकुल जणाती नथी. जाति देहकुलने आश्रितछे, आत्मा अरूपी तेथी न्यारोछे. माटे जातिमान् आत्मा नथी. कोइ जात्याभिमानथी हुं ब्राह्ममण हुं हुं वणिक, हुं रजपुत छं, हुं कणबी छं, एम अज्ञानयोगे जाति अध्यास पोताना आत्मामांमानी लेछे ते आत्मपद प्राप्त करी शकतोनथी. वस्तुतः विचारी जोतां मालुम पडेछेके जगत् व्यवहारमां जाति एक संज्ञा मात्र छे, आत्मामां सदा ब्राह्मणत्व क्षत्रियत्वादि जाति कदी रहेती नथी अने रहेशे पण नहीं, व्यवहारमार्गे जातिनी कल्पना छे पण ते वस्तुतः सत्य नथी माटे जातिनो अध्यास आत्मामां धारण करवाथी बहिरात्मपदनी प्राप्तिनो वियोग थतो नथी. जेम आकाशमां कोइ जाति नथी. तेम आत्मामां पण कोइ जाति नथी अभिमानवाळा जडजीवो आत्मअनात्म विवेक शून्य बनी परमां अहंममत्वबुद्धिथी रागद्वेष परिणति भजी मानसिक अनेकशः संतापो अनुभवी आर्त रौद्रध्यान वश थइ अधोगति प्राप्त करेछे. “ जसजाति अभिमान " जेने जातिनुं अभिमान छे ते बाह्य पदार्थोंमां धर्म मानेछे, जातिना अभिमानथी लोको परस्पर एक बीजानी निंदा करेछे, एक बीजाने जाति अभिमानथी हलका गणेछे. जात्यभिमानी जीव जातिमां राची माची रहेछे, उंची जातिवाळो कहेवातो होय तो नीच जातिवाळाने हलको गणेछे. पोतानी जातिमां राग बंधाय छे, अने अन्य जातिमां द्वेष बंधाय छे. पोतानी जातिमां ज धर्मछे अन्य जातिमां धर्म रहेतो नथी एम दृढवासनाथी भवमां बंघाय
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मात्मस्वरूप.
माटे तेवा जीवो बहिर् दृष्टिपणाथी चिदानंद आत्मामां सदा रहेला धर्मने प्राप्त करी शकता नथी. जात्यभिमानीजीवनी अंतर्दृष्टि थती नथी, तेतोक्षणेक्षणे हुं ब्राह्मण छु, हुं क्षत्रीयछु, हुं बाणियोछु, छं एवी बुद्धि धारण करेछे, पण हुं ब्राह्मण नथी, हुं वणिक् नथी, हूं क्षत्रिय नथी, एवी बुद्धि धारण करी शकतो नथी, श्री यशोविजयजी उपाध्याय पण समाधिशतकमां कहेछे के
" दुहा." जाति देह आश्रित रहे, भवको कारण देह ।। तातें भव छेदे नहीं, जातिपक्षरति जेह ॥ १॥
इत्यादिकथी विचारता पण जात्यभिमानी आत्मधर्म साधी शकतो नथी, माटे आत्मधर्मार्थी मुमुक्षु जनोए आत्मानुं स्वरूप समजवू, अने बाह्य जात्याभिमानरूपभ्रमबुद्धि त्यागी अंतर्दष्टिथी आत्मधर्म साधवो, परमार्थ शिक्षा इत्येवं.
___ " दहा." लिंग देह उपर रहे, आतमथी छे भिन्न तेमां शुं रंगाइये, रंगातां दुःख दीन. १२८ वर्णाश्रमना भेदथी, माने जे मन धर्म;
सत्य धर्म ते नवि ग्रहे, बांधे उलटां कर्मः १२९ ___ भावार्थ-पुरुषलिंग वा स्त्रीलिंग आदि लिंग देहाश्रित छे, देह ज्यारे आत्माथी भिन्न छे, अलबत आत्मानी देह नथी त्यारे लिंग आत्मनु कहेवायज केम ? पुरुषादि त्रणे लिंगो आत्माने कर्मोपाधिना संबंधथीज कहेवाय छे, हुं पुरुष ए अभिमान मनुष्य धारण करतो मायान्ध बनी हुँ असंख्यपदेशी आत्मा एवो विवेक
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परमात्मदर्शन.
( १७७ )
भूली जाय छे, पुरुष लिंग प्राप्त थयुं ए कर्मना उदयथी छे, तेमां अहंता धारण करवी ते अज्ञानी जीवनुं लक्षण छे, पुरुष वा स्त्रीना अध्यासथी बंधातां आपणुं आत्मानुं शुद्ध स्वरुप भूलीएछीए, हुं अने मारुं ए अभिमानथी ऋण जगत्मा कोइ आत्मानंदानुभवी थयो नथी अने थवानो नथी माटे वस्तुतः प्रियधर्मसाधक भव्यात्माओ लिंग अध्यासथी केम परमां रंगावं जोइए ? अर्थात् कदी पण लिंगाध्यास मनमां स्फुरवा देवो नहीं, अने एमां जो रंगाशुं तो दुःख वडे दीन एटले गरीब अवस्था प्राप्त थशे एमा संशय नथी. कोइ मर्द पुरुषने चंपालाल, नपुंसक कहे तो त्वरित तेना मनभां आवशेके मने नपुंसक कहेनार कोण ? एम संकल्प थतां क्रोधनो आविभव थतां मुख तोवर जेवुं फुली जशे. बखते चंपालालने त्रण चार अपशब्दो पण संभळावे, परस्पर एक बीजानो अपकर्ष करवा बाकी राखे नहीं, ए लिंगाभिमाननुं फळ छे. माटे विवेकनयनाधिष्टाताओए परमात्मपद प्राप्यर्थ अन्तर्दृष्टि साधी एतादृश अभिमानने त्यजवो, ज्यां सुधी लिंगाध्यास छे त्यांसुधी जीव हुं परमात्मा छु एवी दृढ भावना धारण करवाना अभावे जन्म मरणनी उपाधि संचय संग्रहेछे.
वर्ण, तेमज आश्रमभेदे जे आत्मिकशुद्धधर्मनो भेद मानेछे, ते शुद्ध शाश्वत आत्मधर्म प्राप्त करतो नथी, सत्यधर्म तेवा व्यवहारजडजनथी समजातो नथी. अने कदापि तेवा पुरुषनी आगळ कोइ सत्य धर्मनु दर्शावे तोपण कदाग्रहग्रस्त थवाथी वचनामृतो पण तेने विषवत् परिणमेछे, अने सत्य धर्म ते आत्मानो पोताना सहज स्वभावे सदाकाल पोतानाथी जरामात्र पण दूर नथी तेने अज्ञाना
जीव विपरीत दृष्टिथी जाणी शकतो नथी. - जडमां आत्म धर्मना अभिनिवेशथी उलटा कर्म संग्रही तेना उदये अधोगति भजे छे, श्री
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आत्मज्ञानी कर्मनो नाश. यशोविजयजी उपाध्याय पण समाधि शतकमां कहेछे केलिंग देह आश्रित रहे, भवको कारण देह; तातें भव छेदे ननी, लिंग पक्षरत जेह. १ जाति लिंगके पक्षमे, जिनकू है दृढ राग; ताते भव छेदे नहीं, जाति पक्ष रति जेह. २
जाति लिंगना पक्षमा जेने दृढ राग छे ते भवान्त कदापि करी शकता नथी. आत्माने जाति नथी के लिंग नथी जेम स्वममां अनेक प्रकारनी जातियो तथा लिंगो धारण करायछे, अने ते जागीने जोतां कंइ भासतुं नथी, तेम जाति अने लिंगाध्यास पण ज्यारे आत्माभिमुख चेतना थायछे त्यारे स्वमवत् लागेछे. हुं पुरुष वा स्त्री नथी. आ मंत्रनो मनमा १००८ बार जाप जरा श्राद्ध राखीने जिज्ञासु कर, पछे तारा मनमां केवा प्रकारना विचारो आवेछे ते विचार अने पहेलांना विचारोमा केटलो फेर पडेछे ते विवेकथी विचार. एकवार आ मंत्रपयोग श्रद्धाथी जे अजमावशे तेने अनुभवनी मालुम पडशे, हुं चंपालाल, मनसुखलाल नथी एम अर्ध कलाक पर्यंत धारणा करवाथी प्रथमनी अवस्था अने चालती अवस्थाना विचारोमां एक मोटो भेद पडतो पोताने मालुम पडशे, अने आत्म धर्म प्राप्त करवानी जिज्ञासानो उद्भव थशे. शुं त्यारे जाति लिंग मानवु खोटुं छे, तो कोइ पाताने अमुक जातोवाळो कहीने बोलावे तो बोलवू नहीं ? वा कोइ कहे के तुं पुरुष छे के स्त्री छे ? त्यारे एम कहे के हुँ तो पुरुष वा स्त्री पण नथी. आम जो वर्तीए तो चाले केम ? तेना प्रत्युत्तरमा समजवाके-अंती जाति वा लिंगनो अध्यास धारण करवो नहीं ? व्यवहारथी जाति वा लिंगना व्यवहारो कराय छे तेम करवा, पण अंतर्थी पोताना
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परमात्मदर्शन,
(१७९)
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मानवा नहीं. तेमज जाति वा लिंग आश्रित धर्म मानवो नहीं, धम आत्मानो अने धर्मी आत्मा अरूपी छे अने ते देह तथा जातिथी भिम समजवो. ए ज परमार्थ. कुलाचारनी रीतमां, जे माने मन धर्म; धर्भ मर्म समजे नहीं, ले नहीं शाश्वत शर्म.१३०
भावार्थ-जे भव्यो अज्ञानदशाथी पोताना कूलना आचारमां धर्म मानेछे ते धर्म मर्म समजता नथ्री. अने धर्मज्ञानना अमावे शाश्वत शर्म पामी शकता नथी. कुलाचारनी प्रवृत्ति दरेकनी भिन्न भिम होयछे, अने ते प्रमाणे सर्व मनुष्योनी प्रवृत्ति थया करेछे, ज्ञानी पुरुषो कूलाचारनी रीतिमां धर्म मानता नथी. मायः कूलाचारनी रीति जे देशमा जे धर्म चालतो होय तेनी मिश्रताथी थइ होय छे-जैनोनी कूलाचारनी रीति जैन धर्म फीलोसोफीथी मिश्रितछे, माटे जैनोनी कूलाचारनी रीतिमां धर्मना हेतुओमानो अंतर्भाव वर्ते छे. माटे तेनाथी विपरीत वर्तवू नहीं-बाल जीवोने कूलाचारनी रीति पण व्यवहारथी धर्म साधनमा कारणी भूतछे आ वचन बोलवामां दीर्घदृष्टिथी विचार करतां घणो उंडो परमार्थ समायोछे, ते अर्धदग्ध उपलक डोळ घालु जनोना जाणवामां आवशे नहीं, जैन धर्मनी सत्यताथी ते धर्म जे लोको आचरेछे तेनी कूलाचारनी रीति पण धर्मकारणमिश्रित होयछे, माटे श्रावकना कूलाचारे पण जे धर्मनी श्रद्रा-आचार ते श्रेयस्कर छे, जेम कोइ कूवामा पाणी (जल) ना होय अर्थात् मुकाइ गयुं होय तो पण ते खोदवा गाळवाथी जलनी सेरो फूटी कूवामां पाणि नीकळशे,-तेम जैन धर्म पण कूलाचारथी पाळतां ज्ञानीगुरुनो संग थतां तेनुं रहस्य समजाता-समकीतनी माप्ति थशे, माटे समजु भव्यजनाए आ बाबतने। विचार करवो-हालनो समय प्रथमना जेवो नथी, माटे जैनीओए
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साधुनी क्रिया. नहीं समजतापण लोकिक देवगुरुनो त्याग तेमज देवपूजा-गुरुवंदन जैन देरासरे जवु अन्यत्र नहीं, ए विगेरे ओघथी पळातो आचार पण धर्मनुं अंग जाणी त्यागवो नहीं, ज्ञानियोनी दृष्टिमां ते हलको छे, पण बालजीवोने तेथी चढवानुं छे, श्रावक कूलमा उत्पन्न थएलो माणस एटलं तो समजशे के अरे हुं ती जैन छु, मारो धर्म जैन छे, एम मोनी अन्य धर्म मानशे नहीं, तेम गुरुनो संग थतां समजतो यशे-कूलथी पण जैन धर्म पालनार, कूळमां उत्पन्न थनार विशेष धर्म समजशे नहीं तो पण मारो जैन धर्म छे एटलं पण धर्माभिमान आवशे माटे सापेक्षपणे विचारतां व्यवहारनयथी श्रावक कूलाचारमा प्रवत्त थनारने धर्मनो प्राप्तिछे, अन्य कूळमां उत्पन्न थनारने माटे नहीं,-एकांत वादीओ कूळाचारमा धर्म मानेछे तेना निषेधपर आ वचन छे. जाति संबंधी पण अंतर् अभिमान त्याग करवो. कोइ एम चिंतवे के आपणे वर्णावर्ण गण्याविना ढेड भंगी स्त्रीस्ति विगेरे सर्वनी साणे खावू पीवु, तेथी आपणो आत्मातो अभडातो नथी, त्यारे तेनी साये खावा पीवामां शो दोषछे ? आम कोइ सडेल भ्रष्ट बुद्धिथी कहे तेनो प्रत्युत्तर के जे जातोनी साथे खावापीवानो व्यवहार नथी तेनी साथे खावाथी जाति अभिमान टळ्यु कइ कहेवातुं नथी, पण अंतरां जाति अभिमान बिलकूल नहीं रहेवाथी अभिमान टळ्युं कहेवाय छे. जाति अभिमान ज्यांथी उत्पन्न थायछे त्यांथी तेनो नाश करवो जोइए. एज मुख्य परमार्थछे, इत्यादि घणुं कहेवानुं छे पण विस्तारभयथी लख्युं नथी, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावनो विचार करी चालवू.
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परमात्मदर्शन.
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दवे साधु संबंधी कहेछे. 59 दुद्दा. सत्य धर्म समजे नहीं, दे उलटो उपदेश; धर्म मर्म समज्या विना, अंतरम व्हे क्लेश. १३१ स्त्रीविषयाशक्ति घणी, त्याग विराग न लेश; मन चंचल जेनुं सदा, लजवे साधु वेष. शिष्य थइने सथी, वर्ते गुरुनी साथ; आत्महित ते नहि करे, विनयी ले शिवपाथ. १३३ कपटी काळा कागडा, कुगुरु कर्मचंडालः संगकद | करवो नहीं, भवतस अरहट्ट माळ. १३४
तनो उपदेश अज्ञानी कुगुरूभ सत्य आपी शकता नथी. अने उलटा कर्म ग्रछे ते जणावेछे.
भावार्थ - आत्मानुं स्वरूप सम्यग् जाण्या विना जे गुरू एवं नाम धरावेछे, ते कुगुरू जाणवा, धर्मनो मर्म जरा मात्र समज्या विना आत्मा परमात्मानो उपदेश आपवा तैयार थइ जायछे, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, मोक्ष, इत्यादितुं किंचिदपि ज्ञान होय नहीं, तेम छतां उपदेश आपे तेवा कुगुरूओ म
(169')
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१३२
मां क्लेश पाछे, अने पोते पण बुडेछे, अने बीजाने पण बूडाडेछे, आ वचन लौकिक कुगुरू अने लोकोत्तर कुगुरूना उपदेशने उद्देशी कछे, सामान्यनीति शिक्षण हितशिक्षा तो परस्पर मनुष्यो एक बीजाने आपेछे, तेनुं आ ठेकाणे ग्रहण कर्यु नथी. फक्त धर्मना उपदेश माटे लखवाउँछे, धर्मनो उपदेश आपवाने साधुओने अधिकार छे, संसारमां राचीमाची रहेला श्रावकोने तो धर्मनो उपदेश आप
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( १८२ )
aryat frer.
बानुं क्यांथी होय ? माटे श्रावकवर्गने उद्देशीने पण लख्युं नथी. उपदेशनो अधिकार अधिकारी विना नथी. सामान्यतः श्रावक वांचे ते मांटे ना नथी. हवे मूळ विषय उपर आवीये, लौकिक तेम लोकोत्तर कुगुरुओ अज्ञानदशाथी पोते पोताना आत्माना बैरी थायछे. अने अन्य जनोना आत्माना पण वैरी बनेछे, पोते हिंसा करे, असत्य वदे, परवस्तु ग्रहे, अब्रह्ममां लीन होय, स्त्री परिग्रहना धारी होय अने अंतरथी विष्टामां राची रहेनार मूंडनी पेठे पौद्गलिक सुखमां अहर्निश अभिलाषी होय. एवा कुगुरुओ अधोगति भाक् थइ, अनेक प्रकारना क्लेशो पामेछे.
जेना मनमा त्याग तथा वैराग्य लेश मात्र पण होय नहीं, अनेत्री विषयोनी आशक्ति घणी होय अने हस्तिकर्णवत् वा वित्वत् जेतु मन चंचळताने भजतुं होय, एटले परवस्तुमां मन - मण करतुं होय एवा साधुनो वेष जो के धारण करेछे, तोपण ते साधुवेषने लजवेछे. जेम कोइ मनुष्य बख्तर वगेरे पहेरी युमां लडवा जाय अने ज्यारे लडाइ थाय त्यारे नासे. ते जेम वीरपणाने लजवेछे तेम अत्र पण जाणवुं दुःखगर्भितवैराग्य वा मोहगर्भित वैराग्यथी दीक्षा अंगीकार करी पश्चात् अंतर्दृष्टि विना बाह्यपौद्गलिक विषयोमां मन वर्ते, अने तेना योगे आसंध्यानने रौद्रध्याननो परिणामी बनी उपरथी साधु वेषना सद्भावे साधु कहावे, तो से अवश्य पोताना आत्माने ठगेछे, अर्थात् तेने राग द्वेषनी अशुद्ध परिणति ठगेछे.
वळी जे धर्मदानथी तथा धर्मोपदेश दानथी वा दीक्षा आपबाथ पोताना गुरु तरीके जे होय अने पोते शिष्य होय रोम छतां रीसना हेतुओनो संबंध पामी रीसथी गुरुनी साथै वर्ते गुरुनी निंदा करे वा तेमनां दूषणो शोधे- तेमनोउपकार भूली जड़ तेमनी आज्ञा
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परमात्मदर्शन
( १८३ )
प्रमाणे करे नहीं, तेवा अविनेय शिष्यो आत्महित करी शकता नथी, हराया ढोरनी पेठे स्वच्छंदाचारपणे वर्ती बहिरात्मदशामां आयुष्य निर्गमन करता आत्महित साधी शकता नथी. जे शिष्यो नम्र विनयी परमार्थना ग्राहक लज्जा, आदि गुणोथी अलंकृत छे ते शिष्यो मुक्ति मार्ग ग्रहेछे.
कपटभावथी परिपूर्ण कृष्णलेश्या अंतर्मां वर्तवाथी कृष्ण सर्प सदृश, चंडाल सदृश जे कृत्यों करता होय एवा कुगुरुओनो हे भव्यात्माओ संग करशो नहीं. एतादृश कुगुरुओनी भववृद्धि अरहद्दमाळन्यायवत् जाणवी. स्त्रीस्ति आदि कुगुरुओनी संगति चेपी रोग समान छे तेथी सदा दूर रहेवुं, विशेषतः लौकिक कुगुरुओने माटे आ वचन छे. कदापि संसारी जीवने कार्यवशात् स्त्रीस्ति आदिक कुगुरुओनी संगति करवी पडे तो पण तेमना वचन सांभळवा नहीं, अने तेमना उपदेशनी श्रद्धा करवी नहीं, कारणके थी संसारनी वृद्धि थाय, मिथ्यात्वनी वृद्धि करनार पादरीओ विगेरे कुगुरुओ छे, माटे मोक्षार्थी जीव कुगुरुनो त्याग करी मुगुरुने भजे - सेवे.
""
दुहा.
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>>
ममता त्यजी तुं बाह्यनी, अंतर्धनने देख अंतरधन - धर्म छे, सत्यज मानी लेख. अरूप अंतर्धनतणी, रुद्धि व्हारी पास; तेन भ्रमणा करी, करे शुं अन्य प्रयास. अन्य प्रयासे दुःख राशि, परपरिणति परतंत परपरिणतिमां लीन जे, करे न भवभय अंत. १३७
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(10) योग्य साधु सक्रियायी मारमध साधी शोछे. संसारी अवळा फरे, सवळा फरे फकीर; नमो नमो ते सदगुरु, भयभंजन वडवीर. १३८
भावार्थ-हे आत्मा सद्गुरु संगत्या आत्मतत्व समजी बाह्यनी एटले धन, धान्य, क्षेत्र, स्त्री, पुत्र, गृह, हाट, राज्यादि जे पर वस्तु तेनी ममता त्यजी हे चेतन तुं तारा अंतर्धनने देख-ज्ञान दर्शनचारित्र रुप अंतर् धन आत्मानी अंदर रघुछे तेने हे आत्मा निहाळ, अंतर् धन ताराथी दूर वा भिन्न नथी, अंतर् धननी प्राप्तिथी अपूर्व शान्तिनो भोगी आत्मा बनेछे, अंतर्धन विना क्षायिक सुखनी प्राप्ति कदी थवानी नथी. दरेक ग्रंथोमां आत्म स्वरुपना हितने माटे विवेचन छे, सात नयथी सम्यग् आत्मानुं स्वरूप जाणवु. एकांत पक्षथी आत्म स्वरुप जे जाणेछे ते सम्यग् परमात्मपदनी प्राप्ति सन्मुख थइ शकता नथी. आत्मानुं ध्यान मनन करवाथी आत्मगुणोनो आविर्भाव थायछे, ते संबंधी श्री देवचंद्रजीए आत्मस्तुति नीचे प्रमाणे करीछे..
स्तवन--ध्यानदीपिका. गुण अनंत धर जीवने, वंचे भवमे कर्म-धरोनिज भावना-ए टेक. राग द्वेष मुख हि वहढया. शत्रु हणु धरी ध्यान. धरो० आतम लखो निज ज्ञानशुं, बाळी कर्म अज्ञान.
प कर्म हणु तिम ध्यानशुं, जेम न पहुं भवमाहे. भवज्घर अज्ञाने नडया, नवि दीठो शिव राह. परमातम जग गुरु ठग्यो, निरस विषयने संग. सर्वज्ञ आत्म नवी लेखीयो, भ्रम अज्ञाने रंग. आत्म स्वरूप पिछाणवा, ज्ञान दृष्टिए करी देख. ध०. पंच ध्येय अरु आत्मा, ज्ञान गुण एक लेख. ० ५
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परमात्मदर्शन.
(१८५)
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नित्य छतोछे सहज ते, केवळ गुण मुन माहि. मोह दाह त्यां पीडवे, ज्ञान अमृत ज्यां नाहि. कर्म उदय चउगति भमुं, निश्चय सिद्ध स्वरूप. कर्मने भजु केम हुँ, अनंत चतुष्टय भूप. तजी आशा निज शक्तिशृं, हुं आनंद स्वभाव. छेद अज्ञान अनादिनो, आन लहयो निज दाव. एम जाणी धीरज धरी, रागादि मल खोय. ध्यावे आतम शक्ति, धर्म शुक्ल ध्यान होय. ध्यान ध्येय स्वरूपथी, ध्यावो स्ववेद ध्यान. कर्महीन सर्वज्ञता, निर्मल शील भगवान. जड चेतन जीवादि ए, ध्येय स्वभाव पिछाणि. ध्यान लहो मन स्थिर करो, ज्ञान ध्याए आणि. परमेश्वर परमात्मा, ध्येय अरूपी देव. द्रव्यार्थिक नय शाश्वतो, ए परमातम सेव. भवद्रुम क्षयकर शुद्धछे, ज्ञान थकी पर भिन्न. जगत् सकल आदर्श ज्युं, जीर्ण ज्योतिमय. दर्शन ज्ञान आनंदमय, अक्षर विगत-विकार. इंद्रि विणुं निकल गुगी, शान्त जाण शिवधार. शुद्ध अष्ट गुण युक्तछे, निर्मल अमेय अभेय. पर त्यागी अक्षय गुणी, ज्ञानीने आदेय. अणुधी पण जे सूक्ष्मछे, थंभथी पण जे वृद्ध, जगत् पूज्य निर्भय सदा, परमातम शिव सिद्ध. ध्याने कर्म सहु गळे, जगगुरु अमल अरूप. . जिण जाणे सहु जाणीये, जाय अविद्या धूप... तत्व दृष्टि निज धीर हुवे, जाणे निज अनुभूति.
ध०
ध १७ ध०
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आत्मस्वरूप
घ०
घरो ध्येय ज्ञेय आदेय ते, अंतर आतम भूत. ध० १८ वचन अगोचर भ्रम विता, चिंतवी सहज अनंत. जास ज्ञानमें अंशज्युं, मावे द्रव्य अनंत.
ध. १९ आत्म ज्ञानथी आत्मने, जाण्यां थाये सिद्धि. ध० मुनि तन्मय गुण तिहां लहे, तजी ग्रहीका नहीं लब्धि. घ० २० लीन थइ ग्रहे एकता, ध्याता ध्यान सु ध्येय ध० परमात्मा अंतरात्मा, एक अभिन्न अमेय.
ध० २१ कटमे कट कर्ता तणी, दिसे दुविधा रीति. पण ध्यान ध्येय ए आत्मा, एथी नवीय परतीत. ध० २२ भवमें भम्यो अज्ञानथी, विण लाधा निज नाण. परम ज्योति जग दुःखहरु, तेहिज अनुभव जाण. ध. २३ भावे एम निज भावना, ध्यान बीज गुणधाम. देवचंद्र सुख सागरु, ध्यान अमूलख पाम. ध. २४
श्री देवचंद्रजी पण ए प्रमाणे आत्म स्वरूपनुं वर्णन करेछे. गुण विशिष्ट आत्माने संसार चक्रमा वर्ततां आत्मस्वरूपनी अनुपयोगताए परस्वभावमां रमणपणाथी परपुद्गलरूप जे कर्म तेनुं ग्रहण समय समय प्रति यतुं जायछे, माटे हे चेतन स्वस्वरूप रमणता रूप निजभावनानो दृढ प्रयास अने स्थिरतायी आदर कर. अनादि कालथी तुं परभाव एटले पुद्गल द्रव्यना वर्ण, गंध,रस स्पर्श, मय पर्यायोनी लालचमां-तृष्णामां, ग्रहणमां, ममत्वमां, पराभिमुख चेतना करी अशुद्ध परिणति धारी, स्वभान भूली लोभायो पण परवस्तु पोतानी थइ नहीं उलटुं राग द्वेषनायोगे पुद्गल द्रव्यने आकर्षी कर्मरूप परिणमावी अनेक योनिमा विचित्र देहो धारी स्व. ऋद्वितुं आच्छादन करी परपुद्गुल भोगी थइ राजा वो पण तुं
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परमात्मदर्शन
(१८७)
रंक बन्यो, राग द्वेषरूप शत्रुने हणी आत्मीयध्यानमां महत्ता थाउ, अने ज्ञान शक्तिथी निजस्वरूप जाणुं. आत्मज्ञान थर्ता: परमां बंधाएलो अज्ञानाध्यास स्वतः दूर थायछे, आत्मा निर्मल 'थतां परमात्मा कहेवायछे - तेनुं स्वरूप कहेछे.
श्लोक, साकारं निर्गताकारं, निष्क्रियं परमाक्षरं । निर्विकल्पं च निःकंपं, नित्य मानन्दमन्दिरम्
१
आत्मा ज्ञानरूप उपयोगथी साकारछे, तथा दर्शनरूप उपयो गथी निराकारछे तथा आत्मा निष्क्रिय निश्चय नयथी जाणवो. प्रश्न - शरीस्थ आत्म सक्रियछे, अनेक प्रकारनी खावा पीवानी
गमनागमननी क्रिया करेछे, छतां ते निष्क्रिम केम जाणवो ? उत्तर- ज्यां सुधी जीवना प्रदेशोनी साथे कर्म लाग्छे त्यां सुधी ते सक्रिय - अने कर्मनो नाश सर्वथा थतां निर्मल सिद्ध बुद्ध परमात्मा निष्क्रियछे. शरीरस्थ आत्मा व्यवहार नयथी सक्रियछे कर्मनो संबंधछे माटे, अने निश्चयनयथी अक्रिय जाणवो. वस्तुतः आत्मानुं जेवुं स्वरूप होय तेनुं निश्चयनय वर्णवे छे, माटे आत्मानुं वस्तुतः ध्यान करतां निष्क्रिम भाववो, अने छे पण निष्क्रिय.
परमाक्षरं - क्षर एटले खरखुं, पोतानुं स्वरूप बदलवुं परम एटले सर्वोत्कृष्ट पोतानुं स्वरूप नहि फेरवनार आत्माछे, अनादि areer विभाव दशायोगे भवचक्रमां आत्मा परिभ्रमेछे तोपण तेना असंख्यात प्रदेशमांथी एक प्रदेश पण खरी गयो नहि, तेमज अनंत गुणोमांनो एक गुण पण खरी गयो नथी, माटे आत्मा अक्षर,... नदृष्टियी जाणवो. यद्यपि आत्माना प्रदेशानुं तथा गुणोंनुं
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( १८८ )
कर्मधी आच्छादन धयुंछे तोपण प्रदेशो तथा गुणोनो नाश थयो नथी तेम पण थवानो पण नथी त्रण कालमां अक्षर रूप आत्माछे. प्रश्न - परमाक्षर असंख्यात प्रदेशी आत्मा कोडी अने हाथीना शरीरमां एक सरखो केम मनाय ? कीडीनुं शरीर छोडी ज्यारे हाथीनुं शरीर धारण करे त्यारे तेनो विकास थयो, अने ज्यारे हाथीनुं शरीर त्यागी कीडीनुं शरीर धारण करे त्यारे आत्मानो संकोच थयो, असंख्य प्रदेशी आत्मानो संकोच विकास थयो त्यारे ते नाना शरीरमां लघु अने मोटा शरीरमां महान् थयो त्यारे आत्मानुं एकसरखुं रूप र नहीं, देहमात्र व्यापी जीव थयो तेनुं केम ?
आत्मस्वरूप.
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उत्तर
गाथा.
जह पउम राय रयणं, खित्तं खीरं पभासयदि खीरं ॥ तह देही देहथ्यो, सदेहमत्तं पभासयदि
छाया.
यथा पद्मराग रत्नं, क्षिप्तं क्षीरे प्रभासयति क्षीरं; तथा देही देहस्थ, स्सदेह मात्रं प्रभासयति.
१
भावार्थ- पद्मरागरत्न दुग्धथी भरेला वासणमां नांखीए तो ते रत्नमां एवो गुण छे के-तेनी प्रभाथी सर्व दुग्ध तद्वर्णमय थइ रहेछे. जो नानी वाटकीमां दुग्ध भरी अंदर पद्मरागरत्न नांखीए तो पद्मरागना रंग सरखं सर्व दूध थइ जायछे तेमज मोडुं कुंड होय तेमां दूध भरी पद्मराग रत्न नांखीए तो ते रत्ननी प्रभा तेला सर्व दूधमां व्यापी जायछे. तथा संसारी जीव पण अनादि काळथी कषायोद्वारा मलीन थतो शरीरमां रहेछे. शरीरमां असंख्यात प्रदेशोवडे व्याप्त थइ रहेछे, स्निग्ध पौष्टिक आहारथी जेम जेम शरीर
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परमात्मदर्शन.
(१८९) वृद्धि पामेछे, तेम तेम शरीरनी अंदर रहेला आत्म प्रदेशो पण तेटला शरीरमां व्याप्त थायछे, मोटा शरीरमा जीवपदेशो विस्तारपूर्वक रहेछ, नाना शरीरमां शरीरने व्यापी रहे तेवी रीते आत्मपदेशो रहेछे, असंख्यात प्रदेशनी व्यक्ति स्वरूप जीव जाणवो, जो के आत्मा शरीरादि परद्रव्यथी जुदोछे तोपण संसार अवस्थामां अनादि कर्म संबंधथी नाना प्रकारना विभाव भाव धारण करेछे ते विभाव भावोथी नवीन कर्मबंध थायछे, वळी ते बांचेलां कर्मोना उदयथी फरी एक देहथी देहान्तर धारण करेछे, अने तेम अशुद्धकारक चक्रथी संसारद्धि पामेछ, संसार अवस्थामां जीव कर्मसहित होय छे अने मोक्षदशामा कर्मरहित आत्मा सादि अनंतभंगें सदा समये समये अनंत सुख भोगवतो वर्तेछे, संसारी यद्यपि आत्माछे तोपण तेनी सत्ताथी अक्षरछे, तथा सत्तातः निर्विकल्प आत्मा जाणवो, विकल्प संकल्प मनना योगे थायछे, विकल्प संकल्प योगे राग द्वेषमा आत्मा परिणमेछे, हुं आत्मा ज्यारे विकल्प रहीतछं तो केम विकल्प संकल्प करूं ? परभावमा रमतां विकल्पादि उद्भवेछे, माटे परभावमा रमणता निवारवी, बाह्यदृष्टि योगे आत्मा परभावमा परिणमेछे माटे मुमुक्षु भव्यजनोए बाह्यदृष्टि प्रचार वारवा माटे अंतदृष्टिथी आत्मधर्म तरफ क्षणे क्षणे लक्ष्य आपवू, अंतर्दृष्टि थतां बाह्यवस्तुमा परिणमेलो मननो वेग अटकतां मन अंतरात्मा प्रति वळेछे, एम प्रतिदिन सतत दृढ अभ्यास थतां पोतानी ऋद्धिनो स्वयं अनुभव थायछे. कडुं छे के
श्लोक. बहिर्दृष्टि प्रचारेषु, मुद्रितेषु महात्मनः । अंतरेवावभासंते, स्फुटाः सर्वाः समृद्धयः ॥१॥
महारमाने बहिदृष्टिना प्रचारो बंध थए छते पोताना आत्मामा
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आत्मस्वरूप.
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( १९० )
सर्व समृद्धियो भासेछे, बहिर्दृष्टिथी देखाता पार्थोम अहं ममत्व बुद्धिवी बंधाला जीवने अंतर्दृष्टिनी प्राप्ति यती नथी, अंतर्दृहिना । अभिलाषी जीवोए निम्न लिखित विषयोतुं पुनः पुनः मनन कर. १ प्रथम विषय - हुं कोण ? हुं क्यों हुं ? शाथी छं ?
२ द्वितीय विषय हूं चेतन के जड ? चेतननो धर्म शो ? जडनो धर्म शो ?
३ तृतीय विषय देखती वस्तुओमां हूं छं के नहीं. दृश्य वस्तुओमां मारापणुं शुं ?
४ चतुर्थ विषय- हुं क्यांथी आव्यो ? क्यां जश ? ५ पंचम विषय - मनुष्य जन्मनी साफल्यता शाथी ? ६ पट विषय-धर्म क्यों रहेछे ? तेना हेतुओ कोण ? ७ सप्तम विषय हुं संसारमा जन्मजरामरण पामुंद्धं तेनुं शुं कारण ? ८ अष्टम विषय संसारमां आत्मा क्यारथीछे ?
९ नवम विषय - आत्मा निर्मल परमपद शाथी पामे ?
१० दशम विषय - कर्मनो कर्ता भोक्ता आत्मा कर्मनो नाश शी ते करी शके ?
ए दश महाविषयो संबंधी भव्यात्माए एक कलाक बे कलाक प्रतिदिन विचार करवो.
प्रथम विषय संबंधी विचार - कोऽहम् ? हूं कोण छं ? जट के चेतन ?, ज्ञानशून्य जडनुं लक्षणछे, अने हुं तो ज्ञान गुणवाळो भासुं छं. त्यारे हुं चेतन, शुद्ध आत्मद्रव्य तेज हूं, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, आदि गुणमय हुं आत्मा ते शिवाय हुं अन्य नथी.
हुंक्यां छं ? - हुं संसारी हुं तेथी शरीर प्राणरूप जे जडवस्तुतेमां रह्यो. जेम म्यानमां असि रहे पण जेमम्यानथी भिन्नछे तेम हुं शरीर के जे सप्तधातुमय तेमां वस्योद्धं पण तेथी न्यारो छु,
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परमात्मदर्शन.
(५) हुं शाथी छ ? अनादि एटले जेनी आदि नथी एचो हुँ आत्मा अनादि कालथी अज्ञानयोगे तथा रागद्वेषयोगे अशुद्ध परिणति योगे अष्टक र्मग्रही अने ते कर्मयोगे शरीर ग्रही तेमां कर्मथी वस्यो छ.
द्वितीय विषयविचार-हुं चेतन के जड ? अलबत ज्ञानदृष्टिथी विचारता हुं ज्ञानमय चेतनछु, चेतन, आत्मा वा जीव ए त्रण प्रर्याय वाची शब्द जाणवा. हुं जडथी भिन्नछु, अनंत काळ गयो पण हुं आत्मा अव्ययर्छ, अजीव पदार्थने हुँ जाणुंछ तेथी हुं तेनो ज्ञातार्छ अने ते ज्ञेय पदार्थछे, जेटली दुनियामां वस्तुओ देखायछे तेथी हुं भिन्नछं पंचभूतथी पण हुं भिन्नछु, पुद्गलास्तिकाय, धर्म, अधर्म, आकाश, कालद्रव्य, अजीवछे अने हुं तो जीवछं.
तृतीय विषयविचार-देखाती वस्तुओमां हुं आत्मा नथी. जे जे वस्तुओचक्षुगोचरथायछे ते स्वरूप हुं नथी, ते दृश्यमान धनादिकमां मारापणुं मानवु ते स्वमनी पेठे भ्रांतिछे, अर्थात् स्वममा देखाती वस्तुओने मारी मानवी ते जेम खोटुं भ्रांतिछे, तेम चावडे देखाती वस्तुओमां मारापणुं मानवू ते केवळ भ्रम मोहदशाछे. अभ-चक्षुथी दृश्यमान वस्तुओथी अनेक प्रकारनां कृत्यो थाय
छे, कोइ वस्तुओ आहाररूपे होयछे, तेना भक्षणथी क्षुधा शमेछे, चक्षुथी दृश्यमान जलथी तृपा शान्त थायछे, एम प्रत्यक्षने वस्तुओना फायदा मालुम पडेछे, तोते पदार्थाने स्वमना पदार्थो सरखा केम कह्या ? स्वमना पदार्थोथी कंइ कार्य यतुं नथी. अने चक्षुद्वारा दृश्यमान पदार्थोथी कार्य थायछे माटे
सादृश्यपणुं शी रीते संभवे ? प्रत्युत्तर-हा अलबत स्वमना पदार्थो अने चक्षुषा दृश्यमान पदार्थोमां कार्यभेदे मोटुं आंतरूंछे, पण चक्षुथी देखाता पदार्थो तेमज खममा भासता पदार्थोमां आत्मा नथी, अलबत ते बे
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( १९३ )
'आत्मस्वरूप.
आत्माधी न्याराछे, चक्षुवी देखाता आकारो अने स्वप्नमां देखाता आकाशे पुद्गल द्रव्यनाछे, अने पुद्गल द्रव्ययी आत्मा त्र कालमा निश्चयनयतः जोतां भिन्नछे, माटे भिन्न वस्तुमां आत्मपणानी बुद्धि भ्रांति मात्र छे, माटे जेवी स्वप्नमां देखता पदार्थो मारापणानी बुद्धि खोटी तेना सरखीज चक्षुषा देखता पदार्थोंमां मारापणानी बुद्धि खोटी जाणवी . प्रश्न – स्यारे चक्षुथी देखाता सर्व पदार्थो असत्य समजवा ? अने जो ते असत्यछे तो तेमां ममत्त्व भाव केम उत्पन्न थायछे ? प्रत्युत्तर - चक्षुथी देखाता सर्व पदार्थों पुद्गलना पर्यायोरूपे सत्य एटले अस्तित्त्व युक्त जाणवा, अने ते पुद्गल पर्यायरूप पदार्थो आत्मस्वरूपे नथी एटले आत्माथी भिन्नछे, आत्मपणुं तेमां कंड नयी माटे आत्मअपेक्षाए ते असत्य जाणवा, आत्मद्रव्यमां पुद्गल पर्यायरूप पदार्थोनुं अस्तित्व नथी किंतु आत्मद्रव्यमां पुद्गल पर्यायरूप पदार्थोनी नास्तिता सदा समये समये परिणमी रहीछे, तदपेक्षया असत्य जाणवा, अने पुद्गलरूपे ते सत्य जाणवा, माटे पुद्गल वस्तुओ ज्ञानदृष्टिथी जोतां आमाथी अत्यंत भिन्नछे तेमां मारापणानी बुद्धि अज्ञान तथा मोहथी उत्पन्न थायछे, ज्यारे अज्ञान नाश यतां ज्ञान प्रगटेछे त्यारे मोहनो नाश थतां परवस्तुमां थती अहंममत्वबुद्धि नाश पामेछे.
शंका- ज्यारे आ प्रत्यक्ष देखातुं
शरीर पोतानुं नथी एम जायुं
त्यारे कोइ शरीरनो घात करे तो शुं करवा देवो ? समाधान - कोइ शरीरनो घात करे तो बिलकुल करवा देवो नहीं. अने उलडं शरीरनुं संरक्षण करवुं यतः शरीरमाद्यं खलु धर्म
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Vvvv
परमात्मवर्षान. साधनं प्रथम तो शरीरज धर्म साधनमां कारणीभूतछे. यतः कहुं छे के
श्लोक. शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः शरीराजायते धर्मः पर्वतात्सलिलं यथा- १ ___भावार्थ-धर्म संयुक्त एवा शरीरनुं यत्न पूर्वक रक्षण करवू, कारण के जेम पर्वतथी नदी उत्पन्न थाय छे तेम शरीरथी धर्मनुं साधन थाय छे ने वळी कडं छे के शरीरंच पुद्गल धर्मत्वात् आहाराधारं-शरीर पुद्गल रूपछे माटे ते आहारना आधारे रहेछ कडंछे के
गाथा. देहो अ पुग्गलमओ । आहाराइ विरहिओ न भवे॥ तय भावे नय नाणं । नाणेण विणा कओ तित्थं. १
भावार्थ-देह एटले शरीर पुद्गलमयछे, अने ते शरीर आहार विना होतुं नथी. तेना अभावे ज्ञान नथी अने ज्ञान विना तीर्थ नथी. पूर्वेबार वर्षेनी दुकाली पडी हती त्यारे आहारना अभाव श्रुत ज्ञाननी विस्मृति घणी थइ गइ माटे आहार पण श्रुत ज्ञानना अभ्यासमा चारित्र पालनमा कारणीभूतछे. अने आहार विना ज्ञान नाश पामेछे, आहार पुनः चे प्रकारनोछे, सावध आहार अने निरवद्याहार-जीवमय जे आहार ते सावद्याहार, अने जीव रहित जे आहार ते निरवद्याहार-सावधआहार भक्षणथी फर्म बंध थायछे. माटे मोक्षाभिलापिजीवोए निरवद्याहारनुं ग्रहण करवु, तेमां मुनिराज तो सर्वथा सावद्याहारना त्यागी होयछे, सावद्यआहारना निमित्तथी जीवो सप्त नरक पर्यंत गमन करेछे यतः कपुंछ के- . ।
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(१९५)
साधुनी क्रिया.
गाथा. आहार निमित्तेणं, जीवा गच्छंति सत्तमि पुढवीं । तंडुल जसं आहरणं, भणियं सुत्ते जिणंदेहिं. १
भावार्थ-आहारनो अभिलाषी तंडुल तत्स्य बीजा जीवोने भक्षण करवानी इच्छामात्रथी सातमी नरक सुधी जायछे. माटे भवभीरु मुनिवर्यो शुद्धआहार संयमार्थे ग्रहग करेछ, यतियोने आहार शुद्धि अति दुष्कराछे कयुं छे के
गाथा. आहारे खलु सुद्धी, दुल्लहा समणाण समणधम्ममि । ववहारे खलु सुद्धी, दुलहा गेहीण गिहधम्मे. १ ... श्रमणोने श्रमण धर्ममां वर्ततां निर्दोष आहारनी माप्ति दुर्लभछे, तेम गृहस्थोने गृहस्थावासमां वर्ततां व्यापारादिमा व्यवहार सुधी दुर्लभाछे. शुद्ध आहारथी शरीरनुं पोषण संयमार्थम् श्रमणो करेछे प्रसंगथी आहारनुं विवेचन करी शरीर धर्मसाधनमा कारणी भूत छे एम सिद्ध कर्यु, धर्माजीवोनुं शरीर धर्म माटेछे तेम पापी जीवोनुं शरीरं पाप माटे जाणवू. चतुरशीति लक्ष जीवयाोने परिभ्र. मण करतां दुष्पाप्प मनुष्य शरीर चिंतामणि रत्न जेवू पामी जे मनुष्यो खावां पीवामां. तेमज विषय सुख भोगववामां, मोज मजा मारवामां शरीरनी सार्थकता समजेछे, ते जीवो मूढ अविवेकी पशु समान जाणवा. देवताना शरीर करतां मनुष्य शरीर अत्यंत उपयोगीछे. मनुष्य शरीरथी मोक्ष प्राप्ति थायछे, बीजा शरीरथी मोक्ष माप्ति थती नथी, माटे शरीरलु आहारादिकथी पोषण करवं. रोगदिक थये छते रोगनाशार्थ औषध दवा करवी. कोइ शरीरनो घात करे सो करवा देवो नहिं कारण के शरीर विना धर्म साधन यतुं नथी.
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परमात्मरन,
शरीर मारूंछे एम मानवू नही, कारण के ते पुद्गलछे..शरीरथी न्यारो आत्मा भाववो, शरीर आत्म धर्मनी प्राप्तिमा निमित्त कारणछे एवं, उपरना प्रश्ननो उत्तर थयो. प्रश्न-गजसुकुमाल मुनीश्वरे श्मशानमां शरीर घासनो उपसर्ग केम
सह्यो ? केम तेमणे शरीरनो घात करवा दीधो ? प्रत्युत्तर-गजसुकुमालेतो काउसम्म को हतो अने एवी तेमनी
श्रद्धा हती के शरीरना उपसर्गथी पण चळया नहीं. सर्व जीबोने माटे एवी स्थीति नथी. अंतरथी भिन्त्रपणे आत्मभावर्मा वर्तवू ? व्यवहारथी तेनु संरक्षण करवू, गज मुकुसालनी एवी भवितव्यता हती. तेमन तेनी अंतर्भावना प्रवर्द्धमान इवी, तेथी एवी स्थीति बनी. एकांत जैनमार्ग. नथी तेथी शंका करवी नहीं, काल, स्वभाव, नियति, कर्म, अने. उद्यम ए पंच कारणोथी मोक्षरूप कार्यनी सिद्धि थायछे, शरीरनी सार्थकता व्रतधारण तपश्चर्या विगेरेथी छे. अंते शरीर आत्मानुं थयु नथी अने थशे पण. नहीं, नित्य पर्व सम शरीरनी लालना पालना करवामात्रथी आ. स्महित यतुं नथी पण तेथी धर्मनां कार्य करवाथी आत्महित थायछे ? त्रण धन दरेक मनुष्यनी पासे रहेछे, प्रथम बाह्य धन. सुवर्ण, रू', जाहीर, रत्न, राज्य विगेरे जाणवू, ते बाह्य धन अनित्य चंचल जाणवू, कोइनी पासे बाह्य धन वि. शेषछे तो कोइनी पासे स्तोकछे. ए बाह्य धननी अपेक्षाए गरीब तांगरमां भेद पडेछ, बाह्य धनने मादे अनेक प्रकारना उयोगो क्लेशो देशोदेश परिभ्रमण आदि उपाधियो वेठबी पहेछे. किंतु ए बाह्य धननो ढगलो मरती खते. साये. लेइमो नथी भने ले जानो नयी बाब धननी ममदार महर
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( १९६ )
आत्मज्ञानभी कर्मनो नाश.
र्निश आर्तध्यान अने रौद्रध्यानमां आत्मा परिणमी अनेक प्रकरनां कर्म बांधेछे, अने बहिर्भावे राचीमाची अनेक जमनी वृद्धि करे छे.
जेम कुंभकार चक्रने एकवार वेग आपेछे तेथी ते चक्र चकरचकर घणी वखत सुधी भम्या करेछे तेम मनने आर्तध्यान, रौद्रध्यानना चितवननो एकवार वेग आप्याथी घणा वखत सुधी आर्तध्यानादिमां परिणमी रहेछे. रागद्वेषनो वेग आत्माने आपवाथी घणा काल सुधी आत्मा रागद्वेष वेग जोरे संसारमां परिभ्रमण करेछे, माटे अत्र सार ए ग्रहवानोछे के धर्मनो वेगजो आत्माने आपवामां आवे तो मुक्तिपद आत्मा पामे, तत्पद अर्थे सदाकाल एम भाव के देखाती वस्तुओमां हुं नथी. त्यारे मारे कंचन कामीनी केम मारी मानवी ? वा मनमां तेनुं चिंतन केम थवा देवु. कारण के ते वस्तुओ पोतानी नथी तो निरर्थक ते संबंधी विचार मारे केम करवो घंटे ? हुं एटले आत्मा जेमां नथी तेमां रागद्वेषथी. परिणमनुं मारे केम घटे कदापि जाणोके शरीर निर्वाह आदि अर्थे ते वस्तुओनुं ग्रहण करवुं पडे तोपण उदासीन भावे ग्रहण कर. अंतर्थी ते वस्तुओथी हुं. न्यारोछु एवा उपयोगनी स्थिरता रहूं. पण तेमां रागद्वेषथी परिणमनुं योग्य नथी. संसारनां कार्यों करूं पण तेमां लपटाउं नहीं एवी रीते वर्तनुं तेज आत्माने हितकारीछे, देखती वस्तुओ पुद्गलना पर्यायो जाणवा, पुद्गलनो सटण पडण, विध्वंसन स्वभावछे. पुद्गलना पर्यायो अनेक आकाररुपे देखायछे. अने पाछा विखरी जायछे. जेम संध्या समये पुद्गलना पर्यायो अनेक रंगरूपे परिणमेछे अने क्षणमां नष्ट थइ जायछे तेम चभुवी देखाती वस्तुओ विचित्र वर्ण गंध रस स्पर्शमय देखायछे अने वळी ते पाछी जुदा आकाररूपे परिणमी
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परमात्मदर्शन,
( १९७ )
fear in re स्पर्शने धारण करेछे शरीर पण पुत्रगलछे. माटे ते मारूं नहीं अने हुं तेनो नथी, पुद्गलनी भिन्न जातिछे. अने आत्मानी भिन्न जातिछे तेनी जाति भिन्न अने जेनो धर्म भिन्न जेनी वर्तना भिन्न ते एक कदी होय नहीं. हुं आत्मा पुद्गलमां त्यारे केम होंउं ? जो के संसारमां कर्मनायोगे हुं पुद्गलथी वस्यो छं तो पण पुद्गलथी निश्चय नयथी जोतां हुं न्यारो छु- ए त्रीजा विषयनो अल्प विचार फर्यो.
चतुर्थ विषय विचार - हुं क्यांथी आव्यो क्यां जाइश ? हुँ आत्मा क्यांथी एटले कया स्थानमांथी अत्र मनुष्य गतिमां आव्यो, अने हवे आ शरीरनो उत्सर्ग कर्या बाद क्यों जाइश. ते संबंधी स्थिरचितथी विचार करतां एम सिद्ध थायछे के पूर्व भवमां को पण में सारं कृत्य करेलुं. सिद्धान्तमां पण कथ्युंछे के-जे जीव सरल हृदयी होय, परोपकारी होय, दयालु होय, धर्मार्थी होय, कोइ जीवन घात करनार होय नहिं ते जीव मरीने मनुष्य थायछे. अर्थात् शुमभावनायुक्तजीव मरीने मनुष्य गति प्राप्त करेछे, तपचर्यावत, व्रती, परोपकारी, ब्रह्मचर्यादि गुण विशिष्ट जीव देवगति प्राप्त करेछे, पापी, मलिनारंभी, कृतघ्न्न, कपटी, हिंसा असत्यादिथी युक्त जीव नरक गति पामेछे, कपटवंत पापादि युक्त जीव तिर्यचनी गति प्राप्त करेछे. माटे ते उपरथी विचारतां सिध्ध थायछे के पूर्व भवमां के सारां कृत्य करेला के जेना योगे मनुष्य शरीर ग्रही तेमां वश्यो छु, जेने जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न थायछे ते पोतानो पूर्वभव यथातथ्य जाणेछे, जाति स्मरण मति ज्ञानतो भेदछे, संगतिराजा पूर्वे द्रुमकनो जीव हता. मिष्टान्न भक्षण लालची श्री आर्य सुहास्त आचार्यजीने साधु थवानी विनंति करी, गुरु महाराजे योग्य जाणी लाभनी खातर साधु वेष समय
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(१९८)
चतुर्ष विषय विचार.
स्याथी शुभ भावना योगे मृत्यु पामी संपति राजा तरीके थया, संमति राजाना भवमां गुरु महाराजने देखी पूर्व भवनी यादी आ. की, अनेक जिनबिंब भराव्यां, अनार्य देशमां-जेवाके अफगानिस्तान बलुचिस्तान, इरान,अरबस्तान, तिबेट विगेरे स्थाने श्रावकोने साधु वेष समर्पि जैन धर्मनो बोध देवा मोकल्या. घणा राजाओने जैन धर्मी कर्या अवंति सुकुमाल पण उज्जयिनी नगरीमा आचार्य श्री आर्य सुहस्तिना योगे जाति स्मरण ज्ञान पाम्या. हाल पण जे स्थाने अवंति सुकुमाल स्वर्गस्थ थया त्यां अवंति सुकुमाल पार्श्वनाथ ना. मनुं जिनमंदिरछे, सुदर्शना पूर्वभवमा समलिकाहती ते तद्भवमा पंच परमेष्टि मंत्र श्रवण करी मृत्यु पामी सिंहलद्वीप नृप पुत्रिका थइ त्यां रुषभदास शेठना मुखथी नमो अरिहंताणं पद सांभळी इहापोह करतां जातिस्मरण ज्ञान पामी भरुअच्च नगरमां जिन मंदिर तथा मुनिवर्याने वंदन करवा आवी. पूर्वभवमा भरुअच्च नगरनी बहिर् ज्यां मरण पामी हती त्यां श्री ज्ञानभानु नामना आचार्य पधार्या हता तेमणे सुदर्शनाने उपदेश दीशे. सुदर्शनाए समलिका विहार बंधाव्यो, मतिज्ञाननी उत्कृष्टि स्थिति छासठ सागरोपमनी छे. पाठ-कालमसंखं संखंच धारणा मातिज्ञाननो धा. रणा नामनो भेदछे. तेनो असंख्यात संख्यातो काल जाणवो,जाति स्मरण ए धारणामां भळेछ, अर्थावग्रहतो एक समयनो जाणवो. उत्कुष्ट अने जघन्यथी इहा अपायनो काल अंतर्मुहूर्त्तनो जाणवो. समकिती जीरने मतिज्ञान होयछे अने मिथ्यात्वी जीवने मति अज्ञान होयछे. सम्यग रत्यिा तत्त्वबोध थया विना तत्त्वज्ञान तरफ लक्ष वळतुं नथी, सम्यग् तरखनी श्रद्धा विना मतिज्ञान उत्पन्न यतुं नथी. हवे मूळ विषय उपर आवाये. देवता पूर्वभव जाणी पकणे, नारकीना जीव पोतानो पूर्वभर जाणेणे, बावना
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परमात्मदर्शन.
( १९९ )
वखतमां जाति स्मरणज्ञान उत्पन्न थवानो निषेध नथी. केटलाक सद्गुरू संगतिहीन अनार्यमति अज्ञानी आत्मानो पुनर्जन्म मानता नथी एवा नास्तिक शिरोमणि ज्ञानदृष्टि शून्य जीवो परमपद पामी शकता नथी. जीव पण अनादि कालथी आ संसारमांछे अने जीवने कर्मपण अनादिकालथी लाग्यांचे ते कर्मनायोगे अवतारो ग्रहण करवा पडेछे तेनी साबीतीना हेतुओ-नीचे मुजब.
१ जोड कहेवातां छोकरां नानपणमां एक सरखां होवा छतां अने तेमने एक सरखी रोते उछेरवामां आव्या छतां पाछळथी तेओना विचार आचारमां भिन्नता पडेछे तेनुं कारण कर्म जाणवुं.
२ पिता पुत्रना देखावनुं सदृशपणुं छतां बन्नेनी अक्कल अने विचारमां जे आसमान जमीननो तफावत जोवामां आवे छे तेनुं कारण पण कर्म जाण.
३ एक माबापना के पुत्र छतां एकने कविता बनाववानी सहेजे शक्ति उत्पन्न थायछे अने बीजो अभ्यास करतां पण कम बुद्धिमान् अने कविता करी शकतो नयी तेनुं कारण पण कर्म जाव. कारण के एकने ज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम थयो छे अने बीजाने थयो नथी.
I
४ आ पृथ्वीमां एक दुःखी, अने बीजो सुखी एक जम्पथी अंध, लुलो, लंगडो, बाधेर, वा भीखारीना पेढे ज. म्मी मरण पर्यंत दु:ख पामनार थाय छे, त्यारे बीजो मनुष्य देहथी सुखी सारा कुळमां पेदा थयेलो, धनथी सुखी बुध्धिमान्, तथा मान सन्मान पामनार जोवामां आवछे तेनुं कारण जीवे पूर्व भवमा करेलां पाप पुण्य तेनुं फल जाणघुं.
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(१००)
पुनर्जन्मनी साबीती. एम थवानुं कारण इश्वरना हाथमांछे एम कहीए तो आपणे इश्वरने गेर इन्साफी अने दया विनानो ठेरवीए छीए, कर्मथी ज आवा अवतारो बनेछे. इश्वरने मुख दुःख आपनारो मानवू ए न्यायथी विरुध्ध तेमज महा अज्ञान जाणवू. इश्वर कोइने सुख दुःख आपतो नथी. जीव, पुण्य, पाप रुप कमेंना अनुसारे सुख दुःख पामेछे एम श्री तीर्थकर भगवान् कहेछे, तीर्थंकर केवळ ज्ञानीछे माटे ते सत्य पदार्थ स्वरूप कथेछे. माटे तेमना , वचन उपर विश्वास राखवो. पुनर्जन्म सिध्धि सर्व प्रमाण सिध्धछे, चोराशी लाख जीवयोनिमा परिभ्रमण करतो जीव महापुण्योदये मनुष्य जन्म पामेछे.अमूल्य चिंतामणि समान मानवतनुं पामी भवो दधिनो पार पामवो एज कर्तव्यछे. संसाररूप समुद्र तरवा मनुष्यावतार एक वहाण समान छे. मनुष्यरूप वहाणमां आत्म रूप उतारु बेठोछे. आत्मोपयोग रूप खलासी वहाणने चलवेतो वहाण सम्यग् मार्गे चाले. समुद्रमा तृष्णा रुप मोटी भमरीओ आवेछे तेमां वहाणने बुडवा नहीं देतां शुध्धोपयोग रुप खलासी समुद्र पार बहाण उतारे माटे हे चेतन तुं शुध्धोपयोगनो आदर कर के जेथी तुं अनंत शाश्वत सुख पामे.
तुं क्यां जाइश-परभवना पुण्यथी मानसिक शक्तिवाडं मानव तनु प्राप्त थयुंछे ते आयुष्यनी मर्यादा सुधी अंते रहेछ. पश्चात् ते शरीरमाथी आत्मा जुदो पडेछ. कोइ आत्मा महापाप करी न. रक गतिमां संचरेछे. नरको सातछे, पहेली करतां बीजी नरकमां विशेष दुःखछे, बीजी करतां त्रीजीमा विशेष दुःख जाणवू. सर्व करतां सातमी नरकमा विशेष दुःख भोगवईं पडेछ, उत्कृष्ट तेत्रीस सागरोपमनुं आयुष्य सातमी नरकना जीवोनेछे जे जीवो हजारो मायो भेसो बकरांने रेंसी नखिछे अने तेथी पोतानुं गुजरान च.
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परमात्मदर्शन
लावेछे तेवा जीवो मायः नरकगतिना मेमान थइ त्या दुर्गंधमय खराबशरीरोने पामी असह्य दुःख क्षणेक्षणे भोगवेछे, विविध प्रकारनी क्षेत्र वेदनाओ भोगवेछे, जे जीवो हजारो माछलीओनुंभक्षण करेछे अने रात्रिदिवस तेमने मारवानो उद्यम करी रह्याछे तेवा जीवो नरकगतिमां गमन करेछे. मरती वखते तेवा जीवोनी लेश्या बगडे छे, अने नरकमां दुःख पामतां तेवा जीवोने मुकाववा कोइ जतुं नथी. त्यां नरकमां महारौरव दुःख पामेछे, करेला पापोमांथी छुटता नथी. जे जीवो शिकार रमी हजारो पंखी पशुने मारी तेना मांसथी पापी पेट भरेछे अने सदाकाल तेवा पापी शिकारकृत्यमां राचीमाची रहेछे तेवा जीवो प्रायः नरकगतिमां परमाधामीनी करेली वेदनाओ, बूमो चीसो पाडता भोगवेछे, सागरोपम वर्ष सुधी नरकमां रहेछे, ते जीवोने जरामात्र पण सुख नथी. आंख मींचीने उघाडीए तेटली वखत पर्यंत पण नरकमा मुख नथी जे जीवो मांसथी पापी पेट भरी आनंद मानेछे तथा परस्त्री लंपटी होयछे तेवा जीवो प्रायः नरकगतिमां जायछे, रौद्रध्यानना चार ४ पायामां वर्ततो जीव क्रूरपरिणामयोगे नरकमां गमन करेछे. माटे हे आत्मा तुं जो उपरोक्त हेतुओठे सेवन करीशतो नरकगतिमां जाइश. असंख्य जीवो रौद्र परिणामने धारण करता नरकगतिमां गया अने अनेक जायछे अने जशे. तुं मनथी तारूं वर्तन तपासीजी, तुं गत्री दिवस केवा प्रकारना विचारो धारण करेछे, तुं रात्रीदिवस पापनां केवां केवां कृत्य करेछे. वावे तेवं उगे आ कहेवतने याद राख. तें अज्ञानथी नरकगतिमां जवाय तेवां पापो को होय तो हवे ते बावतनो पश्चात्ताप करवो घटेछे, अने गीतार्थगुरू पार्थे आलोचना लेवी घटेछे. प्रायश्चित्त विना पापनी शुद्धि थती नथी. जेने भवनी भीति उत्पन्न थइ होय ते प्रायश्चित्त ग्रहेछ, मान ल
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(२ )
प्रायश्चित वु. ज्जानो त्याग थाय अने वैराग्य प्रगटे त्यारे प्रायश्चित्त लेवायछे, जे जे गुप्त. पापो कयों होय तेने बीजानी आगळ कहेवाथी जीव डरेछे वा लज्जा पामेछे. पण मोक्षाभिलाषी जीवोए गुरू पासे लोकवासना त्याग करी प्रायश्चित्त ग्रहण करवं. व्रतभंगनुं पायश्चित्त ग्रहनार जीव आराधक जाणवो. मनमा शल्य राखवू नहीं फयु छ के
गाथा. ससल्लो जइवि कठुग्गं, घोरं चीरं तवं चरे। दिव्ववास सहस्सं तु, तओवि तं तस्स निप्फलं १ सल्लुबरण निमित्तं, गीयस्स नेसणाउ उक्कोसा।। जोयण सयाई सत्तउ, बारस वरिसाई आलोअणा परिणओ, सम्मं संपठिओ गुरू सगासे। जइ अंतरावि कालं, करिज आराहगो तहवि. ३ लज्जाइगारवेणं, बहुस्सुअ मएणवाविदुचरिअं। जो न कई गुरुणं, नहु सो आराहगो भणिओ. ४ जह बालो जंपतो, कज्जमकज्जं च उज्जुअंभणइ । तं तह आलोइज्जा, मायामयविप्पमुक्कोअ. ५ न वि तं सथ्थं व विसंवर, दुप्पउत्तो च कुणइ वेआलो। जं तं च दुप्पनत्तं, सप्पो व पमाइओ कुद्धो. ६ ____ माटे उपरोक्त भावार्थ समजी सद्गुरु पार्वं कृत पापोनी व्रत भंगोनी आलोचना लेवी गुरु गीतार्थ जाणवा तेमनी पासे आलोचना लेवी सातसे योजन तथा बार वर्ष सुधी गंभीर
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परमात्मदर्शन
((२०३ )
गीतार्थ पासे आलोचना लेवानी तीव्रच्छा राखवी तथा आलोचना लेनार पण आत्मार्थी तस्वनो अभिलाषी होवो जोइए. गुरुनी पार्श्व पापनो पश्चात्ताप करतो प्राणी कर्मथी हळवो थायछे अने निर्मल थयेलो निशल्य भव्यात्मा सत्पंथे चालेछे, जेम कोइना उदरमां बगाड थइ ते अशक्त थयो होय तो. ते माणस वैद्यने नाडी देखाडेछे, वैद्य तेनी वर्तणुक पुछी लेछे, कया या पदार्थों खावामां आव्या हता ते पुछेछे त्यारे रोगी पण सर्व वात कछे पश्चात् वैद्य तेना शरीने सारं करवा प्रथम मळ शुद्धि जुलाब आपेछे. पश्चात् बीजी दवाओ आपेछे, तेम गुरु महाराज पण अनेक प्रकारना पापोनी आलोचना रूप जुलाब आपी तेनुं हृदय शुद्ध करेछे पश्चात आत्महितने माटे अन्य मार्गो, व्रतो बतावेछे माटे हे चेतन तुं हवे विचार कर अने नरकना हेतुओ दूर कर. श्रीवीर भगवान्नी मशीर माथाना वाळ जेटला घणी कर्या एम प्रभुनी पासे पश्चाताप कर्ये तेथी सर्व पाप जतुं रघु, हे चेतन आर्तध्यान जो मनमां करीश तो तिर्यचनी गतिमां जाइश. धर्मध्यानथी देवगति मनुष्यगति प्राप्त थाय छे अने शुक्ल ध्यानथी मोक्ष स्थान प्राप्त थाय छे. माटे चेतन-चारे गतिनां द्वार तारे माटे खुल्लांछे, जेवां कृत्य करीश तेवी गतिमां जाइश - आयुष्य पूर्ण थतां, देवता मनुष्य तिर्यच अने नरक ए चार गतिमांथी गंमे ते गतिमां कर्मानुसारे तुं जाइश - एक गतिमांथी नीकळी वीजीमां, बीजीमांथी नीकळी श्रीजीमां, एम अनादि कालथी तुं चतुर्गतिमां परिभ्रमण करेछे. चतुर्गतिमां परिभ्रमण करावनार कर्मछे, कर्माष्टक. मकति रूप द्रव्यकर्म जाणवुं. राग अने द्वेष रूप भावकर्म जाणवु, सग अगर द्वेषना विचारो कर्याथी जीव पुद्गल स्कंधोने कर्म रूप परिणमाची ग्रहण करेछे.
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भारमस्वरूपः
दरेक माणस पोते करेला रागद्वेषना विचारोथी ज पोताने कर्मनी जाळमां घेरी लेछे, एम समजवानुंछे.-विचारमा समायला जोखमनो ख्याल नही होवाथी रागद्वेषना सर्वे विचारो मुखेथी आववा देछे. हवे एवा विचारोथी रागद्वेषना संस्कारो उत्पन्न थायछे. अने ते राग द्वेषना संस्कारो पोताना बनावनार उपर दबाण करी तेनी पासे फरीथी तेवा विचारो उत्पन्न करावेछे के जेनी अणसंमजु लोकोने खबर नहि होवाथी तेम थतुं अटकाववानी कोशेश करवाने बदले उलटुं वारंवार तेवाज विचारो उत्पन्न थवा देछे, अने तेनुं छेवट परिणाम एवं आवेशे के एकज विचार बे पांच वखत कीधाथी माणस पोते रागद्वेषना कबजामां आवी जायछे. अने ते पछी रागद्वेष, निंदा, शोक, मोह, अदेखाइ, बुराइ, चोरी, असत्य, व्यभिचार, हिंसा, कपट, विश्वासघातना विचारो माणसनी मरजी उपरांत तेनाथी थइ जायछे, एवी रीते राय द्वेष मोह मायाना विचारोना बंधनमां जीव पडेछे, कर्मनो कर्ता पोते अने जेमां बंधानार करोळीयाना जाळनी पेठे पोते ज छे, जे नठारा विचारो अजाण पणे फरी फरीथी करवाथी तेमां पोते बंधाइ जाय छे वळी रागद्वेष मोह, माया, मत्सर, रुप नारा विचारो थी छेवटे नठारं काम थइ जायछे के जेतुं कडवं फल भोगवती वेळाए ते दुःखी थायछे, दुःख खमती वखते तेने पोताना करेला कर्मथी छूटो थवानी इच्छा थायछे. अने फरीथी एवं नठारं काम नहीं थाय अने नठारो विचार नहीं आवे तेने माटे हवे ते साघचेत रहेवानी कोशेश करेछे. उत्पन्न करेली रागद्वेषनी टेवो घणी बलवान तथा अनादि कालथी होवाथी शरुआतमां तो मनुष्य निष्कक जायछे, एटले तेनी मरजी उपरांत रागद्वेष मोहना विचारो आवी जायछे, अथवा तो खराब काम थइ जायछे. पण लांबो वखत पो
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परमात्मदर्शन
(२०५)
तानी महेनत चालु राख्याथी छेवटे ते रागद्वेष मोह मायाना खराव विचारोने अटकावी शकेछे. अने तेम कीधाथी रागद्वेषथी बांधेलां कर्मनो पण ते नाश करी शकेछ, मनोजय अभ्यासथी थायछे. रागद्वेषना विचारोथी मनुष्य आवता भवने माटे नवां कर्म संग्रहेछे. तेथी परभवमां जन्म लेवो पडेछे, जन्म जरा मरणथी आत्मा खरूं सुख भोगवी शकतो नथी माटे हवे मनुष्य भवमां चेतवानुं छे, दरेक मनुष्यो पोतानी बुद्धि अनुसारे मुखी थवा महेनत करेछे-कोइ राज्यथी सुख मानी लेछे. कोइ पैशाथी तो कोइ स्वीथी कोइ कुटुंबथी तो कोइ पुत्रादिकथी सुख माने छे पण ते पुद्गल वस्तुओमां सुख नी बुद्धि धारवी ते केवल अज्ञानछे, खरं सुख आत्मामा रह्युछे, ते मुख आत्म ध्यानथी प्राप्त थायछे. श्री तीर्थकर महाराजाए मोक्षy सुख सत्य कथ्युंछे, अने मोक्ष तो आत्मा कर्मथी मूकाय त्यारे मळे छे, मोक्षनु सुख कंइ वातोना गपाटा मारवाथी मळतुं नथी. पण ते माटे सांसारिक सुखनी इच्छा त्यागी मोक्ष सुख प्राप्त करवा मुख्यताए चारित्र मार्ग आदरवो जोइए. प्रश्न-चारित्र विना शुं मुक्ति नथी मळती ? उत्तर-श्री सर्वज्ञे ज्ञान- फळ विरति कथ्युछे माटे विरतिरूपचा
रित्र सर्व कर्मनो क्षय करेछे, विरति पणुं बे प्रकारेछे-देशविरति अने सर्व विरति-देशविरतिपणुं व्रतधारी श्रावकने होयछे. अने सर्वविरतिपणुं मुनीश्वरने होयछे. श्री तीर्थकर महाराजाओ पण दीक्षा अंगीकार करेछे, जेटला तीर्थकर थया अने थशे ते सर्व सर्वविरतिरूप चारित्रने ग्रहण करेछे. ज्यारे तीर्थकरने दीक्षा लेवानो समय थायछे त्यारे लोकांतिक देवता वीनति करवा प्रभु पासे आवेछे. हे प्रभो आप दीक्षा लेइ जना जीवोनो उद्धारगत् करो, भव्यो विचारो के जेने ते भवमा
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(- २०६)
'आत्मस्वरूप.
केवल ज्ञान उत्पन्न थायछे तेवा तीर्थकर महाराजाओ पण चारित्र अंगीकार करेछे अने गृहस्थावासना त्याग करेछे. तो बीजा भव्यजीवोने चारित्र बिना मुक्ति शी रीते मळे ? अने वळी शास्त्रमां पण कांछे के
गाथा.
दंसण नाण जुओ विहु । न कुणइ कम्मख्खयं चरण रहिओ। नाणरुइ जुओ विज्जुब्ध । किरिय रहिओ अरोगतं १
भावार्थ-दर्शन अने ज्ञानवडे सहितपण प्राणी चारित्र विना कर्मनो क्षय करतो नथी. जाणकार वैद्य क्रियाहीनपणाथी रोग रहित थाय नहीं तेनी पेठे-वळी कां छे के.
गाथा.
बहुभवं कपि कम्मं । खवइ चरितमप्पकालंमि । चिर संचि इंधण भरं । खणेण निद्दहह जह जलणो? एग दिवसंपि जीवो। पव्वज्ज मुवागओ अनन्नमणो । जय विन पावइ मुखं । अवस्स वेमाणिओ होइ २ अध्यन ता एग दिणं । अंतमुहुर्त्तपि चारु चरण जुओ। खवइ असंखिज्ज भव । ज्जियंपि जीवो बहु कम्मं. ३ सुरंपि चरण विणा । न दिंति नाणं च दंसणं सिवं । वरचरित जुयाइं । खणेण ताई सिव फलाई । ४
भावार्थ - बहु भवनां कर्या कर्मने चारित्र अल्प काळमां क्षय करेछे घणा काळनो संचित इंधण समूहने जेम अनि बाळी भस्मकरेछे तेनी पेठे अन्यत्र चित्त नथी. अने आत्मरमणतामां चित्तवाळु
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परमात्मवर्षान. एवं चारित्र एक दिवस जो मोक्ष न आपे तो पण वैमानिक देवपणाने आपे..
भाव सहित भावचारित्र एक अंतर्मुहूर्त्तमां पण असंख्यभवार्जित पापनो क्षय करे, ज्ञान अने दर्शन ए बे पण चारित्र विना मोक्ष आपी शकतां नथी. माटे सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्राणि मोक्षमार्गः ज्ञान, दर्शन, अने चारित्र मोक्षनो मार्ग जाणवो. भावचारि
थी पण कोइने मुक्तिनी प्राप्ति थायछे. चारित्र विना रागद्वेषनो जय थतो नथी. माटे कांछे के ज्ञान विना चारित्र नहि, चारित्र विण नहिं मुक्तिनां सुख छे शाश्वतां । ते केम लहीए युक्तिरे-इत्यादि महापुरुषोनां वचनथी चारित्र मार्ग भावकर्मनो क्षय करनार बलवत्तर जाणवो. हव चारित्र पाळवा अशक्त होय ते श्रावकत्रत अंगीकार करे तेथी पण मननों शनैः शनैः जय थायछे. अने मोक्षाभिमुख थवाय छे. ___ हवे भव्यात्माओने समजवायूँ के-श्रावकना व्रत वा साधुनां व्रत अंगीकार करीने पण रागद्वेषनो क्षय करवानोछे, मनने जीत्या विना रागद्वेषनो क्षय करवो दुर्लभछे, अने आत्मज्ञान छे ते षड्द्रव्य तेना गुण पर्यायना ज्ञानविना तथा वैराग्यविना थतुं नथी. मन पवन करतां पण घणुं चंचळछे. पवनने जेम मूंठीमां झाली राखवो तेम मनने पण वश राखवू दुर्लभछे, आत्मस्वरूप चिंतबनना कु
रूमां मनने लगाडq ए सिवाय बीजो रस्तो मनोजयनोनथी. प्रथम स्थिर दृष्टि राखीने जोवु के मनमां कया कया (शा शा) विचारों थायछे, तुरत जोतां हजार विचारो आवता जणाशे ते वखते एम चिंतवq के हे आत्मा ! ए विचार हारा नथी; तुं तेनाथी भिमछे, रहारे एणी तरफ लक्ष आपq नहि, एम विचारी तुरत आत्मगुणोना चिंतनमा वळवू, अरूपी आत्मा केवी रीतेछे ? तेनो विचार करवो.
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आरमस्वरूप,
प्रथम अभ्यासमां मनविचार करतां बंध रहेतुं नथी. माटे तेने कंइक उद्यम तो जोइए. माटे आत्मस्वरूप चितवनमा मनने दोर. एटले मन बहिनी हजारो वस्तुओमां भटकतुं पोतानी मेळे बंध थशे. मनने बहिरनी वस्तुओमां भटकवाथी जेवो आनंद मेळेछे तेंवो पहेलां मळशे नहीं. जेम नानां छोकराने निशाळे जतां जेई कंटाळा भरेलु लागेछे तेम तथा कोइ पंखीने प्रथम पांजरामांपुरवामां आवेछे त्यारे जेम कंटाळा भरेलं तेने लागेछे तेम पेला छोकराने ज्यारे निशाळमां भणतां समजण पडेछे त्यारे कंटाळोथतो नथी. अने पंखीने जेम पांजरामा खावो पीवानो आनंद थायछे तथा तेना धणीनी साथे हळी मळी जायछे त्यारे स्थिर थायछे तेम मन पण आत्मध्यानमांप्रथम कंटाली जायचे. पण ज्यारे तेने स्थिर आत्मध्यानमां करवामां आवेछे त्यारे कंइक स्थिर थायछे. अने अंते तेना उपर कार्ड मेळवी शकायछे. अने ते बाह्यना विषयोमां भटकतुं नथी अने शान्त जेवू थइ जायछे. पश्चात् निर्विकल्पमय आत्मस्वरूपमा स्थिर उपयोगदृष्टिनी धारा वृद्धि पामेछे तेथी भव्यात्मा आत्माना असंख्यप्रदेशे लागेलां घणां कर्म निर्जरावे छे, अने निराधार स्वपर प्रकाशक बने माटे परमपदनी चाहना करनारे प्रथम मनोजय करवो आवश्यकछे. श्री आनंदघनजी महायोगी कहेछे के
श्री कुंथुनाथजीना स्तवनमां-3 मन साध्यु तेणें सघल्लं साध्यु. एह वात नहिं खोटी इम कहे साध्यु ते नवि मानु, ए कंइ वात छे मोटी हो, कुंथुजिनक ___ जेणे मन वश कर्यु तेणे मुक्ति सुख वश कर्यु एम कहेवू अतिशयोक्ति भर्यु नथी माटे पहेला तो दरेक अभ्यासीए मन काबुमा राख, जेम घोडाओ गाडी गमे त्यां घसडी जायछे. माटे तेओने काबुमा राखघा पडेछे, तेम इंद्रियो रूपी घोडाओ आ शरीररुपी
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परमात्मदर्शन,
( २०९ )
गाडीने पोताने गमे त्यां नहिं खेंची जाय ते सारु अंदर बेठेला आत्माए तेओने काबुमा राखवानाछे, प्रथम अवस्थामां मनने काबुमा राखवानी जेम जेम वधारे कोशेश करवामां आवेछे तेम तेम नहीं जोइता विचारो धमधोकार थया करेछे, सारा, नारा, उंच, धनना, स्वीना, वेपारना हजारो विचारो थवानुं कारण समजी काढी खप विना विचार थवा देवो नहीं, सारं सारं पुस्तको वांचवामां आवे त्यां सुधी मन ते काममां राकाइ रहेछे, अने खराब विचारो नो नाश थायछे, खराब विचारो महारोगोना करतां पण भूंडाछे, मोटा रोगो तो एक भवमां पीडा करेछे, किंतु खराब विचारोथी माठी असरो थइ घणां चीकणां कर्म बंधाय छे, माटे अंतरना खराव विचारो माटे विशेष लक्ष आपवानी जरुरछे अने तेवा अशुभ विचारमय आर्त्तध्यान अने रौद्र ध्याननुं स्वरूप शास्त्रमां कभ्युंछे, आर्तध्यान अने रौद्र ध्याननुं मूल कारण अज्ञान, रागद्वेष अने मोहछे, अज्ञान ए महा शत्रुछे. अज्ञाननो नाश करवा सद्गुरु उपदेश वारंवार सांभळवो अने तेनो विचार करवो. षड्द्रव्योनुं स्वरुप धारखं. जड चेतननो विभाग करवो तेथी स्व अने परनी समजण - पडतां भेद ज्ञान प्रगट थशे. समकित प्रगट थवानुं मुख्य कारण भेद ज्ञानछे. जड अने चेतन वे वस्तु भिन्न भिन्न छे एटला मात्रथी भेद ज्ञान मानी खुशी थवुं नहिं पण आगल वधी अंतरथी सदाकाळ वे वस्तुओ न्यारी समजवी. हवे रागद्वेष ए वे मोटां भुतछे, राग ए चूडेलछे अने द्वेष ए जन्दछे. ए बे ज्यां सुधी माणसमां छे त्यां सुधी विचारो मनुष्य सदाकाल दुःखीयो जाणवो, चूडेल जेम मनुष्यनुं रुधिर चूसी लेछे, तेम रागरूप चुडेलथी आत्मानी अनंति रूद्धि कर्मावरणथी आच्छादन थती जायछे, जन्द जेम माणसना शरीरमां पेसी अनेक तोफान करेछे, माणसनुं भान भूलावेछे तेम
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(१०) रागद्वेषना विचारी परिहरवा. द्वेषरूपी जन्द आत्माने वळग्यो छतो अनेक प्रकारनां तोफान करे छे अने आत्मानु भान भुलावेछे, चूडेल अने जन्दने कोइ महा उस्ताद मंत्र वादी काढेछे तेम आत्माने लागेला रागरूपी चुडेल अने द्वेषरूप जन्द ते उस्ताद गीतार्थ गुरुना उपदेशरूप मंत्रथी दूर थायछे त्यारे आत्मा अत्यंत सुखी थायछे आ ठेकाणे शिष्यना आस्माभां रहेला रागद्वेषने काढवामां गुरु बलवान् निमित्त कारण जाणवा, अने उपादन कारण तो शिष्यनाआत्मानी शुद्ध परिणति जाणवी. आत्मानी शुद्ध परिणति थाय त्यारे आत्मा निर्मळ पदने पामेछे, निश्चय नयथी कहेवातुं जे पोतानुं शुद्ध स्वरूप, तन्मय आत्मा बनतां लोक अने अलोक तेना केवलज्ञानमा प्रकाशेछे. ज्ञानावरणीय कर्म नाश पामेछे त्यारे अनंतज्ञान उत्पन्न थायछे. प्रश्न-ज्ञानावरणीय कर्म क्या रहेतुं हशे ? अने तेनुं ग्रहण शाथी
यतुं हशे? प्रत्युत्तर-ज्ञान- जे आच्छादन करे ते ज्ञानावरणीय कर्म-ज्ञानना
पंच प्रकारछे पंच प्रकारचं ज्ञान आच्छादन करे तेथी ज्ञानाबरणीय कर्म पण पंच प्रकारनुं जाणवू. पुदूगलना स्कंधोने आत्मा अशुद्ध परिणतियोगे ज्ञान- आच्छादन करे तेवा रूपे पोताना असंख्य प्रदेशोनी साथे क्षीर नीरनी पेठे परिणमावे ए उपरथी स्पष्ट समजाशे के क्षीर नीरना मळवाना संबंधनी पेठे ज्ञानावरणीय कर्म आत्माना प्रदेशोनी साये रघुछे अने ते ज्ञानावरणीय कर्मनुं ग्रहण अज्ञानयोगे अशुद्धपरिणतिथी ग्रहण थायछे.
जेम सूर्यनां किरणोनो प्रकाश वादळांना आच्छादननी अवराय छे, तेम आत्मानुं सूर्य सदृश जे ज्ञान ते ज्ञानावरणीय कर्मथी अवरायछे. तेथी आत्मज्ञान स्वपर प्रकाशकरूप कार्य करी शकतुं नथी.
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परमात्मदर्शन. हवे ज्यारे ज्ञानावरणीयकर्मनो नाश थायछे त्यारे अनंतज्ञान उत्पन थायछे, दर्शनावरणीय कर्मनो सर्वथा नाश थवाथी अनंत दर्शन उत्पन्न थायछे. तथा शाता अने अशाता वेदनीयनो सर्वथा क्षय थवाथी अनंत अव्यावाध सुख उत्पन्न थायछे. मोहनीय कर्मनो सर्वथा क्षय थवाथी क्षायिक सम्यक्त्वनी तथा चारित्रनीमाप्ति थायछे, आयुष्य कर्मनो क्षय थवाथी आत्मा सादि अनंत स्थिति पामेछे. सारांश के-आयुष्य कर्मथी मुक्त थयेलो जीव सिद्धशिलानी उपर एक योजनना २४ चोवीस भाग करीए तेमांना त्रेवीस भाग मूकी चोवीसमा भागे एक समयमां सिद्धिस्थानमां जीव विराजेछे त्यां गयानी आदिछे पण त्यांथी पडवानुं नथी माटे अंत नथी. माटे सादि अनंतमा भांगे सिद्धमा मुक्त थएल मुक्तात्मा रहेछे. नामकर्मना नाशथी आत्मा पोतार्नु अरूपीपद आविर्भावे करेछे. गोत्रकर्मना नाशथी आत्मा अगुरु लघुगुण प्राप्त करेछे. अंतराय कर्मना नाशथी आत्मा सहज जे अनंतवीर्य तेने प्रगट करेछे एम ए आठ कर्मना नाशथी आत्मा अष्टगुणने प्रगट करेछे. अने परमात्मारूपे थायछे, पंचमीगति मोक्ष तेनी प्राप्ति कर्मना क्षयथीछे, एम जीवने चारे गतियोमा जवानां कारणो बताव्यां तेमज पंचमीगतिमां जवानो मार्ग याने उपाय बताव्यो. आत्मा जे वर्तन चलावशे तेवी गतिमां जशे. ए स्पष्ट वात छे. क्यांधी आव्योने क्यां जाइश ? ए संबंधी विचार लख्यो, हवे पंचम विषय संबंधी विचार लखेछे. पंचमविषय-मनुष्य जन्मनी साफल्यता शाथी-पंचप्रगति साध्य क
रवाथी मनुष्य जन्मनी साफल्यताथायछे. पुण्यपापक्षयान्मुक्तिः पुण्य अने पापना क्षयथी मुक्ति पद मळेछे शुभ कर्मने पुण्य कयेछे अने अशुभ कर्मने पाप कथेछे. शुभ वा अशुभ कर्म पौदगलिक छे. बे प्रकारना कमने पण आश्रय कहेछे. शुपुण्य
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साधुनी क्रिया. भाश्रव कहेवाय छे अने पापने अशुभाश्रव कहेवाय छे. आत्माने अनादि कालथी आश्रय एटले कर्म लाग्युंछे, क्षीरनीरवत् आत्मा अने कर्मनो संबंध थयोछे. आत्माना असंख्याता प्रदेशो छे तेमां मति प्रदेशे अनंति कर्मनी वर्गणाआ लागीछे.. एकेक वर्गणा मध्ये अनंता पुद्गल परमाणुछे एम अनंता परमाणु जीव साथे लाग्याछे.. वर्णगंधरस अने स्पर्शमय परमाणुओनी वर्गणाओ जाणवी, जीवद्रव्यने लागेला परमाणुथकी अनंत गुणा परमाणुओ छूटाछे-कर्म सहित आत्मद्रव्य पण सत्ताथी सिद्ध परमात्मा समानछे. जीव द्रव्य नित्य पणछे अने अनित्य पणछे कछुछ के
गाथा.
निचानिच सरूवा, भावा सव्वेवि ताव तियलोए । उप्पाय विगम ठिइ धम्म, संगया ते पुणो एवं. ॥१॥ पुवभवपज्जएणं, विगमोइह भवगएण उप्पत्ती ॥ जीव दवेण ठिइ, निचा निच्चत्तमेवंतु ॥ २॥
नित्य अने अनित्य स्वरुपी सर्वे पदार्थो त्रिलोकमां वर्तता उत्पादव्यय अने ध्रौव्यता धर्ममय जाणवा, एक पदार्थमा उत्पादव्यय ध्रौव्यता केवी रीते थायछे ते घटावेछे- यथा जीवद्रव्यमा पूर्व भवना पर्यायनो विनाश अने आभवना पर्यायथी उत्पाद अने जीव द्रव्यत्वपणे धौव्यता एम ऋण धर्ममय जीव पदार्थ जाणवो, जीव द्रव्यमां गतिपर्यायथी उत्पाद व्यय ध्रौव्यता दर्शावी, आत्माना संसारावस्थामां अशुद्धपर्याय जाणवा वळी स्थूलदृष्टांते उत्पाद व्यय धौव्यता वर्णवेछे
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परमात्मदर्शन.
(२
)
गाथा. कुंडल विगमो मउडु पाओ कणगं अवठियं जहा ॥ तहसब्वेवि पयथ्था, जीवोनेओ पुणो एवं ।।१॥ __कुंडलरूप पर्यायपणे सुवर्गनो नाश अने तेनो ज्यारे मुकुट बनाव्यो त्यारे मुकुटरूप पर्यायपणे सोनानो उत्पाद, अने सुवर्णपणे धौव्यता कुंडलमां तेम मुकुटमां पण बनी रहीछे, सोनुं कायम बनी रहुं छे सुवर्णमां सुवर्णना पर्यायोनो एटले आकारोनो उत्पाद व्यय थया करेछे. तेम अत्र जीवद्रव्यमा पण अनंत गुणोनो उत्पात व्यय समये समये थया करेछे. एम धर्मास्तिकायद्रव्य, अधर्मास्ति काय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय अने उपचारे कालमां पण उत्पाद व्यय थया करेछे, अने ध्रौव्यतापणुं सदा अवस्थित छे, षड्द्रव्य द्रव्यार्थिकनयापेक्षया नित्य जाणवां अने पर्यायार्थिकनया. पेक्षया अनित्य जाणवां, जीवे धारण करेला मोटा शरीरमांवा नाना शरीरमां आत्माना असंख्यात प्रदेशो सरखा जाणवा-ते वात दृष्टांतथी दढावेछे
गाथा. संकोय विकोएहिं, पईवकंतिव्व मल्लगगिहेमु ॥ इथ्थिस्सव कुंथुस्सव, पएससंखा समाचेव ॥१॥ __ मृत्तिकाना नाना वा मोटा कुंडामां दीपकनी कांति संकोच अने विकाशे करी युक्त जेमछे. एटले नाना कुंडामां दीपकनी कांति संकोचपणे रहेछे, अने तेज पाछी दीपकनी कांति मोटा कुंडामां विकाशपणे रहेछे, तेम जीव पण हाथीनुं शरीर पामतां तेमां आत्माना प्रदेशोना विकाशथी सर्व शरीरने व्यापी रहेछे. रोम कुंथुवा शरीर जीव ज्यारे ग्रहेछे त्यारे तेटला शरीरमा जीवना असंख्यातपदेशो
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(31 ) भात्मज्ञानी कर्मनो माश. व्यापीने रहेछे. कर्म संयुक्त संसारी जीव शरीरमां वस्योछे तेनी अपेक्षाए नानामां नानुं अंगुलना असंख्यातमा भागनुं शरीर धारण करेछे माटे अंगुल असंख्यातमा भाग जेवडो आत्मा कहेवायछे. अने केवली समुद्घात करता जीव लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशो विस्तारेछे माटे तदपेक्षाथी लोकप्रमाण आत्मा कहेवायछे. मोक्ष दशामां आत्मा अक्रिय थवाथी एकरुपे आत्मानी स्थीति रहेछे. शुद्धबुद्ध सिद्ध परमात्मामां पण उत्पाद व्यय ध्रौव्यता बनी रहेछे. प्रश्न-हे सद्गुरो! संसारावस्थामां शरीर प्रमाणे आत्माना प्रदे
शोनो संकोच विकोच थायछे त्यारे आत्माना प्रदेशो एक
बीजा प्रदेशथी जुदा पडता हशे के केमप्रत्युत्तर-तेवी स्थितिमा जो के आत्माना प्रदेशोनो संकोच वि
काश थायछे तोपण प्रत्येक प्रदेशो एक बीजा प्रदेशोनी साये नित्य संबंधे संबंधितछे. तेथी आत्माना प्रदेशो संकोच विकाशताने पामेछे तोपण एक बीजाथी जुदा पडता नथी. अमिना तणखाओनी पेठे सर्वथा भिन्न आत्माना प्रदेशो जो पडे तो असंख्यात प्रदेश मळीने एक आत्मा कहेवाय नहीं, अने आत्मापणुं नष्ट. थइ जाय. माटे अरूपी आत्माना प्रदेशो संकोचविकाशने संसारी अवस्थामां पामेछे तोपण तादात्म्य संबंधे संबंधीत होवाथी कोइ कालमा जूदा पड्या नयी अने पडशे पण नहीं. एवो प्रदेशोमा स्वभाव रह्योछे ते केवलीना
ज्ञानगम्यछे, अनुभवीओ ए वातने सम्यग् अनुभवे छे. प्रश्न-आत्माना असंख्यात प्रदेशने ठेकाणे एक प्रदेश मानीए तो
कंह हरकत आवे; उत्तर-हा हरकत आवेछे, श्री सर्व महाराजे आत्माना असंख्यात
प्रदेश दीग छे तेथी एक प्रदेश केम मानी शकाय, हे शंका
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परमात्मदर्शन.
( २१५ )
वादी ने केवलज्ञान थयुंछे के एम कही शके. ना. त्यारे असंख्यात प्रदेश आत्माना छे एम श्रद्धा कर. मति कल्पनाथी कंइ काम थतुं नथी. बळी हे शंकावादी सूक्ष्मदृष्टिी समज के ज्यां आत्माना प्रदेशोछे ते आत्माना प्रदेशोने व्यापीने ज्ञान अनंतघणुं रछे, प्रति प्रदेशे अनंतु ज्ञान रछे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान अने केवलज्ञान ए पंचमांनुं कोइपण ज्ञान आत्माना प्रदेशोने त्यागीने रहेतुं नवी. हवे आत्मानो असंख्यात प्रदेश न मानीए नहींतो एक मोटो विरोध आवेछे.
शिष्य - हे सद्गुरो आत्माना असंख्यात प्रदेशो मानीए नहीं तो मोटो शो विरोध आवेछे- ते कृपा करीने कहो. सद्गुरु- प्रथमतो केवली केवलीसमुद्घात करेछे. लोकाकाश प्रमाण आत्माना प्रदेशो कर्मनुं परिशाटन करवा विस्तारेछे. अने कर्म भोगवी छे ते वातनो विरोध आवेछे एक प्रदेश लोकाकाश प्रमाण विस्तारातो नथी तेथी शी रीते कर्मनुं परिशाटन करे नागो पलाळे शुं अने नीचोवे शुं एवी वात थइ, वळी बीजो विरोध ए आवेछे वे. - ज्यारे चतुर्दशपूर्वी शंका पुछवा माटे आहारकशरीर, लब्धिथी बनावी सीमंधर स्वामी पासे मोकलेछे त्यां जइ ते शरीर शंका पुच्छी तीर्थंकर सीमंधरस्वामी पासेथी उत्तर लेइ जलदी आवेछे. हवे कहो केपूर्वी बनावीने मोकलेलुं जे आहारक शरीर तेमां आमाना प्रदेशो खरा के नहि ? शिष्य - हा सद्गुरो ते आहारक शरीरमां आत्माना प्रदेशो होवा जोइए - जो ते आहारक शरीरमां आत्माना प्रदेशो न होयतो ज्ञान बिना भगवान्ने प्रश्नशी रीते पूछे. अने भगवान्
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( २१६ )
चतुर्थ विषय विचार,
वाणीथी उत्तर आपे ते आहारक शरीरमां आत्माना प्रदेशोना होयतो समजी शकाय ते विना उत्तरनो अर्थ शी रीते समजे अने उत्तर अमुक प्रकारनो छे ते कोण धारण करी शके-माटे अवश्य आहारक शरीरम् ! आत्माना प्रदेशो मानवाज जोइए. श्री तीर्थंकर भगवाने जे वात कही छे. ते सत्यज छे-अनंतज्ञानी सर्व पदार्थनुं बराबर स्वरूप जाणेछे. सुगुरु-ज्यारे चउदपूर्वीए आहारक शरीर अत्रथी बनावी महाविदेह क्षेत्रमां मोकल्युं त्यारे - बे शरीर थयां एकतो चउदपूर्वी नुं सात धातुयी बनेलु औदारिक शरीर अने बीजुं महाविदेह क्षेत्र मोकलेलं आहारक शरीर.
वे बने शरीरमां आत्माना प्रदेशो खरा के नहीं
शिष्य हा गुरुजी बने शरीरमां आत्माना प्रदेशो छे. औदारिक शरीरथी तो चंद्र पूर्वी व्याख्यान वांवेछे. ते समज त्यां पण ज्ञान छे. नहीं तो व्याख्यान शी रीते बंचाय. वळी समजनुं के - यत्र यत्रज्ञानं तत्र तत्र आत्म प्रदेशाः ज्यां ज्यां ज्ञाननो सदुभाव छे त्यां त्यां आत्माना प्रदेशी जाणवा. बन्ने शरीरमां जो आत्ममदेशो होय नही तो बने शरीरमां ज्ञान होय नहीं माटे बने शरीरमां ज्ञानथी आत्माना प्रदेशो छे एम नक्की यथार्थ सिद्ध स्पष्ट मालुम पडयुं.
सुशुरु - हवे ते बन्ने शरीरमां आत्ममदेशो छे एम सिद्ध थयुं. हवे समजो के एक प्रदेशी आत्मा होय तो बन्ने शरीरमां ज्ञाननो सद्भाव शी रीते होय, एक प्रदेश जो आत्मानो होत तो एवो बनाव बने नहीं. अने लब्धिथी बीजां शरीर धारण करवामां aist आवे. वैक्रिय शरीर पण धारण करी शकाय नहीं. आत्माना असंख्य प्रदेशो मान्या सिवाय बन्ने शरीरमां जाणवा
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परमात्मदर्शने.
( २१७ )
पणुं घटे नहीं. एम पण सिद्ध थयुं. चउदपूर्वीना आहारक शरीना दृष्टांतथी बने शरीरमां आत्मप्रदेशो असंख्याता ले एम सिद्ध युं अने एक प्रदेशआत्मानो मानवामां बाध आवेछे से पण सिद्ध कर्यु. युक्त अने युंजान योगियो पण अनेक शरीर धारण करे छे तेमां पण आत्माना असंख्य प्रदेश जाणवा. तीर्थकर महाराजे लोकाकाश प्रमाण आत्माना प्रदेशो काले ते वात पण सिद्ध ठरी, अने ते सिद्धले. हवे आत्माना प्रदेश संबंधी वर्णन करेल. आत्माना एकेक प्रदेशे अनंता पर्याय रह्याछे, ज्ञान पण प्रति प्रदेशे अनंतु सदाका ल शाश्वत समये समये वर्तेछे.
प्रश्न - आत्माना दरेक प्रदेशे जुदु जुदु अनंतज्ञान छे एम मानीए तो एक प्रदेश जुद जाणवारूप कार्य करे. त्यारे आत्मानो कंइक जुद जाणवारुप कार्य करे. त्रीजो प्रदेश वळी कंह जुद्द जाणे. त्यारे एक जाणनार आत्मा रह्यो नहीं.
छे
उत्तर - जो के आत्माना प्रत्येक प्रदेशे अनंतज्ञान सत्ताभावे तो पण असंख्यात प्रदेशो मळी एक उपयोग वर्तेछे, पण प्रत्येक प्रदेशनो जुदो जुो उपयोग वर्ततो नथी ते कंइ बाथ आवतो नथी. असंख्य प्रदेशो मळी एक आत्मा कहेवायछ, माटे आत्माप नष्ट थतुं नयी. असंख्यप्रदेशो मळी एक समये निर्मल सिद्धात्माने एक उपयोग होयछे तेथी एकन आत्मा जाणवो.
कोइक आचार्य युगपत् उपयोग मानेछे तथा चतत्पाठः
गाथा.
hs भांति जगवं, जाणइ पासइ केवलीनिअमा ॥ अन्ने एगंतरि, इच्छांत सुउव्वसेणं ॥ १ ॥
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(२१)
आस्मंस्वरूप. __ केचित् सिद्धसेनाचार्य वगेरे कहेछे के-युगपत् एककालावच्छेदन केवल ज्ञानी जाणेछे देखेछे-अन्ये जिन भद्रक्षमाश्रमण वगेरे एक समये केवल ज्ञानी जाणेछे अने बीजा समये देखेछे. एटले एक समये ज्ञानापयोग अने वीजा समये दशनापयोग एक क्रमवर्तिपणे इच्छेछे-आगमना अनुसारे तेम इच्छेछे. आबे पक्षनी नंदिसूत्रमा घणी चर्चाछे. त्यांधी विस्तार विशेष जोइ लेवो. जिज्ञासु-केवल ज्ञान विना मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी,
मनःपर्यव ज्ञानीने एक समये ज्ञानोपयोग अने बीजा समये
दर्शनोपयोगे होय के गही. सुगुरु-केवलज्ञानी विना बीजा ज्ञानवानाओने एक समये ज्ञानो
पयोग अने बीजा समये दर्शनोपयोग व्यक्त होतो नथी. जिज्ञासु--आत्मज्ञानना छतिपर्याय अने सामर्थ्य पर्याय केवी रीते
समजवा ? सुगुरु-आत्माना असंख्यात प्रदेश पैकी प्रतिपदेशे छतापणे अ
नंत अनंत ज्ञान रडुं छे ते ज्ञाननो त्रिकालमां कदीपण नाश थनार नथी. ते ज्ञानना छतिपर्याय नाणवा, अने ज्ञानमां ज्ञेय पदार्थनो भासनपणो तेथी ज्ञानना सामर्थ्य पर्याय जाणवा. ज्ञेयपदार्थो अनंताछे. अने ते समये समये ज्ञानमा भासेछे, माटे ज्ञेय जे अनंत पदार्थो तेनी भासता कार्य करणशक्तिवाला जे ज्ञानना पर्यायो ते ज्ञानना सामर्थ पर्याय जाणवा. छति पर्यायथी सामर्थ्य पर्याय अनंत गुण विशेष जाणवा. सामर्थ्य पर्याय ते कार्यरूपछे. तथा च महाभाष्ये-यावतो ज्ञेयाः तावंत एवज्ञानपयार्याः ते च आस्तरूपाः प्रतिवस्तुनि अनंताः ततोप्यनंतगुणाः सामर्थ्यपर्शयाः जेम एक दोरडो,
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परमात्मदर्शन.
(२१९) शत एटले सो तांतणानो छेते अविभागपणे छता पर्यायछे अने ते दोरडाथी अनेक कार्य थाय, अनेक वस्तुओ बंधाय अने ते अनेकने आधार थाय. तेने सामर्थ्य पर्याय कहीए, छतिरूप जे पर्याय तेतो वस्तुरूपछे. अने सामर्थ्य पर्याय तो प्रवर्तन रूप एटले कार्यरूछे. तेम अत्र ज्ञानना छति पर्याय
मां अने सामर्थ्य पर्यायमा पण समजवूजिज्ञासु-श्री सर्वज्ञे षड्व्यनी बहार कोइ वस्तु नथी एम कथ्यु
छे अने नैयायिक शोळ पदार्थ कहेछे. तेनुं केम ? सुगुरु-षड्द्रश्यरूप छ पदार्थोनी अंदर शोळ पदार्थनो समावेश
थायछे. तेथी छ पदार्थ सत्य जाणवा. प्रथम नैयायिक प्रमाणने भिन्न पदार्थ कहेछे ते युक्त नभी कारण के प्रमाण जेटलांछे तेटलां ज्ञानछे अने ज्ञानतो आत्मानो गुणछे तेने भिन्न पदार्थ कहेवाय नहि. प्रमेयपणुं पण षड्द्रव्योनी बहार नथी. बीजा प्रयोजन सिद्धांतादिक ते सर्व जीवद्रव्यनी प्रवृत्ति
जाणवी माटे भिन्न पदार्थ कहेवाय नहीं, जिज्ञासु--वैशेषिक द्रव्यगुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय
अने अभाव ए सात पदार्थ कहेछे. तेनो षड्ट्रव्यनी अंदर स. मावेश थायछे के षड्द्रव्यथी भिन्न पदार्थछे तेनी यथार्थ स्प
ष्ट समजणं आपो. सुगुरु-हे जिज्ञासु स्थिर दृष्टि राखी सांभळ. गुणने पदार्थ बीजो
कहेवाय नहीं. गुण तेतो द्रव्यमा रह्याछे. तेथी गुणने भिन्न पदार्थ कहेवाय नहीं, तथा कर्म ते द्रव्यर्नु कार्यछे तथा सामा न्य विशेष ए बे तो द्रव्य मध्ये परिणमनछे. वळी समवायने पण द्रव्यमां समायछे, अने अभावतो अछताने कहवाय ते अछताने पदार्थ मानवो घटतो नथी अभावछे
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(१०) वैशेषिक दर्शन पदार्थनो षड्व्य मा समावेश
ते वस्तुनो व्यतिरेक धर्मछे माटे वैशेषिक मतपण षड्द्रव्यमां समाइ जायछे. वळी वैशेषिक द्रव्यना पृथिवी अप, तेज वायु आकाश. काल, दिशा, आत्मा, मन ए नव भेद कहेछ. ते संबंधी समजवु के-पृथ्वी, अप, अग्नि वायु एतो एकद्रिय जीव जाणवा, पृथ्वीरूप शरीर धारण करी जे जीवो रबाछे ते पृथ्वीकायना जीवो समनवा, अने शरीरतो पुद्गल द्रव्यमां आव्यु. एम ए चार पण आत्मद्रव्य ठयो. पण कर्मयोगे शरीर भेदे नाम जुदां पडयांछे. दिशीतो आकाशमा मळी जायछे अने आकाश ए आकाशास्तिकाय द्रव्य जाणवू. मनते आत्मानुं संसारपिणामां उपयोग प्रवर्तवानुं द्वारछे तेथी ते भिन्न द्रव्य कहेवाय नहीं. वैशेषिक मतवादी सामान्य विशेष ए बेने भिन्न पदार्थ मानेछे ते पण युक्त नथी
गाथा. तथाहि सकलशास्त्रे पक्षद्धयं, जातिपक्षो व्यक्तिपक्षश्च तत्रजातिः सामान्य व्यक्तिस्तुविशेषः इतिवचनात् सामान्येतुसर्वेषामेव नित्यत्वं सत्ताप्रतिपादनपरत्वात् यथागोत्वाश्वत्वादिकं नित्यं नतु गैर श्वोवानित्यः व्यक्तिपक्षेत्वनित्यमेव यस्तुजातिपक्षः सत्वस्माकं जैनानां द्रव्यार्थिकनयः व्यक्तिपक्षः स्त्वस्माकं पर्यायार्थिकनयः
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परमात्मदर्शन,
(२२)
___ भावार्थ-सकलशास्त्रमा पक्ष बेछे. १ जातिपक्ष २ बीजो व्याक्तिपक्ष जाति एटले सामान्य अने व्यक्ति एटले विशेष. एवा वचः नथी जाणवू. सामान्ये एटले जातिपक्षमा सर्व पदार्थोनुं नित्यपणुं जाणवू कारणके जातिपक्ष सतानुं प्रतिपादन करवामां तत्परछे ते हेतुथी जेमके गोत्व, अश्वत्त, गायपणुं अने अश्वर' ए नित्यछे. पग व्याक्तरूप जे गौ घोडो ते अनित्य छे. जे आ जातिपक्ष ते जैनोनो द्रव्यार्थिक नयछे. अने जे व्यक्तिपक्षछे. तेज जैनोनो पर्यायार्थिक नयछे. जातिपक्ष द्रव्य ग्रहण करेछे अने व्यक्तिपक्ष पर्या योन ग्रहण करेछे. जातिपक्ष ए सामान्य अने व्यक्तिपक्ष ए विशेष छे माटे ते बेनो नयमा समावेश थवाथी सामान्य विशेष षड्व्य थी भिन्न पदार्थ नथी. जिज्ञासु-पृथिवी, अप, तेज, वायु, ए चार विना बाकीनां पंच
नित्य कह्यांछे. तो जैनोना स्याद्वादपक्ष प्रमाणे निय अनित्य ए बे पक्ष प्रत्येक द्रव्यमां घव्या नहीं. ने तमो घटावोछो
ते केवी रीते ते समजावो । सुगुरू-हे भय सांभळ, प्रत्येक वस्तुमा ज्ञानदृष्टिथी जोतां नित्य
अने अनित्यपणुं रह्यं छे. पृथिवी, अप, तेन अने वायु कार्यरूप न्यायशास्त्रमा अनित्य कयांछे अने परमाणुरूप नित्य कह्यांछे. आकाश स्वस्वरूपे त्रगकालमा एकरूपछे माटे तदपेक्षया नित्यछे. अने=घटाकाशोनष्टः पटाकाशोनष्टः) घटा. काश नष्ट थयु. पटाकाश नष्ट थयुं, एवी रीते घटपटनी उप.धियी अनित्य पक्षपणुं आकाशमां आव्युं. दिशाकालमां पण तेवी रीते नित्यानित्यपणुं घटयु=आत्मापितस्यमते सचदेहेंद्रियव्यतिरिक्तः विभुनित्यश्चेति ववनात् तत्र कौंडिन्य त्यायेन पारिशिष्यानुमानेन देहाश्रितोनित्यएवेति-मात्मा
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( २१२ )
प्रायश्चित हे.
पण वैशेषिकना मतमां देवकी भिन्न जे आत्मा ते विभु अने नित्यछे त्यां कौडिन्य न्यायवडे जोतां देहमां रहेलो आत्मा अनित्य कह्यो छे. स्याद्वाद मतमां अशुद्र पर्याये तथा शुद्धपर्याये आत्मा नित्यानि स्वीकार्य छे. मनमां पण नित्यानित्यपरशुं छे. देहना अनित्यपणाथी मननुं पण अनित्यपणं जाणवुं देवाश्रितंमनः देहाश्रित मन माटे, पुद्गलरूपे देनुं पण नित्यपणुं छे तेम मननुं पण पुद्गलरूपे नित्यपणुं छे. पुद्गल परमाणुओमां पण द्रव्य थिंकनयनी अपेक्षार नित्यपणुं छे. कारण के परमाणुरूप पुद्गलनो कदी त्रिकालमां पण नाश थतो नथी तेप पुद्गलरूप परमाणुओमां पण वर्ग, गंध, रस अने स्पर्श समये समये फर्या करेछे माटे पर्यायार्थिकनयनी अपेक्षाए तेमां अनित्यपणुं जाणबुं. • जिज्ञासु - स्याद्वाद एटले शुं ? ते समजावो.
सुगुरू- एकस्मिन् वस्तुनि विरुद्धधर्मद्वय समावेशः स्याद्वादः एक वस्तुमां परस्पर विरुद्ध बे धर्मनो समावेश ते स्याद्वाद जाणवो अथवा वस्तु स्वरूप प्रतिपादन पर: विकल्पः स्याद्वादः भावार्थ - वस्तुनुं यथार्थ स्वरूप प्रतिपादन करवामां पर एवो श्रुतनो विकल्प स्याद्वाद जाणवो अथवा विरूद्धधर्मद्वय प्रतिपादन परोवक्तुरभिप्राय विशेषः स्वाद्वादः अथवा तो एक वस्तुमां विरूद्ध धर्म वेने प्रतिपादन करवामां तत्पर एवो वक्तानो अभिनाय विशेष तेने स्याद्वाद जाणव े तथा एकस्मिन् जीवाजीवादौ विरूद्धयद्वर्म द्वयं नित्यानित्यास्तित्व नास्तित्वोपादेयानुपादेयाभिलाप्यानभिलाप्यादि लक्षणं तस्य समावेशः समाश्रयः स्याद्वाद इत्यर्थः तथा जीव अजीव आदि पदार्थमां विरुद्ध जे धर्मद्वय - नित्य
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परमारमदर्शन. अनित्य तेम अस्तित्व नास्तित्व तथा उपादेय, अनुपादेय तेमन अभिलाप्य अने अनभिलाप्य धर्मनो समावेश, ए विरूद्ध धर्मोनी स्थिति तेनुं नाम स्याद्वाद जाणवू.
ए प्रमाणे स्याद्वादनुं लक्षण कही प्रस्तुतविषय वर्णन करीए.
तथा वेदांती सांख्य ते एकज आत्मा अद्वैतपणे एकज द्रव्य मानेछे, ते पण युक्ति युक्त नथी. केमके शरीरजे आ चर्मचक्षुथी देखायछे वा औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस अने कार्मण ए पंच प्रकारनां शरीर तो पुद्गलास्तिकायपणेछे माटे रूपीछे, तेमज पुद्गल द्रव्यना स्कंधो जे जुदी जुदी आकृतिरूपेछे ते एक केम थाय. तथा आत्मा अने शरीरनो आधार ते आकाश जाणवू. अवगाहो आगासं इति वचनात्. बीजा द्रव्योने रहेवा अवकाश आपको ते आकाशनुं लक्षणछे अने ते सर्वत्र प्रसिद्धछे. ते आकाश द्रव्यने जुदुं मानवु जोइए. आत्मा भिन्न ठो. पुदगलद्रव्य भिन्न ठयु. आकाशद्रव्य भिन्न ठयु. तो एकज आत्माछे आत्मा विना अन्य वस्तु नथी. एवो अद्वैतवाद सिद्ध ठर्यो नहीं. वळी अद्वैतवादमां एकज आत्माछे. पण अनेक आत्मा नथी एवं मनायछे. तो अनेक आत्मानी शास्त्र युक्ति, अनुभवथी सिद्धि आगळ करवामां आवशे. अद्वैतवादी आत्मानुं अस्तित्त्व मानेछे माटे ते वादनो समावेश आत्मद्रव्यमां करवामां आवेछे, माटे षद्रव्यनी बाहार कोई वस्तु नथी एम सिद्ध ठयु.
षड् द्रव्यनी अंदर बौद्धदर्शननो समावेश.
बौद्धदर्शनने समये समये नवा नवापणे आकाश १ काल २ जीव ३ पुद्गल ४ ए चार द्रव्य मानेछे. ते वादी प्रति कहेवार्नु केजीव अने पुद्गल एकज क्षेत्रे केम रहेता नथी. ते तो चलनादिभाव पामेछे. माटे लेना अपेक्षाकारणरूप, धर्मास्तिकाय अने अधर्मा
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(२५)
अन्य दर्शननो जैन तत्वमा समावेश.
स्तिकाय. ए बे द्रव्य पण मानवां जोइए. तथा केटलाक संसार चक्रनो कर्ता एक परमेश्वर मानेछे. ते पण मृषा समजवू. निर्मल राग द्वेषातीत प्रभु, विभु, परमात्मा, परना सुख दुःखनो कर्ता थाय नहीं. वळी जगत्कर्ता इश्वर नथी. एनो विस्तार अग्रे कर वामां आवशे. हाल तो आत्मानुं स्वरूप वर्णवनांप्रसंगे अन्य चर्चा चाली. हवे आत्म स्वरूप विषयतुं वर्णन करीए. आपणे नक्की समजवू के आत्मद्रव्य बीजां पंचद्रव्यथी न्यारुछे. अनादि कालथी अशुद्ध परिणतियोगे पुद्गलद्रव्यने परमाणुओ तेना स्कंधो कर्मरूप परिणमी आत्मानी साथे क्षीरनीर पेठे परिणम्युंछे. मन, वाणी, लेश्या, शरीर, संस्थान ए सर्व पुद्गल समजवु. अष्टकर्मनी वर्गणाओ पण पुद्गलछे.
अष्ट वर्गणानुं स्वरूप लखेछे. औदारिकवर्गणा, वैक्रियवर्गणा, आहारकवर्गणा तेजसवर्गणा, भाषावर्गणा, श्वासोश्वासवर्गणा, मनोवर्गणा, कार्मणवर्गणा, बे परमाणु भेगा थाय त्यारे द्वयणुक स्कंध कहेवायछे. त्रण परमाणु भेगा थाय त्यारे व्यणुक स्कंध थाय. एम संख्याना परमाणु मिले त्यारे संख्याताणुकस्कंध थाय. तेमज असंख्याता परमाणुआ भेगा थाय त्यारे असंख्याताणुकस्कंध थायछे, तथा तेमज अनंतपरमा णुओनो स्कंध थायते अनंताणुकस्कंध थाय, एटला सर्व स्कंध ते जीवने ग्रहण करवा लायक नथी, पण ज्यारे अभव्यथी अनंतगुण अधिक परमाणुओ भेगा थइ जे स्कंध थाय. त्यारे तेनी औदारिक शरीरने लेवा योग्य वर्गणा थाय.
एमज औदारिकथी अनंतगुणा अधिकवर्गणामां दल भेगा थाय. तेवारे वैक्रियवर्गणा थाय. वळी वैक्रियथी अनंतगुणा परमाणु मळे त्यारे आहारकवर्गणा थाय एम सर्व वर्गणाना एकेकवी
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परमात्मदर्शन.
(१२५) अनंतगुणा अधिक परमाणु मले त्यारे उपरनी वर्गणाओ अनुक्रमे थाय एटले पहेलीथी बीजी वर्गणा. बीजीथी त्रीजी, त्रीजीथी चोथी, अने चोथीथी पांचमी,अने पांचमीथी छठी,छठीथी सातमी,मनोवर्गणा थी आठमी कार्मण वर्गणामां अनंतगुणा परमाणु अधिक जाणवा आठ वर्गणाओमां औदारिक, वैक्रिय, आहारक, अने तैजस, ए चार वर्गणाओ बादरछे. ए चारवादर वर्गणाओमां पांच वर्ग वे गंध, पांच रस, अने आठस्पर्श, ए वीश गुग जाणवा. तथा भाषावर्गणा. श्वासोश्वास वर्गगा तेम मनोवर्गणा ए चार वर्गणा सूक्ष्मछे, ए चार सूक्ष्मवर्गणामां पांच वर्ण, वे गंध, पांच रस, अने चार स्पर्श, ए सोल गुण रहाछे, अने एक परमाणुमा एक वर्ण एक गंध, एक रस, अने बे स्पर्श, ए पांच गुणछे. ए अष्ट वर्गणा संसारी आत्माने लागीछे. अने तेमां पण समये समये उत्पाद व्ययधुवता परिणमी रहीछे. ते वर्गगामां पण अगुरू लघुथी षड्गुण हानिद्धि समये समये परिणमी रहीछे. ए आठ वर्गणामां आत्मानुं कंइनथी. पुद्गलद्रव्य अने आत्मद्रव्य बे भेगां थइ परिणमेछे-पुद्गल परमाणुआ अनंतछे. हवे प्रसंगे पुद्गलनुं स्वरूप लखेछे -
पुद्गलस्वरूप, वर्गादिक गुणो वृद्धि पामे. गळी जाय. खरी जाय एवो जेमां स्वभावछे. तेने पुद्गलास्तिकाय द्रव्य जाणवू. मूलद्रव्य पुद्गलास्ति. काय परमाणुरूप अवबोधकुं-द्वयणुक आदि जेटला स्कंधछे तेनुं मूल कारण जाणवू. एटले घट,पट, दंड, चक्र, वस्त्र, पात्र, कपाट, इंट, प. त्थर. आदि पुद्गलनी आकृतियो- मूळ उपादान कारण परमाणुओ छे.तेवा रूपे परमाणुआ परिणम्याछे, बीना पण तेमां निमित्त आदि कारणो मळेछे. छ प्रकारनां पुदगल स्कंधो छ १ बादरवादर २ बादर ३ बादरमुक्ष्म ४ सूक्ष्मवादर ५ सूक्ष्म ६ सूक्ष्मसूक्ष्म..
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पुद्गस्वरूप.
१. पुद्गलपिंडना ने खंड कर्यं पोते फरी मळे नहीं ते काष्ट पा पाणादिक बादर बादर भेद प्रथम जाणवो.
२ पुद्गल स्कंध खंडखंड कर्या पोतानी मेळे परस्पर एकमेक थ जाय एवां दुग्ध, घी, तेल वगेरेने बादर कहे छे.
३ जे पुद्गल स्कंधो देखवामां स्थूल होय - खंडखंड करवामां आवे नहीं हस्तादिकथी ग्रहण थाय नहि, एवा धूप, चंद्र, चांदनी, आदिपुद्गलवादरसूक्ष्म कथाय छे. छायातम पुद्गलो पणजाणव. ४ जे स्कंधो सूक्ष्मछे किंतु स्थूलोपलंभ होय. स्पर्श, रस, गंध वर्ण, शब्द विगेरे सूक्ष्म बादर जाणवा.
५ जे पुद्गल स्कंधो अति सूक्ष्मछे इंन्द्रियोना ग्रहवामां आवता नयी एवा कर्मवर्गणादिक सूक्ष्मपुद्गल कहेनायछे.
६ कर्मवणाओथी पण अतिसूक्ष्म द्वयणुकस्कंध आदि सूक्ष्मसूक्ष्म कहेवाय छे.
पूर्वोक्त स्कंधोनुं मूलकारण परमाणुछे, परमाणु शब्दरहीतछे जोके स्कंधोना मिलापथी शब्दरूप पर्यायने धारण करेछे तो पण व्यक्तरूप शब्दपर्यायथी रहीत छे. वळी परमाणु अविभागी एटले भाग रहीत छे. पृथिवी, अप अग्नि, वायु ए चारनुं कारण परमाणुआछे अर्थात् पृथिवी अप अनि बायु ए चार भूतो पण परमाणुओधी पेदा थायछे. वळी परमाणु परिणमन भाववाळोछे. परमाणु अशब्द छे तोपण शब्दतुं कारणछे. परमाणु पोते द्रव्यछे अने तेमां वर्ण, गंध रस अने स्पर्श ए चार गुणोछे अने ते मूर्त कवायछे. पृथिवी जाति परमाणुओमां चारे गुणोनी मुख्यता छे. जलयां गंध गुणनी गौणता, अने बाकना त्रय गुणोनी मुख्यताछे. अग्निगां गंध अने रस गुगनी गौणता, अने स्पर्श वर्गनी मुख्यताछे. वायुमां त्रण गुणोनी गौणताछे, अने स्पर्श गुणनी मुरुपता छे.
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परमात्मदर्शन,
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इन्द्रियो वडे उपभोग्य पदार्थो, तथा पांच प्रकारनी द्रव्येन्द्रिय तथा औदारिक वैक्रिय आहारक तेजस अने कार्मण ए पंच प्रकारनां शरीर तथा पौद्गलीक द्रव्य मन तथा द्रव्यकर्म नोकर्म विगेरे मूर्त पदार्थ पुद्गल द्रव्य जाणवुं. ए पुद्गल द्रव्य द्रव्यार्थिक नयी शाश्वतछे, अने पर्यायधिक नययी अशाश्वतछे. वस्तुतः पुद्गल द्रव्ययी आत्मा न्यारोछे, परपरिणति परिणामी थतां पुद्गल ग्राहक पुद्गल भोगी थए छते प्रति समये नवा कर्म बांधवे संसारी थयाछे, ज्यारे आत्मा स्वस्वरूप ग्राहक तथा स्वस्वरूप भोगी थाय त्यारे सर्वकर्म रही यह परम ज्ञानमयी परम दर्शनमयी परमानंद मयी सिद्ध, बुद्ध अगारी, अशरीरी, अयोगी, अलेशी, अनाकारी, निःप्रयासी, अविनाशी, अज, अविचल, विमल स्वरूप, सुखनो भोगी सिद्ध परमात्मा थाय, माटे सर्व जगत् जीवनी अॅठतुल्य पुद्गलना भोगनो त्याग करी स्वआत्मा स्वरूप भोगी पणाना रसीया थइ स्वस्वरूप अनुयायी चेतना योगे निजगुण स्थिरतारूप चारित्रनी प्राप्ती करवी. एज मनुष्य जन्म पाम्यानी साफल्यता जाणवी. षष्ठ विषय- धर्म क्यों रहेछे अने तेना हेतुओ कोण; विचार-संसाररूपी कूपमां पडता प्राणिओने धारी राखे तेने
धर्म कहेछे. धर्मना वे भेदच्छे व्यवहारधर्म अने निश्चयधर्म, प्रश्न - ज्यारे धर्म एकजछे, त्यारे तेना वे भेद केम कथन कर्या. उत्तर - जो के आत्मा मां स्थित धर्मरूप कार्य निश्चयता कारण विना
थती नथी. माटे सर्वज्ञ प्रभुए व्यवहार धर्म अने निश्चयधर्म ए मकानो धर्म कथ्योछे. व्यवहारथीजे धर्मछे ते निश्चय जे शुद्ध आत्मिक धर्म तेने प्रगटाववामां कारण छे. व्यवहार धर्म ते साधनछे अने आत्मिक धर्म ते साध्यछे. माटे कारण कार्यनी सापेक्षता ए वे भेदछे,
धर्मना पण
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आत्मज्ञानभी कर्मनो नाश.
प्रश्न- निश्चय नयी शुद्ध आत्मानोज ज्यारे धर्मछे तो व्यवहार धर्म आदरवानुं शुं कारण छे. एक फक्त निश्चय आश्मिक धर्म आदरवो जोइए.
उत्तर - व्यवहारधर्म विना निश्चयधर्म प्रगट थतो नथी. जेमके - बाजरीना दाणtni उगवानी घणी सारी शक्ति रहीछे तोपण ज लनो संयोग थतां उगी नीकळे छे. तेम व्यवहारधर्म विना निश्चय धर्मनी प्राप्ति थती नथी
प्रश्न - मरुदेवी माताए व्यवहारधर्म आदर्यो नहोतो. तेम छतां केम तेमने निश्चय आत्मधर्मनी सिद्धि थइ.
प्रत्युत्तर - कारण विना कार्यनी निष्पत्ति थती नथी. तो अवश्य समज. जोके मरुदेवी माताए देशथीना सर्वथी चारित्र ग्रं नहोतुं . तोपण व्यवहारधर्मने अवलंव्यो हतो तेथीज निश्चय आत्मिक धर्मने प्रगटाव्यो.
जिज्ञासु -हे सद्गुरो मरुदेवी माताए कयो व्यवहार धर्म आदर्यो हतो. ते समजावो.
सुगुरु- मरुदेवी माता प्रथम श्री रूषभदेव भगवान्ना दर्शन करवा arei ए पण व्यवहारधर्मछे तेमज मरुदेव माताए मनवचन अने काया एत्रण योगनी गुप्ति करी, एटले मनवचन अने कायाना व्यापारोने परभावमा जता अटकाव्या. धर्म ध्यान ध्यायुं ते रुप व्यवहारथी उत्तम ध्याने चडयां. शुक्ल ध्यानध्यायी अंतकृत् केवली थह मोक्षमां गयां पुत्रमेम नाश थवानुं कारण मरुदेवी माताने समवसरण थयुं. ते पण व्यवहार, तेमज तेथी संसारनी असारता उद्भवी, ते पण व्यवहारथी उत्पन्न थइ. मनवचय कार्याना खराब आथवना व्या पार रोक्या. अलबत धर्मध्याना दिध्यावतां रोकाणा, पश्चात् शुक्ल ध्यान ध्यावतां निश्चय आत्मिक धर्म प्रगटयो, ते आत्मिक धर्म
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परमात्मदर्शन.
( २२९ )
रूप कार्यां मनवचन कायानी गुप्ति तथा धर्मध्यानरुप व्यवहार धर्म मरुदेवी माताने थइ गयो, मनोगुप्ति वचनगुप्ति अने काया गुप्तरुप तथा धर्मध्यानरुप व्यवहारधर्मने कारणता निश्चयधर्म रूप कार्यमांछे, व्यवहारधर्म घणा प्रकारेछे. तेनी विचित्रता
गुरुना मुखथी सांभळी अनेकांतधर्म ग्रहवो. वळी भरतराजाने पण धर्मध्यानरूप व्यवहारधर्म केवल ज्ञान प्रगटवामां निमित्त कारणीभूत हतो. निश्वर्य धर्मतो अरूपीछे, ते व्यवहार धर्मनी मदतथी प्रगट थाय छे. उपादान कारणनी शुद्धिमां निमित्त कारण वलवत्तरछे, एम समजनुं सारांश के मरुदेवी माता वा भरत चक्रवर्ति पण नीचला गुणठाणानुं छोडनुं अने उपरना गुणठाणे चढवुं ते रूप शुद्ध व्यवहार पाम्यां हतां. जिज्ञासु प्रश्न जो एमछे तो व्यवहारधर्म कोने कहेछे ते समजावो. सुगुरु- पंच महाव्रत उच्चरवां. सर्व विरतिधर्म देशविरतिधर्म अलबत
साधुधर्म. श्रावकधर्म ए व्यवहारणी धर्म जाणवो. ए व्यवहाधर्म निश्चयधर्मनी प्राप्ति करावी आपेछे. निश्वयथी संपूर्ण निरावरण परमात्मपदनी प्राप्ति कराव्या बाद व्यवहार रहेतो नथी. शिष्यप्रश्न - आत्मा परमात्मारूप थाय तेमां कयां कयां कारणोनी
जरुरछे.
सुगुरु-उपादान कारण. अने असाधारण कारण अपेक्षाकारण निमित्तकारण. ए चार कारणथी कार्यनी सिद्धि थायछे. शिष्यप्रश्न - आत्मा सिद्धपणुं पामे तेमां पाये तेमां उपादान कोने
समजवुं.
सुगुरु - सिद्धतारूप कार्य ते आत्मानुं अभेद स्वरूपछे. सिद्धतारुप कार्यनो कर्त्ता आत्मा पोतेजछे अने सिद्धपणुं आत्मानुं कार्य समज. अधुना सिद्धता प्रगटावबी तेज कर्तव्यधर्मछे, सिद्ध
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( २३० )
साधुनी क्रिया.
arरुप कार्यनी रुचि विना अनंतकाल संसारमां परिभ्रमण थयुं. अने अज्ञान रागद्वेषयोगे पोताना धर्मथी भ्रष्ट बन्यो, हवे आमानो मूलधर्म भासन थयो तेथी हवे ते कार्यनी सिद्धि करवी. एम निर्धार करी तदनुगत चेतना वीर्यथी स्वस्वरुप कार्यनी - पजावे प्रथम तो अंशधी आत्मा कर्त्ता थाय. पश्चात् आत्मिक गुणोनी आविर्भावता थतां संपूर्ण कर्त्तापणुं पामीने परमात्मरुप कार्य नपारे एवी सिद्धतानुं उपादान कारण पोतानी सतागत ज्ञान दर्शन चारित्र वीर्यादिक अनंतागुण छे. तेज उपा दान कारणपणे जाणवा. उपादान कारणरूप जे ज्ञानदर्शन चारित्र अने वीर्यछेरो कार्यथी भिन्न नथी, अने तेज कार्यरूप परिणामेछे. माटे तेने उपादान कार्य कहेछे, आत्मानाधर्म छे तेमां पण ज्ञानदर्शन चारित्रनी मुख्यता जाणवी. शिष्य - हे गुरुजी असाधारण कारण कोण समज. सुगुरु-उपादान कारणथी जे अभेद स्वरूपेछे. अने जे कार्यप
पातुं नथी एटले कार्य संपूर्ण उत्पन्न थतां जे रहेतुं नथी तेने असाधारण कारण कहे. घटरूप कार्यनुं उपादानका मृत्तिका छे. मृत्तिकाछे. तेज घटरूपे थायछे, तेतेो वाचकने लक्ष्यमां आव्युं हशे हवे असाधारण कारणनुं दृष्टांत कहे छे. जेमके घटरूप कार्य थतां स्थास, कोस, कुसलाकारजे थायछे. ते मृत्तिका पिंडरूप कारणथी अभेदछे परंतु घटरूप कार्य थतां ते असाधारण कारण स्थास कोस कुसलाकाररूप रहेतुं नथी. कहां छे केप्रमाण निश्वयेन उपादानस्य कार्यत्वामाप्तस्य अवांतरावस्था असाधारणमिति.
हवे परमात्मरूप कार्यमा असाधारण कारण घटावेछे. सिद्धता रूप कार्यप्रतिप्रथम मनवचन कायानायोग तेहने स्वगुण रमणमां
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परमात्मदर्शन.
(२३)
अरागी अद्वेषीपणे प्रवर्ताववा. चोथा गुणठाणाथी मांडीने सिद्धतारुप कार्य पर्यंत गुणनी वृद्धि करवी. उपशमभाव क्षयोपशमभाव श्रेणीगतध्यान, विधिसहित आचरणा, पूजा भक्ति, गुणिनुं बहुमान, ज्ञान क्रियारुप साधक अवस्थानी तरतमता ते सर्व असाधारण कारणजागईं. आत्मानुं ध्यान करवू. क्षणेक्षणे आत्मोपयोगमा स्थिरपणे वर्तवं साधुवत. श्रावकवत पालवां इत्यादि सर्व असाधारण कारण जाणवू. भेदज्ञान विना असाधारण कारणनी प्राप्ति थती नथी. शिष्य--हे सुगुरो आत्मा सिद्धतारुप कार्यनीपजावे तेमां निमित्त
कारण कोण ? सुगुरु-देव अरिहंत, गुरु, अने सिद्धांत ते निमित्त कारण जाणवू.
निमित्त कारण विना जीव उंची स्थिति ए चढी शकतो नथी. धर्मनी प्राप्तिमा निमित्त कारण बलवान् रहेछे. देवगुरु सिद्धांत ए मुक्तिरुप महेलमां चढतां निसरणी समानछे. देवगुरुनी भक्ति बहुमान करवाथी कार्य सिद्धि थशे. तेम सिद्धांतनुं बहुमान विनयआदि करवाथी गुण प्रगट थशे. सुगुरुनो विनय विश्वास श्रद्धाभक्तिं जेम घणी तेम निमित्त कारणनी पुष्टता जाणवी, सुगुरुढं आलंबन मोटुंछे. अज्ञानरुप अंधकारनो नाश सुगुरु
महाराज करेछे. शिष्य-देननी भक्ति बहुमान शी रीते कर. सुगुरु-श्री अर्हन्नी पूजा करवी, अहन्ना गुणोनुं स्तवन, कीर्तन,
करवू, अर्हन्नी आज्ञा मानवी, इत्यादिथी पूजा भक्ति जाणवी. शिष्य--अर्हन्ननुं पूजन शी रीते करवू, अरिहंत साक्षात् तोहाल
नथी, तेनो खुलासो आपो. सुगुरु-अष्ठ प्रकारी पूजा विगेरेथी प्रभुनी पूजा करवी. अरिहंत
भगवान् साक्षात् जोके विद्यमान् नथी तोपण जिनना अभावे
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चतुर्थ विषय विचार.
जिन प्रतिमानुं पूजन करखुं. जिन प्रतिमामां जिनेश्वरनो आरोप करी मानतां पूजतां समकितनी पुष्टि अने निर्जरानुं कारण जिन प्रतिमा थायछे.
शिष्य-- श्री जिन प्रतिमानुं कथन सूत्रमां छे के नहि ? सुगुरु- हा जिन प्रतिमानुं कथन प्रभुना पवित्र सूत्रोमां छे. शिष्य हे सुगुरुजी, कृपा करीने सूत्रनो एक पाठ कहा के जेथी
•
जिन प्रतिमानी साबीती थायः
सुगुरु हे भव्य सांभळ - मूत्रपाठः
तेणं कालेणं, तेणं समएणं, जावतुंगीयाए नयरीए, बहवे समणो वासगा परिवसंति, संखे, सयगे, सिलप्पवाले, रिसदत्ते, दमगे, पोखली, तिविष्ठ, सुपयडे, भाणुदत्ते, सामिले, नरवम्मे, आणंदा, इणोअजे अन्नध्य परिवसंति से अट्ठा, दित्ता,
छिन्न विपुल वाहणा, जाव लध्धठा, गहिअठ्ठा, अठमी, चाउहिसी, पुन मासिणी, सुपडिपुत्रं पोसहं पालेमाणा, निग्गंथाणं निग्गंथीणं, फासुएसणिज्जेणं, असण, पाण, खाइम, साइमेणं, जाव पडिला माणा, चेइआलएसु तिसं गंध पुप्फ वथ्याइएहिं अ
चणं कुणमाणा जावविहरंति, सेतेणठेणं गोयमा, जेजिण पडिमं पूएइ, सोसम्महिठी अन्नोपुणमिडिठि, मिच्छादिठिस्स नोनाणं, नोचरणं, नोमोरूख इत्ति सम्मदृिठिस्स नाणं, चरणं, मोरुख, इतिसेतेणठेणं गोयमा, अवस्सजिणपडिमाण गधपुष्पवन्याइएहिं पूयाकायच्वा - श्रीपंचकल्प सूत्रे पूजालापक.
भावार्थ - तुंगीया नगरीमा रहेनारा सूत्रोक्त बार श्रावको पोपधव्रतनुं आठम चउदस पूर्णिमा अमावाश्याए आराधत करता हता, पोषधपारीने साधु साध्वीओने निरवय आहार पाणी वहोरावता हता. अने चैत्यालयमां न प्रतिमानी पुष्पादिकयी पूजा करता,
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परमात्मदर्शन.
( २३३ )
हता, माटे गृहस्थ श्रावक जिन प्रतिमानी अवश्य पूजा करे. दि अधिकार समजी लेवो.
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द्वितीय सूत्रपाठ
तणं सा दोव रायवरकन्ना, जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ. उवा० मज्जणघरं अणुपविसइ, अणुर व्हाया कय बलिकम्मा कयको मंगलपायछित्ता सुध्धप्पा वेसाई, मंगलाई, वध्थाई, पवरपरिहिया मज्जणघराओ पडिनिरकमइ, पडि२ जेणेव जिणघरे तेणेव उवागच्छ उवा२ जिगघरं अणु पविस जिणपडिमाण आलोए, पण मंकरेइ, लोमहथ्थगं गिन्हइ. : तार जिणपडिमाओ पमज्जे, ता मुरभिणा गंधोदएणं व्हावेइ, तार सुरभिए गंधकासाइए गत्ताई लहेइ, नार सुरसेहिं मल्लेहिअ अच्चेड़ जहा सुरियाभो जिण पडिमाओ अच्छे अच्चेइत्ता तहेव भाणिअव्वं जाव धूर्व दहर, दहइत्ता, वामं जाणुं अंचर, अंचइत्ता, दाहिणं जाणुं धरणिअलंमि बहुतिखुत्तो-इत्यादिपाठः
भावार्थ - राजकन्या द्रौपदी स्नान करना मज्जनगृहमां जाय अने त्यांथी जिनेश्वरना देरासरमां जाय. प्रभुनी प्रतिमाने देखी प्रणाम करे. रुडा लोम हस्तकथी जिन प्रतिमानुं प्रजार्जन करे. सुरभि गंधमिश्रितजलथी प्रभुनी प्रतिमानुं स्नान करे पश्चात् अंगलुंहन करे, पश्चात् गंधादिकनुं विलेपन करे - इत्यादि घणा पाठ छे तेथी सिद्ध थायछे के - प्रभुनी पडिमा एटले प्रतिमा छे. महानिशीथमां पण प्रभुनी प्रतिमा विषे पाउछे-माटे जिन प्रतिमाम जिनेश्वरनी आरोप करी मानतां पूजतां आत्महित थायछे.
वी ज्यारे श्रीतीर्थंकर भगवान् समवसरणमां पूर्वदिशा सन्मुखसेछे अने दक्षणि, पश्चिम, उत्तरदिशिना द्वारे श्री अरिहंतना प्रतिबिंब स्थापेछे, ते ऋण दिशाना स्थापनाजिननो आलंबन पामीने अनेक
इत्या
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rrrrrrrrrrramma
(१५)
जिनप्रतिमा. जन समवसरणमा समकितरत्नने पाम्या, बीजी पर्षद मध्ये जिन सेवनयी समकितनो लाभ यायछे. एपण स्थापना निक्षेपानो उपगारछे.
विचरता अरिहंत तथा तेमनी स्थापना ए बे साधक जीवने निमित्त कारण छे पण उपादान नथी. अर्हन्ने वांदवानुं तथा अअर्हन्नी प्रतिमाने वांदवानुं फल सरखं जाणवू. कारण के बेमां पण भावनी मुख्यता अंतर्थी यातां फल थायछे.
वळी दरेक वस्तुना चार निक्षेपा श्रीअनुयोग द्वारमा वर्गव्या छे. नामनिक्षेपो, स्थापनानिक्षेपो, द्रव्यनिक्षेपो, अने भावनिक्षेप. ए चार निक्षेपामा आधना त्रण निक्षेपाते भावना कारण छे. उक्तंचभाष्ये.
गाथा. अहवा नाम ठवणा, दवाए भाव मंगलंगाए । पाएण भाव मंगलं, परिणाम निमित्त भावाओ ॥१॥
माटे आयना त्रण निक्षेपा कारणछे. ए त्रण निक्षेपा विना भाव निक्षेपो थाय नहीं. अने नाम तथा स्थापना एवे निक्षेपा उपकारी कह्याछे. चोवीस तीर्थकरना नाम ए नाम निक्षेपोछे. तेमज नमो अरिहंताणं आ अरिहंत भगवान्नो नाम निक्षेपोछे. अर्हन्नी मूर्ति ए स्थापना निक्षेपछे, ज्यारे नमो अरिहंताणं ए नाम निक्षेपो कबुल करीए छीए अने ते जेम आत्मा प्रतिनिमित्त कारणछे तेम अरिहंतनी प्रतिमा पण आत्मा प्रति निमित्त कारणछे. नाम निक्षेपाथी जेटलो फायदोछे तेटलोज स्थापना निक्षेपाथी फायदो छे. नमो अरिहंताणं ए नाम निक्षेपाथी अरिहंतना गुणोनुं स्मरण थायो मोलुंज अरिहंतनी प्रतिमाथी अरिहंतना गुणोनुं स्मरण थायछे, अरिहंत, सिख, आचार्य, उपाध्याय, साधु, ए पंच परमेष्ठिनां
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परमात्मदर्शन,
( २३५ )
नाम तथा तेमनी स्थापना बन्ने सरखां फळने उत्पन्न करनारीछे. माटे जे भव्य पुरुष पंच परमेष्टिनां नामनुं आलंबन करेछे तेणे पंच परमेष्ठिनी स्थापनानुं पण आलंबन करवुज जोइए. शिष्य - वीतरागनी स्थापनाथी आत्माहतछे. एमां तो जरा मात्र संशय नथी, पण मधुनी प्रतिमा पूजतां श्रावकने हिंसा थाय तेनुं केम ?
सुगुरु हे भव्य तुं सांभळ, जिनेश्वरनी आज्ञा प्रमाग के आपणी एति कल्पना प्रमाण.
शिष्य-- गुरुजी, प्रभुनी आज्ञाप्रधान.
गुरु-त्यारे सांभळ-बीजे गाम जतां वच्चमां नदी आवे ते साधु उतरे के नहीं, यादराख - एकपाणिना बिंदुमां एटला जीवछे के ते पारेवा जेवडी काया करतो जंबुद्वीपमां माय नहीं. एवं जलतुं बिंदु समज. वळी पाणीमां सेवालरूप वनस्पति पण साधारण बादर निगोदरूपे रहीछे. बळी पुरा प्रमुख सूक्ष्मत्रस जीव पण एवाछे के मनुष्यनी कायाना स्पर्शथी हणार जाय
वे कहो के एव । नदीना जलमां मुनिराज पगमुकी उतरे के नहीं ? शिष्य-- प्रभु ए सिध्धांतमां हिंसा थतां पण साधुने नदी उतरवा -
नी आज्ञा करीछे. कारणके तेथी मुनीश्वरने अन्य भव्यजीवो प्रतिबोधमां लाभ मळेछे. अने भावदयानी पुष्टि थायछे माटे, आपे एवं मने समजाव्यं हतुं, प्रतिमाना निषेधको पण आ बात मानेछे.
सुगुरु-तेज प्रमाणे सर्वज्ञमए सिध्धांतमां श्राक्रुने, मधुनी म तिमा पूजननुं फरमान कर्युछे. प्रभुनी प्रतिमा पूजतां मोटो लाभ थाय छे. अत्र प्रभुनी आज्ञाज प्रधान जाणी, प्रभु सर्वज्ञ हता. तेमना केवलज्ञान आगळ आपणी मति कल्पना
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( २३ )
जिनप्रतिमा.
हिसावमा नथी माटे सर्वज्ञ प्रभुनी आज्ञानुसारे श्रावक मनी प्रतिमानुं पूजन करे. तेथी तेने आत्महित थायछे अने प्रभुकी आज्ञानो आराधक बनेछे, श्रावकतो आहारादिक माटे छकायना जीवनी हिंसा कर्या करेछे माटे ते हिंसाना आरंभथी दूर थयो नथी माटे श्रावक प्रभुनी प्रतिमानुं पूजन भक्ति करे तेमां तेने मोटो लाभ छे प्रभुनी प्रतिमाने मानेछे ते सम्यग्दृष्टि जाणवो. प्रभुनी प्रतिमा पूजतां श्रावकने हिंसाना परिणाम नथी - जीवोने मारवानी बुद्धि श्रावकने नथी. तेथी तेने हिंसानो बंध थतो नथी अने तेथी शुभ भाव प्रगटतां पुण्य बंध अने शुभ भाव प्रगटतां परमानंद पदनी प्राप्ति थाछे, यद्यपि जो शुभ भावने पुण्य बंधनो हेतुछे. तोपण ते छतात्मगुणने स्थिर थवानो तथा नवा प्रगट करवानो हेतुछे. पुण्यानुबंधी पुण्यनो हेतुछे माटे प्रभुना उपर रागरूप शुभ भाव पण परंपराए मोक्ष प्राप्तिमां हेतुभूतछे. श्रीहरिभद्रसरिए पंचवस्तु ग्रंथमां कां छे केः
गाथा.
गुणरूड़ मूलं एयं, तेणं गुणवुट्टि देनअं भणिअं ॥ जह एलाइयुक्त्तो, पसथ्य रागेण गुणपत्तो ॥ १॥
माटे प्रभुनी प्रतिमा पूजतां शुभभाव पण उपादन कारणनी शुविमां लारणछे, माटे श्रावके प्रभुनी प्रतिमानुं पूजन करवुं जोइए. बळी सूत्रमां कांछे के ज्ञानीने आश्रवनां कारण पण सेवर रूपले असे अज्ञानीने संवरनां कारण पण आश्रव स्वरूपे परिणमे छे.
-
बळी सर्व विरतिपदने धारण करनारा मुनीश्वर ज्यारे नदी उत ते पण ज्यारे लाभने माटे छे त्यारे श्रावक प्रभुनी प्रतिमानुं
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परमान
( २३ )
पूजन करे ते केम लाभने माटे न होय. अलबत प्रभुनी आज्ञाए वर्तते श्रावक तथा साधुने लाभकारी छे. आज्ञा ए धर्म नामाको
श्री आनंदघनजी महाराज पण नवमा सुविधिनाथना स्तवम प्रभुनी प्रतिमानुं पूजन करवुं एम उपदेशेछे, माटे जितेश्वर वीतरा गनी स्थापना रूप प्रतिमानी बहुमानता, रोवना, पूजा, अवश्य करवी. जोइए. एक सामान्य उत्तम गुणवंतनी छबी जोइते केटलो आनंद थायछे. त्यारे ऋण जगत्ना पदार्थने जाणनार सर्वज्ञ अतिशय उप मारी तीर्थकरनी प्रतिमाने देखी जीवने आनंद थाय बहुमानता प्रगटे, तेमां शुं कहेबुं - निमित्त कारणरूप देव तथा तेमनी प्रतिमानुं अवलंबन भव्यजीवोने करवा लायकछे. प्रभुनी प्रतिमा संबंधी घणं. विवेचन करवानुं धार्यु किंतु ग्रंथ गौरवना भयथी संक्षेपमा प्रसंगे वर्णन करें.
शिष्य- हे सुगुरो ! आपे कृपा करी निमित्त कारण कोण अने तेनुं स्वरूप समजाव्यं हवे कृपा करी अपेक्षा कारण कोणछे समजावशो
सुगुरु-जे कारण कार्यथी भिन्न छे अने जे कारण माटे कर्ताले म यास करवो पडतो नथी, अने कार्यनी सिद्धियां निश्चयश्री ते जोइए. अने जे बीजा कार्योंमां पण कारणछे. तेने अपेक्षा कारण कहे छे.
यथा पृथ्वी, आकाश, काल, ए विना घटादिक कार्यनी निष्पति थती नथी. भूमी, आकाश, काल, जेम घटनी निष्पत्ति प्रति कारणले तेम अन्य कार्योंना प्रति पण कारण छे. कर्त्ता जेम उपादान तथा निमित्त कारणनो व्यापार करेछे. तेम एनो प्रवर्तन करतो नथी. ते अपेक्षा कारणतुं तच्चार्थादिक ग्रंथोमां कछे,
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(२३८)
कापनहेतु.
यथा.
घटस्थ उत्पत्तो अपेक्षा कारणं व्योमादि अपेक्षते तेनविना तभावाभावात् निर्व्यापार अपेक्षाकारणं इति तत्वार्थवृत्ती
हवे आत्मा कर्मक्षय करी मुक्तिपद पामे तेमां अपेक्षा कारण दर्शावेछे.
मनुष्यगति प्रथम वज्ररूवमनाराच संघयण, पंचेंद्रियपणुं इत्यादि सिद्धिरूप कार्यतुं अपेक्षाकारण जाणवू.
निमित्त कारणनी प्राप्ति विना अपेक्षाकारण लेख आवतुं नथी. जे भव्यजीवे निमित्तकारण आचर्यु नथी तेनी मनुष्यगति अपेक्षाकारणमां गणाती नथी. श्रीदेवगुरुना पुष्ट निमित्ते उपादानकारणने तरतमयोगे प्रगटावतो असाधारण कारणताए चढतो मनुष्यादिक अपेक्षा कारणपणे करी तत्वानंदरुप कार्यनो कर्ता आत्मा थाय.
...उपादानादिक अणनी कारणता निमित्तना अवलंबनी प्रगटे छ माटे भव्यप्राणी निर्दोषपणे शुद्ध निमित्तकारणने सेवे. अने शुद्ध निमित्त कारणीभूत शुद्ध देव, तथा सुगुरूना सेवनथी कर्तापणुं स्मरे, अने कापणुं स्मरण करी स्वकार्य करे.
श्री आप्तमीमांसामांत्रण कारण कथ्यांछे. समवायासमवायि निमित्तभेदात्.
समवायी कारण ते अपेक्षाए उपादानकारण जाणवु.अने असम वायि कारण ते नामांतर असाधारण कारण कहेवायछे तथा निमित्त कारणना बे भेद जाणवा. एक निमित्तकारण बीजं अपेक्षाकारणवळी कारणना बे भेद शास्त्रमा कह्याछे. एक उपादानकारण. बीजें निमित्तकारण जाणवू. घटदृष्टांतमां घटरूप भिन्न कार्यनो कर्ता कुंभकार घटथी भिन्नछे, तेम सिद्धतारूप अभिन्न कार्यनो कर्ता आत्मा पण कार्ययी अभिन्न छे. ज्ञाननो कर्त्ता आत्माछे तेम संपूर्ण
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परमात्मदर्शन. सिद्धतारूप कार्यनो कर्ता पण आत्माछे. कर्ताः आत्मा ज्यारे कारणनीयोगवाइ पामे त्यारे कार्यनी सिद्धि नीपजावे. एकलो कर्ता कारण सामग्री विना कार्य करी शके नहीं एवी स्वभावता जाणवी.
उपर प्रमाणे आत्मा परमात्मपद पामे तेमां जे जे कारणो जोइए. तेनुं यत्किंचित् स्वरूप दर्शाव्युं. शिष्य--हे सुगुरो ! पूर्वोक्त कारणोमांथी व्यवहार धर्मरूप केटलां
कारण जाणवां. सुगुरु-हे शिष्य स्वस्थ चित्तथी सांभळ-जे कारणो कार्य सिधि
थतां रहेतां नथी. अने कार्य सिद्धिमां अवश्य कारणी भूत छे, ते कारणोनी प्राप्तिने व्यवहार धर्म कहेछ. निमित्त कारणनी सेवना तथा असाधारण कारणनी प्रवर्तना पण व्यवहार धर्म कथायछे. नीचेना गुणस्थानकनुं छोडवू अने उपरमा गुणस्थानकनुं आदरयु ते शुद्धव्यवहार धर्म जाणवो. वळी साधुधर्म वा श्रावकधर्म पणव्यवहार नयथी धर्म कथायछे. व्यवहार धर्म कारणछे, अने निश्चय धर्म कार्यछे कारण अनेक छे अने कार्य एकछे. माटे असंख्ययोग जिनेश्वर भगवाने कथ्याछे. तेमां पण नवपदनी मुख्यता जाणवी. जेजे अंशे
निरूपाधिपणुं तेते अंशे धर्मनी प्राप्ति जाणवी. शिष्य-मनुष्यगति विना आत्मा सिदतारूप कार्य अन्य गतिमा
माप्त करी शके के नहीं. सुगुरु-मनुष्यगति विना सिद्धतारूप कार्यनी सिद्धि थती नथी.
प्रथमतो एकेंद्रियमां अपेक्षाकारणरुप नरगति प्रथम संघयण नथी. तथा निमित्त कारण पण नथी. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय. चतुरिन्द्रिय,
मां अपेक्षा कारण नथी. पंचेंद्रियना चार भेदछे. प्रथम देवता ... समकिती होयछे तेमने क्षयोपशमभाव मतिज्ञान तथा श्रुत
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कार्यमाहेतु शान होयछे. अने तेओं सेमकितपणार्थी चोथा गुणठाणाना स्वामी जाणवा. एटले ते अविरति सम्यग् दृष्टि देवता-नाणवा. तेओ विरतिपणाने पामे नहीं एवी देवगतिनी स्थीति , माटे तेओ उपरउपरना गुणगणे चढी शकता नथी. मि. थ्यादृष्टि देवताओतो प्रथम गुणस्थानके छे. वेमानीक, भु. वनपति, व्यंतर, अने ज्योतिष एम देवताना चार प्रकारछे.
तिथंच पंचेंद्रियना पंचभेदछे जलचर, थलचर, खेचर, उरपरि सर्प, भुजपरिसर्प.
तिथच समकित पामी शकेछे. कृष्णमहाराजना भाइ बलदेव मुनीश्वर एक हरिणभक्त हतुं. पण त्या अपेक्षा कारण प्रथम तो मथी: गुर्षादिकर्नु निमित्त पामी कदापि पंचम गुणस्थानक पर्यंत नाय. पण त्या असाधारण कारणनी श्रेष्ठता नथी. असाधारण कारणनो अंश पामे. ___ नारकीना जीवोनी पण देवतानी पेठे आधिकार समजी लेवो एं त्रण गतिमा धर्मसामग्रीनी संपूर्ण जोगवाइ नथी.
यतः गाथा देवा विसय पसत्ता, नेरइया विविद दुख संसत्ता ॥ तिरिया विवेग विगला, मणुआणं धम्म सामग्गी १
देवताओ विषयमा प्रसक्तछे. नारकी जीवों अहर्निश विविध प्रकारनां दुःखो भोगव्या करेछे, तियच विवेकथी विकलछे. फक्त गर्भज मनुष्योने धर्मनी सामग्रीछे. ___ मनुष्यगतिमा अपेक्षा कारण, निमित्त कारण,असाधारणकारण, उपादान कारण, ए चार कारणनी सामग्री प्राप्त थायछे बळी अपेक्षा कारणमा मथम संघयण अधुना नथी.
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परमात्मदर्शन.
(२४.) . हाल पंचमारके पण निमित्तादि कारणो पामी आत्मधर्म साधन थायछे. मतिज्ञान अने श्रुतज्ञानना क्षयोपशमभावे असाधारण कारणने अवलंबतो जीव शुद्धानुभव पामेछे. अने भव्य, कर्मना तिक्ष्ण बंधनने छेदवा समर्थ थायछे,
माटे भव्यनीवोए चिंतामाणिरत्न, कल्पवृक्षथी पण दुर्लभ एवो मनुष्यजन्म पामी धर्मसाधन करवू गयो वखत पश्चात् आवतो नथी. आयुष्य क्षणेक्षणे ओछु यतुं जायछे. आ दुनीयामां कोइ अमर रह्यो नथी अने कोइ रहेवानो नथी. कायारूप माटीगें पूतलु आत्मानुं कदी थयुं नथी, अने थवानुं नथी. भ्रांतिथी परवस्तुमां सुखबुद्धि कल्पायछे. जेम आकाशमां कमलनी उत्पत्ति खोटीछे. तेम परवस्तुमां सुखबुद्धि खोटीछे. जडवस्तुमा आत्मसुख क्याथी होय; अलबत जडवस्तुथी कदापि सुखनी माप्ति थती नीज. बाल्यावस्थामां अज्ञानतायोगे जे सुख धूळना ढगलामा रमकडां रमवाथी मान्युं हतुं. ते मोटी उमर था पोतानी मेळे टळेछ. एटले मोटी उमर थतां रमकडां वा धूलमां रमवानुं मन थतुं नथी. ते रमत उपर अरूचि थायछे. तेम विषयभोग आदिमां रूचि बाल जेवा जीवोने थायछे. जेम कागडाए विष्टा चुंथवामां पोतार्नु श्रेयः मान्युंछे. तेम अज्ञानी बालमनुष्योए विषयभोग आदि परवस्तुमा पोतानुं सुख मान्युंछे पण ते सर्व मिथ्याछे. ज्ञानीनी दृष्टि आगळ एवा बाळजीवो केवल दया पात्रछे. आत्मामां अखंड परमानंद समायोछे. अनंतसुख आत्मामा रहुंछे. शोधेसोपावे आत्ममुखनी प्राप्ति अर्थे ज्ञाताओ आ. त्मध्यानमां सदाकाळ मग्न रहेछे. परवस्तुमा रागद्वेष बुद्धि धारण करता नथी. पोताना आत्मस्वरूपमा रमणता करेछे. परभावनो अ. नादर करेछे. परवस्तुमा आत्मपणुं कंइ मानता नथी. पुद्गल वस्तुथी आत्मा सदा न्यारोछे एम भावेछे, अने सदा अंतर्लक्ष्य राखेछे.
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( १२ )
अनेकान्ततस्व
परपरिणतिनां द्वार रोकेछे. आत्माना गुण पर्यायतुं चितवन करेछे. पोताना आत्मामां अनंतरुद्धि शोधेछे. उज्ज्वल ध्यान ध्यावेछे, अने ज्ञानीओ मनमां थता अनेक संकल्पविकल्पो दूर करी आत्मस्वभामां मन रहेछे, प्रतिदिन उच्चास्थितिने भोगवे छे. सहज शांतिथी तुं तास्विक सुख ते प्राप्त करी शकेछे. मननी थती चंचलतानो त्याग करवो. मनसंबंधी प्रथम घणुं कहेवामां आव्यु॑छे. तेथी अत्र विशेष वर्णन कर योग्य नथी. तोपण प्रसंगवशात् कहेवानुं के मन चंचल अने अस्थिरछे ते ज्यां जाय त्यांथी पार्छु वाळीने आ मानी साधे वश कर.
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मन ज्यां सुधी स्थिर रहे नहीं त्यां सुधी शास्त्रोक्तक्रिया जेटली करीए तेटली सफल थाय नहि. श्रीयशोविजयजी उपाध्याय कहे छेके
श्लोक. या निश्चयैकलीनानां, क्रिया नातिप्रयोजना | व्यवहार दशास्थानां ताएवाति गुणावहाः ॥ १ ॥
भावार्थ - जेनुं मन निश्रयमां लीनछे. तेने क्रियानुं प्रयोजन नथी. व्यवहार दशावाळाने क्रिया अति गुणकारी छे. मन वश कवाथी बंधातां कर्म अटकेछे, ज्ञानी थइने फरता एवा पुरुषोथी पण मन जीतातुं नथी. अभ्यासथी मन जीतायछे, महा अनुभवी योगी ओना शिष्यो मन वश करी शकेछे. पुस्तक, पोथी, पुराण, वांचवाथी पण जे मन वश थतुं नथी, ते मन सुगुरु महाराजनी गुप्त अर्पेली कुंची थी धीरे धीरे वश थाय छे. पुस्तक सिद्धांतमां लखेला विषयोने जाणी सुगुरुए परिणामिकी बुद्धियी जे अनुभव मे
..
यो होय ते शिष्यों के जे गुरुना सदाने माटे विश्वासी होयछे
&
तेने मछे, माटे सुगुरुनुं शरण करी आत्मिक धर्मनी प्राप्ति करवी.
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परमात्मदर्शन.
(२४ ) कर्मनो क्षय करतां आत्मिकधर्मनी आविर्भावता थायछे. काया पुद्गलछे, वचन पुद्गलछे, मनपुद्गलछे, धर्म तो निश्चययी चेतनगत जाणवो, आत्मामां धर्म रहेछे. ते आत्मिक धर्म आत्मस्वभावे स्थिर थतां प्रगटेछे. निश्चयथी आत्मा अरूपीछे, अने आत्मा. मां रहेलो धर्म पण अरूपीछे. असंख्य प्रदेश आत्माना छे, प्रतिप्रदेशे अनंत अनंत धर्म व्यापी रह्योछे, तात्त्विक आत्मिक धर्मथी अनंत सुखनी प्राप्ति थायछे. कर्मनो क्षय करी जे भव्यों सिद्धिपद पाम्याछे सेमने शुद्ध आविर्भावे आत्मिक धर्म प्रगव्योछे, जे जीवो कर्म सहीतछे तेमने तिरोभावे आत्मिक धर्म जाणवो. जे वस्तु मूळमां वस्तुतः सत्पणे नथी. तेनी उत्पत्ति थती नथी. कारण के
नासतो विद्यतेभावो सारांश के-असत्नु उत्पन्न थवापणुं नथी. शिष्य-जेम असत्नुं उत्पन्न थवापणुं नथी. तेम सत् जे वस्तु
त्रिकालमां वर्तती होय तेनी उत्पत्ति कहेवी ए पण अयुक्तछे.. कारण के-जे वस्तुनो उत्पाद थाय ते वस्तु प्रथम होय नहीं. यथा पट तेनो उत्पाद थयो तो ते प्रथम नहोतो. तेम जो आत्माना धर्मने सत् मानवामां आवे तो ते त्रिकालमा विद्यमानपणाथी तेनी उत्पत्ति थइ एम कडेवं असत्य ठरेछे अने जो आत्माना शुद्ध धर्मने असत् कहेवामां आवे तो तेनी उत्पत्ति असत्य ठरेछे माटे हे सुगुरो कृपा करी यथार्थ स्व
रूप समजावशो. सुगुरू-रे शिष्य ! एकाग्र चित्तथी श्रवण कर. असत् पदार्थनी
तो त्रिकालमां पण उत्पत्ति थती नथी, हवे सत्वस्तुनो विचार करीए.
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२४)
भाविर्भाव भने तिरोभाव.
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गाथा. भावस्स पत्थि णासो, णत्थि अभावस्स चेवउप्पादो, गुण पजयेसु भावा, नुप्पाद वए पकुव्वंति ॥ १॥
भावार्थ-भावनो एटले सत्रूप पदार्थनो नाश नथी, अने निश्चयथी अभाव एटले असत्नो उत्पाद नथी, गुणपर्यायोमां भावो उत्पाद व्ययने करेछे.
सारांश के-द्रव्यार्थिकनयथी सत् षट्पदार्थो उपजता नथी, तेम विनाशताने पण पामता नथी.
अने जे त्रिकाल अविनाशी सत्पदार्थोमां उत्पाद व्यय थाय छे ते पर्यायार्थिक नयनी अपेक्षाथी गुणपर्यायोमां जाणवा.
हवे आत्मधर्मना सत्पणा संबंधी विचार करतां समजाशे के आत्मिक शुद्ध धर्मनुं सत्पणुं द्रव्यार्थिकनयनी अपेक्षाए अनादि सत्पणछे. जो के कर्मावरणथी आत्मिक शुद्धधर्मर्नु आच्छादन थयुंछे तोपण आत्मधर्मन द्रव्यार्थिकनयथी जोतां सत्पणुं टळ्युं नथी. अनादि कालथी कर्मावरणथी आत्मिक धर्म आच्छादनताने पाम्योछे एटले ते तिरोभावे सत्पणे वर्तेछे, आत्मिक शुद्ध धर्मनुं सत्पणुं वे प्रकारे छे. संसारदशामां तिरोभावे सत्पणुं अने सिद्धावस्थामां आविर्भावे सत्पणुं एम प्रकारे जाणवू. अनादि कालथी जीवनी साथे कर्मनो संबंधछे अने ते कर्मना संबंधे आत्मिक शुद्ध धर्म ढंकायोछे. ते ज्यारे कर्मनो नाश थायछे त्यारे आत्मिक शुद्ध धर्म प्रगटपणे प्रकाशेछे, हवे सत्स्वरूप आत्मिक धर्मनो उत्पाद केवी रीते थायछे ते समजावेछे. तिरोभावपणे वर्ततो आत्मिक धर्म छे तेनो आविर्भाव थयो. तेनी अपेक्षाए उत्पत्ति समजवी सारांश के-सत्स्वरूप जे आत्मिक शुद्ध धर्मनो कर्मावरणथी तिरोभाव थयो हतो. ते सत्स्वरूप मात्तिक शुद्ध धर्मनो कर्मनाशथी आविर्भाव थयो-तिरोभावनो जे
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परमात्मदर्शन.
(२४५) आविर्भाव तेनी अपेक्षाए शुद्धधर्मनी आत्मामा उत्पत्ति जाणवी. सत पणुं तो प्रथम पण विद्यमान हतुं. हवे ते उपरथी स्पष्ट समजाशे के सत्स्वरूप आत्मिक धर्म द्रव्यार्थिकनयनी अपेक्षाए सदात्रिकाल सत्पणे जाणवो.
तिरोभावे ढंकाएलो धर्म आविर्भावनी अपेक्षाए मगटपणे वर्तातो नथी माटे असत् अने तिरोभावनो नाश थतां आविर्भावपणे प्रकाशतां सत्स्वरूप जाणवो. ___ आविर्भावपणे आत्मिकशुद्धधर्म प्रगट थतां आत्मा परमात्म स्वरूप थइ जायछे अने ते अनंत सुखनो भोगी थायछे. पश्चात् कंइ कर्तव्य बाकी रहेतुं नथी. सिद्ध स्वरूप थतां पण आत्मामां पर्यायार्थिकनयनी अपेक्षाए पर्यायनो उत्पाद व्यय समये समये बन्या करे छे, सिद्धस्वरूपी आत्मामां अक्रियपणुं जाणवू. गमनागमन पण सिद्धात्माने नथी. रागद्वेषरूप मलनो सर्वथा क्षय थवाथी सदाकाल स्वस्वभाव रमगतागुण प्रगटपणे वर्तेछे, ज्ञानावरणीय अने दर्शना वरणीय कर्मनो सर्वथा समूलतः क्षय थवाथी अनंत ज्ञान अने अनंत दर्शन आत्मामां प्रगटपणे प्रकाशेछे एम अष्टकर्म क्षयथी अष्टगुण आदि अनंत गुण आत्मामां आविर्भावताए प्रगटेछे. .
एम अनंत धर्ममय आत्मा जाणवो, सत्य धर्म आत्मामा रहेछे, शुध्ध आत्मिक धर्म प्रगटाववाना हेतुओने व्यवहार धर्म कथापछे, माटे व्यवहार धर्म अने निश्चय धर्म ए बेनुं अवलंबन करवू.
श्री सिद्धसेनाचार्य कहेछे के
श्लोक. निश्चयव्यवहारौ द्रौ, सूर्यचंद्रमसाविव ॥ इहामुत्र दिवारात्रौ, सदोद्योताय जाग्रतः ॥१॥
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भारमधुदि.
अंतस्तत्त्वं मनः शुद्धि, बहिस्तत्त्वंच संयमः ॥ कैवल्यं दयसंयोगे, तस्माद् द्वितयभाग्भव ॥२॥ नैकचकोरथो याति, नैकपक्षो विहंगमः ॥ नैवमेकातमार्गस्थो, नरो निर्वाण मृच्छति ॥ ३ ॥ परस्परं कोऽपियोगः, क्रिया ज्ञान विशेषयोः ॥ स्त्रीपुंसयोरिवानंद, प्रसूते परमात्मजं ॥ ४ ॥ भाग्यं पंगूपमं पुसां, व्यवसायोंऽ धसंनिभः ।। यथा सिद्धिस्तयोर्योगे, तथा ज्ञानचरित्रयोः ॥ ५ ॥ खड्गखटकवज्ञाने, चारित्र द्वितयंवहन् । वीरो दर्शन सन्नाहः कलेपारं प्रयाति ॥ ६ ॥ एकांते नतु लीयंते. तुच्छेऽनेकांतसंपदः. नदरिद्रगृहे मांति, सार्वभौमसमृद्धयः ॥ ७ ॥
भावार्थ:-निश्चयनय अने व्यवहारनय आ जगत्मां सूर्यचंद्रनी पेठे प्रकाश करता जागताछे. सूर्य अने चंद्रनी उपमामा विशेष गंभीर भावार्थ समायोछे. सूर्य अने चंद्रना प्रकाशमां घणुं समजवानुं छे. पूर्वोक्त श्लोकोना भावार्थ स्पष्टछे. तेनुं तेथी अत्र विवरण कर्यु नथी. तुच्छ एकांत मार्गमा अनेकांत. संपदाओ लीन थती नथी. आ वाक्य आपणने केटलं समजावेछे, तेनी केटली बधी महत्त्वताछे. वळी कहेछे के-दरिद्रना घरमा सार्वभौमनी समृद्धि माती नथी. माटे भव्यात्माओए आयति सर्व शाश्वत सुख संतति प्रदायक व्यवहार निश्चय धर्मर्नु अवलंबन करी उत्तम पुरुषोना पंथने अनुसरवु तेमां हित समायलंछे, अज्ञान मार्गनी अंध श्रद्धाथी एकांत मार्ग. सेवन
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परमात्मदर्शन.
( २४७)
करनारा मत कदाग्रही जीवो - व्यवहार अने निश्चयनयना ज्ञान विना वस्तु स्वरूप ओळखी शकता नथी. अने तेथी कर्तव्य कार्य सन्मुख थता नथी. सातनयोना ज्ञान बिना जगत्मां मतोनी उत्पत्ति थइछे, परस्परनयोनी निरपेक्षताए वस्तु स्वरूप यथार्थ कथातुं नथी, श्री यशोविजयजी उपाध्याय कछे के
एके कनयना थी मतोत्पत्ति.
श्लोकः बौद्धाना मृजुसूत्रतो मतमभू देदांतिनांसंग्रहात् ॥ सांख्यानां ततएव नैगमनयाद योगश्ववैशेषिकः ॥ शब्दब्रह्मविदोपि शब्दनयतः सर्वैर्नयैगुंफिता ॥ जैनदृष्टिरितीद सारतरता प्रत्यक्षमुवीक्षते ॥ १॥
भावार्थ - रुजुसूत्रनयथी बौधमत प्रगटयो, अने संग्रहनयथी वेदांतिनो मत प्रगटयो. तथा सांख्यमत पण नैगमनयथी तथा योग मत अने वैशेषिक मत पण ते नयथी प्रगटयो शब्दनयथी मीमांसक दर्शन उत्पन्न थयुं, अने जैन दर्शन एटले स्याद्वाद दर्शन तो सर्वनयथी गुंफितछे. माटे अनेकांत जैन दर्शनमां सारमां सारपणुं सदा प्रत्यक्षपणे देखीए छीए - जैन सर्व दर्शनीछे. अने बीजां दर्शन से जैनना एकएक अंशछे.
श्री. आनंदघनजी महाराज कहेछे के.. जिनवरमां सघळां दर्शनछे, दर्शने जिनवर भजनारे: सागरमां मघळी तटिनी सही, तटीनीमां सागर भजनारे. षडदर्शन जिन अंग भणीजे. जिनदर्शमां सर्व दर्शनछे माटे अन्य दर्शन जिनेश्वर दर्शन अंगभूतछे. अने एकेका दर्शनमां सर्वाशे सप्तनय परिपूर्ण जैन दर्शननी
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(२४)
अनेकान्त. प्राप्ति थाय नहीं. कारण के तेमां जैन दर्शननी भजनाछे. एक अंगनय पक्षथीं पामीए पण सर्वांगे प्राप्ति थाय नहीं. जेम सघळी नदीओ समुद्रमा होय पण नदीओमां समुद्रनी भजना जाणवी. सारांश केजे नदी समुद्रमा मळी तेमां समुद्रनी भरतीओटनुं पाणी आवे. एवी रीते नदीओमां समुद्र एकदेशे संभवेछे. तेवी रीते समुद्रनी उपमाने धारण करनार जिनवरना ए षड्दर्शन ते अंग जाणवां. एकांते नयनुं कथन करतां मिथ्यात्व लागे-कमु छ के
एगंते होइ मिच्छतं. एकांते मिथ्यात्वपणुं होय-माटे हितशिक्षा निग्रंथ प्रवचन कये छे के-एकांतपक्ष आत्म हितकारक नथी. व्यवहारनय अने निश्चयनय अवलंबी आत्म धर्मरूप साध्यना साधक बनवू. साध्यनी सिद्धि करवी मुश्केलछे. वातो करवी सहजछे. माटे आत्मिक हितेच्छुओए प्रमाद त्याग करवो अने व्यवहार निश्चयधर्मनुं साधन करवू. सप्तनय सप्तभंगी चारनिक्षेपा षड्द्रव्य, गुणपर्याय-उत्सर्ग अपवादथी परिपूर्ण स्याद्वादमतने कोइ वीरला भव्य पुरुषो सम्यग् रीत्या जाणी शकेछे. केटलाक विचित्रमार्गनीभ्रमणाओमांगोथांखायछे केटलाक ज्ञान ज्ञान पोकारीज्ञानी नामधरावी शुद्ध धर्मरूप क्रियातरफ अरुचि मार्ग दर्शावे
छे अने क्रियानुं उथ्थापन करेछे, तेथी स्वआत्मानो उद्धार करी शकता . नथी. सप्तनयोथी परिपूर्ण वीतराग धर्मने सत्गुरु अने सत्श्रद्धा विना
अवगाहवो मुश्केलछे माटे भव्य पुरुषो प्रभुना धर्मनो मार्ग समजी निश्चयदृष्टि हृदयमा धारण करी व्यवहार मार्गे चालेछे.
श्रीयशोविजयजी वचनामृत.. 'निश्चय दृष्टि चित्त धरीजी-चाले जे व्यवहार-इत्यादि.
श्री यशोविजयजी उपाध्याय महा विद्वान् हता. संवत् १७४० नी लगभग विद्यमान हता, आत्मिक ग्रंथो दरेक दर्शनना वांच्या
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amaAAAANAA
परमानधन. हता. अध्यात्मज्ञानदृष्टि पण धरावता हता, जेमणे शास्त्रवार्ता समुवय आदि शतग्रंथ बनाव्या. ते महा पुरुष पण निश्चय दृष्टि हृदया धारण करी व्यवहार मार्गे चालवानी खास भलामण करेछे. झुं हालमा अध्यात्मनी किंचित् वात सांभळी व्यवहार मार्गथी विरुद्ध चाली डोळघालु अध्यात्मी बनी जनाराओ करतां विशेष ज्ञानी नहोता. एम केम कहेवाय ? ना तेओ महा ज्ञानी हता. माटे व्यवहार धर्म मार्गनुं यथाविधि यथाशक्ति आराधन करता इता
भगवान् सर्वज्ञानी कहेछे के-. जइ जिणमयं पवज्जह, तामा ववहारनिथ्थए मुयह; धवहारनओ छछेए, तिथ्थुच्छेओ जओ भणिओ १
जो तुं जिनदर्शनने अंगीकार करे तो व्यवहार अने निश्चयने मूकीश नहीं. कारण के व्यवहार नयनो उच्छेद कर्याथी तीर्थनो उच्छेद कर्यो कहेवायछे, माटे महात्मा थवानी इच्छा होय तोममुनी शिक्षा धारवी. मानवी,
केटलाक ज्ञाननी आकांक्षा विना अंध श्रद्धावाननी पेठे क्रिया करेछे. ते क्रिया जड जाणवी तेमनोधर्मव्यवहार फोनोग्राफवत् जाणवो. ____कोइ एम कहेशे के बराबर वस्तुनुं स्वरूप समजीने अमे क्रिया फरीशुं-ज्यां सुधी ज्ञान नथी त्यां सुधी क्रिया शाकामनी ? प्रत्युत्तरमा समजवायूँ-एम बोलवामां पण समजवानी घणी तारतम्यता समाइछे. प्रथम विकल्प थशे के कया ज्ञाननी प्राप्तिथी क्रिया करवी. मतिश्रुतज्ञाननी प्राप्तिथी वा केवलज्ञाननी प्राप्तिथी. ___ मतिश्रुतज्ञान थया बाद क्रिया करवी एम कहेतां पण विचारवानु के-गणधरोना जेवू मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, तेवू ज्ञान हालना बखतमा नथी. त्यारे कहो के चउदपूर्वी वा दशपूर्वधारी जेवं मति झान ते, ज्ञान पण हालना वखतमा नथी त्यारे हालमा मनिशान
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(३५.)
ज्ञानकिंवाथी मोक्ष.
श्रुतज्ञान तरतमताए थोड़े अपेक्षाए कहेवाय. हवे ज्ञाननेज माननारा कहो के, केर्बु ज्ञान थयाथी क्रिया करशो, ते बतावो, वा कहो के, ज्यां मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान होय त्यां क्रिया होय के नहीं. अने वळी विचारो के मतिज्ञानी अने श्रुतज्ञानी क्रिया विना शें को. माटे क्रियानो स्वीकार करवो योग्यछे. क्रिया विना एकलं ज्ञान शुं करे. क्रिया ज्ञानिनी पासे होयछे. शास्त्रमा पण
ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः ज्ञान अने क्रियाथी मोक्षछे, ज्ञानाभ्यासरूपक्रिया विना ज्ञाननो पण क्षयोपशम यतो नथी. त्यां पण क्रियानी जरूरछे. कोइ एम कहेशे के, मति वा श्रुतज्ञान थयु एम प्रत्यक्ष जणाशे एटले क्रिया करीशुं. तेना उत्तरमा समजवानुं केवलज्ञान प्रत्यक्षमानछे, मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान परोक्षज्ञानछे. मति वा श्रुत छे के नहीं से अनुमानथी जाणी शकाय. केवलज्ञानी कंइकोवातो कोइ आवनाना नथी. माटे भव्य जीवोए ज्ञान श्रद्धाथी जाणी धर्मध्यानादि कारक क्रियामां प्रवर्तवू
थालेखक-कोइ स्थळे ज्ञाननी विशेषता वा क्रियानी न्यूनता लखे तोपण ते कोइना आदरभणीया कोइना निषेध भणी नथी कि तु बन्नेना स्वीकार माटेछे एम समजवू. एफज स्थळे सर्वनुं स्वरूप एकज वखते वर्णवी शकातुं नथी. तेथी जेजे स्थळे जेनुं जेनुं स्वरूप वर्णन करवामां आवे ते नयनी सापेक्षताए ते ग्रहण करवू. व्यवहार धर्म अने निश्चयधर्म सदा जयवंता वर्तछे. सद्गुरूपासेथी एनं स्व. रूप समजबु. मति मंदताथी शंकादि उत्पन्न थायतो पण सर्वज्ञ वीरना वचनमा सत्यता भरीछे. मतिदोष काढी सत्शास्त्रनो गुरूा. मता पूर्वक अभ्यास करवो. केटलीक वातोमां तो श्रद्धाज राखवी पडेछ. केवलज्ञानथी जाणेला पदार्थोनुं स्वरूप तेने अल्पमति ज्ञानी
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परमात्मदर्शन.
(२५) जीव बराबर शी रीते समजी शके, माटे जिनवचनमां जरा मात्र शंकानो अवकाश नथी. एम श्रद्धा करवी मोक्षार्थी जीवने घटेछे.
उपर प्रमाणे यथा मतिलेशथी व्यवहार निश्चयधर्म वा धर्म क्यां रहेछे ते दर्शाव्यु.
सप्तम विषय. हुं संसारमा जन्म मरण पामुंछु तेनु शुं कारण ? प्रत्युत्तर-कर्म, कर्म ए आत्मा नथी. आत्माथी भिन्न द्रव्यछे. आ
त्मानी साथे अनादिकालथी लाग्युंछे. जेनी आदिनथी तेनो
अनादिकाळ समजवोप्रश्न-कर्म आत्मानी साथे पोते पोतानी मेळे लाग्यांछे वा कोइए
लगाड्यांछे. उत्तर-कर्म पुद्गल स्कंध स्वरूपछे. जडछे. खरवा मिलवा रूपक्रिया
करेछे, अनादिकालथी आत्मानी अशुद्धि परिणतियोगे कर्म ग्रहायछे, परमात्मा आत्मानी साथे कर्म लगाडतो नथी. अर्थात् आत्मा पोते अशुद्ध भावथी कर्मने ग्रहेछे. अशुद्ध परिणति आत्माथी न्यारी नी तेथी आत्माज पोते कर्मनो कत्ता तथा भोक्ता कहेवायछे.
आत्मानी साथै अन्य कोइ कर्म लगाडतुं नथी. केटलाक जीवो इश्वर जीवनी साथे कर्म लगाडेछे एम मानेछे पण ते युक्तिहीन तथा सर्वज्ञनामत विरूद्ध वातछे. कारण के परमेश्वरने शुं प्रयोजन छे के ते जीवोनी साथे कर्म लगावे. अलबत रागद्वेष रहीत प्रभुने कंडपण प्रयोजन नथी के ते जीवोनी साथे कर्म लगाडी शके. वळी परमेश्वर कहो के परमात्मा सिद्ध, तेओए कर्मनो नाश कर्योछे, कर्मनो सर्वथा प्रकारे नाश यतां सिद्ध परमात्मा कहेवायछे, त्यारे
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(२५)
समजवानुं के, जे सिद्ध, परमेश्वर कर्मातीतछे अक्रियछे कोइपण म कारनी क्रिया करता नथी. ते बीजाने कर्म लगाडवानी क्रिया करे ते शशशृंगवत् असत्यवात ठरेछे.
प्रश्न -त्यारे शुं सिध्ध परमात्मा कोइपण प्रकारनी क्रिया नथी करता. प्रत्युत्तर - ना, पौदगलिक कोइपण प्रकारनी क्रिया सिध्ध परमे
श्वर करता नथी, पोताना शुध्यस्वभावे तेमनी सदाकाळ स्थितिछे. कर्मछे ते तो पौद्गलिकछे. पौगलिक भावथी भिन्न प्रभुयाने सिध्धले भिन्न पुद्गलद्रव्यनी क्रियांने प्रभु परमेश्वर करता नथी, प्रभुतो अरूपीछे एवा प्रभुथी कर्म जीवोने लगाaj त्रिकालमां पण बनेज नहीं.
सप्तमविषय.'
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सिध्ध परमात्मा शुध स्वस्वभावे सक्रियछे एटले स्वभाव रमणतारूपवा षड्गुणगुणहानिवृध्धिरूपक्रियाना कर्त्ता सिध्यात्माछे. प्रश्न - सिध्ध परमेश्वर, जीवो कर्म सारां वा नठारां कर्म करेछे. तेनो इन्साफ आपेछे के नहीं.
प्रत्युत्तर - सिध्ध परमात्मा वा जेने निरंजन निराकार ब्रह्म वा इश्वर कहे ते कर्म प्रपंचथी अत्यंत भिन्नछे. ने तेथी ते जीवोन कर्या कर्म प्रमाणे इन्साफ ( न्याय ) करी सुखदुःख आपता नथी. सारांशे जीवोए जे कर्म कर्या छे तदनुसारे सुख दुःख भोगाववा जीवोने सारा खोटा उंच पशु, पंखी, माणस, अंधादिना अवतार परमेश्वर आपता नथी.
प्रश्न -त्यारे जीवो सागं वा खोटां कर्म करे. ते पोतानी मेळे शीं ते भोगवे.
उत्तर- जे क्रियानो कर्त्ता जीव पोतेछे ते क्रियानुं फळ भोगवनार ण जीव पोते जाणवो. जेम कोई मनुष्य तालपुट विष भक्ष
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परमात्मदर्शन.
AANANA
णनी क्रिया पोत करे तो ते क्रियाथी प्राणनाशरूप यतुं फल पण पोते भोगवेछे. हवे कहो के तेमां न्याय कर्ता कोण इश्वर वा क्रियानो कती, इश्वरे मनुष्यना प्राणनो नाश कर्यो वा तालपुट विषे प्राणनो नाश कर्यो. अलबत कहेवू पडशे के विषमांज एवी शक्ति रहीछे के ते प्राणनो नाश करेछे, प्रत्यक्ष ते सिध्ध वातछे. इश्वर न्याय करेछे एम मानवू ते केवल मृषा, प्रमाणविरूध्ध कल्पना मात्रछे, निरंजन निराकार इश्वर सिध्धात्माने शुं प्रयोजन छे के कर्मना फलोदयने भोगवावे.
वळी ते उपर बे विकल्प करीएछीए के कर्म पोते फल आपवामां स्वतंत्रछे के परतंत्र प्रथम पक्षमा कर्म पोतेज सारू वा खोटुं आपवामां स्वतंत्रछे. एम स्वीकारतां इश्वर जीवोने कर्याकर्म प्रमाणे न्याय आपेछे ते वात खोटी आकाश कुसुमवत् ठरी. कर्ममां ज सारूं वा नठारुं फल आपवानी शक्ति रहीछे तो ते प्रमाणे कर्मथी सुख दुःख फल मळशे. पोतानी मळे जेम षुरूषनुं वीर्य अने स्त्रीनु रेतस् ए बेन संयोगमांग उत्पन्न करवानी शक्ति रहीछे तथा जेम आमेमां स्वाभाविक दाहक शक्ति रहीछे तेथी अमिनो अंगारो हाथमा लइएतो पोतानी मेळे हाथ बळे, हाथने बाळवामां दाहकत्त्वरूप न्याय पोते करेछे. तेमां इश्वर कंइ न्याय करतो नथी. सेम कर्म पोते स्वतंत्र रीत्या फल आपवा समर्थछे. त्यां इश्वरने न्याय कर्ता मानवो केवल नमणा अने अज्ञान अने मिथ्यात्व समजवु. कर्ममांज शातावा अशातारूप फल आपवानी शक्ति छे एम सत्य छ, अने एम ज्ञान दृष्टिथी देखायछे. सर्वज्ञने . असत्य वदवानुं कंइ कारण नथी हवे बीजो पक्ष लइए, कर्म फल आपवामां परतंत्र छे एटले ते इश्वरना ताबामांछे. इश्वरनी इच्छा प्रमाणे कर्म फल आपी शकेछे एम मानीएतो इश्वर अन्यायी प्रपंची दयाहीन उरेछ:
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(५४) कर्म स्वयमेव सुख दुम भापेछे. आशंका-तेम करतांइश्वर अन्यायी दयाहीन प्रपंची शीरीते ठरे वारु? समाधान-कर्म फल पापवामां परतंत्रछे. तेम लागवामां पण पर
तंत्र, जे परतंत्र होय ते सदाय फलोदयमां तथा लागवामां परतंत्रज रहेछे, जेम तरवार बीजाने लागवामा तथा तेनो प्राण लेवामां सदाय परतंत्र रहीने कार्य करेछे. मनुष्य हाथमां तरवार ग्रहीने अन्यने मारे त्यारे तेना प्राणनो नाश थायछे, तरवार पोतानी मेळे उंची थइ मारवानी क्रिया करी शकती नथी, कारण के ते कत्तथी प्रवर्तछे माटे परतंत्रछे. तेम कर्म इश्वरना ताबामा रही प्रवर्तता होय तो प्रथम जीवोने इश्वरे कर्म लगाडयां एम कहीएतो पहेला जीव कर्मरहीत हता. त्यारे तेमने शा माटे कर्म लगाड्यां ? कंइपण अपराध विना कर्म लगाड्याथी इश्वर अन्यायी पातकी ठरे. वळी कर्मरहीत पहेला जीवो हता तेओने कर्म लगाडवाथी इश्वर प्रभुन शुं कल्याण थवान हतुं अलबत कंइ नही, बळी इश्वरनामां जीवोने कर्म लगावानी शक्ति नित्यछे के अनित्यछे, जोते कर्म लगाडवानी शक्तिने नित्य मानीए तो सदाय इश्वरजीवोने कर्म लगाया करशे. जीवो कदी कर्मरहीत यशे नहीं. तो प्रभुने भजवू इत्यादि सर्व व्यर्थ कल्पना मात्र थइपडे. वळी इश्वरमा कर्म लगाडवानी शक्ति अनित्यछे एम कहीए तो अनित्य शक्तिना आधारी भूत इश्वरपण अनित्य ठरेछे, निराकार साकार इश्वर मानवामां को प्रमाण नथी. निराकार इधर सिध्धने मानतां निराकार इधरने कोइपण जातनी इच्छा नथी तेथी ते कर्म लगाइवानी उपाधिमां केम पडे.
वळी निराकार इश्वरने जो इच्छा कहीए तो इच्छा अधुराने होयछे, पण पूर्गने होती नथी. इच्छा मानवाथी इश्वरनी पूर्णतानो
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Senten
( २५५ )
नाश थायछे. वळी समजवानुं के इच्छा राग बिना होती नथी अने ज्यां राग होयछे त्यां सदाय द्वेष रह्योछे. रागी द्वेषी होयते कर्म सहीत. होय अने कर्म सहीत होय ते संसारी कहेवायछे, संसारी थवाथी इश्वरपणु नष्ट थयुं, कर्म कलंक नाश करी निरंजन निराकार पद पामवाथी इश्वरताछे- कर्म ए कंड़ बोलवा मात्र शब्द नथी, कर्म पुद्गल परमाणुओनो स्कंधथी बनेलुंछे. अने ते रूपीछे. कर्म लागवाथी आत्माना गुणो ढंकायाछे. हवे कहो के कर्मथी रहीत एवा इश्वरमां कर्म लगडवानी शक्ति मानवी ए केटली भूलनी वातछे, जे पोते कर्म रहीत थयाछे ते बीजाने केम कर्म लगाडे, कर्म लगाडवानी शक्ति इश्वरमां कल्पवी ते आकाश कुसुमवत् असत्य कल्पना मात्र छे. तेमज इश्वरनामां सुख दुःख भोगाववानी शक्ति मानवी ते पण कल्पना मात्र शश शृंगवत् वातछे.
कर्म पोतानी मेळे लाग्यां एम मानतां इश्वर कर्त्ता हर्ता नथी एम सिध्ध थयुं. हवे जीवने कर्म पोतानी मेंळे लाग्यां एम मानतां तर्क थशेके - कर्म लगाडया विना पोतानी मेळे शी रीते लाग्यां अने से क्यारथी लाग्यां तेनुं समाधान सूक्ष्म विचारथी थशेके-कर्म अनादि काळयी जीवने लाग्यांछे. जीव अनादि काळथीछे. जेनी आदि होय उत्पन्न थवापणे ते वस्तुनो अंत पण होयछे, जे वस्तुनो आदि अने अंतछे. ते अनित्य होयछे अने जे अनित्य होयछे ते कार्यछे अने जे कार्य पणे वस्तुछे ते विनाशी छे जेम घट उत्पन्न थयानी आदिछे तो तेनो अंत एटले नाश होयले, आत्मा कहो के चेतन वा जीव तेनी उत्पन्न थवानी आदि नथी अर्थात् आत्मा द्रव्यार्थिकनया पेक्षाए कोइनाथी उत्पन्न थयो नयी, अने जे वस्तु उत्पन्न थइ नथी ते अनादि कालयीछे, जेम आकाश. जे वस्तु अनादि काळथीछे तेनो अंत पण नथी, माटे जीव पण अनादि अनंतछे. आत्माना असंख्यात
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( २५६ )
कर्म शी रीते अम्माने लागे के !
प्रदेशमय व्यक्ति द्रव्यार्थिक नयनी अपेक्षाए अनादि अनंतछे, कोह पण कालमा आत्माना असंख्यात प्रदेश पैकी एक प्रदेश पण खरबानो नथी. आत्मा कहो के जीव ते त्रिकालमां पोताना रूपे सत्छे अने जे वस्तु सत्छे ते नित्यछे, आत्मा सत्छे माटे ते नित्माळे, प्रागभावाप्रतियोगित्वं नित्यत्वं
प्रागभावनुं जे अप्रतियोगी होयते नित्य जेटला कार्य रूप पदार्थो घट पट दंडादिकछे ते पर्यायार्थिक नयनी अपेक्षाए अनित्य Great - कारण घटपटादिक पदार्थों प्रागभावना प्रतियोगीले. आत्मा वा वेतन प्रागभावनो अप्रतियोगीछे माटे आत्मा नित्य Great - द्रव्यार्थिक नय द्रव्यत्व पणाने ग्रहेछे माटे द्रव्यार्थिक नयनी अपेक्षा आत्मा नित्यरूप जाणवो. संसारमां चार गतिमां परिभ्रमण करनारा अनंत आत्माओनुं द्रव्यपणुं त्रिकाल एक स्वरूपछे माटे ते द्रव्यार्थिक नयनी अपेक्षाए नित्य जाणवा, हवे आत्मा अनादि अनंत नित्यछे, तेम सिध्ध कर्यु, ते आत्माने अनादिकाळथी कर्म लाग्यांछे ते वातनुं विवेचन करायछे. आत्मा अनादिकाळथी छे एम सर्वज्ञ श्री वीरमभुना वचनथी जाण्युं तेम कर्म पण अनादिकाळथी आत्माने लाग्छे, एम सर्वज्ञ श्री महावीरना वचनथी जणायुं, वीर प्रभु सर्वज्ञ अने रागद्वेषथी सर्वथा रहित हता माटे तेमना वचनो पूर्ण विश्वास भव्यजीवने थाय एमां कई आश्चर्य नथी, आप्तोक्तं वाक्यं प्रमाणं
श्री वीरप्रभु त्रिकाल सर्वज्ञानी आप्त हता. माटे तेमनुं वाक्य प्रमाणीभूत जाणवुं. कर्म अनादिकालथी जीवने लाग्यां एमां आगम प्रमाण पण सिध्ध ठर्यु. कोइ जीव राजा थायछे, कोइ रंकथाछे, कोइ जन्मी अंधा बधिर अवतरेछे कोइ - रोगीतो कोइ - भोगी इत्यादि सर्व पुण्यपाप फल प्रत्यक्ष देखवामां आवेछे माटे तेमा
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परमात्मदर्शन.
(२५७ ) प्रत्यक्ष प्रमाण पण सिध्ध करेछे. ( भोगायतनं शरीरं ) सुख दुःख भोगववानुं स्थान शरीरछे, अने ते प्रमाणे दरेक जीव क्षणिक सुख तथा दुःख शरीरादिकथी भोगवेछे एम प्रत्यक्ष जोवामां आवेछे. तो ते सुख दुःखD कारण कर्म-पुण्य पापरूप आत्मानी साथे लाग्यु छे एम अनुमान थायछे. जेम कोइ शहेरपासे नदीछे तेमा मलनी रेल आवीछे. शहेरनी आसपासतो मेघ वरस्यो नथी. ते उपरथी एम अनुमान थायछे के-ज्यां त्यां अत्यंत मेघनी दृष्टि थवी जोइए. कारणके नदीमां रेल रूप कार्य देखायछे ते मेघनी दृष्टि विना होय नहीं अहीं तो मेघनी दृष्टि थइ.नथी. तेथी अनुमान थायछे के पर्वतमां दूरे खूब मेघ दृष्टि थइ हशे, तेम कर्मनो बाबतमां पण अनुमान थायछे के- भोग रोग सुख दुःख रूप कार्य फलतो प्रत्यक्ष देखवामां आवेछे माटे तेनुं कारण कर्म होवू जोइए. पुण्य पाप विना शाता तथा अशाता वेदनीय होय नहीं, ए अनुभव सिध्ध वातछे, वळी कहेछे के-जेम कोइ वृक्षना कोटरमा अग्नि सळगेछे अंदरना भागमा अग्नि बळेछे बाहिर देखाती नथी बाहिरतो फक्त धूम देखायछे. ते उपरथी अनुमान थायछे के
यत्रयत्र धूम स्तत्रतत्र वन्हिः ___ ज्या ज्यां धूम होयछे त्या त्या अग्नि होयछे, वृक्ष अंदरथी धूम बहिर निकळतो देखायछे माटे वृक्षना कोटरमा अनिछे एम अनुमान थी सिद्धि थायछे. तेम सुख,पूर्णेच्छा,भोग, रोग,शोक,वियोग,अंधत्व, बधिरत्व, दरिद्रत्वरूप,कार्यरूप, फल देखायछे माटे तेनुं कारण पुण्य पापरूप कर्म आत्मानी साथे लाग्युंछे एम सिद्ध थायछे, सर्व विद्वानो कर्मर्नु अस्तित्व स्विकारेछे तेम कर्म ग्रंथमां कर्मनुं स्वरूप विस्तास्थी ज्ञानीए वर्णव्युंछे तेमज कम्मपयडी, भगवतीसूत्र, पनवणासूत्र, विपाकसूत्र विगेरे सूत्रो तथा ग्रंथोथी कर्मनुं यथातथ्य स्वरूप सम
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( ५८ )
आत्मा.
जायछे अने ते अनुभवमां आवे छे. कर्मनी प्रकृतिनुं स्वरूप निग्रंथ प्रवचनमां सूक्ष्मपणे वर्णन कर्युछे: तेवुंवर्णन अन्य दर्शनमां ते प्रमाणे परिपूर्ण पण नथी. कोइ कर्मने किस्मत कहेछे, कोइ कर्मने प्रकृति कहेछे, पण कर्मनुं अस्तित्व मान्याविना छूटको थतो नथी. - श्लोक. कृतकर्मक्षय नास्ति, कल्पकोटीशतैरपि ॥
अवश्यमेव भोक्तव्यं, कृतं कर्म शुभाशुभं ॥ १ ॥
कृतकर्मनो क्षय नथी. कोटीकल्पशतोए पण कर्म अवश्य शुभाशुभ भोगववुं पडेछे, जन्मजरा अने मृत्यु पण कर्मथी थायछे. चोराशी लाख जीवयोनिगां अवतरकुं पण कर्मथी थायछे. एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेंद्रियना अवतार पण कर्मथी थायछे, कर्म अनेक प्रकारेछे. कर्मना मूळ आठ भेदछे. तेनी उत्तर प्रकृति एकशतअठावनछे. देवगति, मनुष्यगति, तिर्यचगति, नारकगति, ए चार गतिमां अवतार पण शुभाशुभ कर्मथी छे कछे के
गाथा.
जंजेण कयंकम्मं, पुव्वभवे इदभवे वसंतेणं ॥ तं तेण वेइअव्वं, निमित्तमित्तो परो होइ ॥ १ ॥
जे जीवे पूर्वभवमां तथा आभवमां वसतां जे कर्म कर्याछे ते कर्म ते जीवे भोगववा योग्यछे. सुखदुःखमां परजीव तो निमित्त मात्रछे. कर्मनो कर्त्ता पण जीवछे तेम कर्मनो भोक्ता पण जीवछे. देखो सूडांगसूत्र - सम्मतितर्कमां परभावमां रमतो जीव परनो कर्त्ता तथा भोक्ता बनेलोछे-केटलाक कर्म भोगवीने खेरवेछे. अने जीव d. coin कर्म नव ग्रहण करेछे- एम अनादि काळधी जीव कर्मने ग्रहण करतो तथा कर्मने खंडतो वर्तेछे, मातानुं रुधिर अने पुरुषना
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परमात्मदर्शन. वीर्य संयोगे गर्भमां जीवनुं उत्पन्न थर्बु अने प्रतिदिन वृद्धि पामवं इत्यादि सर्व कर्मनो प्रपंचछे गर्भमां पण जीव ओजाहार ग्रहेछे प्रश्न-गर्भमां जीव शावडे आहार ग्रहण करेछे. प्रत्युत्तर-आहार त्रण प्रकारनाछे. १ ओजाहार, २ लोमाहार,
(रोमाहार ) कवलाहर-पूप एटले मालपूआने ज्यारे घीमां तळेछे त्यारे मालपुओ सर्वथी घीनी साये परिणमी जायछे. तेम गर्भमां जीव आहारने खेंची शरीररूपे परिणमावी शरीरनी वृद्धि करेछे. रोमथकी जे आहारने ग्रहण करवो ते रोमाहार कहेवायछे. हवानुं ग्रहण शरीरमा रोमथी थायछे, मुखथकी जे आहारनुं ग्रहण करवू. ते कवलाहार कहेवायछे, मनुष्य पशु पंखी जलचरने कवलाहार प्रत्यक्ष देखवामां आवे
छे, एम गर्भमां ओजाहारनुं ग्रहण छे. प्रश्न-केटलाक भोळा लोको अज्ञानताथी एम मानेछे के-गर्भमाथी
बाहिर नीकळ्या बाद-जीव शरीरमा प्रवेशेछे. अने पश्चात् छठा दीवसनी रात्रीए सरस्वति बाळक, भविष्य कपालमा
लखेछे अने कहेछे के-छठीना लेख लख्या मटे नहीं तेनुं केम? प्रत्युत्तर-गर्भमांज जीव उत्पन्न थायछे. ते माटे प्रवचन सारोद्धार
नवतत्त्व विगेरे ग्रंथो जोवा छठीना लेख सरस्वति लखेछे एम मानवू पण मिथ्या कल्पनामात्रछे-कर्म साथे बंध पामेलों जीव गर्भमां उत्पन्न थायछे, अने त्यां वृद्धि पामी नव मास थया बाद बाहिर नीकळेछे, कोइ गर्भमांज मरण पामेछे, इत्यादि सर्व कर्मनुं फळछे.
कर्मनो सर्वथा प्रकारे क्षय थवाथी जन्मजरा मरणनी प्राप्ति थती नथी
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ईश्वरः प्रश्न-कर्मनो क्षय थवाथी मुक्तिपद मळेछे त्यारे जेटला जीव कर्मनो
- क्षय करेछे ते परमेश्वर कहेवाय के नहीं.. प्रत्युत्तर-हा, जेटला जीव, कर्मनो क्षय करेछे तेटला जीव परमा
त्मा सिद्ध, बुद्ध, कहेवायछे, कर्मथकी सर्वथा प्रकारे रहीत
थ. तेनुं नाम मोक्ष कहेवायछे.. प्रश्र-कर्म सहित जीव मोक्षमां जाय के नहीं ? । प्रत्युत्तर-कर्मसहित कोइ जीव मोक्षमां गयो नथी अने जशे पण नहीं. शिष्य-हे सद्गुरो-कोइ मति अज्ञानीयोए नवीन कल्पना उत्पन्न
करी एम कहेछे के मुक्तिमां केटलांक वर्ष सुधी जीव रही पश्चात्
संसारमा आवे छे. आ बाबत शुं समजवू. सद्गुरु-मुक्तिमां गया बाद जीव पुनरसंसारमा पाछो आवतो
नथी. जीवने एक स्थानथी अन्यत्र लेइ जनार कर्मछे. अने ते कर्मनो संपूर्ण नाश थाय त्यारे मुक्ति स्थानमां जीव सिद्ध रूपे बीराजेछे. त्यांथी संसारमा आवी शकातुंज नथी. कारण के जीवनी साथे कर्म संबंध छतां गमनागमनछे. कर्मना अभावे मुक्ति स्थित मुक्तात्मानुगमनागमन थतुं नथी, श्री वीरप्रभु एम सर्वज्ञ दृष्टिथी वदेछे-चकलाचकलीनी पेठे मुक्तिना जीवो गमनागमन करता नथी-मुक्त जीवो अक्रियावंतछे. माटे ते गम
नागमननी क्रिया करता नथी. प्रश्न-मुक्त आत्मामां सर्वशक्तिमानपणुं छेके नहीं, उत्तर-हा मुक्तात्मामा पोताना स्वरूपथी सर्व शक्तिपणुं रघुछे. पण
पुद्गल द्रव्यनी शक्तिथी मुक्तात्मानी शक्ति भिन्नछे. आकाश द्रव्य अरूपीछे. आकाश जेम अनंत प्रदेशीछे अने ते जेम स्वस्वरूपे स्थिर वर्तेछे. तेम सिद्ध परमात्मा स्वस्वरूपे शुद्ध थया छता स्थिर वर्तेछे. स्थिरवर्तवाथी आत्मिक सर्व शक्तिपणुं जरा
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परमात्मदर्शन. मात्र घटतुं नथी. गमनागमन परमाणुओर्नुछे. परमाणुओना संबंधथी थएला पुद्गल स्कंधो कर्मरूप परिणमी आत्माना प्रदेशोनी साथे लाग्याछे ते ज्यारे कर्म नाश थायछे. त्यारे मुक्तात्मा सिद्धबुद्ध कहेवायछे. मुक्तात्मानी सर्व शक्ति आत्माना असंख्य प्रदेशोनी व्यापीने रहीछे. मुक्तात्मानी शक्ति स्वद्रव्य बाहिर जती नथी. माटे आत्मस्वभावे सर्व शक्तिपणुं सदा बनी
रघुछे, सिद्ध अक्रिय होवाथी गमनागमननी क्रिया करे नहीं. प्रश्न-कोइ एम कहेछे के-इश्वर अवतार लेइ दैत्योनो नाश करेछे
ए पात खरी के खोटीउत्तर-कर्म रहीत निर्मल परमात्माने इश्वर कहेवामां आवेछे ते
परमात्मा अवतार ग्रहण करता नथी कारणके कर्मातीतने अवतर, आदि उपाधि नथी-पण कर्म सहित जे संसारी जीवछे
ते अवतार ग्रहण करेछे अने जन्म जरा मरणनां दुःख पामेछे. प्रश्न-त्यारे इश्वरनां लक्षण कहो. प्रत्युत्तर-जेनामां रागद्वेष सर्वथा होतो नथी तेने इश्वर कहेछे वळी
इश्वरना चार प्रकारछे-नाम इश्वर, स्थापना इश्वर, द्रव्य इश्वर, अने भावइश्वर इश्वर एवं गुणी वा निर्गुणीनुं इश्वर एवं नाम स्थापq ते नाम इश्वर, तथा कोइ पण वस्तुमा इश्वरनो आरोप करवो ते स्थापना इश्वर-जे जीवमा इश्वरपणुं आविर्भावे वर्ते नहीं ते द्रव्येश्वर-जे जीवमां रागद्वेषना क्षयथी इश्वरत्व आविर्भावे वर्तेछे ते भावेश्वर, ए चार भेद इश्वरनाछे. तेमांथी पूर्वोक्त जे इश्वर भावइश्वर तरीके कथायछे. ते इश्वरनुं संसारमा पुनजन्मकुं यतुं नथी. जीव ते पण इश्वर सत्ताएछे. इश्वरपणुं कर्मा च्छादितपणे होवाथी कर्म सहीत संसारी जीव संसारमा जन्म जरा मरण करेछे अने चतुरशीति लक्ष जीवयोनिमा पुनः पुनः परि
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( २६२ )
आत्मा कर्म करे छे.
भ्रमण करेछे - जीव पोते कर्म करेछे अने तेनो भोक्ता पण पोते एकलोछे. कांछे के
गाथा.
एको करेइ कम्मं फलमवि तम्मिक एको जायइ मरइय, परलोयं एक्कजाइ ॥ १ ॥
समणुवह
भावार्थ सुगम होवाथी लख्यो नथी, व्यवहारनये जीव कर्मनो कर्त्ता - शुद्धनिश्री स्वस्वरूपे रमतो जीव परनो एटले द्रव्यकर्म तथा भावकर्मनो कर्त्ता नथी.
ज्ञानी शुद्ध आत्मस्वरूपमां रमतो कर्मनो नाश करेछे-जे आश्रवना हेतुओ छे ते ज्ञानीने संवररूपे परिणमे छे. कांछे केश्लोक. यथा प्रकारा यावंतः संसारावेश देतवः तावंतस्तद्विपर्यासाः निर्वाणावेश हेतवः
कर्मना वे भेद छे. एक शुभाश्रव बीजो अशुभाश्रव. प्रथम शुभावने पुण्य कहे छे, अने अशुभाश्रवने श्रीजिनेंद्रदेव पाप तरीके कथेछे. पुण्यनी बेतालीस प्रकृतिछे अने तेम पापकर्मनी ८२ ब्यासी प्रकृतिछे. आत्माना शुभ परिणामथी पुण्य तथा अशुभ परिणामथी पापकर्म बंधायछे. रागद्वेषने भावकर्म कथेछे. रागद्वेषनो जय करवो ए शूरा पुरूषतुं कृत्य छे. रागद्वेष जीत्या विना देवपणुं कथातुं नथी. चतुर्दश रज्ज्वात्मक लोकमां सर्व संसारी जीवोमां रागद्वेष व्यापी रह्योछे. महादेव बत्रीसीमां कहां छं के
श्लोक. रागदेष महामलो, दुर्जितौ येन निर्जितौ; महादेवं तु तं मन्ये, शेषा वै नामधारकाः
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१
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परमात्मदर्शन.
( २६३ )
आ संसारमां दुर्जय रागद्वेषरूप महामल छे. तेवा महामल्लोने जे जीत्याछेतेने महादेव मानुंछं, बाकीना तो नामना महादेवछे. रागद्वेषने जीतवाथी वीतरागता मगटेछे, सत्यतात्त्विक सुख वीतंरागावस्थामांछे. रागदशाश्री दुःखछे अने वीतरागदशाथी सुखछे. एम सर्वज्ञ वीरपरमात्मा सारमां सार कथेछे. श्रीवीरमभुए ध्याननी तीक्ष्णताथी रागद्वेषनो क्षय कर्योछे. श्रीमसन्नचंद्र राजर्षिए रागद्वेष शत्रुनो आत्मध्यानथी क्षय कर्यो. रागद्वेषज संसारनुं मूळ छे. ज्ञान दर्शन अने चारित्रगुणनी क्षायिकभावे प्राप्ति रागद्वेषना क्षय विना नथी. द्वेष करतां पण रागनी सत्ता विशेषतः प्रवर्तेछे. कारण के जड वस्तुपर पण रागदशाथी ममत्वभाव उत्पन्न थायछे. आत्मिक ज्ञानयोगे मोहनीय कर्मनो उपशमभाव वा क्षयोपशमभाव वा क्षायिकभाव प्रगटेछे. ज्ञानावरणीय कर्मना, क्षयोपशमभाव वा क्षायिकभवना प्रादुर्भावने मोहनीय कर्म अटकावेछे.
कर्मबंधमां पण रागद्वेषनी प्राधान्यता समयमां वर्णवीछे. चार घातकर्ममां पण मोहनीय कर्मनी सत्ता प्रवलपणे प्रवर्तेछे. देवगुरु धर्मनी श्रद्धा सम्यक्त्व पण मोहनीय कर्मना, उपशम, क्षयोपशम तथा क्षायिकभावथी थायछे, मोहनीय कर्म पण द्विधा प्रवर्तेछे. दर्शन मोहनीयना क्षयथी दर्शन प्रगटेछे अने चारित्र मोहनीयना क्षयथी चारित्र प्रगटेछे, वेदनीयकर्म, आयुष्यकर्म, गोत्रकर्म अने नामकर्म एह चार कर्म अघातीयांछे, ए चार कर्ममां औदयिकभाव फक्त प्रवर्तेले. औदयिकभावे अघातियां चार कर्म भोगवीने आत्मा खेरवेछे. प्रत्येक भवमां द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भावथी औदयिकभावनी जीव जीव प्रति भिन्नता वर्तेछे. इंद्रिय, गतिकायनी अपेक्षाए औदकिभाव जीव जीव प्रति असंख्यभेदे भिन्नतानी तारतम्यता मर्ते छे. औदयिकभावे चार अघातीयां कर्मनी कर्मबंधनमां निमित्त
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( २६४ )
को.
कारणता वर्तेछे. प्राध्यानता रागद्वेषंनी कर्मबंधनमांछे. माहनीय कर्मनी बंधस्थीति उत्कृष्टी सित्तेर कोडाकोडी सागरोपमनी जाणवी. मोहनीय कर्म मदिरा समान छे. जेम मदिरापानथी मत्त थएल मनुष्य अविवेकी बनी कृत्याकृत्य जाणी शकतो नथी. तेम मोहना उदयथी मूढ थएल मनुष्य कृत्याकृत्यने समजी शकतो नथी, भक्ष्याभक्ष्यमां प्रवर्तेछे, परभावमां मदोन्मत्तपणे मवर्तेछे अने virusयोगे आत्माने कर्मदलिकथी भारे करेछे. मोहोदयथी कोइनी हितशिक्षा श्रवणे सुणतो नथी. युवावस्थामां तो मोहोदयता अतिशय वर्तेछे. मोहनीय कर्मरूप बाजीगर - संसारी जीवोने पूतळांनी माफक नचावेछे अने जन्म, जरामरण, रोगशोक, तृषा, क्षुधा, छेदनभेदननां दुःख आपेछे, छतां जीवो मूढताथी संसारमां सार मानी रागदशामां मस्तान थइ वर्तेछे. अहो केटली अज्ञानता. क्षणिक सुखमां चिंतामणि रत्न समान मनुष्यभव जीव हारी जायछे अने पुनः पुनः संसारमां परिभ्रमण करेछे. कर्मराजा संसाररूप नगरमांथी जीवने जरा मात्र खसवा देतो नथी. अनंत शक्तिधारी आत्मा पण कर्म पिंजरमां रह्यो छे. क्यां पुद्गलनी शक्ति अने क्यां आत्मानी शक्ति तेनो तो हे भव्यो विचार करो -
प्रश्न - हे गुरु महाराज कर्म ए पुद्गल द्रव्य छे के पुद्गल द्रव्यना पर्यायछे.
उत्तर - कर्म एह पुद्गल परमाणु द्रव्यना पर्यायरूप स्कंधोछे अने ते आत्म प्रदेशांनी साथे क्षीरनीरनी पेठे परिणमे छे - पुद्गल द्रव्यनो स्कंध रूप पर्याय कर्म जाणबुं - कर्म जडछे. पण तेनाथी आमाना गुणो ढंकायछे तेथी आत्मा दुःख पामेछे. प्रश्न- अनादिकाळथी जे कर्म आत्मानी साथे लाग्युं छे तेनो शी
रीवे अंत आवे.
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परमात्मदर्शन. उत्तर-कर्म बंधननी मूळ सत्ता जे रागद्वेषछे तेनो क्षय करवायी
कर्मनो अंत आवेछे. मतिश्रुतज्ञानना क्षयोपशमभावे कोइक भव्यजीव षड्द्रव्यने जाणी जीवद्रव्यने अन्य पंचद्रव्यथी भिन्न जाणीसम्यक् शुद्ध बोधथी आत्मध्यानमां मवर्ते अने रागदशाना हेतुओने त्यागी संयम आदरी निश्चयथी स्वस्वभाव स्वगुण स्थिरतारूप चारित्रमा उपयोगथी वर्ते तो जीव कर्मनो सय फरेछे. अने तीर्थंकरोक्त परमपदनी प्राप्ति करेछे. अनंत जीवो कर्मनो संक्षय करी परमपद पाम्या अने पामशे. एम श्री प्रवचन वदेछे.
जे भव्यो वीतरागना पंथने चाहेछे ते भव्यो रागद्वेषनो क्षय करी ते पदने पामेछे अने पामशे. कर्मनो ग्रहण कर्ता पण जीवछे अने तेनो नाशकर्ता पण जीवछे. ___ परमां रागद्वेषनी परिणतिथी कर्मबंधन अने स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल अने स्वभावथी आत्मगुणमा प्रवृत्ति करवाथी कमनो नाश थायछे. मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योगथी कर्मबंधन थायछे. अनादि काळथी जीव संसारमा परिभ्रमण करेछे तेनुं कारण कर्म जाणवू. भेदज्ञान थवाथी आत्मा अने परनो भेद थायछे. अने भेदज्ञानथी समकित प्रगटेछे. ज्ञानभाव विना मोहोदयतानो नाश थतो नथी. कयुं छे के,
श्लोकः ज्ञानेन भिद्यते कर्म, छिचंते सर्व संशयाः आत्मीयध्यानतो मुक्ति, रित्येवं कथितं जिनैः॥९॥
ज्ञानथी कर्मनो नाश थायछे. अने सर्व संशयो छेदायछे अने आत्मध्यान पण ज्ञान विना थतुं नथी. माटे ज्ञानथी आत्मध्यान करता मुक्तिनी प्राप्ति श्रीजिनेश्वरोए कथीछे. ज्ञानथी वैरण्य
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PARAANAVARAN.
ज्ञानप्रताप. थायछे अने वैराग्यथी चारित्र जीव आदरेछे, अने तेथी जीवकर्मनो क्षय करी मोक्षमा जायछे. माटे मुक्तिमार्गमां ज्ञाननी तथा तेनी साये वैराग्यनी पग मुख्यताछे. शास्त्रमा कयुं छे के
श्लोक. ज्ञानस्यैवहि सामर्थ्य, वैराग्यस्यैव वा किल; यत्कोऽपि कर्मभिः कर्म भुंजानोऽपि न बध्यते.१
ज्ञान- एवं सामर्थ्य छे के वा वैराग्यनु खरेखर एबुं सामर्थ्य छे के जेथी कोइपण कर्मोवडे कर्म भोगवतो छतो पण कर्मथी बंधातो नथी. तात्पर्य के ज्ञान अने वैराग्यथी कर्म भोगवतां पण कर्मबंध थतो नथी.
माटे कहेछे केज्ञानीको भोग सवि निर्जराको हेतु हे.
ज्ञानीनो सर्वभोग निर्जरार्थ छे. औदयिकभावे प्राप्त थएला पंचेंद्रिय विषयभोगोने भोगवता पण ज्ञानी कर्मनी निर्जरा करेछे, अने अज्ञानी उलटा बंधायछे. हुं ज्ञानीछ एम मानी वेसवाथी कंइ शानीपणुं आवतुं नथी. वा कोइ एम कहेशे के आ ज्ञानी नथी एम कयघाथी ज्ञानीपणुं टळतुं नथी. ज्ञानीपणुं ज्ञानीगम्य वा ज्ञानीना अनुभवमां समजायछे.
ज्ञानना पण घणा भेदछे. आत्मज्ञान विना कर्म कलंक टळतुं नथी. ज्ञाननो महिमा अनंतछे.
कृष्ण अर्जुनने कहेछे केज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन.
हे अर्जुन ! ज्ञानरूप अग्नि सर्व कर्मने बाळी भस्म करेछे. ज्ञान विना चारित्र नयी अने चारित्र विना मुक्ति नथी. क्रिया पण शानिनी पासले. ज्ञान विना शुंतप, शुक्रिया माटे आत्मतत्त्वतुं ज्ञान
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परमात्मदर्शन.
करवु श्रेयस्करछे. आत्मज्ञान विना कोइ तर्या नथी अने तरंश पंग नहीं, राजा, करोडाधिपति, आदि सर्व करतां ज्ञानीनी महत्वताछे. ज्ञानी सूर्य करतो पण मोटोछे. कारण के सूर्य बाह्य प्रकाश करेंछ किंतु अंतर्मकाश करी शकतो नथी. अने ज्ञानी तो अंतर्मकाश करे छे. ज्ञानीनी सर्व क्रिया, वर्तन सापेक्षपणे वर्ते छे. अने अज्ञानीखें वर्तन निरपेक्षतया वर्तेछे. ज्ञानी अवश्य चोथाठाणे गणे तो होयछे अने अज्ञानी बी. ए. एल. एल. बी आदि पद्विओथी दुनीयादारीमा महा विद्वान् कहेवातो होय तो पण समकित विना पहेले गुणगणे पर्ने छे. ज्ञानावरणीय कर्मना क्षयोपशमभावथी वा क्षायिकभावथी शाननो आविर्भाव थाय छे. सम्यकतत्त्व श्रद्धान् विना ज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशमभाव पण मिथ्यात्वरूपे परिणमेछे. एम श्रीवीर प्रमुनु कथनछे, ____ ज्ञानावरणीय कर्म पंचप्रकारेछ-मतिज्ञानावरणीय कर्म १, श्रुतज्ञानावरणीय कर्म २, अवधि ज्ञानावरणीय कर्म ३, मनःपर्यव ज्ञानावरणीय कर्म ४, केवल ज्ञानावरणीय कर्म ५. ___ज्ञानावरणीय कर्ममा उपशम भाव नथी. ज्ञानावरणीय कर्मनो
औदायिकभावछे. ज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम विचित्र असंख्य प्रकारे तरतमयोगथी वर्तेछे. द्वादशांगीनुं गुंथन गणधरजी क्षयोपशमभावे करेछे.
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञानमा क्षयोपशम भाव लाभेछे. केवलझान क्षायिकभावे उत्पन्न थायछे. ज्ञानावरणीय कर्म अष्ट कर्ममा प्रथम छे. तेनुं कारण के विशेषतः ज्ञानावरणीय कर्म आत्मानुं भान भूलवेछे. ज्ञान विना तत्त्व- भान यतुं नयी. माटे प्रथम तेनो निक्षेप कर्योछे. ज्ञान विना जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रय, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्षनु स्वरूप जणातुं नथी,
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( २६८ )
षड्द्रव्य, सातनय, सप्तभंगी, प्रमाण निक्षेपतुं यथातथ्य स्वरूप ज्ञान विना समजातुं नथी. ज्ञान विना धर्म अधर्मतुं स्वरूप जणातुं नयी. ज्ञान घिना चारित्र शुं छे तेनुं पण भान थतुं नथी.
ज्ञान,
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मति ज्ञानावरणीय अने श्रुत ज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम सर्व जीवोमांसरखो लागतो नथी. कोइएक वस्तुनुं स्वरूप विशेष समजेछे कोइ समजतुं नथी. त्यां मति ज्ञानावरणीयकर्मनी क्षयोपशमताज कारणीभूतछे. पूर्वभवमां जे प्रकारे मतिज्ञान अने श्रुत ज्ञाननुं आराधन कर्तुं होयछे. ते प्रमाणे आ भवमां मनुष्य जन्म पामी शरीरनी रचना, मगजनी रचना ज्ञानतंतुनी प्रबलता आदि सामग्रीसाधन मतिज्ञानावरणीय कर्मना क्षयोपशमभावमां प्राप्त धायछे अने ते साधनोद्वारा उद्यम करवाथी मतिज्ञाननी वृद्धि थायछे.
मतिज्ञानना अष्टाविंशति अने ३४० त्रणसो चालीश भेद नंदिसूत्रमां मरुप्याछे. ज्ञाननी ब्राह्मी लीपी जे श्रुतज्ञान अक्षरस्वरूपेछे तेनी आशातना करवाथी ज्ञानावरणीय कर्म बंधायछे. आशातनाना हजारो भेद छे. ते गीतार्थने विनयथी पूछी समजण लेवी.
सुवर्णना प्यालामां जलनां जेटलां बिंदु पडेछे तेलां कायम रहेछे. तेम योग्य संस्कारी जीव जेटलुं गुरुद्वारा श्रुतज्ञान मेळवेछे तेटलं तेने शुद्धरूपे परिणमेछे अने तेनुं स्मरण रहेछे.
जेम तपात्रेला लोहना गोळा उपर जलबिंदु त्रण चार दश बार पडे तो कंइ तेनुं जोर चालतुं नथी तेम मूढ अज्ञानी जीवना हृदयमां सद्गुरु वचनामृतनो वास थतो नथी उलटो तेनो नाश थाय छे. एक शिक्षक शिष्योने एकज वखते सरखी रीते कोइ विषयनो बोध आपेछे तेमां कोइ विद्यार्थिने तो बिलकुल तेनी यादी रहेती नथी. कोइ ने यत् किंचित् रहेछे. कोइने पूर्ण यादी रहेछे त्यां श्रुत ज्ञानावरणीय कर्मनी क्षयोपशमताज कारणीभूतछे, कोइ एक श्लोक
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परमात्मदर्शन.
( २६९ )
भणीने स्मरणमां राखेछे. कोइ एक कलाकमां पांच श्लोक भणेछे. कोइ पच्चीश श्लोक कोइ शतश्लोक कोइ सहस्रश्लोक एक कलाकमां याद करेछे कोइ आखा दीवसनो एक श्लोक पण याद करी शकतो नथी. त्यां श्रुतज्ञानावरणीयकर्मनी क्षयोपशमताज कारणीभूतछे. हालना समयमा कोइ शतावधानी कोइ द्विशतावधानी देखवामां आवे छे. तेनुं पण कारण मति अने श्रुतज्ञानावरणीय कर्मनी क्षयोपशमarat विचित्रताछे. अने ते प्रमाणे मगजनी रचना ज्ञानतंतुनी मबलता अने अप्रबलतानी तारतम्यताए घटना थायछे. अने ते प्रमाणे द्रव्य क्षेत्र काळभावथी प्रवल अमवल साधनोनी प्राप्ति थाय छे. श्रुतज्ञाना अभ्यासथी तथा श्रुतज्ञानीनो विनय भक्ति बहुमान करवाथी श्रुतज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम थायछे. श्रुत अने श्रुतज्ञानीनी आशातना करवाथी तथा उत्सूत्रभाषण करवाथी श्रुतज्ञाना - वरणीय कर्मनो बंध थायछे. माटे भव्य जीवोए क्रोध लोभ मान पूजा स्वार्थादिक आवेशथी उत्सूत्र भाषण करवुं नहीं. उत्सूत्र भाषणथी जमाली तथा मरीचिनी पेठे भवपरंपरानी प्राप्ति थाय छे. अल्पज्ञानयोगे उत्सूत्र भाषण थयुं होय तो ज्ञान थतां मिथ्या दुष्कृत देवु. पण मान पूजा लज्जादिकथी मिश्रयादुष्कृत देतां प्रमाद करवो नहि. भवभीरु भाग्यवंत जीव अनेकांत पंथने समजी प्राणांते पण मिथ्याप्ररूपणा करतो नथी. उत्सूत्र भाषण समान कोइ पाप नथी. माटे कदी अल्पज्ञपणाथी उत्सूत्र प्ररूपणा करवी नहि, कलियुगमां सूत्रोनी प्ररूपणामां गुरुगम विरह, मान, पूजा, स्वार्थ, मतांधपणाथी, उत्सूत्रभाषण करी अज्ञानी जीवा अनेक प्रकारना मत उठावेछे अने कुमति कुश्रुतयोगे कुतर्क करी भिन्न भिन्न पंथनी काळी दृष्टि रागी जीवोने समजावीने वीरप्रभुनां सत्य वचननो लोप करी आत्माना अजाण - पणाथी भवपरंपरानी वृद्धि करी जन्मजरा मरणनां दुःख विविध योनिमां अवतार ग्रही भोगववा प्रयत्न करेछे.
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(२७० )
सूत्रोना आशय.
सूत्रमा कोइ वचन तो उत्सर्ग मार्गनां छे. कोइ वचन अपवाद मार्ग बोधक. कोइ भय वचनछे. कोइक तो व्यवहार मार्गने बोधेछे. कोइक तो निश्चयनय मार्गने बोधेछे. एत्रो सूत्र सिद्धांतरूपी श्रुत सागरनो सार - महाश्रुतज्ञानी विना कोण पामी शके. अलबत ज्ञानी पामी शके.- कहछे के
गाथासूत्र.
विहिउज्जम वन्नय भय, नसग्ग ववाय तदुभय गयाई; सुत्ताई बहुविदाई, समई गंभीर भावाई ॥ १ ॥ एसिं विसयविभागं, अमुणंतो नाण चरणकम्मुदया, मुझइ जीवोतत्तो, सपरसि मसग्गदं कुणइ ॥ २ ॥
जैनसूत्रो उत्सर्ग अपवादथी परिपूर्ण सदाकालं विजयवंत वर्तेछे. सप्तनयोतुं यथार्थ स्वरूप जाण्या विना धर्मोपदेश सम्यग् रीत्या देह शकतो नथी. वेटलांक सूत्रो उद्यमकथकछे, माटे अपेक्षा समज्या विना प्ररूपणा करवी नहि. भाग्यवंत जीवोए गीतार्थनुं शरण अंगी - कार कर योग्यछे. दुःषम समयछे. माटे गीतार्थद्वारा अनेकांत मार्ग समजवो. श्रुतज्ञानिनी तथा श्रुतज्ञाननी आशातना करवायी नरकादि गतिमां घणा जीवो गया अने घणा जंशे.
णमो वंभलीवीए.
आ सूत्रो सम्यग् अर्थ गुरु परंपरया के.वी रीते थायछे. अने मां श्रुतज्ञाननो विनय बहुमान भक्तिनुं केटलं रहस्य समायुंछे. हवे dai कुतर्कनी स्वच्छंदताए विपरीत अर्थ करवामां केटली विरुद्धता वर्तेछे. ते विद्वज्जनो माध्यस्थदृष्टिथी विचार करशे तो समजाशे. श्री यशोविजयजी उपाध्याय पोताना रचेला स्तवनमां सप्रमाण अनुभव सहित शुद्ध व्याकरण दोषरहित सम्यग् अर्थ दर्शावे छे. तेनी
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परमात्मदर्शन.
( २७१ )
समजु लोको विचार करी असत् आलंबन परिहरो सदालंबन अंगीकार करशे. शतज्ञानीनो एकमत अने शत अज्ञानिना शतमत व्यबहारमां प्रसिद्धछे.
जगत्मां सूक्ष्मगंभीरअर्थपरिपूर्ण धर्मतस्त्वना समजनारा भव्यो अल्प होयछे, अने तेमां पण भावार्थ समजी धर्मतत्त्वनो आदर करनारा अल्प होयछे, अने तेमां पण अनुभवी तो अल्पमां अल्प होयछे.
हाल पंचमकाळछे, पंचविष भेगां थयांछे. प्रायः बहु पापी जीवनुं अत्र उत्पन्न थवुं थायछे. वळी तेमां मिथ्याली अने पापानुबंधी पापवाळा घणा जीवोनी उत्पत्तिनो समयछे. एवा पंचमकाळमां धर्मी जीवो करतां पापी मिथ्याली जीवोनो मोटो भाग होय तेमां शी नवाइ ! ! ! अहा दुःषमकाळ व्हारो केवो प्रभाव ?
त्यारे हवे शुं करवुं ? धर्म कर्या विना बेसी रहेतुं ? ना तेम करबुं योग्य नथी. भगवान्नुं शासन दुःपसहस्ररि सुधी चालशे. धर्म पण त्यां सुधी छे केटलाक मतिहीन प्रमादी जीवो हालमां मुक्ति नथी एम समजी धर्मकरणी करता नथी. आ विपरीत समजनुं तेमनुं भूल भरेलुंछे. हाल पण अप्रमादयोगे सातमा गुणठाणानुं स्पर्शन भाग्यतो करे तेमां सममाण हेतुछे. जेटली जेटली कर्म प्रकृतिथी मूकावुं ते ते अंशे मुक्तपणुं अने धर्म समजवो. कांछे के
J
जे जे अंशेरे निरुपाधिकपणुं, ते ते अंशे धर्म ॥ सम्यग् दृष्टिरे गुणगणाथकी, जीव लदे शिवशर्म ॥
श्री यशोविजय उपाध्याय भेद ज्ञान थतां समकितनी प्राप्ति थता उपशमभावे वा क्षयोपशमभावे वा क्षायिकभावे धर्मनी साध्यता सिद्धि बतावेछे, चोथा गुणठाणाथी प्रत्येक गुणठाणे षड्गुण हानि दृद्धि असंख्यात भेदे प्रत्येक जीवोने रहीछे. ए वात गीतार्थोना अनुभवमां सत्यछे,
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( २७१ )
शनि,
धर्म श्रवणी भेदज्ञान थायछे अन तेथी स्वपरनो विभाग करतां सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाशछे. तेमां श्रुतज्ञाननो महा उपकार समजवो, त्रिकाल सर्वज्ञ वीरप्रभुए केवलज्ञानथी सर्व पदार्थोंने जोया अने वाणीथी ते पदार्थोनुं स्वरूप कथ्युं. ते भगवान्नी स्वपर प्रकाशक वाणीनेज श्रुतज्ञान सूत्रसिद्धांत रूप कथेछे हालपण भगवान्नी वाणी जयवंती वर्तेछे.
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आसन्नभव्यी भगवद्वाणीरूपगंगा प्रवाहमां स्नान करी संसारना तापथी शांति पामेछे अने पामशे.
महाविदेह क्षेत्रमां अनादिकाळथी समकितश्रुत अने मिथ्याश्रुत वर्ते छे.
सुश्रुतनो हे भव्यो आदर करो वखत वही जायछे, वखत अमूल्यछे गयो वखत पश्चात् आवनार नथी. भव्य जीवोए वारंवार श्रुतज्ञाननो अभ्यास करवो.
अवधिज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम थवाथी अवधिज्ञान उत्पन्न थायछे. अवधिज्ञानना षड्भेदछे. अने वळी असंख्यात भेदे प्रवर्तेछे. मनः पर्यवज्ञानावरणीय कर्मना क्षयोपशमथी मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न थायछे, मनपर्यवज्ञान वे प्रकारेछे.
केवलज्ञान क्षायिकभावे उत्पन्न थायछे. शुक्लध्यानना बीजो पायो ध्यावतां बारमे गुणठाणे केवलज्ञानावरणीयकर्मनो सत्ताथी पण सर्वथा क्षय थाय छे.
मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान परोक्षछे अवधिज्ञान अने मनःपर्यवज्ञान देश प्रत्यक्षछे. केवलज्ञान सर्वथी प्रत्यक्षछे.
आ प्रमाणे ज्ञाननी प्राप्ति थतां आत्मा परमात्मस्वरूप बनेछे. ज्ञाननी प्राप्ति थतां दर्शनावरणीयादि कर्मनो सर्वथा क्षय वायछे. जे जे कर्मप्रकृतिनो जे जे गुणठाणे क्षय थवानो होयछे ते ते गुण
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परमात्मदर्शन.
( २०२१
ठाणे ना क्षय थायछे. ज्ञानप्ररूपणा नंदिमूत्रमां हेतु न्याय पूर्वक दर्शावीछे. माटे आत्मार्थि जीवोए त्यांथी विशेष अधिकार समजवो अहाज्ञाननी केवी शक्ति ! ! ! चक्षुद्वारा देखेला पदार्थोनो मनमां केवो विचार थायले. बीजानामनना विचार पण ज्ञानथी जाणी शकाय छे. ज्ञाननी एकनी एकथी बीजा जीवमां विशेषता देखवामां आवे छे. केवलज्ञानमां सर्वज्ञाननो समावेश थायछे. संप्रतिकाळे ज्ञाननी क्षीणताछे. अने तेथी मतभेद वणा थया अने थशे जेम ज्ञाननी अल्पता नेम मतमतांतर विशेष अने ज्ञाननी वृधि तेम मतमतांतर अल्प जाणवतं. मतभेदना कदाग्रह विना जे जे वांचवं. सांभळवु. मनन कर ते सफळछे.
क्षयोपशमभावे अधुना मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान समकिती जी - बोने वर्तेले, एम कथवं अनुभवगम्य सप्रमाणछे, मति अज्ञानी अने श्रुत अज्ञानी जीवो आ क्षेत्रमां विशेषछे मति अने श्रुत ज्ञानी जीवो अल्प अने तेमां पण विरति पाम्या जीवो अल्प अनुभवगम्य सिद्धांतानुसारछे.
हे भव्य मति ज्ञान अने श्रुतज्ञाननो गहन विषयछे. अल्पज्ञपणाथी सूक्ष्म तत्त्वरूवरूप निगोद स्वरूप समजी शकाय नहीं तो मां ज्ञानावरणीय कर्मनो दोष समज. ग्रंथकर्त्ताने दोष आपीश नहीं सूक्ष्म तीक्ष्ण मति ज्ञान विना सूक्ष्म वातनो बोध यतो नथी. एम कहे सप्रमाणछे. केवलज्ञान अने केवल दर्शनथी जे पदार्थ स्वरूप जाणवा देखवामां आवे तेनुं स्वरूप मतिज्ञानथी यथार्थ साक्षात् कदी जाणी शकाय नहि. एम अनुभवयी ज्ञानीओ कथेछे. माटे शंका मनमां लावीश नहिं. जिन प्रवचनपर आस्था राख. जिनेश्वरे जे वचनो कथ्याछे ने अन्यथा नथी. एम श्रद्धा कर. अने आत्मानुभव सद्गुरुद्वारा कर के जेथी मुक्तिमार्गनो अधिकारी थाय. पूर्वा
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AUHAA
A ) कर्मराजा अने धर्मराजानु युद्ध. कमोहनीस अने ज्ञानावरणीय कर्मन स्वरूप तथा तेना नाशकी मात्मणोनो लाभ देखाडी हवे प्रस्तुत कर्मविषयज वर्णन कर मामा आबेले. कर्म संबंधी सामान्य वर्णन कर्यु. कर्म जडछे अने से आत्माना गुणोनो घातकर्ता छे. सर्व जीव कर्मासक्त छे. कर्मनो माया कस्को एज कर्तव्य छे. कर्मनुं स्वरुप समज्या विना कर्मनो नाश थतो नथी. श्रीवीरप्रभुए घोर परिसह सहन करी कर्मनो क्षय कर्यो... तो तेमनी वाणीना आधारे आपणे पण ज्ञान दर्शन चारि मनुं माराधन कर, लक्ष्यमा राखq. मोक्ष मार्ग विकट छे. प्रमाद कुपो, उपयोग अल्प, आयुष्य अल्प, दुःषमसमय, सत्समागम अल्प, धर्म साधनो अल्प, कर्मसाधनो विशेष, अहो के.वी दुर्दशा, क. मनुं जोर विशेष, धर्मध्याननुं जोर अल्प. आ शुं थयु, शुं करवू. हे बीरमा तारी वाणीनुं शरण, जगत्मां तमारो केटलो उपकार ! तारो आधार, तारो विश्वास. कर्पनी दुःखप्रदविचित्रमकृतियोनो नाश करखा केवा प्रकारचें लक्ष्य जोइए ? अधमता अने प्रमादयी जीवो क्याथी स्वस्वरूप पामे ? धर्म उद्यम अल्प छे. कर्मोपार्जन उद्यम अहर्निश चाल्या करेछे. तपासोतो खरा ! रागनुं जोर तमाग्रमा विशेष छे वा वैराग्यनु, जोर विशेष छे, कर्मनी कठीन ग्रंथीनो भेद आत्मार्थी पुरुष पुरुषार्थथो करेछे. कर्मनुं क्षेत्र चतुर्दश रज्वात्मक प्रमाण छ, अर्थात् कर्मनी राजधानी चउद राजलोकमां छे. तो पण कर्मथी डरवातुं नथी. कर्म नाश थवानुं नथी एम स्वममा. पण विचार, नहि, कारणके तेम मानी बेसवाथी उलटुं कर्मनीज दि थापछे. मारायी राग छूटवानो नथी वा मारा कर्ममा लख्यु हशे ते प्रमाणे थशे. एम प्रमादनी वृद्धि अर्थे वा सरागदशानी वृद्धि अर्थे वचन वदशो नहि. अनुयमनां वचनो जे बोलवामां आवेछे ते चावित्र मोहची आदिना उदयथी समजकुं. जरा सूक्ष्मदृष्टिथी, विचारो के
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परमात्मदर्शन,
उद्यमयी कयुं कार्य सिद्ध थतुं नथी ? अलबत उग्रमयी सर्व कार्ड सिद्ध थाय ते. हवे ते कर्म संबंधी विशेष विवेचन करीए छीए.
१ कर्मराना २ कर्मराजानो मधान मोह ३ संसारनगर ४ कर्मराजानो पुत्र अज्ञान
५ कर्मराजानी पुत्री निंदा कर्मराजाना सुभटो-मिथ्यात्व, अविरति, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, कलह, भय, अभ्याख्यान, अशुभयोग, आर्तध्यान, रौद्रध्यान, इया विगेरे कर्मनुं कार्य ए छे के दरेक सं. सारी जीवो उपर सत्ता चलाववी. हवे एक दीवस कर्मराजा पोते. संसारनगर तरफ ध्यान आपी जुएछे के संसारी जीवो हाल केवी. हालतमा छे अने ते आपणी आज्ञामा छे के नहीं ? जोतां जोता. कर्मराजाने मालुम पडओँ के, अरे हाय वीतरागना भक्तो तथा तेमनी वाणीरूप आगमोथी घणा जीवोए मारु स्वरूप जाणी लीधुं. अने ते जीवो मने ते शत्रु तरीके लेखवी मारी नगरीमाथी नीकळबानो उपाय श्रीवीतरागना भक्तोने पुछेछे अने मोक्ष नगरी के में धर्मराजानी राजधानी त्यां जवा इच्छेछे. केटलाके मोक्ष नगरी तरफ जवा सारु प्रयाण शरु कर्युछे. अरे मारा नगरमाथी जीवों के.टलाक काळे सर्वे जता रहे शे. वे.म करु, एम उंडा विचारमा गुम थइ बेठो छे. त्यारे तेनी पासे मोहप्रधान आवीं पूछछे के, हे कर्मराजा तमे वेम उदास थइ बेठा छो ? मारा जेबो प्रधान छता तमने शी मोटी चिंता आवी पडीछे ते कृपा करीने कहो.
कर्मनृपतिभाषण कर्मराजा मोहमधानने कहेछे के, अरे हवे मारा राज्यमार्थी
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(२७६) कर्मराजा अने धर्मर जानुं युद्ध. दिनप्रतिदिन जीवो मोक्ष नगरीमा चाल्या जायछे.
धर्म राजाना सुभटो आपणी नगरीना जीवोने समजावी पो. तानी नगरीमा खेची जायछे. मुख्यताए तेमां मोटो भाग जीवोने मोक्ष नगरीमा लइ जनार तीर्थकरोनोछे. अने तेमना कायदा प्रमाणे वर्तनार साधुओ एवा तो काबेलछे के-ते साधुओनी आगल आपणा क्रोधादिक शत्रुओर्नु कंइ चालतुं नथी. आपणा सुभटोने पण हरावी जीवोने पोते मोक्ष नगरीनो मार्ग जणावी आपणी नगरी खाली करेछे. हाय, हवे शुं करूं. अरे ओ मोह प्रधान तुं जलदी आपणा सुभटोने तथा मारा पुत्रने बोलाव, अने अविवेक सभामां कचेरी भर, मोहप्रधान कर्मराजानुं वचन अंगीकार करी सर्व सुभटोने बोलावी सभानी बेठक करी. कर्मराजा सभामां आवी ममता सिंहासन उपर विराजमान थया. हवे कर्मराजा पोताना सर्व सुभटोने तथा पुत्रपुत्रीओने नीचे मुजब वचनो कहेले के
. असे मारा मोह प्रधान तुं मारो प्रिय प्रधानले. हिंसातो मारी बेनछे.. निंद्रा मारी पुत्रीछे, अज्ञान मारो पुत्रछे, चउदराज लोकन राज्य आपणा ताबामांछे. आपणुं राज्य अनादिकाळथी संसार नगरमा चालेछे. सर्व जीवोने आपणे पोताना वशमां राखी धर्म राजानी मोक्ष नगरीमा लेइ जवा देवा नहि. ते तमारी मुख्य फरजले. आपणुं राज्य घटे नहि ते तमारे ध्यानमां लेबु जोइए. - मारा सुभटो सांभळो ! आपणो मोटो शत्रु धर्म राजाले. ज्ञान दर्शन चारित्र ए त्रण एना पुत्रछे. धर्म राजानो उपयोग रूप प्रधान छे, क्षांति,आर्जव,मार्जव,मुक्ति,संयम,सत्य, शोच, आकिंचन, ए. दश धर्म राजाना अत्यंत बळवान सुभटोछे, समकित रूप धर्म राजानो पुत्र एवो तो बळवानछे के जेनाथी आपणो मिथ्यात्व सुभट रण संग्राममां भागी जायछे, पंच महाव्रत रूप जोद्धाओ एवातो बळवा
.
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परमामार्शन.
(२७७ )
नछे के अविरति नामना आपणा योद्धाने थरथरावेछे. आपणा नगरनो भंग करनार श्री चोवीस तीर्थकरो तथा तेमनाथी उत्पन्न थयेला १साधु २साध्वी ३श्रावक ४श्रावीका रूप चतुर्विध संघ आप्रणाथी छुटी पड़ी धर्म राजाना नगरमां जवा उपडयोछे. तीर्थकरना भक्तो, साधु महाराजाओ, आपणा संसार नगरमा रहेनार संसारी जीवोने एवातो उपदेश आपेछे के-ते उपदेश, सांभळ्या पछी आपणा नगरमां ते जीवो रहेता नथी, अने संसारने ते स्मशान सरखो गणेछे, आपणी मायाना अने कुटुंब परिवारने बंधन समान गणेछे, मायाना पास रोडी वैराग्य रूप बख्तर धारण करी संसारनो त्याग करेछे, अनादिकाळथी आ प्रमाणे आपणा नंगरमाथी जीवो मोक्ष नगरमा चाल्या जायछे. ते जोइ मने अत्यंत चिंता थायछे. धर्म राजानुं मोक्ष नगर आपणा संसार नगर करता · नानुछे ते चौद राज लोकने अंते आवेलुंछे ते नगरमा रहेनारा जीवो अत्यंत सुखी होयछे मोक्ष नगरीमां गयेला जीवोनो आपणाथी कशो भय रहेतो नथी. __मोक्ष नगरमां गया जीवो पाछा आपणा नगरमां आवी शकता. नथी-आपणुं तेमना उपर कशुं जोर चालतुं नथी. अरे मारी नगरीनी खराब अवस्था थइ गइ ! तमो आटला बधा सुभटो छवां मारी. आवी दशा थई, हवे मारे शुं करवु,कोनी आगळ जइ पोकार करवोः
आ प्रमाणे कर्म राजानां वचनो सांभळी मोह प्रधान आस्वासमा आपेछे.
हे कर्म राजा तमो केम चिंता करोछो, कर्म राजाजी तमारं नगर कदी खाली थइ शकवानुं नथी. अनादिकाळथी तमारी एवी सत्ता बेठेलीछे के प्रायः कोइक जीव मोक्ष नगरीमा जइ शके, आपनो हुं प्रधान तथा अज्ञान नामनो. पुत्र, एटली तो संसारी जीवो
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( १७८ )
कमराजा अने राजानुं युद्ध.
उपर सत्ता चलावेछे के, बिचारा जीवने संसार एज सार मान्या विना छुटको थतो नथी. कर्म राजाजी अमारां दरेकनां पराक्रम नीचे मुजवछे ते सांगळो.
हूं मोह प्रधान अनादि काळथी आपनी कृपाद्रष्टि तळे हाजरछु. परभावरूपी झाळमां दरेक संसारी जीवोने में फसावी दीधाछे. एकेंद्रिय जीवो उपर पण मारी सत्ता व्यापेली छे, द्वीन्द्रिय जीवो उपर पण मारी सत्ता व्यापेलीछे, त्रीन्द्रिीय जीवो उपर पण हुं सत्ता चलाएं चतुरिन्द्रि जीवोपर पण मारा वशमांछे, पंचेंद्री जीवो चार प्रकारनांछे १ देवता २ मनुष्य ३तीर्यच ४ नारकी ए चार प्रकारना जीवो पण मारा आधीनछे, देवताओ पण देवीओ उपर मोहना पासथी आशक्त रहेछे. आ मारी देवी, आ बीजानी देवी, एवी मोह घशा करावनारछु, मारी उत्कृष्ट स्थीति मोहनीय, कर्मनी सित्तेर कोडाकोडी सागरोपमनीछे, नानुं बाळक तेनायां पण हुं व्यापिछं. युवावस्थावाळा जुत्रान पुरुषोमां तो हुं निर्भय पणे व्याप्त छु जो मोहना होय तो दरेक मनुयो संसारमां सार मानेनहीं, रात्री अने दीवस हूं दरेक जीवोनी साये व्याप्तछु, मोह मदथी बेला थयेला जीवो जाणी शकता नथो के अमो मोहना पाम छपडायाछीए-एवी मारी सत्ताछे जोगी जती, संन्यासी, गोसाइ, अतीत, फकीर विगेरे कहेछेके मोह खराबछे, मोह करना नहि एम बीजाने उपदेश आपेछे तेवा पुरुषोने पण हुं मारी मोह झाळमां फसावी दउंछु.
फकीर फकीराइ लेइ बेठा होय तोपण धन स्त्रीनामां हुं प्रवेशंकरी तेने ललचावी संसारमा पाई राजाओ के जे शूरवीरो कवाडे तेने पग स्त्री, धन, पुत्र, राज्य, विगेरेना मोहमा फसावी देउ. जे राजाओ सिंह समान शूरा होय छे, अने जे रणसंग्राममां हजारो मनुष्योने कापी नाखेछे, सेबाने पण हुं पुत्र मोहमा फसावी
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परमात्मदर्शन रोक्राटुं. सिंहसमानशूरा राजाओने पण मोहमा फसाकी स्वीओना पगे लगाउँछु. हजारो सुभटोनां बाण वागतां पण जेनी चक्षुमांकी अश्रु आव्यां नथी. एवा राजाओनी चक्षुमांथी स्वीना मरणथी अश्रु कढाबूढुं. जो हुं राजाओमां व्यापी नहि रहुं तो तेओ आ संसार मांजीवनी हिंसा विगेरे केम कुकर्म करे?पृथ्वीना लोभथी परस्पर राजाओने हुं लडाकुंटुं, स्वीना मोहथी परस्पर राजाओने लडावनार अने दुनीआमां जीवोनो नाश करनार हुं मोह प्रधान हूं. ज्यां मारो संचार होयछे त्यां क्रोधादिक सुभटो पण वास करेछे. मोक्ष नगरीमा जतां अगीयारमा गुणठाणा सुधी मारु प्रबल .जोरछे. कोह विरलो जीव माराथी बची जायछे. अरे तमो तीर्थकरना भक्तो साधुओने पूछोके तमो कोनाथी विशेष डरोछो. प्रत्युत्तर मळशे केमोहथी अमो डरीए छीए. जुओ चकलो, चकली, मोर, पोपट, कबुतर, सिंह, शृंगाल, विगेरे तिर्यंच जीवो पण मोहावेशथी केवी स्थिति प्राप्त करेछे.
चकलो, चकली,पोतानां इंडांपर केवो मोहधारण करेछे. मयूर मयुरीनो विरह थतां के आकंद करेछे. गौ महिषी पोतानां बचाने जुभो मोहना आवेशथी केवां चाटेछे की कुरकुरीयांने पोतानां मानी के हेतधारण करेछे. वळी धनना मोहथी प्राणीमो मरी परभवमा मूषक सर्प विगेरेना अवतार धारण करेछे. पुत्रना मरणथी मातपिताने अत्यंत रूदन करावनार हुँ छु. स्वीना मरणयी तेना पतिने शोक करावनार हुँ छं. सत्यनेपण असत्य तरीके देखाडनार हुं छु. मारा वशमां आवेला जीवोने चोराशीलाख जीपायोनिमां भटकावनार हुं छु. मारा वशमां पतित पाणीओ हिंसा फरेछे. असत्य वदेछे. चोरी करेछे, परस्त्री सेवन करे. इत्यादि सर्व मारी सत्ताथी थायछे.
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( १८० )
कर्मराजा भने धर्मराजानुं युद्ध.
पृथुराजे स्त्रीना मोहथी जयचंद्र साथै भारे क्लेश कर्यो. पृथुराज उपर शाहबुद्दीन घोरी चढी आव्यो, तेमां अंते मृत्यु पाम्यो कर्णघेलाए खीना मोहथीराज्य खोयुं, मनुष्य परदेश भ्रमण करेछे. जळमाँ प्रवेशे, इत्यादि सर्व मारुं कार्यछे, अनंत जीवने हुं संसारमा अनादिकाळयी भटकावं छं. अने भटकावीश. धर्मर जानो विवेक रूपी योद्धो पण माराथी बीवेछे. कया जीवमां हुं व्यापी रह्यो नथी.
वीतरागदेवना साधुओने लाग साधी मारा फंदमां फसावी दछु. जुओ मारी केवी शक्ति जीवोने संसारमां सार देखाडी चा रित्र लेवरावतो नथी. सर्व जीवोने संसारमां अनादिकाळथी फेरनुं छु अने वळी फेरवीश अधर्मी बनावुछं. अनेक प्रकारनो वेषो करी जीवोनो हुं माराफेदमां फसानुं छं. को इनामां व्यक्तपणेतो कोइनामां अव्यक्तपणे हुं वसुंछु, सर्व संसारी जीवानेहुं पूतळांनी माफक नचाबु छु, मारी घेनमां सर्व जीवो मुंझाणाछे. ज्यां त्यां हुं मोह व्यापी रह्यो
मोह घाटीनुं भेदन करबु महा दुष्करछे. एम दरेक महात्माओ पु· स्तकमां लखेछे. दरेक जीवनुं भान भूलावनार अने परस्वभावमां रमण करावनार हुं मोह जीवोमां पेठो के ते बीचारा परवश थइ जायछे मारा आगळ सर्व जीवो कीटक समानछे, मारी शक्तिथी ज्ञानीओ पण गमरायछे, हुं सदाकाल चोराशी लाख जीवयोनिमां रहेला जीवोनी पासे रहुंछु. महादेव सरखाने पण पार्वतीना मोहमां फसावनार मारा बिना बीजा कोण! देशाभिम नथी दुनीयानी मजाने परस्पर वैर करावनार मारा बिना बीजो कोइ नथी. मोह गर्भित वैराग्यमां पण मारु अस्तित्त्वछे, मतमतांतर मिथ्यात्वादिनी वृद्धे माराथी थाय छे. जुओ मारी शक्ति. !!!
आवां मोह सचिवनां वचन सांभळी कर्मराजाए मोह प्रधानने शाबाशी आपी कां के धन्यछे मारा शूरा मोह प्रधान मारे तारा
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परमात्मदर्शन.
जेवो बीजो कोइ मिय नथी. हवे कर्मनृपतिनो पुत्र अज्ञान
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स्वकीय स्वरूप सभा समक्ष
.
कथे छे. अरे हुं मोहराजानो पुत्र अज्ञान मारूं नामछे, पंडित लोक मारा वैरीछे. चउद राजलोक मारू स्थानछे. सर्व जीवोने में अंध कर्याछे. ज्ञानावरणीय कर्मे करी हुं सर्व जीवोमां वसुंलुं धर्मराजा तथा मोक्षनगरीनुं भान हुं थवा देतो नथी. सत्यासत्यनुं स्वरूप जीवोने जाणवा देतो नथी, सत्यदेव गुरुधर्मनुं ज्ञान मारी सत्ताथी जीवो करी शकता नथी.
(२८१ )
सीकरनां सूत्रो तथा तेमनी आज्ञा प्रमाणे मोक्ष नगरी प्रतिगमन करनार मुनिवरो पण मारा वशमां रहेला जीवोने समजावी शकता नथी. जे समजु छे तेने साधुओ समजावी शके, पण हुं ज्यां वसुं हुं त्यां तेओ गमे तेटलो उपदेश आपे तोपण उखरभूमां वर्षा - नीपेठे निष्फळ जायछे. चारगतिना जीवो मारा वशमांछे. पशुपंखी आदिजीवोनी में केवी अवस्था करीछे; माटे हे कर्मनृपति मारा जेवा पुत्रो छतां आपने चिंता करवी योग्य नथी.
अज्ञान पुत्र आ प्रमाणे कहीने मौन रह्यो, त्यारे कर्म नृपतिनी निंदा नामनी पुत्री सभासमक्ष कहेवा लागी केनिंदा भाषण.
हे पिताजी ! हुं आपनी निंदा नामनी पुत्री छतां आप केम उदास थाओछो. सर्व जीवोने हुं वश करुछु अदेखाइ नामनी मारी माताए जन्म आप्योछे. सर्व जीवोना गुणोने हुं तेमां पेसतां भस्म करु. ज्यां माता अदेखाइनो मवेश थयो. त्यां हूं त्वरित हाजरी आपी प्रवेश करुछु.
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मुनियो पंडितो के जे अमृत सरखां वचन वदेछे तेना मुखमी खराब वचनरूपी विष्ठा कढावं. जे मनुष्यो परपुरुषना
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( २८२ )
कर्मराजा भने धर्मराजानुं युद्ध.
गुणनी प्रशंसारूप जळयी पोताना आत्माने पवित्र करेछे. ते पुरुषो मारा वशमां थवाथी परनिंदारुप कर्मकादवधी तेओने मलीन करूँ लुं. निंदा चतुर्थ चंडालछे एम सर्व कोको जानेछे छतां निंदा कर्या बिना छूटको तो नथी.
सामासामी एक बीजानी निंदा करावी परस्पर वैर कराएं, asigछु, अने नरक निगोदमां जीवोने घसडी लेइ जाउछु, लोको सर्वना करतां मने विशेष बळवान् गणेछे, कारण के परस्पर एक बीजानी निंदा करवाथी एक बीजानां मस्तकोने पण दडानी माफक मनुष्यो उडावी देछे, माटे हे कर्मराजाजी !!! तमारी पुत्री छतां तमो केम चिंता करोछो.
आवां निंदानां वचन सांभळी अदेखाइ नामनी कर्मराजानी स्त्रीनो पुत्र कुसंप नामनो हतो ते बोलवा लाग्यो के - हे पिताजी मारा जेवो आपणा सुभटो छतां धर्मराजाना सुभटोनुं कई चाल - बानुं नथी. चार गतिना जीवोमां हुं व्यापी रह्याछु, मारा सरखं कोइनुं बळ नथी, वकील वकीलने कुसंप, राजाराजाने कृसंप, मुनि सुनिने कुसंप, वेश्या वेश्याने कुसंप, भीखारी भीखारीने कुसंप, बेपारी बेपारीने कुसंप, कूतरा कूतराने कुसंप. एम सर्व जीवोने मांहोमांहे कुसुंप करावनार हुं छं, हे कर्मराजाजी हुं कुसंप नामनो महायोद्धो हिंदुस्तानना रहेवाशी ओमां पेठा त्यारथी हिंदुस्तानना लोकनी दुर्दशा थइ गइछे.
जयचंद्र अने पृथुराजने लडावी मारनार पण हुंछं. मुसल मानोए दिल्लीनी गादी लीधी ते पण मारा प्रतापथी. कारण के ज्यारे हिंदुस्तानना राजा ओने मांहोमांडे कुसंप थयो त्यारे मुसलमानोए हिंदनुं राज्य सर कर्यु. मोक्षमार्गमां चालनार साधुओनो पण कसंप करावी कुमार्गे चलावनार हुंछं ज्यां पेठो कुसंप त्यां
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परमात्मदर्जन
( २८३)
जरा नहि जंप, ए वचन हुं सत्य करंछु.कुसंपथकी मांहोमाहे मनुष्य लडेछे एक बीजानां मस्तक छेदेछे, एक वीजानी निंदा करे, क्रोध, मान, माया अने लोभ पण ज्यां हुं कुसंपर्छ त्यां वासो करे छे, चोरासी लाख जीवयोनीना जीवोने हुं अनादिकाळयी मारा वशमा राखंछ. हाल हिंदुस्तान देशनी नबळी स्थीति करनार पण हुंडूं. ज्यां में प्रवेश को त्यांची संप नामनो योद्धो पण पोबारा गणी जायछे, कोइ वखत कोइ देशमां वधारे रहुंछु अने कोइ वखत कोइ देशमां थाडो रहुंछ, जीवो बिचारा संप करवाने घणी महेनत करे, कोन्फरन्स भरेछे, सभाओ स्थापेछे अने बीजाओने कहेछे, के भाइओ संप करो पग मारुं मळ काढq घणुं मुश्केलछे, ज्यांथी कुसंप काढवानी तैयारी संप योद्धाओनी होय त्यां तो कुसंप भयरहीत रहेछे. मोटा मोटा मुनिराजो भाषणो आपीने थाक्या पण मारुं मूल कोइ उखेही शक्यु नहि. वखते मुनिओमां पण हुं लाग नोइने पेसी जाउंछु अने मुनि मंडळमां पग कुसंपनी सत्ता चलावं
, जे जीवो मारा वशमांछे तेमने काटनी पूमळीनी पेठे चारगतिमां नचाद्छु, मारी अदेखाइ माता विना हुँ एकलो रही शकतो नथी. ____ अमेरिका इंग्लांड वगेरेमा कुसंप नथी तो ते लोको मुखीछे पण ज्यारे हुं त्यां पगलां भरीश त्यारे ते लोकोना बार वगादीश, संपीने जीवो वर्ते ते मने सारं लागतुं नथी. नवळा मनना माणस उपर हुं विशेष सत्ता चल बुंछ. विशेष शृं. पर्वत उपर, रणमां, अपि विगेरेमां हुं जीवोने प्रवेश करावुछ. हे कर्मरानाजी मारा नेवो पुत्र उतां आम कम चिंता करोछो. __ आईं कुसंपर्नुवचन सांभळी अदेखाइनाननीतेनी माता सभा समक्ष भाषग करवा लागी के, हे मा मागनिय तमो मारा छतां कम चिंता करोछो.
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( १८४ )
कर्मराजा भने धर्मराजानुं बुद्ध.
अदेखाइ परस्पर कराववी ए मारो धर्मछे. गुणीना गुण देखी माणसो अदेखाइ करेछे. चारगतिना जीवोमां हूं आविर्भावे वा तिरोभावे वसुं
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वेपारी वेपारीने, राजा राजाने, वकील वकीलने, साधु साधुने हुं मांहोमा अदेखाइयी कर्मबंध फळ प्राप्त कराकुंछु.
मारा वश थरला जीवो नरक निगोदमां जइ दारुण भोगवेछे इत्यादि अदेखाइना वचन सांभळी कर्मराजा खुशी थयो. तेवामां सभामां विराजमान मिध्यात्व नामनो कर्मराजानो योद्धो बोली उठयो के, हे कर्मराजाजी मारा छतां आप केम चिंता करोछो. हुं मिथ्यात्व नामनो योद्धो संसारमां प्रख्यात छु, कर्मबंध जीवाने करावनार मुख्यताएं हुं हुं, मारी सत्ता संसारी जीवोपर सारी रीते बेठेलीछे. मारु मुख्य काम ए छे के, भव्य जीवोने शुद्ध देव शुद्ध गुरु अने शुद्ध धर्मनी श्रद्धा थवा देवी नहीं, कोई विरला प्राणी तीर्थकरनो कहेलो सत्य मार्ग जाणी शकेछे, जुओ में केटला जी - बोनी एवी ता बुद्धि करी नाखी छे के ते बिचारा पंच महाभूत स्वरूप जीवछे ते थकी अन्य आत्मा नथी एवं बिचारा मानी चार्वा किमतरूप राक्षसना मुखमां प्रवेश करेछे
में केटलाक जीवोने एवा तो फसाव्याछे के- ते पामर जीवो जीव अजीव पुण्य पापने स्वीकारता नथी, मोक्ष मानता नथी. खावुं पी, हरवुं, फरबुं इत्यादि कार्यमा धर्म मानेछे-केटलाक जीवोने एना तो में फसाव्या छेके - अज्ञानपणामां मुख मानेछे. 'अने तेत्रो अज्ञानवादी भ्रभावे छेके अज्ञानमां सुखछे ज्ञानथी राग द्वेष उत्पन्न थागछे. एम मानी पामर चतुर्गति संसारमा अनंतशः परिभ्रमण करेछे.
aat में केटलाक जीवोने एवातो फसान्याछे के बौध धर्म
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परमात्मन.
( २८५)
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स्वीकारी पोताने सुखी मानेछे अने ते पापर प्राणी मारा पासमां थी छूटी शकवाना नथी. .. वळी में केटलाक जीव ने एवी रीते फसाव्याछे के ते इशए घढावेला इशुनीत धर्मरुप अन्याय कूपमां गाडरीया प्रवाहनी पेठे टपोटप कूदी पडे छे अने त्यां अत्यंत दुःख भोगवता सदा काळ जीवन गुजारेछे. वळी में केटलाक जीवोन एवा तो मुंझाव्याछे के बीचारा धनना, स्त्रीना, पुत्रना लोभमां तत्त्व मानेछे अने ते पोताना आत्मानुं हित साधी शकता नथी. वळी में केटलाक जीबोने एवा तो फसाव्याछे के-सत्य जैनधर्म पाम्या छतां पण तेमां शंकादिक करी आपगी सत्तामा वर्तेछे. वळी हुं तत्त्व समज्या जीवोने पण मिथ्यात्वमां घेरुछु. जेटला संसारमा मतमतांतर उत्पन्न थाय छे ते मारी सत्ताथीन थायछे. संसारी सर्व जीवोने हुँ मारा वशमां राखुंछं. माराधी छटकी कोइ वीरपुरुष मुक्तिमा जइ शकेछे. हुं सर्व जीवोमां व्यापीने रह्योछु. इत्यादि मिथ्यात्व योद्धानां वचन सांभळी कर्मराजा हर्ष पाम्यो. तेवामां अविरति नामना मोहरानाना योद्धाए भाषण कर्यु के अरे सभाजनो हुँ कोने संसारमा भटकावतो नथी. चोथा गुणठाणा मुधी तो मारु स्वतंत्र राज्यछे देवताओ तथा नारकी जीवो तथा तिर्यंच जीवो मायः सर्व मारा वशमां वर्तेछे.मनुष्पोमां पग आर्यजनो कोइ मारा झपाटामांथी बची गया हशे. आबु अविरतिर्नु बोलवू सांभळी कषाय नामनो योद्धो छाती ठोकीने बोली उठयो के, अरे ज्यां सुधी कषाय एवं मारुं नाम दुनियामां विद्यमानछे त्यां सुधी कोइनो भय राखवो नहीं, मारूं रहेठाण चौद राजलोकमांछे, हुं कोइ जीवने मुक्तिनगरीमा जवा देतो नथी, सर्व जीवो कषायना वश थइ पोता, आत्महित करवं चुकेछ. सामासामी जीवोने हुं लड़ावी मारुंटुं एक बीनानां मस्तक
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(१८६) कर्मराजा भने धर्मराजानुं युद्ध. कपाकुंछु सामासामी वेर कराकुंछु, माता, पुत्र, स्त्री विगेरनो निकट संबंध करावी आफ्नार हुंछ संसारी जीवोने उपरना गुणठाणे - उवा देतो नथी. संसाररुपी वृक्षतुं बीज हुंछु. हुं अनादिकाळथी संसारमा वसुंछु. कोइपण काळे संसारमाथी मारु रहेठाण दूर थवान नथी. आ प्रमाणे कषाय सुभटनां वचन सांभळी कर्मराजा खुशी धयो. त्यारे योग नामनो सुभट बोल्यो के मारुं पराक्रम कोण नथी माणतुं. हुं सर्व जीवोने पाप बंधावी चोराशी लाख जीवयोनिमां भटकावुछ हुं सूक्ष्म रीते दरेक जीवोने व्यापीने रहूंछ आत्मानी परमात्मादशा थतां विखूटो पहुंछ, माटे हे कर्मराजाजी तमो जरा मात्र पण भय पामशो नहि. इत्यादि सुभटोनू बोलवू सांभळी कर्मराजाने जुस्सो चढयो. हिंमत आवी.
सर्व सुभटोने कर्म राजाए हुकम कर्यो के तमो हवे सर्व संसारी जीवोने वशमां राखो के जेथी धर्मराजाना सुभटोनुं कंइ पण चाली शके नहि. अने सर्व जीवोमां व्यापी संसारी जीवोने धर्म करतां अटकावो..
आवां कर्मराजानां वचन सांभळी सर्व सुभटो जुस्साभेर पोत पोतानुं कार्य बजावतुं तत्पर थया. हवे आ वखते धर्म शुं करेछे ते कीचे मजबः
धर्मराजा विवेकसभा, दयामाता, धैर्यपिता, शांतिस्त्री, उपयोगमंत्री, समकितसेनापति, क्षमापुत्री, ब्रह्मचर्यपुत्र, क्षमादिधर्मनृपतिनासुभटो, मुक्तिनगरी.
एकदीवस धर्मराजा विचार करेछे के-अहो हुं सर्व जीवोने सक्तिनगरीमां क्यारे लेइ जइश. अनादिकाळथी हुं संसारी जीवोने मुक्तिपुरीमा लेइ जाउंछु, तोपण अद्यापि पर्यंत पार आवतो नथी.
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परमात्मदर्शन.
(१८) कर्मराजाना सुभटो जीवोने एवातो सपडावेछे के-भाग्ये जावो मारा नगरमां आवी शके-सर्व जीवोमा कर्मराजाना सुभटो व्यापी रह्याछे. कर्म सुभटोए संसारी जीवोने एवी रीते अंध कर्याछे केते जीवो मुक्तिनगरीमा आववा इच्छा पण करता नथी. अरे हवे केम करवू. आम धर्मराजा उंडो विचार करी चिंता करेछे. ____ त्यारे उपयोगमंत्रीए इंगिताकारथी जाणीने पूच्छयु के-हे प्रभो आज आप मोटी चिंतामां पडया होय तेम देखाओछो. ते चिंता शीछे ते कृपा करीने कहो
एम उपयोग मंत्रीनी प्रार्थनाथी धर्म नृपतिए सर्व हकीकत कही संभळावी
त्यारे उपयोग मंत्री बोल्यो के-हे प्रभो मारा छतां आपने चिंता करवी घटे नहि. विवेकसभा भरावी धर्मराजा निस्पृह सिंहासन उपर विराजमान थया. मुख्य उद्देशथी धर्म राजाए वातचर्ची अने कयु के-हे सुभटो तमो आळसु थइ केम बेशी रह्याछो. कर्म राजाना सुभटो सर्व जीवोने भमावीचारगतिमा परिभ्रमण करावेछे. सत्यमोक्षमार्गनी समजण पडवा देता नथी. तमो मारा खरा सुभटो होय तो कर्मराजानो नाश करी भव्यजीवोने मुक्तिपुरीमा लेइ जाओ.
आ मारी सभा समक्ष हितशिक्षाछे. आवां नीतियुक्त मिष्ट वचनामृतनुं श्रवण करी धर्मराजानो अनादिकाळनो उपयोग मंत्री गंभीर वाणीथी सभा समक्ष कहेवा लाग्या के
हे धर्मनृपति, हुं निरंतर आपनी सेवामां हाजरछ. ज्यां आप धर्मराजा त्यां हुं उपयोग अवश्य. __ आपनो सर्व कारभार हुं करुंछ. माटे कहेवायछे के-उपयोगे धर्म-उपयोगविना आप धर्मनृपति नथी. एम अनुवाद प्रसिद्धछे. हुं आविर्भावे तथा तिरोभावे आपनी साथे सदाकाळ जीवोमां वसुंछं.
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( २८८ )
कर्मराजा भने धर्मराजानु युद्ध.
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मारी शक्ति प्रगट थतां मोहादि शत्रुओ नाश पामेछे. जीवने क्षपक श्रेणि उपर हुं चढाएं. क्षपकश्रेणि चढतां कर्मशत्रुनो नाश थायछे. मोक्षपुरीमां पण प्रत्येक आत्मानी साधे भिन्नाभिन्न स्वरूपे हुं व मुंलुं. माराथी दरेक आत्माओ स्वपरने जाणी शकेछे मारो नाश कोइथी थतो नथी. माटे हे धर्मराजाजी आप जरामात्र चिंता करशो नहि. आवां उपयोग मंत्रीनां वचनो सांभळी धर्मराजा खुशी थयो, त्यारे धर्मराजानी माता दया सभा समक्ष बोलवा लागी के हुं ज्यां सुधी विद्यमानछु. त्यां सुधी कोइनुं कंड चालनार नथी. हुं सर्व जीवोमां प्रथम वासकरुं हुं ज्यां छं त्यां तारी हयातीछे. द्रव्य अने भावथी मारु वे प्रकारे बस थायछे. दया, धर्मनी माता जगत्मां कहेवायछे.. तुं मारो पुत्रछे हुं ज्यां छं त्यां त्हारी हयाती कहेवायछे, माराथी हिंसा विगेरे कर्म राजानो परिवार दूर नाशेछे, सर्व प्राणीयोमां थाडी घणी स्थीति करूं, अने मोक्षपुरी जीवो न पमाडुलुं, माटे हे पुत्र सुखेथी राज्यधुरा धारणकरो. इत्यादि दयाना वचनो श्रवण करी धर्मराजाना मनमां धैर्य स्फुर्यु. तेवामां धैर्य पिता धर्म पुत्र उपर स्नेहदृष्टि वर्षावतां वचनामृतो वरसाद वरसाववा लाग्यो हे धर्मपुत्र धैर्यथी तारी उत्पत्ति छतां तमे केम अधीरा बनोछो. कर्मशत्रुओ साथ हूं हिंमतथी ast जीवने क्षपकश्रेणि प्राप्त करावी आपुंछु. हे धर्म तारा सुभटोने धैर्य आपुंछु अने रणसंग्राममां कर्मनो पराजय करूंछु, कर्मराजानी साये युद्ध थायछे, अने तेना नगरमांथी अनेक जीवोने मुक्तिनगरीमा लेइ जए छीए. माटे धैर्य धारण करो. त्यारबाद शांति स्त्री पोताना स्वामी धर्मराजाने नम्रतापूर्वक विनयथी कहेवा लागी के - हे स्वामिनाथ आप चिंता केम करोछो, मारो हूं धर्म सदाकाल बजाबुंलुं हुं सर्व जोवोने मोक्ष नगरी तरफ खेचुछु. सर्व जीव कर्मना अधीनं थया तोपण मारी संगत करवा चाहेछे. हुं तेमने शांति मेळवावा लल
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परमात्मदर्शन.
( २८९ )
·
चावी कर्म प्रपंचथी दूर रहेवा वारंवार मनोद्वारा कहुंलुं जे जीवो संसारनी हवाथी दूर रहेछे अने संसारने वळता अनि समान गणेछे ते जीवोमां हूं वास करु अने ते जीवोने शाश्वतपद प्राप्त करवामां स्हायी बनुंछं. घणा जीवो मारी सहायथी मुक्तिनगरीमां गया जायछे अने जशे. माटे आप निश्चिंत रहो. त्यारबाद सकल धर्म सेनानो उपरी " सम्यकत्व सेनापति " धर्मराजाजीने नमन करि मधुरवाणीथी सभाजनने आश्चर्य पमाडतो कहेवा लाग्यो के हे धर्मराजाजी आपनी सेनानो हुं उपरीधुं मारो वास सकळ भव्यात्माओमांछे. मारा बिना कर्मना राजा योद्धाओ रणभूमिमांथी पाछा हठता नयी, सकळकर्म सैन्यनो हुं नाश करुंकुं. जे आत्मामां हुं उत्पन्न था त्यांची मिथ्यात योद्धो नाशी जायछे पछी भव्यात्मा सरळताए गमन करतो छतो मुक्ति नगरीबां पहोचेछे. मिथ्याखनो नाश करवो एज मारुं मुख्य कामछे, जे जीवो मिध्यात्वना जोरे दुनीया परमेश्वरे बनावीछे, पाछो प्रलयकालमां दुनीयानो नाश थायछे परमेश्वर जीवोने सुख दुःख आपेछे एम मानी चारगतिमां भटकनारा जीवोने सुखदुःख आपेछे ते जीवोनो ढुं उद्धार करुन्छु. हुं ते जीवोमां वास करी तेमनी सारी बुद्धि करुंकुं परमेश्वर जगत्नो वनावनार नथी, जगत् अनादिकाळथीछे जीवो सर्व परमात्मा सदृशछे, कर्मना योगे जुदी जुदी गतिमां भमेछे जीवोने कर्म अनादिकाळथी लाग्छे. जीवो अनंतछे अनादिकाळथीछे कर्म नाश थतां जीवनी मुक्ति थायछे.. आ. प्रमाणे जीवोनी सारी बुद्धि करी मिथ्याखनो संग दूर करावी मोक्षनगरी तरफ गमन कराकुंकुं. केटलाक जीवो मिथ्यात योद्धाना संसर्गे ब्रह्म ब्रह्म स्वीकारी अन्यने माया तरीके कल्पी भवब्रह्मांडम भटके छे. सेमने हुं शुद्धश्रद्धा अर्पि आत्महितार्थे आत्मा अने तेने
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( २५० )
कर्मराजा भने धर्मराजानुं बुद्ध.
भटकाना कर्मछे एवी श्रद्धा करावी कर्म नाश करवा तरफ ते जीबोनी वृत्ति लधुंकुं. वळी हुं इगु-परमेश्वरनो दीकरोछे तेने से वो से तारशे इत्यादि भ्रमपाशमां फसाएला जीवोने विवेकचक्षु अपि सत्यं मोक्षमार्ग देखाडी आत्मतत्वनुं भान करावी शुद्ध बुद्धिश्री परमात्मपद प्राप्त करे तेम योजुछु, बळी हुं केटलाक जीवोने आत्मा क्षणिकछे. क्षणमां क्षणमां जुदो जुड़ो आत्मा उत्पन्न, थाय छे. एम माननारा जीवानुं मिथ्यात्व संहरी सत्यमति अप आत्मा क्षणिक नथी. आत्मरूप व्यक्तिनो नाश थतो नथी ज्ञेयना पलटवे ज्ञाननुं पलटraj थायछे तेथी आत्मामां थतो उत्पाद व्यय तेनी अपेक्षाए पर्यायार्थिक नयमते आत्मा अनित्यछे एम सम्यकवोध जीवने अनुं अमे द्रव्यार्थिक नयनी अपेक्षाए आत्मा नित्यछे एम शुद्धबोध समर्षी भव्य जीवोने मुक्ति नगरी दु:माप्या प्राप्त कराखुंडं. वळी हुं केटलाक जीवो पित्व सुभटनो संग पामी पंचभूत विना व्यतिरिक्त आत्मा नभी एम. स्वीकारीछे तेवा जनोने शुद्ध श्रद्धा सद्गुरु संगे करावी आ त्मा पंचभूत थकी न्यारोछे सुख दुःख भोक्ताछे कर्मनो कर्ता एम सम्यक्त्व रत्न अर्षी मोक्ष मार्ग वाही करूंं. बळी जे जीवो नित्य एकांत आत्मतत्व मानी आत्माने कर्मबंध स्वीकारता नथी आत्माकर्मनो कर्त्ता नथी अने भोक्ता नथी इत्यादि वक्ताओने पण अपेक्षाए सत्य समजा कुंकुं कर्मनो कर्त्ता अने भोक्ता आत्माछे, आत्मा एकांत नित्य नवी एकांत नित्य वस्तु आत्मा जो होय तो पछी नाना विध शरीरमां वशनारा जीवो सुखी दुःखी अवस्थावाळा देखायचे ते केम बनी शके, माटे आत्मा एकांत नित्य नथी, जो एकांत नित्य आत्मा मानीए तो पछी शिर्षमुंडन व्रतारोप विगेरे पण शा कारणवी करवं जोइए. माटे आत्मा स्वव्यक्ति की नित्यछे अने
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- परमात्मदर्शन
( २९१
पर्यावना पलटवे करी अनित्यछे नित्य अने अनित्य एवे धर्मवाळ आत्माछे. तेने कर्म लागेछे कर्मपण मिथ्यात्व अविरति कषायोगे करी लागेछे ए कर्मनो नाश थतां आत्मा परमात्मपद प्राप्त करेछे ए आदि शुद्धज्ञान अप साध्य-मुक्तिपदार्थे जीवोने मेरुतुं. अने स्वस्वरूप प्राप्त करा केटलाक जीवो स्त्री पुत्र धन आदियी पोताने सुखी मानेछे ते जीवोनी दृश्य क्षणिक पदार्थोमांत्री सुखनी बुद्धि दूर करी अदृश्य आत्मस्वमांज सुखछे एम शुद्धबोध देइ आ क्षणिक पदार्थोमां मिथ्या भ्रथतो दूर कराकुंकुं अने कामक्रोध लोभ भय हास्य शोक विगेरेथी जीवोने पृथक् करी स्वस्वरूपे निष्ठा कराकुंछु.
अहिani हितबुद्धि अने हितमां अहित बुद्धिरूप जे मिध्याइ न तेनो हुं नाश करुं दरेक जीवोने हुं सम्यक्ज्ञान अर्पुछे एम अनंता जो भूतकाले मुक्ति प्रति लक्ष दो अने वर्तमानकाळे लक्ष दो अने भविष्यकाळे दोरीश हूं दरेक जीवव्यक्तिमा ब मिथ्यात्व सैन्य माराथी नाभाग करे. जेम सूर्यनो उदय धतां अंधकारनो नाश था छे अने ते अंधकार क्यों गयो ! तेनी जेम मालूम पडती नयी तेन सूर्यसम मारा प्रकाशथी मिध्यात्व भागी जापछे हुं भव्य जीवोपां सदा वमुंलुं सम्यक्त्व बिना कोई माणस मुक्ति पामी शकतो नयी कर्मराजानुं सैन्य मारायी दूर नासेछे माटे हे धर्मराजाजी ! तमो मुखेथी निश्चिंत रहो आ प्रमाणे सम्यक्त्वं सेनापति वद्या बाद धर्मराजानी क्षमा नापनी पुत्री सविनय पिताजीने नमन करी मधुर भाषाए कहेवा लागी केहे धर्मपिताजी एक आपनी नानी पुत्रीलुं आपनी पवित्र सेवा हुं दरेक आत्माओमा स्थिति करती बजाबुंलुं हुं अनादिकाळथी भव्य जीवोमा ब
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( २९१) कर्मरामा अमे धर्मराजानुं युद्ध. व्यवहारे करी द्रव्यक्षमा भावक्षमा उपकारक्षमा अपकारक्षमा इत्यादि रूपांतरे करी ओळखाउछं. तीर्थंकर महाराजाए मुक्तिमार्ग:प्ररूप्यो तेमां मने यतिना गुणोमां मुख्य करी स्थापीछे पुल्लिंगताथी ओळखातो क्रोध नामनो सुभट माराथी नाश पामेछे.अनेक कर्मना यो दाभो माराथी समूला नाश पामेछे.जे जीवोमां मारो वासछे,त्यां क्रोध अहंकार अदेखाई हिंसा विगेरेनुं जोर चालतु नथी दुनीयामां हुं सत्पुरुषोमां वास करुंडं. अने माराथी दरेक जीवो प्रतिष्टा पामी कर्मदल हणी अपकणि प्राप्त करी सम्यक्त्व सेनापतिद्वारा मुक्तिपुरीमा सुखे पहोचेछे मुक्तिनगरीमा जवानी इच्छावाला पहेलां मारुं सेवन करेछे अपराधी जीवोपर गुस्से थता नथी अने तेमना अपराधो माफ जीको करेछे ते पण मारा प्रसादथीज समजवू.क्षमा थकी जीवो शान्तिने पामेछे क्रोधनो नाश थायछे दरेक जीवो उपर दयाना आर्द्रभाव थायछे. परस्पर जीवोना वैर विरोधने हुँ टालुएं. दरेक मनुष्यनुं प्रसन्नमुख राखुंछु. अने मुक्तिनगरीमा जवा माटे माराथी बने तेटलं अवश्य करुंढुं.मारी सहायथी अनंवा जीवो मुक्ति गया, जायछे अने जशे. माटे हे पिताजी ! तपो हर्षाओ अने शोक त्यागो.आ प्रमागे क्षमा पुत्री बोलीने तुष्णीभावने पामी बाद ज्ञान नामनो महाबलवान राज्यधुरावाही यथायोग्य विनयपूर्वक पितानीने नमन करी हर्षचित्ते प्रसनवदने गंभीर वाणीथी सभाने चमत्कृति पमाडतो बोलवा लाग्यो के-हे पिताजी ! अने हे सभाजनो! हुं धर्मरानानो पुत्रछु एम आ बाळगोपाळ सर्व जगन्निवासीभी जाणे छे.मारुं बळ केटलुंछे ते कंइ विशेष स्वमुखे कहेबाथी शुं ? तोपण हुं स्वफरनो केवी रीते अदा करुंडं ते सभा समक्ष निवेदन करुंड्छु, हुं दरेक जीवोमा आविर्भावे करी वा तिरोभावे
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परमारम दर्शन.
( २९३ )
करी स्थिति करुं हुं अनादिकाळथी आत्मव्यक्तिओम वसुंलुं, ज्ञानावरणीय कर्मना घणा जोरथी पण नरकनिगोद तिर्यचादि भबोमां हुं समूळ नाश पामी शकतो नथी. तेम हूं पण जेमां सदाकाळ रहुं छं. एवं आत्म व्यक्तिरूपस्थान असंख्य प्रदेशी कदापि नाश पामी शकतुं नथी. तेम आप पण आत्मस्थानमांथी नाश पामना नथी. काल लब्धियोगे हुं ज्ञानावरणीयादि कर्मने हठावतो मारूं शुद्ध स्वरूप तथा आत्मानुं शुद्ध स्वरूप समजी कर्मनो नाश करूं. आकाशस्थित सूर्यप्रकाशधी प्रत्येक वस्तुओ स्पष्टपणे भासे छे. तेम मारी शक्तिपी लोकालोक स्पष्टपणे भासेछे. हुं प्रत्येक वस्तुओनुं यथातथा स्वरूप जाणुंछु अने मारी सत्ता थया बाद कर्मना सुभटोनो समूलथी नाश करुछु कर्म आठ प्रकारांछे. १ ज्ञानावरणीय, २ दर्शनावरणीय, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय, ५ आयुष्य, ६ नामकर्म, ७ गोत्रकर्म, ८ अंतरायकर्म. ए पूर्वोक्त कर्म रागादिक योगे आत्मा आकर्षे छे. कर्म जडछे, चतुर्गति भ्रामककर्म छे. जगत्मा आत्माओ अनंताछे प्रत्येक आत्मामां अनंत शक्ति रहीछे, शाश्वन, अज, अमर, निर्लेप, निस्संग आत्मस्वरूप छे.
जीव तथा अजीव तत्वने हुं जाणी शकु छं. हुं व्यवहारे करी मतिज्ञान २ श्रुतज्ञान ३ अवधिज्ञान ४ मनः पर्यवज्ञान ५ केवलज्ञान आदि रूपांतरो पामुं छं. मारू शुद्ध स्वरूपतो केवळज्ञान रूपछे. लोकालोकनुं स्वरूप पण हुं जाणुंहुं. कर्मनो नाश पण हुं करूं छं. स्याद्वाद धर्म आत्मामा रहेलोछे तेपण माराथी जणाय छे. मिथ्यास्व ते पण हुं जाणी तेनो त्याग करी आत्माने कर्म थकी छोडावुं छं. मिथ्यात्व, अविरति कय, अने योग पण मारी प्रबळ सत्ताथी नासेले इच्छा, मोह, माया, काम, क्रोध, लोभ, पण मारा ने नाश
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(२९) कर्मराजा अने धर्मरजानुं युद्ध. पामेछे हुँ पोतानो पण पोतानी मेळे प्रकाश करूळु माटे लोको सूपनी उपमा मने आपेछे, कर्म रिपु सकळ सैन्यनो हुँ कल्पात काल वायुनी पेठे क्षणमा नाश करूछ. में अनंता जीवोने मुक्ति नगरी प्राप्त करावी, कराकुंछु, ने करावीश, माटे हे पिताजी ! मारा बेठा आप चिंता करो ते अनुचितछे, आ प्रमाणे ज्ञानपुत्रे भाषण कयु. त्यारवाद ब्रह्मचर्यनामनो धर्मराजानो पुत्र महा पराक्रमी प्रख्याति पामेल सविनय पिताजीने नमन करी गंभीर वाणीथी बोत्यो के आ दुनियामां-ब्रह्मचर्य नामे करी हुं प्रसिद्धताने पाम्यो छ. __परस्पर मैथुन संबंधनो हुँ त्याग करावुछ. हुं अनादिकाळयी जीवोमा वास करुंर्छ ज्यां मारो विरति नामनो नेता बसेछे तेनी साये हुं पण वसुछु. ज्ञान तथा वैराग्य मित्र मने साहाय्य आपेछे. नवविध ब्रह्मचर्य गुप्ति धारक जीवो कामनो पलकमां पराजय करे छ. मारा वासथी प्रत्येक मनुष्योना शरीरनी आरोग्यता वृद्धि पामेछ, धर्म कृत्यमा धैर्यता प्रेरक हुई. सर्व व्रतोमा समुदनी उपमाने हुं धारण करुछु. मारा वासथी मनुष्यो वचन सिद्धि कीर्तिमान् अष्ट सिद्धि आदि प्राप्त करेछे. मोहादि शत्रुओ पराङ्मुख थायछे. आसन्न भव्य जीवोमां हं विशेषतः वास करुछु, मारु अवलंबन करी अनंत जीवो मुक्ति गया जायछे. अने जशे, माटे हे पिताजी! आप चिंतात्यागी धैर्य धारण करो अने सर्व सुभटोने धैर्य आपो. ___ आम ब्रह्मचर्यना कथन पश्चात् संवरसंज्ञक महारथि योध शौर्य वाणीधी सभा समा बोल्यो के-हे धर्म राजाजी! हुं सत्तावन रूप करी कर्मारिनो समूलतः नाश करुडं जे छिद्र द्वारा कर्म सैन्य जीवोमा प्रवेशेछे ते छिद्रोनो हुँ रोध करुझु. तेथी कर्म सैन्य कई
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परमात्मान,
चालतुं नथी, मन वचन अने कायाना व्यापारो जे अशुद्ध परिणतिमा परिणम्याछे तेनो हुं नाश करु . ___मारी हयातीमां पाप अने पुण्य आत्माने लागी शकता नथी. कर्मनो पराजय करी क्षपक श्रेणि उपर चढावी त्रयोदशम गुणस्था नक प्राप्त करावी मुक्ति नगरमा प्रवेश करावुछ मारो वास पंचेंद्रिय गर्भज मनुष्योमा विशेषतः आविर्भावेछे. क्रोध, मान, माया, लोभ, अने हास्यषट्कनो त्वरित नाश करूंछु. आर्तध्यान अने रौद्रध्यान रूप योद्धाओनो हुँ क्षगमा नाश करूंछ. कृष्ण लेश्या, कापोत लेश्या, नील लेश्या, विगेरेनो समूलतः नाश करुंछु, आत्मानो हुँ शुद्ध स्व: भाव अर्युर्छ, कर्म रहीत करी जीवोने शिवस्थान प्रति मोगलबान हुँ कार्य बजावूढुं, मारा अवलंबनथी अनंतजीवोमुक्तिपद पाम्या अने पामशे, पण अभय जीवोने हुं मुक्तिपद पमाडी शकतो नथी. निरुपाधिमय मारो स्वभावछे, माराथी कर्मशत्रु थरथर धुजेछे. ज्यांमारो प्रवेश त्यां उपशम विवेक विनय शांति विगेरेनो प्रचार थायछे, इत्यादि वाणी वदी संवरयोद्धो तुष्णीभाव पाम्यो त्यारे निर्जरानामनो महायोडो विनयपूर्वक धर्मराजाने नमन करी बोल्या के-हे धर्मराजाजी ! आप सेवकनी वाणी प्रसन्नचित्तथी सांभळो. हुं आपनो योहोर्छ
हुं आपनुं कार्य सदाकाल बजावुछु, बाह्य अने आभ्यंतर एबे रूपांतरने हुं पामुंछु अनंतकर्मनो नाश हुं क्षणमां करूंछ. निकाचित कर्म पण माराधी क्षय पामेछे आत्माओमां मारुं रहेवावें स्थानछे. काष्टसमहने जेम अग्नि बाळी भस्म करेछे तेम कर्मरूप काष्ठसमूहने पण हुँ पाळी भस्म करुंछं. तद्भव मुक्ति पामनार तीर्थकरो पण मारो आश्रय करी कर्म नाश करे छे. नरसुस्पद्वीओनां सुख पण मास आलंबनथी पमायछे, माराथी मनुष्यो अष्टसिद्धि अने नवनिधि पास करेछे.
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कर्मराजा अने धर्मराजार्नु युद्ध. पण याद राखq के जे जीवो मने सेवेचे. तेओनां क्रोध, छिद्र देख्या करेछे. अकाम अने सकाम ए बे भेदे मारु प्रवर्तनछे. चार हत्याकारक जीवोनो पण माराथी उद्धार थायछे. अनंताजीवो कर्म क्षपावी मुक्तिपद पाम्या अने पामशे तेमां मारो प्रभाव जाणवो. माटे हे धर्मराजाजी ! आप स्वस्थ थाओ. आपणुं सैन्य एव॒तो बळवान् छे के त्यां कर्मराजानुं कांइ चालवा, नथी.. .. आ प्रमाणे धर्मराजाना सुभटोए पोतपोता, पराक्रम वर्णव्यु. त्यारे धर्मराजा अत्यंत हर्षायमान थयो अने मनमां समज्यो के मारु सैन्य प्रवलछे. . आ प्रमाणे अत्र धर्मनृपनी सभामां वृत्तांत चालेछे त्यारे कर्मराजानी सभामां ते प्रमाणे धामधूम चाली रहीछे. मिथ्या चेतना नामनी कर्म राजानी दासीए कर्मने धर्मनी सभामां बनेली सर्व हकीकत कही. त्यारे सम्यक् चेतना दासी धर्मनी अग्रे कर्म नृप सभामां बनेली सर्व हकीकत कही. परस्पर युद्ध कार्यनी सर्व सामग्रीयो तैयार थवा लागी. धर्मनृपे पोताना सुभटोने कांके-मारा प्रिय सुभटो! तमो शत्रु सैन्यनो पराजय करो, मारुनाम अमर राखशो, वळीतमारा जेवा शूरा सुभटोर्नु पराक्रम रण संग्राममां मालुम पडशे. माटे चतुराइथी युद्ध कर. .. ते प्रमाणे कर्म राजाए पण सर्व सुभटोने वीर रसनां वाक्यो कथी शूर चढाव्यु. सुभटो पण परस्पर पराक्रम बताववा आतुर थइ रथा-परस्पर युद्ध चाल्युं तेमां श्रद्धा रूपी सुभटे मिथ्यात्व रूपी योद्धाने हरायो. समकित रोनापतिए मोह प्रधाननी शक्तिनो नाश कर्यो, क्षमा पुत्रीए क्रोधनो नाश कर्यो, जीव चोथा गुणठाणा आदि गुणस्थानक चढवा लाग्यो. बिरतिए अविरतिनी शक्ति नाश करी..
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परमात्मदर्शन.
(२९.) ज्ञाने अज्ञाननो नाश कर्यो. दयाए हिंसानो नाश कर्यो, शांतिथी तृष्णा नाश पामी. कर्म राजानुं सैन्य नाश पामतुं पार्छ हठवा लाग्यु. ब्रह्मचर्य पुत्रे अब्रह्मचर्यनो सर्वथा नाश को-परगुण प्रशंसाए निदानो नाश कर्यो. ज्ञाने कषायनो पण स्थिर परिणामने साहाय्य आपी नाश कराव्यो. धर्म ध्यान रूप योद्धाए आर्तध्यान अने रौद्र ध्याननो नाश कर्यो. संतोषे तृष्णानो नाश को, क्षायिक समकित पामी जीव स्वस्वभाव शक्ति पामी आत्म रूप प्रकाशवा लाग्यो. हास्य, रति, अरति, भय, शोक, दुगंछा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक, वेद रूप कर्म सैन्यनो नाश अप्रमाद तथा ध्यान योद्धाए को. पंच प्रकारनी निद्रानो तथा चक्षु दर्शनावरणी आदिचारनो तथा ज्ञाना वरणोय कर्मनो तथा अंतरायनो नाश उपयोग मंत्रीनी साहाय्यथी शुक्लध्याने कर्यो. आत्मा तेरमे गुणठाणे जइ अनंत चतुष्ठयथी शोभवा लाग्यो. अंते अघाती कर्मनी प्रकृतिनो पण नाश करी मुक्ति पुरीमा गयो. एम धर्म राजानो जय जयकार थयो अने कर्म राजानु सैन्य नाश पाम्यु. आत्मा परमात्म दशा पामी निर्भय थयो. अनंत जीवो एम कर्मनो नाश करी मुक्तिमां गया अने अनागत काले अनंत जीव मुक्तिमा जशे. कर्मनो नाश उपयोग दशाए अनंता जीयो करेछे अने करशे. जोव कर्मनो नाश करतो क्षायिक भावनी नवलब्धियो पामेछे.
सायिक भावनी नव लब्धियोना नाम: १ क्षायिकसमकित, २ क्षायिकचारित्र, ३ अनंतज्ञान, ४ अनंत
दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग अने वीर्य ए रीते नवलब्धियोनी प्राप्ति गुणठाणानी हद प्रमाणेछे.
हवे संबंध दर्शावतां कथायछे के-उद्यमथी कर्मनो क्षय थायछे. उपशमभाव क्षयोपशमभाव अने क्षायीकमावनी माप्ति पण उद्यमयी
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( १९८ )
उम.
AAM
थायले. शास्त्राभ्यासनो उद्यम करतां पंचमकारे स्वाध्याय करता ज्ञानावरणीयकर्मनो क्षयोपशम थाय छे. तेम प्रत्येक घातीकर्मनो नाश उद्यमथीछे. धर्मध्यान अने शुक्लध्यानरूप उद्यमथी ज्ञानीओ कृत्स्न कर्मनो क्षय करेछे. चारित्रनो खप करतां चारित्र मोहनीयनो पण नाश थायछे. माटे पंचमकाळमां पण भव्यजीवोए पुरुषार्थ क
मति अज्ञान श्रुतअज्ञान त
वो. पुरुषार्थना पण अनेक भेदछे. माटे सत्यपुरुषार्थ ग्रहवो जोइए. समकितनी प्राप्ति बिना सबळी परिणति थती नथी. अने समकित बिना पुरुषार्थ निष्फल जाणवो. समकित मोक्षनगरतुं द्वारछे. समकितविना कोइ जीव मोक्षमां गयो नथी. अने जवानो नथी. समsa fear ज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम पण अज्ञान तरीके लेखायले. एटले मतिज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम तरीके गणायछे. श्रुतज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम रीके लेखायछे. अने अवधिज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम विभंग ज्ञान तरीके गणायछे. अने ज्यारे समकितनी प्राप्ति थायछे त्यारे तेनो क्षयोपशम सवळो परिणमेछे. अने ते मतिज्ञान श्रुतज्ञान अबधि ज्ञान तरीके गणायछे. समकित विना अभव्य जीव मुक्ति पामतो नथी. बाह्य चारित्र पाळीने अभव्य जीव नवग्रैवेयक पर्यंत जायछे किंतु समकितविना भावचारित्र पामी शकतो नथी अने तेथी ते चतुर्गतिमां पुनः पुनः परिभ्रमण करेछे, समकितनो महिमा अपूर्वछे, पंच प्रकारना मिथ्यात्खनो नाश थवाथी समकितनी उत्पत्ति थाय छे. पंच मकारना मिथ्याखनो नाश जिनागम सांभळवाथी यायछे, सद्गुरुनी श्रद्धा भक्तिथी उपदेश श्रवण करतां मिथ्यात्त नाश पामेछे, समकितनी प्राप्ति माटे आगळ षट्स्थानक कहेवामां आवशे. समकितना पंचमकारछे.
१ उपशम समकित २ क्षयोपशमसभक्ति, ३ क्षायिकसमकित
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परमात्मदर्शन.
( २९९)
RAAKAnda
४ वेदसमकित, ५सास्वादनसमकित, अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया अने लोभ तेमज समकित मोहनीय मिश्र मोहनीय, मिथ्यात्व, मोहनीय ए सात प्रकृति सर्वथा क्षय थतांसायिक समकितनी माप्ति थायछे.
श्री जिन वचनज तस्वरूपछे वीतराग होवाथी एम सामान्य रूचिवाळा जीव ने द्रव्य सम्यक्त्व पणुं स्फुट थायछे. अने नय निक्षेप प्रमाणना विचारयी तत्व श्रद्धावाळा जीवने भाव सम्पनत्व पणुं स्फुट थायछे अहिं द्रव्य शब्दार्थ कारणता अने भाव शब्दार्थ कार्यता रूप जाणवो एम श्री हरिभद्रसूरि कहेछे. . श्री उत्तराध्ययन सूत्रानुसारे दशविध सम्यक्त्व कहेछे. १ सत्य अर्थनी साये संमतिवडे जीवाजीवादि नव पदार्थ संबंधी
जे रुचि ते निसर्ग रुचि जाणवी. २ परोपदेशवडे प्रयुक्त जीवाजीबादि पदार्थ विषयनी जे अदा
ते उपदेशरुचि कहेवायछे. ३ रागदेष रहित एवा पुरुषने आज्ञा वडे धर्मानुष्ठानमा रुचि पाय
तेने आज्ञारुचि समकित कहेवायछे. ४ सूत्रना अध्ययन तथा अभ्यासथी उत्पन्न थएला विशेष ज्ञान - वडे जीवाजीवादि पदार्थना विषयमा रुचि थाय तेने सूत्र
सचि समकित कहेछे.. सूत्र रूचि उपर गोविंदाचार्य- दष्टांत जाणवू. ५ एकपद बडे अनेकपदतथा तेना अर्थना अनुसंधान द्वारा जलमा तेलना बिंदुनी जेम रुचि प्रसरि जाय तेबीनरुचि
सम्यक्त्व कहेवायछे. ५ जेने सर्व मूत्रना अर्थ, ज्ञान उत्पन्न थाय ते अभिगम कवि
सम्यक्त्व कहेवाय. त्यारे अत्र शंका य के अभिगम संच
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( ३..)
सम्यक्त्वरुचि. अने. सूत्रमा शोफेर-प्रत्युत्तरमा समजवान के-आ अभिगम रु. चि अर्थ सहित सूत्रना विषयमा आवेछे. अने ते सूत्ररुचि केवळ सूत्रना विषयमांज आवेछे एटलो ते बन्नेमां भेदले. केव
ल सूत्र मूल कथायछे. ७. सर्व प्रमाण तथा सर्व नयथी उत्पन्न थएल सर्व द्रव्य अने __ सर्व भावना विषयनी रुचिने विस्तार रुचि सम्यक्त्व. कहेवा
.यछे तेथी विशेष लाभ प्राप्ति थायछे. . ८ ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप अने विनय वैयाकृत्य आदिना आच
रण संबंधी रुचि ते क्रियारुचि कहेवायछे.. ९ जेणे कुदष्टिनो अभिग्रह को ना होय अने जे प्रवचनमा प्रवीण न होय तेवा पुरुषने मात्र निर्वाण पद संबंधी रुचि ते संक्षेप रुचि जाणवी जेम उपशम संवर अने (विवेक आ त्रण पदनी
रुचि चिलाती पुत्रने थइ हती तेम समजवू. १० धर्मपद श्रवणथी उत्पन्न थएली जे धर्मपदवाच्य संबंधी रुचि . ते धर्मरुचि कहेवायछे.
समाकतरत्ननी प्राप्ति दुर्लभछे-समकित पाम्या पश्चात् संसार समुद्र चुलुक प्रमाण समजको. आ संसारचक्रमां अनंतशः परिभ्रमण करी अनंतवार अनंतदुःख पाम्यो. अनेक देहो धारण कर्या. प्रत्येक भवमां अनेक दुःख भोगव्यां. जन्म जरा मरणादि दुःखोनो भोक्ता घणीवार थयो. पण पार आव्यो नहि. जीव पुनः पुनः परस्वभावमा रमण करी कर्म ग्रहेछ. आत्मस्वभावमां रमण करवा. थी कर्म नाश पामेछे, कम्मपयडी आदि ग्रंथोमांथी विशेष स्वरूप जाणवु. कर्मनो नाश करी मोक्षनगरमा जवानी इच्छा होय तो अनुभव ज्ञाननो खप करो. मतिश्रुत ज्ञान हुँ उत्तर भावी अने केवळज्ञाननु पूर्वभावी अनुभवज्ञानछे.. दृष्टांत जेम सूर्य केवलज्ञानछे
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परमात्मदर्शन
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अने सूर्योदय थतां प्राक्.जे अरुणोदयछे ते दृष्टांते अनुभवज्ञान जा.ण. अनुभवज्ञान साक्षात् परमात्मपदनी प्राप्ति करावेछे. भव्यजीवो अनुभवज्ञानथी जाणेछे. अनुभवज्ञान साक्षात् सूर्य समानछे. शास्त्रोनुं अध्ययन करतां, ध्यान करतां अनुभवज्ञाननी प्राप्ति थाय छे. अनुभवज्ञानीभो उपयोग पोताना आत्माना असंख्यात प्रदेशे स्थापी पुद्गलवस्तुमां उघछे. मारो शुद्ध आत्मस्वभाव तेज मारूं धनछे. बाकी आ बाह्य देखातुं धन मारु नथी. एम भिन्नता पाडी शुद्ध गुणमा परिणमेछे. अनुभवज्ञानी सिद्धांतनो साररूप मकरंद पीवछे. अनुभवज्ञानी समता भुवनमां सदा सुखमां म्हालेछ. अरूपी आत्माने दृष्टिगोचर करवातुं स्थान अनुभवज्ञानछे. माटे सम्यग् ज्ञानना. अर्थी जीवोए पुनः पुनः सत्शास्त्र अने सद्गुरूनो परिचय करी अंतत्ति करी बाह्यवृत्तिनो त्याग करवो.
. कहुं छे केबाह्यवृत्तिए गुणठाणे चढवू, ते तो जडना भांमा संयमश्रेणि शिखरे चढावे, अंतरंग परिणामारे. लोका भो
लवीया मत भूलो. १ ए उपरथी सार लेवानो के-बाह्यत्ति नाम बहिरात्मदशाथी गुणस्थानके चडqएम तो जड़जीवोनी भ्रमणाछे, अंतरंग परिणामरूप अंतर्दृत्ति संयमश्रेणिना शिखरे चढावेछे. माटे भव्य लोको भोळवीया तमे भूलो नहीं सत्य तत्त्वमा रमण करो. अने ध्याननी इच्छा करो. आत्मगुणनी विचारणा करो. आत्माना स्वभावमां ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्यादि अनंतगुणले, वळी गुण गुण प्रति भिन्न भिन्न स्वभाव आत्मामा रह्याछे, ज्ञाननो जाणवारूप स्वभाव, दर्शननो देखवारूप स्वभाव, चारित्रनो स्थिरतारूप अने वीर्यनो स्फुरणा शक्तिरूप स्वभाव एम. अनंतगुणो आत्मामां तिरो मारे रमले. पण
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( ३०१ )
उपस्थिति..
शक्तिभावधी आत्मानुं कार्य सरे नहिं. जेम अरणि कामां शक्तिभावे रहीछे पण अरणिना काष्ठने बाथ भीडवाथी टाढ नाश पामे महि ते दृष्टांतना अनुसारे शक्तिभावे रहेलो आत्मानो धर्म ज्ञानथी जाणी वीर्यथी प्रगट करीए तो चतुर्गतिनां अनंतशः जन्म जरा मरण टळी जाय. आत्माना गुण पर्यायतुं व्यक्तिरूपे प्रगटवुं तेज स्वभाव लाभ जाणवो.
प्रश्न - घातीकर्मनो नाश शावडे त्वरित धाय.
•
उत्तर - ज्ञान अने ध्यानथी प्रमादना त्यागपूर्वक आत्मोपयोगे स्थिरताथी कर्मनो नाश थाय छे. पर्वतनी गुफामां निविड अंधकार होयछे तेनो नाश दीपकथी थायछे तेम अज्ञान तथा कर्मनो नाश पण आत्मज्ञानथी थायछे मोटी तृणनी गंजी पण अग्निना स्वल्प कणीयाथी नाश क्षणमां पामेछे तेम अनंत भवोपार्जित घातीकर्मनो नाश पण आत्मज्ञानथी स्वल्पकाळपां थायछे. श्रीपाळना रासम देशनानी ढाळमां धुं छे केश्री. यशो विजय उपाध्याय.
क्षण अर्धे जे अघटले, तेन टळे भवनी कोडीरे, तपश्या करतां अतिघणी, नहीं ज्ञान तणीछे जोडीरे.
ज्ञानी पुरुष अर्धक्षणमां जे पापनो नाश करेछे ते कोटी भव पर्यंत कठीन विचित्र छठ अठम मास वे मास विगेरेनी तपश्चर्या करतां टळे नहीं. माटे ज्ञाननी कोइ जोडी एटले ते समान कोई नयी माटे आत्मज्ञाननी प्राप्ति करवा प्रयत्न करवो. ज्ञान रूपी अग्नि सर्व कर्मने वाली भस्म करेछे. षद्रव्य सात नय तथा निक्षेप द्रव्यादिकना ज्ञानयी स्वपर विभाग थाय छे अने पोताना घरमा प्रवेश करेछे अर्थात् असंख्य प्रदेशरूप जे घर तेमां आत्मा उपयोगपणे परिणमी अशुद्धतानो परिहार करेछे, पोताना घरमा आवतां मा
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परमात्मक
माए अनुभवष्टियी सर्व सिध्धि जोइ त्यारे विचार्यु के-अहो में अनंत भवचक्र काळ अज्ञान रूप निद्रामा निर्गमाव्यो. मारी भूले हुँ जन्म जरा मरणनां दुःख पाम्यो हवे भ्रांति भागी आ शरीररूप नगरीमा असंख्य प्रदेशी आत्मानी प्रतीति थइ, असंख्य प्रदेशोरूप आत्मा हुं अरुपी छु. वेत, पीत, रक्त, कृष्ण, ए पुद्गलतुं रूप छे पण हूं तो पुद्गलथी भिन्भर्छ माटे रूपातीतर्छ, मारामां गंध स्पर्श नथी. शब्दयी मारु ज्ञान थाय छे पण हुं शब्दयी न्यारो छ मारु कोइ नाम मथी. तेथी हुं अनामी कहेवाउछु.
हुं कीर्ति वा अपकीर्तिवालो नथी-कारण के बहिरात्मदशामा कीर्तिनी वासना जीवने रहेछे अने तेथी ते अनेक प्रकारना कीर्ति माटे उद्यमो करेछे. पण तेथी कई कल्याण यतुं नथी. जेम च्याने स्वमानी अंदर पुत्रनो प्रसव थयो. अने ते पुत्रने मोटा थतां परणाव्यो. वंध्या बहु आनंद पामी. एवामां वंध्यानो पुत्र मरण पाम्यो त्यारे वंध्या रोवा पीटवा लागी. केश तोडवा लागी. वंध्यानी आंख उघडी गइ अने जुवे छे तो कई नथी. मिथ्याभास थयो एम जाण्युं तेम अज्ञानी जीव साधु वा गृहस्थना वा कोइपण अवस्थामां कीर्तिनी वासनाथी अनेक कार्यों करेछ. किंतु आंख मींचाया बाद कई पण तेमांनुं देखातुं नथी. मांटे ज्ञानयोगी आत्मा कोइ कीर्ति करे वा कोइ अपकीर्ति करे तोपण समभावे रहेछे. कारण के-ज्ञान योगी आत्मा जाणेछे के कीर्तिनाम कर्मना बंधनथी जगत्मा कीर्ति मसरेछे. अने अपकीर्तिनाम कर्मोदयथी अपकीर्ति मसरे छे-माटे ते कीर्ति अने अपकीर्ति बने पौद्गलिकछे. कीइनी कीर्ति. प्रसरवाथी ते धर्मी कहेवातो नथी. तेम अपकोति.मसरवाथी ते अधर्मी कही शकातो नयी. अंतरंग शुद्धात्म वृत्तिथी धीं कहेवायछे. अने अंतरंग अशुद्धात्म वृत्तिथी अधर्मी जाणवो. मान पूजा आदि वास.
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(३०४)
उच्चस्थिति.
annahanamamaramanand,
नाओथी पण आत्मा भिन्नछे. कारण के मान अने अपमान एह बहिरात्मा दशावाळाने एटले जेणे दुनीयादारीमा सुखदुःखनी बुद्धि धारण करीछे तेवा जोवने वर्तेछे, पण जेणे शरीरथी भिन्न आत्मा निराकार ज्योतिमय जाण्योछे तेवा अंतरात्म दशावाळा जीवने माननी वासना रहेती नथी. शुद्धात्मा सदा मानवंतछे. पुद्गलरूप देह कइ मान्य योग्य नथी. वळी कोइ अपमान करे तो समजे केदेहर्नु अपमान के तेनी अंदर रहेला आत्मानुं अपमान नथी. देह तो जडछे अने आत्मा तो अदृश्यछे, तेथी तेनुं अपमान थइ शकतुं नथी. माटे ज्ञानयोगी महात्माने मान अपमान बे सरखांछे. वळी ज्ञान योगीनी कोइ निंदा करे. वा कोइ वंदन करे तोपण ते समभावमा वर्ते छे. कारणके ज्ञानी जाणे छे के-मारो आत्मा अलक्ष्यछे. पोताना स्वभावे शुद्ध निर्लेपछे. एम उपयोगमां वर्ततो कोइना उपर राग वा कोइना उपर द्वेष करतो नथी. कनक अने पाषाणने पण ज्ञानी आत्मा सरखा जाणेछे, कनक अने पाषाण पृथ्वीकायनां दळीयां पौद्गलिकछे. अने ते कनक पाषाणरूप अचित्त पुद्गल स्कंधरूपीछे. अने हुं आत्मा तो अरूपीछ. कनक पाषाण पुद्गल स्कंध जडछे अने हुं आत्मा तो ज्ञान गुणमयर्छ, मारी अने एनी भिन्न जातिछे. वळी कनक पाषाणमां सुख नथी. तो ते उपर केम दृष्टि आपुं ? एम समजी ज्ञानी आत्मार्थी समभावमा रहेछे. अने शुद्धात्म स्वरूपमा उपयोग दृष्टि आपेछ. संसारना संसर्गमा आवतो पण ज्ञानी आत्मा जलमां कमलनी पेठे भिन्नपणे वर्तेछ, हर्ष शोक धारण करतो नथी. एम प्रमादस्थाननु निवारण करतो विरतिव्रत अंगीकार करतो अंतर्थी द्रव्यक्षेत्र काळभावथी आत्म स्वरूप विचारतो अने तेम आत्माना गुणपर्यायने भिन्नाभिन्नपणे विचारतो मति अने श्रुतज्ञानना क्षयोपशमे वीर्य श
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परमासान
क्ति.फोरवतो संयम श्रेणि आरोहण करतो घातीकर्मनो क्षय करी यावत् अघातीकर्मनो क्षय करी पंचम गति जे मुक्तिस्थान तेमा सादि अनंतमा भांग बिराजे छे. त्यां मुक्तिस्थानमां शरीरनो बीजो भाग टाळी बे भागनी अवगाहना रहंछे. मुक्तिमां खामी सेवकभाव नथी, मुक्तिमा गएल आत्मा पश्चात् संसारमा आवतो नथी, अने तेथी जन्म जरा मरणनां दुःख पामतो नथी, आ प्रमाणे कर्मना नाशे मुक्ति पासेनी पासेछे किंतु आत्मध्यानरूप पुरुषार्थमां प्रमाद थवाथी पुनः पुनः संसारमा परिभ्रमण करवू पडेछे मन, वचन अने कायाना योगो स्थिर करी आत्म स्वरूपमा स्थिर थर्बु अने बाह्य मार्गमां वृत्ति देतां आगळ वध्या करवू. तेम करवाथी आनंदनी खुमारी प्रगट थशे अने स्थिरता योगे..चारित्र मोहनीयनो नाश थशे, अने आत्मा मतिज्ञान अने श्रुतज्ञानना क्षयोपशमयोगे प्रत्येक गुण स्थानकनी हदे विचित्र अनुभव प्रगट करतो देखाशे अने आत्मतत्त्वनो निर्धार भास थशे. आ अचळ सिद्धांतनी श्रद्धा तथा तेनो आदर जे आत्मा. अल्पभवमा मुक्ति जवानोछे तेने प्राप्त थायछे. अने परमपद प्राप्तिनी तीवेच्छा प्रगट था विना तेना उपर लक्ष्य लागतुं नथी अने ते प्रति लक्ष्य लाग्या विना अत्म कल्याण नथीज. जे भव्यने जे वस्तुनी इच्छा होयछे ते प्रति तेनो उद्यम वर्तछे. सर्व करतां शुद्ध स्वरूपनी इच्छा श्रेष्ट गुणावहा जाणवी. हवे ते आत्मगुणनी प्राप्तिकरवा मन शुद्ध करवु जोइए. मननी शुद्धता थया विना सच्चिदानंद प्रति वलण थतुं नथी, प्रथमतो मन इंद्रियोना विषयमां भटकतुं होयछे तेने पार्छ वाळवं अने आत्मरमणमा जोड, एम थवाथी राग द्वेषादिक श-. त्रुओ तेनी मेळे नाश पामशे. आम वर्तन करवाथी गुणोनी प्राप्ति थायछे कोइ भव्यो बोलवामां एवं बोले के-जाणे महा तत्वज्ञान
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( २० )
उद्यम.
प्राप्त थयुं पण अंतरमां कंद होतुं नथी, माटे वर्तन आत्म स्वभावमां eg जोइए, एम करवायी अनुक्रमे आत्मा कर्माष्टकनो नाश करी मुक्तिपद पामेछे. अतीत काळे अनंत जीवो मुक्ति गया जायछे अने जशे इति सप्तम विषय संपूर्ण.
अष्टम विषय.
संसारमां आत्मा क्यारथीछे -- ?
संसारमां आत्मा अनादिकाळथीछे. जेनी आदि होयछे ते उप्ततिमान पदार्थ होय छे। अने जे उत्पत्तिमान् होयछे ते कार्यरूप कहेवायछे, अने जे पदार्थ कार्यरूप होय ते समवाय निमित्त आदि कारणोनी सामग्रीद्वारा उत्पन्न थायछे अने तेथे ते कार्यरूप पदार्थ अनित्य कहेवाय छे। अने जे पदार्थ अनित्य होयछे ते विनाश पामे छे. आत्माने कोइए उत्पन्न कर्यो नथी अने तेथी ते अनादि कहे वायछे.
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जे पदार्थनी आदि नथी तेनो अंतपण नथी. ते प्रमाणे आत्मा अनादि छे अने अनंतले. जे वस्तुनो कोइ बनावनार नथी ते वस्तु नित्य कहेवायछे, तेम आत्मा तेनो बनावनार कोइ नयी तेथी आत्मा नित्य कहेवायछे. जे नित्य बस्तु होयछे ते त्रण कालमां नाश पामती नथी. तेम आत्मा पण नित्यछे तेथी त्रणे कालमां नाश पामतो नथी, जे वस्तुउत्पन्न थायछे ते कारण पूर्वक होयछे, जेम घटवस्तु मृत्तिका दंड चक्र कुलालादि पूर्वकछे अने जे वस्तुनो कोइ उत्पन्न कर्त्ता नथी. ते कारण विना स्वयं सिद्ध होयछे जेम आकाश ते प्रमाणे आत्मा पण कारण विनानोछे. अर्थात् ते कोनाथी बन्यो नथी.
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परमात्मदर्शन,
( ३०० )
ईश्वरवादी - सर्व जीवोने इश्वरे बनाव्याछे तो जीवोनो कर्ता इश्वर कारणी भूत मानवो जोइए.
तत्ववादी - जीवोनो कर्त्ता इश्वर नथी, इश्वर अरूपीछे. रागद्वेष रहीतछे, संसारनी खटपट रहीतछे. तेवा इश्वरने जीवो बनाबवानुं शुं प्रयोजन ते बतावो अने ज्यारे इश्वरे जीवो नहोता बनाव्या ते पूर्वे इश्वर भुं करतो हतो वळी बतावो के जीवोनुं उपादान कारण कोण अने जीवरूप कार्यनुं निमित्त कारण कोण ?
प्रथम सामान्य माध्यस्थ बुद्धिथी विचारतां पण मालुम पढेछे के रागद्वेष रहीत एवा प्रभु वा जे ईश्वर सिद्ध तेमने जीवो बनाववानुं कंड् प्रयोजन नथी, एकने सुखी बनाववो अने एकजीवने दुःखी बनाववो एवं अन्यायनुं कार्य ईश्वर करतो नथी. जीवो बनाव्या विना पूर्वे ईश्वरने गमतुं नहोतुं ते पण कंइ कही शकां नथी, अने जीवो बनाव्या पूर्वे ईश्वर कतृत्व शक्ति रहीत हतो के केम ते कही शकातुं नथी. कर्तृत्व शक्ति ईश्वरनी अनादिनी मानो तो जीवो पण अनादि ठर्या. त्यारे वदतोव्याघातदूषण प्राप्त थयुं. कतृत्व शक्ति ईश्वरनी जो अनादि न मानो तो शक्तिनी अनित्यताए ईश्वर पण अनित्य ठर्यो. बळी जीवोनी पूर्वे ईश्वर छे ते पण सिद्ध यतुं नथी. बळी जीवोनुं उपादान कारण पण ईश्वर कही शकातो नथी, कारणके उपादान कारणथी कार्य भिन्न नथी. यथा तंतवः पटस्य जेम पटतुं उपादान कारण तंतु ते पटरूपज छे तेम जो जीवोनुं उपादान कारण ईश्वर मानीए तो सर्व जीवोथी अभिन्न ईश्वर ठर्यो. अने ज्यारे सर्व जीवमय ईश्वर ठर्यो त्यारे राजा पण ईश्वर पापी पण ईश्वर चोर पण ईश्वर विडाल पण ईश्वर सर्व पण ईश्वर पोतानी मेळे ईश्वर उपाधिमय बन्यो कोनुं भजन कर. कोई
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पन, कोनी मुक्ति, ते पण असत्य ठयु, तप जप दान क्रिया सर्व असत्य ठरी. माटे जीवोर्नु उपादान कारण ईश्वर सिद्ध यतो नथी. तेम निमित्त कारण पण ईश्वर कही शकातो नथी, कया कया मसाला लावीने ईश्चरे जीव बनाव्यो. जो कहेशो के पंचभूतरूप मसालाथी जीव बनान्यों तो ते वात पण आश कुसुमवत् असत्य ठरेछे. कारण के पंचभूततो जडछे. अने आत्मा तो ज्ञान गुणी छ माटे ते पंचभूतनुं कार्य नथी. माटे जीव उपादान कारण पंचभूत कदी ठरतां नथी. अने निमित्त कारण जीवनो ईश्वर ठरतो नधी. माटें जीव अकारण होवाथी नित्य सिद्ध झे. अने तेथी ते अनादिकाळधी छे एम सिद्ध ठयों. श्री केवलज्ञानी वीरमभुए जीवो अनादिकालना छे एम सत्य कथ्युंछे. हवे ब्रह्ममाथी जीवोनी उत्पति माननाराओ प्रति प्रश्न पूर्वक नेमनी भूल दूर करायछे. शिष्य हे सद्गुगे कोइ एम कहेछेके आत्मा वा इदमेक एकाग्र
आसीत् अर्थ आ दुनीयामा प्रथम ब्रह्म एकज हतुं अने तेमां थी आ सर्व प्रपंच बन्योछे आ वातमां शुं सत्य समायुछे. ते
कृपा करीने कहेशो ? सद्गुरू हे सौम्य श्रवण कर. ब्रह्ममाथी जीको माया विगरे सर्व
प्रपंच बन्यो एम मानवं युक्तिहीनछे. ते नीचे मुजव. ब्रह्मथी दुनीयानो प्रपंच भिन्न मानशो तो एकात भिन्न प्रपंचरूप वस्तु ब्रह्मथकी उत्पन्न यायछे तेम मानवू मंडूक जटावत् अस. त्य ठरेछे, कारण के जेम घटयकी एकांत मिन्न पटनी उत्प त्ति जोवामां आवती नथी. एम प्रत्यक्ष विरोध आवेछे, वळी ब्रमयकी एकांत अभिन्न जगतरूप प्रपंच मानो तो ते पण मुक्ति विकल आकाश कुमुमक्त् असत्य.हरेछे,
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__ब्रह्मथी एकति अभिन्न जगत् प्रपंच ब्रह्मस्वरूप ठो, स्यारे माता, स्त्री, पुत्र, सर्प, सिंह, आदि सर्व ब्रह्मरूप ठयु, त्यारे तेनाथी भिन्न वा तेथी मुक्त थवाशेज नहि, वळी अमो ब्रह्मवादीने पुछी ए छीए के-ब्रह्म.जे ते जगत् प्रपंचर्नु उपादान कारणछे के निमित्त कारण ? प्रथम पक्षमां जो ब्रह्मने उपादान कारण मानवामां आवे तो कारण जेवु होय तेवु कार्य थाय जेम पटर्नु उपादान कारण तंतु रक्त होय तो पट पण रक्त थापछे. तेम जो ब्रह्म सत्छे अने उपादान कारणछे तो उत्पन्न थनार जगत् प्रपंचरूप कार्य सत् थर्बु जोइए. अने ते कदी नाश पण पामे नहि, पण जगत् मपंच सत् नथी एम प्रत्यक्ष विरोधापत्ति प्राप्त थती देखायछे वळी ब्रह्मने रूपी वा अरूपी मानतां विरोध दर्शावेछे. प्रथम पक्ष ब्रह्मने रूपी मानतां आगम विरोध आवेछ. द्वितीय विकल्पमां ब्रह्मने अरूपण मानतां ब्रह्मथी उत्पन्न थनार जगत् प्रपंच रूप कार्य अरूपी थर्बु जोइएं. पण घटपटादि वस्तुरूपी देखायछे ए पण महाविरोध आवेछे. वळी ब्रह्मने नित्यमान तां ब्रह्मथी उत्पन थनार जगत् प्रपंच पण नित्यपणे उपलब्ध थवो जोइए पग जगत् प्रपंच तेथी उलटो विनाश पामतो देखायछे, तेथी तेम मानतां पण विरोध प्राप्त थायछे, माटे जगत् उपादान कारणपणे मानेलं ब्रह्म नित्यपणे पण कहीशकातुं नथी. ब्रह्मने अनित्य मानतां आगम निरोध आवेछे वळी ब्रह्मने एक अने ते सर्वत्र व्यापकछे एम मानशोतों जीवोनो बंध मोक्ष मानवो असत् ठरेछे. तेम सुख दुःख पण असत् ठरशे. इत्यादि विकल्पोथी ब्रह्मनी सिद्धि पण थती नथी. तो वळी ब्रह्ममायी जीवो उत्पन थया तेम मानवु ते तो सर्वथा अस य ठरेछे. प्रश्न-आनंद ब्रह्मगो विद्वान् नविभेति कुतश्चन-ब्रह्मना आनंदने
जाणकार पुरुष कशाथी मय पामतो नथी. एम वहा आर
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.
अास्वरूप.
..) ___ण्यक तथा तैत्तिरीय श्रुतिमां काएंछे तेनुं केम-? उत्तर-ब्रह्म शब्दार्थनुं सम्यग ज्ञान न थवाथी तत्वनी प्राप्ति यती
नथी. केटलाक ' वादो ब्रह्म विषे सर्व जीवोनो लय थायछे. अने वळी ब्रह्ममाथी सर्व जीवो उत्पन्न थायछे एम समजी तत्त्व पामी शकता नथी कारणके-सम्यग् ज्ञान विना सम्यग क्रिया थइ शकती नथी. अने ते विना भवांतः थतो नथी. अर्थात् कर्मनो नाश करी मुक्तिपद पमातुं नथी. पण आत्मारूप ब्रह्मनो भावार्थ ज्ञानथी सम्यक समजनार कशाथी भय पामतो नथी. माटे सम्यग्दृष्टिपणुं प्राप्त थतां ए..
कांत हठ टळेछे. प्रश्न-श्लोक भियते हृदयग्रंथीः छियंते सर्व शंसयाः
क्षीयंते चास्य कर्माणि, तस्मिन् दृष्टे परावरे. १ ब्रह्मने साक्षात्कार जाणवाथी हृदय ग्रंथी भेदायछे. अने सर्व संशयो छेदायछे. कर्मो नाश पामेछे. ते ब्रह्मने देखता-आम
मुंडकोपनिषद् विगेरेयी जणायछे तोब्रह्मने असत्य केम कहेवाय? उत्तर-हेभव्यजीव हजी अमारु कथन तमाराथी समजायुनथी
ब्रह्मशब्दनो अर्थ ज्ञानवान् आत्मा अनेते ज्ञानीजीव प्रतिशरीर भिन्नभिन्न-तेमज कर्मरहीत ज्ञानीजीवो-व्यक्तिथी भिन्नभिन्नछे तेवारुपे अमो ब्रह्मने सत्य मानीएछीए-पणजे एक ब्रह्म अने तेमांथी जगत् पेदाथर्बु तेवा ब्रह्मशब्दना अर्थने अमो सत्यरुपे मानतानथी. तेनासंबंधे अत्रसंभाषण थायले -अत्रसमजवानुंके-सर्वत्र ब्रह्मछे, ब्रह्मथकीअन्य काइपदार्थ नथी एम मानवु ते ज्ञानविरुद्धछे-अने एम काइमानेतो तेमां अन्यनुं जोरनथी-पण समजवानुंके-उपरना श्लोकथी द्वैतपणानी पटले बे तत्व-जीव अने अजीव सेनी सिद्धि थायछे-अस्य
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परमात्मदेशन. कर्माणिक्षीयंते-आनां कर्म नाशपामेछे. आनां एटले आत्माना आत्मानी साथे ज्ञानावरणीयादी अष्टकर्म अनादिकाळथी क्षीर नीरवत् लाग्यांछे. ते कर्म, आत्मानुं स्वरूप स्याद्वादपणे देखी
आत्म स्वभावमा रमवाथी नाशपामेछे. आत्मा अने कर्म एम बे वस्तुनी सिद्धि थइ, एक आत्मद्रव्यनी द्वितीय कर्मरूप पुद्गल द्रव्यनी अनायासे सिद्धि थइ, कर्मजड अने,अजीवछे, तेथी जीवतत्त्व एम बे तत्त्वज्ञानी प्रभुश्रीमहावीरस्वामीए कथ्यां छे तेनी सिद्धि थइ कदापि सामो प्रश्न एम करवामां आवे के कर्म पण ब्र. मथी भिन्न नथी अने ते ब्रह्मस्वरूपछे. तो उत्तर तरीके कहेवामां आवशे के कर्म ज्यारे ब्रह्मस्वरूप ठयु. त्यारे कर्मनो नाश थतां ब्रह्मनो पण नाश थशे.
बळी विचारोके कर्म छे ते ब्रह्मयकी भिन्न छे अभिन्न? प्रथम पक्षमां ब्रह्मथकी कर्मएकांत भिन्न मानतां पटथी एकांत भिन्न घटनी पेठे बे पदार्थ ब्रह्म अने कर्म भिन्न छ तेनी सिद्धि थइ, द्वितीयपक्षमा ब्रह्मथी कर्म अभिन्न छ एम मानतां ब्रह्म अने कर्म एक स्वरूप यह जशे अने कर्मनो नाश पण थशे नहि.
बळी विचारो के कर्मसत्छे के असत्छे कर्मअसत्मानवामां आवे तो सत्ब्रह्म अने असत् कर्मनो संयोग थाय नहि, कारण के सत्नी साथे जे वस्तुरूपे ना होय तेनो संयोग घटे नहि. अने बेनो संयोग मानवामां आवशे तो बे पदार्थ भिन्न स्वभाववाळा भिन्न ठा, त्यारे एक एव ब्रह्म आवाक्यनो नाश थयो एम अवश्य सिद्ध ठरेछे. स्याद्वादपणाथी तो ते सर्व जिन दर्शनमा यथार्थ घटेछे अने आस्मानी सिद्धि थायछे अने कर्मनी सिद्धि थायछे. आत्मा ज्ञानादिके करी सत्छे अने कर्मरूप पुद्गलनी अपेक्षाए असत्छे. पण पुद्गल द्रव्य पोताना स्वरूो सत्छे. आत्मा अने कर्मनो संयोग अनादिका
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(AAR)
कथी छे. आत्मा अने कर्म चे क्षीरनीरवत् परिणामीछे, आत्मा क्यारे स्वस्वभावमां रमण करेछे. त्यारे कर्मरूप पुद्गलो आत्माना प्रदेशोथी विखरेछे, अने आत्मामा रहेलं अनंतज्ञान आविर्भावे प्रकाशेले. अने आत्मा परमपद पामतां अचल थायछे. जन्म जरा मृत्युनो नाश करी अजरामर पद पामेछे तेषां नपुनरावृत्तिः शिव अर्थात् मोक्ष पामेला जीवो संसारमां पाछा आवी जन्म धारण करता नथी. वळी सर्व जीवो ब्रह्मना अंशछे एम मानीएतो पुण्य पाप बंध मोक्ष आदि घटी शकतुं नथी कारण के सर्वस्य ब्रह्मस्वरूपत्वात् सर्व पदार्थने ब्रह्मस्वरूप मान्याथी धर्म अधर्म मुक्ति विगेरे असत्य - रेछे. तेषां आ वाक्य प्रयोग षष्ठीना बहु वचननोछे, तेथी आत्मा अनंतछे एम प्रतिपादन कर्युछे. ने फरीथी संसारमां आवता नथी. एम कहेवाथी प्रलय काळ थया बाद केटलाक मानेछेके मुक्तिमाथी संसारमां जीव पाछा आवेछे तथा दयानंद सरस्वति ले आर्य समाजनो प्रकाशकछे ते स्वकल्पनाथी एम मानेछेके मुक्तिमांशी जीव संसारमांपाछो आवे छे. एम ते वादियोनुं मानवुं असत्य ठरेछे. अने ते मिथ्या ज्ञानले एम सिद्ध कर्यु. बळी नीमी वेदश्रुतियो पण सम्यग्ज्ञान विना असमंजस भासेछे.
म.
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तथाच
इदं सर्वं यदयमात्मा, सर्वे खल्विदं ब्रह्म || अयमात्मा ब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि ||
इत्यादि वेद श्रुतियोपण सम्यग्ज्ञान विना प्रमाणीभूत नथी. सर्व पटले सर्व खलु एटले निश्वययी आ ब्रह्मछे. घट, पट, दंड, चक्र, वृक्ष, सर्प, जगत् सर्व ब्रह्मछे तो सिद्ध थयुं के स्त्री पण ब्रह्म स्वरूप. माता पण ब्रह्मस्वरूप. पुत्री पण ब्रह्मस्वरूप. पोते वक्ता पण ब्रह्मस्वरूप : त्यारे कोने नमस्कार करवो ? कोनुं स्मरण कर? अने बळी स्मरण करवानुं भुं प्रयोजन ? तेनी सिद्धि ठरती नथी. श्वा पण
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परमात्मदर्शन.
( n) ब्रह्मस्वरूप, अने विष्णु पण ब्रह्मस्वरूप. सर्प पण ब्रह्मतो प्रत्येकने नमस्कार करवो जोइए. पण ब्रह्मवादी पण सर्वने ब्रह्मस्वरूप मानी भेदभाव राखेछे ते आकाश जेवडी मूल गणाग, माटे ब्रह्मने एक मानतां पूर्वोक्त दूषण प्राप्त थायछे. सम्यग्दृष्टि तेवोज अर्थ सम्यगपणे ग्रहण करेछे. आ सर्व जगत् अनंतजीवोथी परिपूर्ण व्याप्तछे, अने जे आ शरीरमा छे ते आत्माछे, अने आत्मा ज्ञानमयछे. दुनीयानी सर्व वस्तुओ ज्ञानमां विषयीभूत थायछे. अनंतज्ञेयनो ज्ञाता अनंत ज्ञानमय आत्माछे तेने ब्रह्म कहो वा चैतन्य कहो. वा परमात्मा कहो, नामभेद पण अर्थतो एकनो एकछे-सिद्ध परमात्माओ सदृश शरीरमा रहेलो आत्मा पण सर्व रूद्धिमयछे पण कर्मावरणथी सर्व रूद्धि तिरोभावेछे-आत्मा अजछे. अविनाशीछे. अनादि अनंत, अक्षय, अक्षर, अनक्षर, अचल, अटल, अमल, अगम्य, अरूपी, अकर्मा, अबंधक, अनुदय, अनुदरीक, अयोगी, अभोगी, अरोगी, अभेदी, अवेदी, अछेदी, अलेपी, अखेदी, अकषाइ, अलेशी, अशरीरी, अणाहारी, अव्याबाध, अनवगाही, अगुरूलघुपरिणामी, अपाणी, अयोनि, असंसारी, अमर, अपर, अपरंपर, ज्ञानगुणापेक्षाए व्यापक अनाश्रित, अकंप, अनाश्रव, अशोकी, असंगी अनाहारी लोकालोक ज्ञायक, अनंत सुखमय, आदि गुणोथी बिराजमान प्रत्येक शरीरमा रहेला आत्माओ छे. किंतु कर्मनायोगे सर्व रूद्धि ढंकाणी छे, आ शरीरमां पण कर्मथी बंधाएल हे आत्मातुंछे. जेवा सिद्ध भगवान् छे तेवो तुं छे. एम सम्यग् अ ग्रही प्रयत्न करायतो मुक्तिपद पामी शकाय. पण सम्यग्ज्ञान विना संसारी जीवो मोहमायामां मस्तान थइ संसारमा परिभ्रमण करेछे. माटे सत्य तत्वनी प्राप्ति करवी. एज मोक्षमार्ग जाणवो. श्री सर्वज्ञ प्रभुए धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलाम्तिकाय, जीव द्रव्य
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(218)
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उपस्थिति.
छान
अने काळ आ षड्द्रव्य कथन कर्याछे. केवलज्ञानमां जेवुं जाण्युं तथा केबल दर्शनमां जेतुं सामान्योपयोगथी देख्युं. ते प्रमाणे पदा
तुं प्रतिपादन कर्युछे. तेनुं ज्ञान थवाथी सत्य आत्मतत्त्वनी प्राप्ति थायले. मिथ्याज्ञानथी मिथ्यात्वनी वृद्धि थायछे.-यत उक्तं
लोक.
नमिथ्यात्वसमः शत्रु, र्नमिथ्यात्व समविषं ॥ नमिथ्यात्वसमोरोगो, नमिथ्यात्वसमंतमः ॥ १॥ द्विषद्विषतमो रोगे, दुःखमेकत्र दीयते ॥ मिथ्यात्वेन दुरंतेन, जंतोर्जन्मनिजन्मनि ॥ २ ॥ वरं ज्वालाकुले क्षिप्तो, देहिनात्मा हुताशने || नतु मिथ्यात्वसंयुक्तं, जीवितव्यं कदाचन ॥ ३ ॥
मिथ्यात्व समान कोई शत्रु नथी. कारणके मनुष्यरूप शत्रुओ बरुद्ध वा बाह्यप्राणनो नाश करेछे. अने मिथ्यात्वरूप शत्रु तो आत्मानी अनंतिरुद्विनो नाश करेछे. अने मिथ्यात्व समान कोई मोढुं विष नथी. अने मिध्यात्व समान कोई रोग नथी. अने मिथ्याव समान कोई अंधकार नथी. ज्वालाथी देदीप्यमान अग्निमां बळी मनुं ते सारु किंतु मिथ्यात्खपणाथी जीववुं सारु नथी. वळी उपरना बीजा श्लोकमा जणान्युं के - शत्रु विषरोग तेथी तो एकवार दुःख पमायछे अने दुःखे करी जेनो नाश थायछे एवा मिथ्यात्वथी तो भवोभव दुःखनी परंपरा प्राप्त थायछे, माटे सम्यग्ज्ञाननी प्राप्ति माटे प्रयत्न करवो, श्रीवीरप्रभुए जीवो अनादिकाळनाछे एम केवलज्ञानथी जाणी प्ररूपणा करीछे ते सत्य मानवी. श्रद्धा करवी.
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परमात्मान.
९ नवमविषय. आत्मा निर्मलपद ( मोक्ष ) शाथी पामे; ज्ञान दर्शन चारित्रागि मोक्षमार्गः ज्ञान दर्शन अने चारित्र मोक्षनो मार्गछे. श्रीतत्त्वार्थसूत्रमा ज्ञान दर्शन चारित्रंन विशेषतः प्रतिपादन कर्युछे. त्यांची जिज्ञासुजनोए तेनुं स्वरूप गुरुगमद्वारा धारवं. अत्र ए त्रणनो विशेष विस्तार करवाथी ग्रंथ गौरवता वृद्धि पामे माटे को नथी. पूर्वे ज्ञाननु सामान्यतः वर्णन कर्युछे. दर्शननु पण वर्णन कर्युछे. चारित्रनु पण सामान्य स्वरूप आगळ कहेवाशे. अष्टकर्मना समूहनो जे नाश करे तेने चारित्र कहेछे. चारित्रना बे प्रकारछे. व्यवहार चारित्र द्वितीय निश्चय चारित्र तेमां व्यवहार चारित्रना बे भेदछे. १ देशविरतिरूप-द्वितीय सर्व विरतिरूपे.
तेमां श्रावकनां बारवत अंगीकार करवा. तथा तेनुं पालन करवू तेने देशविरति चारित्र कहेछे. __सर्वथी पंचमहाव्रतनो शास्त्राज्ञापूर्वक स्वीकार करवो अने वीतराग आज्ञा प्रमाणे वर्तन करवू तेने सर्वथी चारित्र कहेछे-सर्व विरतिरूप भागवती दीक्षाथी कर्मनो नाश थायछे-शास्त्रोमां दीक्षानुं बहु माहात्म्यछे कपुंछे के-तथाच
श्लोक. सर्वेषामपि पापानां, प्रव्रज्या शुद्धिकारिका ॥ जिनोदिता तनः सैव, कर्तव्या शुद्धिमिच्छता ॥१॥ ददति ब्राह्मगादिभ्य, एके पाप विशुद्धये ॥ गोदानं स्वर्गदानंव, भूमिदानान्यनेकधा ॥२॥
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( ३१६)
. शुद्धि. आत्मशुद्धयर्थमेवान्ये, कारयंति व्रतानपि ॥ जुह्वयमौ पशूस्तत्र, अश्वादींश्च सहश्रशः ॥३॥ अमेध्यभुग् गवामेके, पृष्ठभागं स्पृशंतिच ॥ गवां मूत्रं पिबंत्यन्ये, अन्ये पंचगवं तथा ॥ ४ ॥ शुद्धयर्थ स्नांति तीर्थेषु, प्रविशंत्यन्ये हुताशने ॥ तथापि नैवशुध्यति, विनादीक्षां जिनोदितां ॥५|| किंच शौचं विनाशुद्धिं, र्जायते न कदाचन ॥ सत्त्वाहिंसादिकं तच्च, यतः प्राहुर्मनीषिणः ॥ ६ ॥ सर्वजीवदयाशौचं, शौचं सत्यप्रभाषणं ॥ अचौर्य ब्रह्मचर्यच, शौचं संतोष एवच ॥ ७ ॥ कषायनिग्रहः शौचं, शौचमिंद्रियनिग्रहः ॥ प्रमादवर्जनं शौचं, ध्यानं शौचं तथोत्तमं ॥ ८॥ दुष्टयोगजयः शौचं, शौचं वरविवकिता ॥ तपो द्वादशधाचैवं, शौचमाहुर्मनीषिणः ॥ ९ ॥ सर्वज्ञोक्तदीक्षायां, एतत् सर्वदयादिकं ॥ शौचं संपूर्ण मेवास्ति, सदांतरात्मशुद्धिकृत् ॥१०॥
भावार्थ-सर्व पापोनी शुद्धिकारिका दीक्षाछे. माटे जिनेश्वरे कथेली दीक्षा आत्मशुद्धि इच्छनारे अंगीकार करवी. दीक्षा अंगीकार करवाथी सर्वथा प्रकारे कर्मनो नाश थायछे.
केचित् जीवो ब्राह्मण विगेरेने स्वर्गदान गोदान भूमीदान विगेरे आपेछे अने केटलाक आत्मानी शुद्धिने माटे व्रतो करेछे अने
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परमात्मदर्शन.
( ३१७ )
करावेछे. अने होममां पशुओने होमेछे. केटलाक आत्मकल्याण माटे गायनुं अमेध्य भक्षण करेछे, तथा तेना पृष्ट भागने स्पर्शछे अने वळी गायनुं मूत्र पीवेछे, तथा पंचगवनुं भक्षण करेछे. केटलाक आत्मशुद्धि माटे गंगा यमुना आदि तीर्थोमां स्नान करेछे. केटलाक अमां प्रवेश करेछे, तोपण ते अज्ञानपणाथी आत्मशुद्धि प्राप्त करता नथी. पण ज्यारे वीतराग सर्वज्ञे कयेली भागवती दीक्षा अंगीकार करवामां आवे छे त्यारे आत्मा निर्मल थाय छे.
वळी ते भागवतीदीक्षामां शौचविना शुद्धि थती नथी. हवे ते शौच दर्शावेछे. सर्वजीवदया शौचं सर्व जीवोनी दया करवी तेने शौच कहे छे. दया विना धर्म होतो नथी. अहिंसा परमोधर्मः अहिंसा मोटो धर्म छे. अने शास्त्रमां पण कांछे के
नय तिहुवि पावं, अन्नं पाणाइवायओ गरूयं ॥ जं सव्वेविय जीवा, सुहेसिणो दुरकभीरूय ॥ १ ॥ लोकमां हिंसा करतां मोटुं कोइ पाप नवी. सर्वे जीव सुख इच् छे छे. अने दुःखयी बीवे छे.
श्लोक. नसादीक्षा नसाभीक्षा, नतदू दानं नतत्तपः ॥ नतत्ज्ञानं नतदुद्ध्यानं, दयायत्र न विद्यते ॥ १ ॥
भावार्थ - एवी कोइ दीक्षा, भिक्षा, दान, तप के ध्यान नथी के मां दया नहीं होय.
श्लोक. अहिंसैव मता मुख्या, स्वर्गमाक्ष प्रसाधनी ॥ अस्याः संरक्षणार्थंच, न्याय्यं सत्यादिपालनं
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(३.८)
उपम.
__स्वर्ग अने मोक्ष आपनारी दयाज ( अहिंसा ) दयाज मुख्यपणे मनायलीछे. अने एने राखवा माटेज सत्यादिकन पालन व्याजबी गणायछे. वळी आचारांग सूत्रमा कर्जा छे के-तथाच पाठः ___ सेवेमि जेअइया जेय पडुपना जे आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एव माइख्खंति, एवंभासंति, एवंप नवंति, एवंपरूंचंति, सव्वेपाणा, सव्वे भूया, सव्वेजीवा, सम्वेस ता, नहंतवा, नअजावेयव्वा, नपरितावेयबा, नउद्दवेयघा, एसबम्मे सुदै निइए सासए समिञ्चलोयं खेयनेहिं पवेइयं.
आचारांगसूत्र भावार्थ . हुं कहुं छं के जे तीर्थकर भगवान थइ गया अने जे हाल वर्ते छे, अने जे आवता काळमां थशे ते सर्व आ रीते कहेछे जणावेछे तथा वर्गवे छे के सर्ववाण, सर्वभूत, सर्वजीव, अने सर्व सत्वने हणवा नहि, तेमना उपर हकुमत चलाववी नहि. तेमने कबजे करवा नहि. तेओने मारी नाखवा नहि, अने तेओने हेरान करवा नहि, आवो पवित्र अने नित्य धर्म लोकोना दुःखने जाणनार भगवाने बताव्योछे.
अने वळी को छे के.जयंचरे जयंचिठे, जयमासे जयंसए । जयं भुजंतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ ॥ १ ॥
श्री शय्यंशभरि कहेछे के यतनाथी चालवू. जीवनी दया सचवाय तेग उभा रहे. यतनाथी बेसवं, अने यतनाथी सू{. अने यतनाथी बोलयु, एम करतां पाप कर्म बंधाशे नहि. वळो कपुंछे के
गाथा. मल मइल पंक मइला. धूली मइला न ते नरा मइला
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परमात्मदर्शन,
जे पावपंक मइला, ते मइला जीवलोयांम ॥ १॥ खणमित्तं सलिलेहि, सरीरदेसस्स शुझिजणगंज कामंगंति निसिद्धं, महेसिणंतं नणु सिणाणं ॥२॥
भावाथी-मलथी मेला, कादवथी मेला थएला, अने धूलथी मेला थएला माणसो मेला नहि गणाय. पण जे पापरूप वंकथी मेला थएल होय ते जीवो आ लोकमां मेला जाणवा
वळी स्नानमां जलवडे क्षणभर शरीरना बहिर्भागनी शुद्धि थायछे, अने जे जल स्नान कामर्नु अंग गणायछे ते जलथी महर्षियोने स्नान करवानो निषेधछे
उक्तंच श्लोक. स्नानं मददर्पकरं, कामांगं प्रथम स्मृतं ॥ तस्मात् कामं परित्यज्य, नैव स्नांति दमे रताः १
स्नान ए मद अने विषयाभिलाषनुं कारण होवाथी कामर्नु प. हेलं अंग गणायछे. माटे कामने त्याग करनार अमे इंद्रियोने दमवा तत्पर थएला यतिजनो बीलकूल स्नान नथी करता. के.टलाक लोको समज्या विना एम बोलेछे के जैनना मुनियो स्नान करता नथी. तेमने कहेवारों के जैनना साधु शास्त्राज्ञा मुजब वर्तेछे तेथी विषयाभिलाषजनक स्नान- तेमने कंइ प्रयोजन नथी. ब्रह्मचारी सदासुचिः ब्रह्मचारी पुरुष सदा पवित्रछे. तेने दातण स्नाननी कंइ जरूर नथी वळी श्रीकृष्ण, पांडु पुत्रने नीवे मुजब उपदेश आपेछे.
श्लोक. आत्मानदी संयमतोयपूर्णा, सत्यावहा शीलतटादयोर्मिः तत्राभिषेकं कुरु पांडुपुत्र, नवारिणाशुद्धयति चांतरात्मा?
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(३९.)
उपस्थिति.
भावार्थ-आत्मारूपी नदीछे तेमां संयमरूपी पाणीपरिपूर्ण भरेलछे, त्यां सत्यरूप शीलरूप तेना तटछे, त्यां दयारूप तरंगोछे माटे हे पांडुपुत्र तेमां स्नान कर. कारण के शरीरनी अंदर रहेलो अरूपी आत्मा कंइ पाणीथी शुद्ध थतो नथी हवे त्यारे पवित्र कोण कहेवाय ते जणावेछे.
गाथा. अखंडिय वयनियमा, गुत्ता गुतिंदिया जियकसाया. अइशुद्ध बंभचेरा, सुइणो इसिणो सयानेया १
भावार्थ-अंगीकार करेलां व्रत अने नियमने अखंडित राखनारा अने जेणे पोतानी इन्द्रियो वश करीछे तथा वळी क्रोध, मान, माया, लोभ, ए चार कषायोने जीतनारा तथा निर्मल ब्रह्मचर्य पाळनार मुनियो । ऋषियो) सदा पवित्र जाणवा. तथा वळी कहूंछ के
श्लोक. नोदकक्लिन्नगात्रोऽपि, स्नात इत्यभिधीयते; स स्नातो योदमस्नातः स बाह्याभ्यंतरः शुचिः १
भावार्थ-पाणीधी भींजायल शरीरवाळो कंइ न्हाएलो नहि कहेवाय. किंतु जे पोतानी पांच इंद्रियोनो वश करनारो थइ अभ्यंतर अने बाह्यथी पवित्र होय तेज न्हाएलो कहेवाय. वळी कांछेके
श्लोक. चित्तमंतर्गतं दुष्टं, तीर्थस्नानैर्न शुद्धयति; शतशोऽपिजलै|तं, सुराभांडमिवाशुचिः १
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परमात्मदर्शन.
(३२१ )
भावार्थ - अंतरनुं दुष्ट चित्त कंइ तीर्थ स्नानयी शुद्ध तुं नथी केमके मदिरानुं वासण सेंकडो पाणीथी धोइए तोपण ते अपवित्र ज रहेछे. माटे सारांश के - जलथी मात्र स्नान कर्याथी पवित्रता प्राप्त थती नथी. परंतु दयारूप शौचथी पवित्रपणुं प्राप्त थाय छे. माटे दीक्षा अंगीकार करी प्रथम अहिंसा व्रतनुं पालन करवुं जोइए. कोइ पण जीवनी हिंसा करवी नहि. मुनिने वीस वशानी दया होयछे. अने श्रावकने सवावशानी दया होयछे, मांसनुं भक्षण करनार, मांस वेचनार, जीवो, पापी जाणवा संसारनो त्याग करनारा मुनीश्वरो अहिंसा व्रतनुं पालन करी शिव पाम्या अने पामशे. जीवनी हिंसा करवाथी थएल दारुण दुःख यशोधर चरिथी जाणवुं. हवे दीक्षा अंगीकार करी बीजुं सत्य बोलवु, मृषावाद एटले जू कदी बोलवं नहिं तद्रूप सत्यत्रतनुं परिपालन क
खुं. त्रीजुं महाव्रत अंगीकार करी कोइनी नजीवी वस्तु पण कला विना लेवी नहीं. पोतानी वा पारकी सर्व स्त्री वर्गनो त्याग करवो. मनमां पण भोग भोगववानी इच्छा करवी नहीं. स्त्रीना सामुं सराग दृष्टिथी जो नहि. नव प्रकारे ब्रह्मचर्य व्रतनी गुप्ति पाळवी अने मैथुननो सर्वथा त्याग करवो तेने चोथुं ब्रह्मचर्यव्रत कहे छे. सर्व व्रतो नदीओ समान छे अने ब्रह्मचर्यव्रत समुद्र समानछे, ब्र ह्मचारी पुरूषोनी कीर्ति वधेछे, ज्यां जायछे त्यां तेने मान मळेछे. देवताओ पण ब्रह्मचारी पुरुषोने साहाय्य करेछे. मंत्रनी सिद्धि पण शीलव्रत पाळनारने तुरत फळेछे. देवताओ, यक्षो, राक्षसो पण ब्रह्मचारी मुनिने नमस्कार करेछे. ब्रह्मचारी मुनीश्वरने वचन सिद्धि संप्राप्त थाय छे, ब्रह्मचारी पुरूषनो संकल्प सिद्ध थाय छे. कोई मनुष्य सुवर्णनां मोटां देरासर करावे अने कोइ ब्रह्मचर्यव्रत अंगीकार करे तो पण ब्रह्मचारी पुरूषनी बरोबर सुवर्णनां देरासर
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( ३२२ )
ब्रह्मचर्य.
करावाने फल तुं नथी. चारित्रनुं मूळ ब्रह्मचर्यव्रतछे ज्यां 'ब्रह्मचर्यव्रत नथी त्यां चारित्रनी शुद्धि क्यांथी अर्थात् ब्रह्मचर्यविना चारित्र नथी. ग्रहस्थ पुरुष पण पोतानी स्त्री विना अन्य स्त्रीनो त्याग करेछे. ब्रह्मचर्य मां घणा गुण समायाछे, सुदर्शनशेठने शूळी पण सिंहासनरूपे थइ तेमां ब्रह्मचर्यनुं माहात्म्य जाणवुं. नवनारद ब्रह्मचर्यना प्रतापथी सत्य सुखलीला पाम्या वेळी पारकी स्त्रीना उपर राग करनार रावणने लक्ष्मणे मार्यो, अने रावण मरी नरकमां गयो. अने सीता संतीनो यश जगत्मां गवायो विषय लंपटी जीवो सदाकाल आकुल व्याकुल दुःखी रहेछे. लंपटी जीवो आ भवमां पण दुःख पामेछे. अने परभवमां पण दुःख पामेछे. लंपटी जीवनी जगत्मां अपकीर्तिथायछे अने विषयलंपटी जीवो पकडाय छे तो सरकार तेनो मोटो दंड करेछे, अने जगत्मां तेनुं अपमान थायछे. विषय लंपटी जीवो एवा तो आंधळा होयछे के - तेमने धर्म वा अधर्मनी समजण पंडती नथी. माटे भव्य जीवोए ब्रह्मच
व्रतनुं सम्यक् परिपालन करवुं. वारंवार मनुष्य जन्म मळनार नथी. स्त्रीनुं शरीर सात धातुथी भरेलुंछे तेना शरीरमां लोही मांस, हाडकां, भेद, मज्जा, मूत्र, विष्टा भरेलीछे. नाकमांथी लींट ह्या करेछे. आंखमां पीयाना थोक बाजेछे. केशमां जुओ, लीखोना समूह पड्या करेछे. शरीरद्वारोधी अशुचि वह्या करेछे. बळी जुवान अवस्था उतर्या बाद वृद्धावस्था थायछे. त्यारे शरीर खराब लागेछे. शरीरनो रंग उतरी जायछे. अलबत तेना सामुं पण जोवानुं मन थतुं नथी एवी बीना शरीरमां शो सारछे के तेना उपर राग थाय. वळी स्त्री जाति कपटथी भरेलीछे. भतृहरि जेवा राजाने मूकी तेनी राणी चाकरनी साथै संबंधवाळी थइ हती. ते वात ज्यारे भर्तृहरिराजाए जाणी त्यारे मनमां घणो
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परमात्मदर्शन.
( ३१३ )
खेद थयो अने विचारवा लाग्यो के अहो जे पिंगलाने हूं पटराणी तरीके मानतो हतो अने जे मारी प्राणामिया हती. अने हुं जेना उपर पूर्ण विश्वास राखतो हतो ते पिंगलाराणी पण अंते मारी थइ नहि. अने तेणीए कामना आवेशथी नीचनी साथ संबंध कर्यो माटे तेने धिक्कार थाओ. अहो जगत्ना जीवो कामावेशथी पुण्य पाप गणता नथी. एवा कामने पण धिक्कार पडो अने आ संसारमा हुँ जेने सारभूत मानतो हतो एवी पिंगला पण मारी थइ नहि. अहो ज्ञानीओए संसारने असार कोछे तेमां जरा मात्रपण असत्य नथी. एम चिंतवी तापसी दीक्षा अंगीकार करी पर्वतनी गुफामा चाल्यो गयो, अने तेमणे भर्तृहरि शतकनी रचना करी. माटे संसारमा सारभूत धर्म विना अन्य कशुं जणातुं नथी. माटे भव्यजीवोए पण सांसारिक मोहमायाथी दूर रही आत्मिक धर्मारानमां तत्पर थइ धर्माराधन करं, अने स्त्रीविषयाभिलाषनो त्याग करवो. शास्त्रमां विषयने विषनी उपमा आपीछे त्यारे वळी एक महात्मा कहे छे के, विषयने विषनी उपमा आपवी ते योग्य नथी. कारण के, विष तो एक भव भक्षतां प्राण हरी दुःख आपेछे अने विषयो तो अनेक भव पर्यंत परिभ्रमण करावी दुःख आपेछे. माटे विषना करतां पण मोटी उपमा आपवी जोइए. विषयथी थतुं सुख स्वसुख समान मिथ्या कल्पना मात्र छे.
तथाच श्लोक.
स्वने दृष्टं यथापुंसः क्षणमात्रं सुखायते प्रबुद्धस्य नतकिंचित् एवं विषयजं सुखं. १
स्वां देखेलो पदार्थ पुरुषने क्षणमात्र सुख आपेछे अने ज्यारे ते मनुष्य जागेछे त्यारे कंइपण देखातुं नथी ए प्रमाणे विष
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(११
)
ब्रह्मस्वरूप.
पर्नु सुख क्षणमात्र आभास मात्रछे अंते वस्तुतः विचारतां कंइ सुख नथी. वळी विषयी पुरूषोनी केवी स्थिति थायछे ते जणावेछे.
__ श्लोक. विषयेषु विषीदंतो, न पश्यंति हिताहितं
श्रृण्वंति न हितं वाक्यं, अंध बधिरसंनिभाः १ ' विषयोमा विषाद पामेला जीवो हित वा अहितने देखता नथी. तेम वळी हितवाक्य कोइ कहे तो ते सांभळता नथी. खरे. खरविषयलालचु जीवो अंध अने बहेरा सरखाछे. अने वळी कहेछे के,
श्लोक. विषयेषु रतोजीवः, कर्म बध्नाति दारुणं तेनासौ क्लेशमानोति, भ्राम्यन भीमे भवोदरे २
विषयोमा आसक्त थएल जीव दारूण कर्म बांधेछे अने तेथी ते जीवो भयंकर संसारमा परिभ्रमण करतो क्लेश पामेछे. वळी विषयमा मोह पामेला जीवो शुं करेछे ते कहेछ.
श्लोक अहो मोहस्य माहात्म्य, विद्वांसोऽपियतो नराः मुह्यति धर्मकृत्येषु. रताः कामार्थयो]
अहो मोहन प्राबल्य के छ के जे विद्वान् मनुष्यो पण काम अने अर्थमां आसक्त थया छता धर्मकृत्यमां मुंझायछे. आई मोहन जोर तोडी श्रीजंबुकुमार कोटी धन, स्त्री, परिवारनो त्याग करी दीक्षा अंगीकार करी. तेमज धन्नाकुमार तथा शाळीभद्रे मोहनो नाश कर्यो. श्री स्थुलीभद्र के जे पाटलीपुरमां शकटाल मंत्रीना पुत्र हता अने जे बार वर्ष वेश्याना घेर रह्या हता. तेमणे स्त्रीनो त्याग करी दीक्षा अंगीकार करी. अने वेश्याने गृहे चातुर्मास
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परमात्मदर्शन.
( ३२५ )
क. त्यां वेश्याए पोतानुं शरीर देखाय अने विषयाभिलाप थाय तेम नाच कर्यो, कामोत्पादक अनेक प्रकारनां गायनो गायां तो पण मुनिवर्यश्री स्थूलभद्र जरा चलायमान थया नहीं अने विषमां रागीएवी वेश्याने पण वैरागी बनावी. अने ते वेश्याने श्रावनां वार व्रत उच्चराव्यां. अहो आश्वर्थनी बात छे के, कामनो नाश करवा महामुनियो पर्वतनी गुफाओमां तथा एकांत जग्याओ मां गया, केमके त्यां काम आवी शके नहि माटे. त्यारे स्थूलभद्र मुनिवर तो कामना गृहमां प्रवेशी कामनो नाश कर्यो. अहो केटलं
मनुं सामर्थ्य ? एवी रीते भव्यजीवोए उत्तम चरित्र श्रवण करी विषय, काम, मोहनो नाश करवो अने ते प्रति जरा मात्र पण इच्छा करवी नहीं अने मन, वचन, कायाथी शुद्ध ब्रह्मचर्य व्रत पाळं.
हवे पांच सर्वतः परिग्रह परिमाण विरमण व्रत कहेछे. श्री मुनीश्वर महाराजा धनधान्यादिक नव विध परिग्रहलो त्याग करे छे, कारण के विकल्प संकल्पनुं कारण परिग्रहछे. परिग्रहथी क्रोध, मान, माया, लोभनी उप्पत्ति थाय छे. जेम वहाण अतिशय भारथी समुद्रमां बुडेले परिग्रहनी वृद्धिथी रागद्वेषनी वृद्धि थाय छे. परिग्रहथी दुनीयामां मनुष्य एटली बधी गुंतवणमां आवी पडेछे के तेने जरामात्र पण शांति मळती नथी. वळी धनधान्यादिकनी वृद्धि थी मोटाइ वधेछे. मनमां मान आवे छे. बळी अदेखाइ पण प्रगट थाय छे. वळी परिग्रहनी प्राप्तिना कारणथी प्राणातिपात, असत्य, चोरी, आदि पापस्थान कोनुं सेवन करी कर्मार्जन करी जीव अधोगतिमा अवतरी त्यां छेदन भेदन ताडन तर्जन शोक, वियोग क्षुधा, तृषा, आदि विविध दुःखो भोगवे छे. वळी परिग्रहथी अज्ञानीजीव धर्म साधन करी शकतो नथी परिग्रह मेळववामां केवळ
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( ३२६ )
परिग्रह.
दुःखज समायुंछे. बळी परिग्रह धन उपर ममता भाव राखी मनुष्य मरण पामी सर्प, उंदर, गीरोलीना अवतार पामेछे. वळी परिग्रहनी ममताथी मातपिता भाइ परस्पर लडी मरेछे. वळी परिग्रह धनरूप वृद्धि पामेछे त्यारे तेने साचववानी पण चिंता रहेछे. रखेने चोर विगेरे लड़ जाय एवी चिंता तेना मनमां रहेवाथी सुखे करी उंघपण आवती नथी, परिग्रहथी आरंभ, समारंभ करी कर्मोपार्जन जीव करेछे. परिग्रहधारी खरेखर जडवस्तुने पोतानी मानी छेतरायछे. माटे वैरागी आत्मार्थी जीवो परिग्रहनो त्याग करी दीक्षा ग्रही पंचमहाव्रत अंगीकार करेछे. अने पुत्र स्त्री मातपिता विगेरे संसारी कुंटुंबनो संबंध छोडेछे अने स्वस्थ चित्ते हुं एकलो छं. आत्माथी अन्य मारू नथी अने हुं कोइनो नथी एम अदीन मना थइ आत्माने शिखामण आपेछे. सद्गुरूने धारण करेछे. संयमनी रक्षा अर्थे वस्त्र, पात्र, पुस्तक, रजोहरण, मुखवस्त्रिका, धारण करेछे. संयमनां उपकरण राखवाथी परिग्रह कहेवातो नथी. कहुंछे के मुच्छापरिग्गहोत्तो, नायपुत्त्रेण ताइणा;
श्री ज्ञानपुत्र वीरप्रभुए मुच्छाने परिग्रह ग्रह्मोछे. माटे हठ कदाग्रह करवो नहीं. एम मुनीश्वर परिग्रहनो त्याग करी निर्विकल्प मन करी आत्मज्ञानमां मत्र रहेछे, अने मुनीश्वर विचारे के आ बाह्य परिग्रह त्यागी मुनि आत्मानी रूद्धि तरफ लक्ष आपी जुवेछे तो त्यां अनंतज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र, आदि रूद्धि भरेली छे अने ते रूद्धि अविनाशीछे. पोतानाथी कदी जुदी पडवानी नथ अने ए रूधि प्राप्त थवाथी सहज शांति अनुभवायछे, एम आत्मा ए जायुं त्यारे आ बाह्य जड रूधिरूप परिग्रहनो त्याग कर्यो. अने आत्मिक रूध्धि मेळवावा प्रयत्न करवा लाग्या, ध्यानादिको अभ्यास करवा लाग्या, ए पांचमुं परिग्रह विरमण व्रत दी
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परमात्मवान. क्षा अंगीकार करी मुनिवर्यो मनवचन अने कायाथी परिग्रह धारण करवो नहीं परिग्रह धारण कराववो नहीं. अने परिग्रह धारण करता होय तेनी अनुमोदना करवी नहीं. __छठं रात्रीभोजन विरमणव्रत कहेछे. रात्रीना समयमां मुनीश्वर अशनपान, खादिम अने स्वादिम ए चार प्रकारना आहारनो त्याग करेछे. श्रीवीरप्रभुए रात्रीभोजनमां महा दोष कथ्योछे, माटे आत्मार्थी जीव रात्रीभोजन करे नहि. योग शास्त्र, वर्धमान देशना, आदि ग्रंथोमां तथा सूत्रोमां रात्रीभोजन करवाथी महादोष बताव्याछे. वळी अन्य दर्शनीओना शास्त्रमा पण रात्रीभोजन करवाथी दोष बताव्याछे. माटे मुनिवर्यो दीक्षा ग्रही रात्रीभोजननो त्याग करेछे. ए रीते पंच महाव्रत अने छटुं रात्रीभोजन विरमणव्रतर्नु अत्रतो संक्षेपथी स्वरूप प्रसंगोपात देखाडयु. आ प्रमाणे मूल व्रत अंगीकार करे, अने चरण सित्तरी करण सित्तरीरूप उत्तर भेदतुं आराधन निग्रंथ मुनिवर्य करे. श्रीसिद्धसेन दिवाकरमूरिकृत प्रवचन सारोद्धारमा चारित्रना मूळ भेद उत्तरभेदनुं तथा चारित्रना उपकरणोनुं विशेषतः वर्णन कर्युछे त्यांथी जिज्ञासुए विशेष अधिकार जाणबो. हवे दीक्षा अंगीकार करी कषायना निग्रहरूप शौच मुनीश्वर धारण करेछे. क्षमाथी क्रोधनो पराजय करेछे. अने नम्रताभावथी माननो पराजय करेछे अने सरलताथी मायानो नाश करेछे. अने संतोषथी लोभनो नाश करेछे. वळी पांच इंद्रियोना विषयो जीतवारूप शौच मुनीश्वर धारण करेछे. प्रमादनो त्याग करवो ते रूपशौचने दीक्षा अंगीकार करीधारण करेछे.प्रमादथकी चौद पूर्वी पण संसारमांपडया माटे आलस्य, निद्रा, विकथा, पारकी निंदा आदि प्रमादनो नाश करी मुनीश्वर अप्रमत्तपणे रहेछे. वळी मुनीश्वर ध्यानरूप शौच जे
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( ३२८ )
अह्नास्वरूप.
सर्व शौचोमां उत्तमछे तेने धारण करेछे. धर्मध्यान अने शुक्लध्यान ए वे ध्यान आत्मकल्याणकारीछे. तेमां शुक्लध्यान मुक्ति प्रदाताछे. मन वचन अने कायाना दुष्ट योगनो जय करवो तेने शौच कछे वळी हेय, ज्ञेय अने उपादेयनो विवेक तेने उत्तम विवेक कहेछे. ते शौचने दीक्षा अंगीकार करी मुनिवर्यो धारण करेछे. बार प्रकारे तप करवो ते पण शौच जाणवो, श्री सर्वज्ञ कथित दीक्षामा दयादिक सर्व कृत्य शौचरूप शरीरनी अंदर रहेला आत्मानी शुद्धि करनारछे. निश्चय चारित्र आत्मस्वभावमयछे एटले आत्माथी भिन्न नथी ते चारित्रनी प्राप्ति माटे व्यवहारे चारित्रकारणीभूतछे,
आ संसारमा केटलाक जीवो धर्मनुं नाम पण जाणता नथी अने तदनुकूल प्रयत्न पण करता नथी. संसारमा मोटा कहेवाणा एटले पोताने धन्य मानेछे. पण पोते जीवादिक तत्त्व जाणता नयी अने सांसारिक कार्योंमां अहर्निश गुंथाया रहेछे, पण धर्माराधन परायण थता नथी. धर्मनुं आराधन करी आत्माने कर्म - धनी छोडाववो एज उत्तम पुरूषोनुं लक्षण छे. बाकी धन, पुत्र, लक्ष्मीनी वृध्थिी पोतानी वृधि मानी अहंभावां वर्ततुं ते तो अधम पुरूषोनुं लक्षणछे. श्री भरतराजा, राम, पांडवो विगेरेए अंते आ संसारने असार समजी आत्महितमां प्रवृत्ति करी तेम भव्य जीवोए पण अधुना सारमां सार दीक्षानुं अवलंबन करं जोइए. दीक्षा ग्रद्या विना आश्रवमार्गनो रोध थतो नथी. आ संसारने ज्ञानी पुरूषोए बळता अग्नि समान कह्योछे, बाजीगरनी बाजी जेवुं आ संसारनुं स्वरूप जाणी विवेकी मनुष्य चारित्रमार्ग ग्रहण करेछे. मारु मारु मानता एवा अनेक जीवो मायाना वश ज्ञानलक्ष्य सत्य आत्मस्वरूप भूली यमराज वश थया अने थायछे. जेम समुद्रमां पाणीना अनेक तरंगो उत्पन्न थायछे अने पश्चात् विलय
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परमात्मदर्शन.
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( ३१९ )
पामेछे तेनी पेठे अनादिकालथी आसंसारसमुद्रमां देव मनुष्य तिर्यच अने नारकी तरंगे करी जीव अनेकशः शरीर छोडतो अने अनेकशः शरीर धारण करतो वर्तेछे. पण अज्ञान दशाथी पामर जीवनी - क्ति थइ नहीं. पण ज्यारे आत्मानुं स्वरूप जाणवामां आवेछे त्यारे आत्मा संयममार्गयोगे धर्मना आविर्भाव अर्थे प्रयत्न करेछे, ज्यारे चारित्रमोहनीय प्रकृतिनो क्षय थायछे त्यारे चारित्र आत्मामां मगदे छे. कोइ जीव चारित्र मोहनीयने उपशमावेछे. कोइ चारित्र मोहनीयनो क्षयोपशम करेछे, कोइ जीव क्षायिकसमकितयोगे आठमा गुणठाणाथी क्षपकश्रेणि आरोहण करी चारित्र मोहनीयनो क्षायिक भाव करेछे, कोइ जीव उपशम श्रेणि चढी चारित्र मोहनीय कर्मनी प्रकृतिने अगीयारमा गुणठाणे उपशमावेछे अने त्यांथी पाछा पडे छे. अने यावत् मिथ्यात्व गुणठाणा सुधी आवेछे.
कोइ उपशम समकित पामी आठमागुणठाणाथी उपशमश्रेणिए चढेछे अने कोइ क्षायिक समकित पामी आठमा गुणठाणाथी उपशम श्रेणि चढी अगीयारमे गुणठाणे जइ मरे तो अनुत्तर विमानमः जायछे। अने कोइ उतरता गुणठाणे पण मरण पामेछे. अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया अने लोभ तेमज समकित मोहनीय अने मिश्रमोहनीय अने मिथ्यात्वमोहनीयनो क्षायिकभाव कर्या पूर्वे आवता भवनुं आयु बांधी पाछळथी क्षायिक समकित पाम्यो होय ते जीवने बद्धायुक्षायिक समकित जाणवुं. आयुष्य बंधनी अपेक्षाए आवं क्षायिक समकित कछे, तत्त्ववात बहुश्रुतवा केवळी जाणे. ते अशुद्ध क्षायिक समकिती जीव उपशम श्रेणि करे एम कहेवायछे, क्षायिक समकित जीव दशमा गुणठाणे यथाख्यात चारित्र पामी बारमा गुणठाणे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अने अंतरायकर्मनो क्षायिकभाव करी अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्य अने क्षायिकभावना
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लब्धि .
पंचलब्धि पामेछे. ते नीचे मुजब, अनंतदानलब्धि,अनंतलाभलब्धि, अनंतमोगलब्धि, अनंतउपभोगलब्धि अने अनंतवीर्यलब्धि संमाप्त थायछे. अंतरायकर्म क्षय थयुंछे एवा परमपरमेश्वर पुरुष सदा सुखी छे. मुख्यपणे तो ते लब्धियोनी प्राप्ति आत्मस्वभावेछे. केमके तेनी सायिकभावे मासिछे. अने जे अनंत सामर्थ्य आत्मामां अनादिथी शक्तिरूपे हतुं ते व्यक्तिरूपे थइ प्रकाशेछे, अने आत्माना अनंतगुणोनो आविर्भावतेरूप दान, आत्मा पोते पोताने आप्यु ते दानलब्धि जाणवी. तेमज अनंत आत्म सामर्थ्यनी संप्राप्तिमां किंचित् मात्र वियोगर्नु कारण रघु नथी. तेथी अनंतलाभ लब्धि कहेवायछे.
वळी अनंत आत्मसामयनी संप्राप्ति संपूर्णपणे परमानंद खरूपे अनुभवायछे. तेमां किंचित् मात्रपणे वियोगनुं कारण रघु नयी तेथी अनंतभोगलब्धि जाणवी.
तथा अनंत आत्म सामर्थ्य संपूर्णपणे परमानंद स्वरूपे समये समये परिणमेछे तोपण तेमां किंचित् मात्र पण वियोगर्नु कारण रघु नथी. तेथी अनंत उपभोगलब्धि कहेवा योग्यछे. तेमज अनंत आत्मसामर्थ्यानी प्राप्ति संपूर्णपणे थया छतां ते आत्मसाम
यंना योगयी आत्मशक्ति थाके के तेनुं सामर्थ्य न झीली शके, वहन न करी शके,एम छेज नहीं. सदाकाल ते सामर्थ्यछे तेमांजरा मात्र पण न्यूनाधिकपणुं थवान नथी. एवी जे वीर्य शक्ति त्रिकाल संपूर्णपणे वर्तेछे ते अनंतवीर्यलब्धि कहेवा योग्यछे,
सायिकभावनी दृष्टिथी जातां उपर कह्या प्रमाणे ते लब्धिनो परमपुरुषने उपयोग होयछे. वळी ए पांचलब्धि हेतु विशेषथी समजावा अर्थे जुदी पाडीछे नहीं तो अनंतवीर्यलब्धिमां पण ते पांचेनो समावेश थइ शकेछे. एम तेरमा गुणठाणे क्षायिकभावनी नवलब्धि भोगवतो परमपुरुष शैलेशीकरण करी चउदमा गुणठाणे अघा
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AAMAA
परमात्मदन. तीकर्मनी ते गुणठाणे खवाववा योग्य जे प्रकृतियो बाकी रही इती ते चउदमा गुणठाणे खपावी सिद्धशिलानी उपर एक योजनना चोवीश भाग करीए तेना त्रेवीस भाग नीचे मूंकी चोवीसमा भागे अवगाहनाए संयुक्त ते मोक्षस्थानमा आदिअनंतमे भांगे बिराजमान थायछे, चारित्रथी पूर्वोक्त मोक्षस्थाननी मासि थायछे.
अथ दशमविषय. १० कर्मनो कर्ता तथा भोक्ता आत्मा, कर्मनो नाश
शी रीते करे ? प्रत्युत्तर-आत्मा स्वरूपमा रमग करे तो कर्मनो नाश थायछे,
परखभावमा रमण करतो आत्मा कर्म बांधेछे अने, स्वस्वभावमा रमण करतो कर्मनो नाश करेछे, अनंतजीवोए भूतकाळमां कर्मनोनाश कर्यो अने अनंतजीवो भविष्यकाळे करशे, जीव बे प्रकारनाछे. १ भव्यजीव २ अभव्यजीव.
जेनामां मोक्ष जवानी योग्यताछे तेने भव्यजीव कहेछे. अने जेनामां बिलकुल मोक्ष जवानी योग्यता नथी तेने अभव्यजीव कहेछे, अभव्य जीव कदी मोक्ष पामी शकतो नथी.
आत्मा कर्मनो नाश शी रीते करे तेनुं घणुंखरुं विवेचन पूर्वे मायः कथ्युंछे तेथी अत्र स्थळे विशेष विवेचन कर्यु नथी. इवे वि. चारोके-मोक्षतत्त्व बंधविना संभवे नहीं. अने जेवडे बंध ते कर्म एम आत्मा अने कर्मनो संबंध जेवो जिनदर्शनमा घटेछे. तेवो अन्यत्र घटतो नथी. कर्मथी मुक्त आत्मा सिद्धस्थानमा सादि अनंतभंगीए रहे छे, त्यां परमात्मपणे समये समये अनंतमुखनो भोक्ता आत्मा बनेछे. कोइ दर्शनी दुःखात्यंताभावरूप मुक्तिमानेछे पण तेम नयोः आत्माने कर्मनायोगे दुःख थायछे, ते विभाविकछे
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( २ )
मोक्ष,
एटले विभाविक वस्तु स्वरूप जे दुःख ते आत्माथी दूर थायछे. अने आत्मामां सुखछे ते स्वभाविकछे स्वभाविक वस्तु कदी टळती नथी. तेम आत्मामां जे सुखछे ते स्वभाविकछे एटले आत्मानो सुख शुद्धगुणछे अने आत्मागुणीछे. माटे तेनाथी दुर थतो नथी. कोइ बादी जडस्वरूप मुक्ति मानेछे मुक्तदशामां आत्मने कोइपण वस्तुंनुं भान नथी. आम ते वादीनुं मानबुंछे ते अज्ञान विशिष्ठ छे. कारणके - जडस्वरूप मुक्ति होत तो कोई मुक्ति पामवानी जरामात्र पण इच्छा करे नहीं. परंतु स्याद्वाद सत्यदृष्टिथी समजो के मुक्तिपद पामेलो आत्मा केवलज्ञानंथी दरेक पदार्थने जाणे छे. समस्त वस्तुनं ज्ञान सिद्धात्मामां समये समये प्रवर्तेछे, वळी सामान्य उपयोगरूप केवलदर्शनथी सिद्धात्मा सर्वजगत्ने देखेछे. अने मुक्तात्मा अन्यामाधगुणथी अनंत सुख भोगवेछे, माटे जडस्वरूप मुक्ति. नथी. ज्ञान स्वरूप जे आत्मा ते जडरूप बनी जाय तो ते मुक्ति कहेवाय नहीं, बळी आत्मा ज्ञानगुणथी भिन्न धाय नहिं. कारणके-आत्मानो स्वभाविक ज्ञानगुणछे. ते ज्ञानगुण आत्माथी त्रिकाले पण जुदो पडे नहीं. यादी -जो मुक्तिमा आत्माने ज्ञानगुणवाळो मानीए तो मुक्तात्मा ज्ञानथी सर्व जगत्जीवोने थतुं दुःख जाणे, त्यारे ते दुःख मुक्तात्माने थाय, माटे ज्ञानगुण मुक्तिमां मानवो अयुक्त छे. सुगुरू हे सत्य तत्त्वाकांक्षी भव्य - जरा विचार करशो तो मालुम पडशे के मुक्तात्माने अनंतज्ञानथी तेमां किंचित विरोध आवतो नथी. जेम दृष्टांत - कोई मनुष्य कोइस्थाने पडेलं तालपुटविष जाणे अने तेने देखे तेथी तेने फंइ दुःख थतुं नथी, तेम सिद्धपरमात्मा केवली भगवान् ने पण जगत्ना जीवोने दुःखी जाणवाथी ते दु:ख पोताने लागतुं नथी. तेम जगत्ना जीवोमां शातावेदनी जोन थोते शातावेदनीय कंई सिद्धप्रश्ना
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परमात्मदर्शन.
(१३) आत्माने लागती नथी-कारणके वस्तुओ थकी पोतानो आत्मा
न्यारोछे, तेथी ते विरोध सिद्धभगवान्मां घटतो नथी. थाशंका-सिद्धात्माओ अनंत सुख समये समये भोगवेछे ते केवल ज्ञानथी के, केवलदर्शन गुणथीसमाधान-सिद्धात्माओ केवलज्ञानथी सर्व वस्तु जाणेछे अने
केवलदर्शनथी सर्व पदार्थोने देखेछे. अने सिद्धात्माओ सुख भोगवेछे ते अव्याबाध नामना गुणथी भोगवेछे तेथी पूर्वोक्त विरोधनो सर्वथा नाश थायछे.. ते उपरथी सिध्ध स्पष्ट भासेछे के जडस्वरूप मुक्ति नथी परंतु शुद्ध चैतन्य स्वरूप मुक्तिछे.
कोइवादी आकाशनी पेठे सर्वत्र व्यापिनी मुक्ति मानेछे ते पण यथार्थ घटना बहिर छे. कारणक, मुक्तआत्मा आकाशनी पेठे सर्वत्रव्यापक नथी. सर्वत्रव्यापक आत्माने मानतां बंध मोक्ष व्यवस्था घटती नथी. जेम आकाश सर्वत्र व्यापक छे तो ते कोइनाथी बंधाय पण नहीं अने बंधावाना अभावे मोक्ष पण घटे नहीं. तेम आत्माने कर्मपण सर्वत्र व्यापक मानवाथी बंधाय नहीं अने बंधाभावे मोक्ष पण कहेवाय नहि एम दोष स्पष्ट भासेछे, माटे सर्वत्र व्यापिनी मुक्ति सिद्ध ठरती नथी. सर्वव्यापिनी मुक्ति मानतां प्रथम सर्वत्रव्यापक आत्मा मानवो पडशे. अने सर्वत्रव्यापक एवा आस्माने बंध मोक्ष घटतो नथी. वळी सर्वत्रव्यापिनी मुक्ति मानवामां अनेक विरोध आवेछे, माटे त्रिशलातनये श्री सर्वज्ञमहावीरे प्ररुपेली मुक्ति यथातथ्य सत्य छे. अने ते प्रमाणे मानवामां कोइ जातनो विरोध आवतो नथी. ____ वळी कोइ मतवादी मुक्तिमा स्वामी सेवक भाव स्वीकारेछे ते पण युक्तिहीनछे. कर्म खप्याथी सर्व आत्माओ मुक्तिमा सरखा
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मोक्ष.
(३५ ) छे. सर्व आत्माओ पोतपोताना स्वरूपे परमानंद सुखविलासी छे. सर्व सिद्धात्माओमां कंवलज्ञान अने केवलदर्शन छे. कोइ नानुं मोटुं नथी. अष्टकर्म खप्याथी अष्टगुण सिद्धना जीवोमां प्रगट्या छे. पोताना गुणना कर्ता प्रत्येक सिद्ध भगवान् छे. विभावशाथी रहित स्वस्वभावभोगी थयाछे माटे परतुं कर्त्तापणुं लेश मात्र नथी. वळी सिद्धना जीवोने शरीर नथी, लेश्या नथी, मन नथी, काया नथी, एक पुद्गल परमाणु सरखो पण सिद्धना जीवोमा रह्यो नथी अलेशी, अशरीरी, अचल, सिद्धना जीवोछे. ___एम मानेछे के, मुक्तिमां केटलाक वर्ष पर्यंत रहीने जीव पाछो संसारमा आवेछे. पण ते योग्य नथी. कारणके कर्मनो नाश थतां सिद्ध स्वरुपता प्रगटे छे ते अवस्था सादि अनंतमें भांगेछे. एटले सिद्धमां गयानी आदि छे पण अनंत नथी अर्थात् सिद्ध थया पछी संसारमा आवता नथी. संसारमा आववानुं कारण कर्म छे ते कर्मनोतो प्रथमथोज नाश करी मुक्ति गयाछे माटे संसारमा अवतार लेवानुं काम बिलकुल नथी. वळी कोइ कहेशेके, सिद्धना आत्माओने नवां कर्म लागे ते पण ज्ञानहीन वचनछे कारणके, कर्म लागवानुं कारण आत्माने राग अने द्वेष छे अने रागद्वेषनो सर्वथा नाश करी सिद्धात्मा थया छे माटे नवां कर्म पण सिद्ध परमात्माने लागतां नथी. सदाकाल शुद्ध स्वरूपे निज भोगवेछे, तेथी सिद्धना आत्माओ कदापि काले संसारमा पाछा जन्म धारण करता नथी. सिद्धना जीव अनवतारी छे. कोइ एम कहेशेके. ज्यारे ते परमात्मा थया अने सिद्ध शिलानी उपर सिद्ध क्षेत्रमा रह्याछे अने त्यांथी पाछा दुनीयामां आववाना नथी. अने जगत्ना लोकोने दुःखमाथी बचावता नथी त्यारे तेमणे शो परोपकार को कहेवाय: तेना उत्तरमा समजवा के,
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परमात्मदर्शन,
मुक्तात्मा थे प्रकारनाछे. एक केवलज्ञान संपादन करी आयुष्य विशेषे रहेला अने बीजा चउदमुं गुणस्थानक स्पर्शी सिद्ध स्थानकमां गयेला. हवे तेरमा गुणस्थाककवी केवलज्ञानी महात्माओ भाषा घर्गणाना पुद्गलयोगे उपदेश आपी तत्वस्वरुप समजावी जगज्जीवोनुं कल्याण करेछे. अने सिद्धमां गया बाद सिद्धस्वरुपे थतां: जगत् जीवो सिद्धनुं ध्यान करी स्वस्वरुप प्रगटावेछे एटले तेमां पण कल्याण प्राप्तिमा जगज्जीवोपति सिध्ध परमात्मा निमित्त कारणीभूत छे, ते विना द्रव्यदयारुप उपकार करवा अर्थे ते सिध्ध परमात्मानी स्वाभाविक शक्ति नथी कारण ते वीतराग थयाछे, सर्वजीवना कल्याणमां उपादान कारणनी अपेक्षाएतो पोतेज कारणछे. अन्य तो तेमा निमित्त कारण छे. आ वात सूक्ष्मदृष्टिथी सद्गुरू पासे समजतां यथातथ्य समजाशे.
कोइ जीव तो इंद्र आदिदेवतारूपे थर्बु तेनेज मुक्ति मानेछे. कारण के तेनाथी आगळ सूक्ष्म ज्ञानदृष्टिथी जोवायु नहि तेजकारण छे, जेम के इशुत्रस्त आदि मतवाला एम मानेछे के परमेश्वर सुवर्णना सिंहासन उपर बेठोछे अने तेना मस्तके मुकुट विगेरेछे एम कहेवाथी समजायछे के ते देवयाोन पैकी कोई देवने परमेश्वर मानी विश्वासयोगे एममाने छे. कारण के पूर्व भवनो रागी अने संबंधी कोइ देव आ प्रमाण करी शके अने तेथी भ्रांतिमा फसावु पडे. एम ख्रीस्ति धर्ममां होय तो ते अपमाण कही शकाय नहीं, माटे सर्वांशे परिपूर्ण अनुभवगम्य जिनदर्शनमा जे मुक्तिस्वरूपछे ते सत्यछे.
मुक्तिमा अनंत सिद्धोनी अवगाहना भेगी होयछे. शिष्य-हे गुरो ! अवगाहनानुं शुं स्वरूपछे अने ते अवगाहनारूपी
छे के अरुपी ?
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उपस्थिति.
गुरू हे विनेयशिष्य ! आत्मा ज्यारे शरीर त्यागीने मुक्तिमा जाय
छे त्यारे शरीरना त्रण भाग करीएतेमाथी एक भाग त्यागीए. २ प्रमाणमान आकाश प्रदेशमा आत्मा असंख्य प्रदेशथी व्या
पीने रहेछे त अवगाहना जाणवी. अने ते अवगाहना अरूपीछे. शिष्य-एक सिद्धक्षेत्रमा अनंत आत्माओ केम करी समाय ? . गुरू-एक ओरडामां एक दीपक करीए छीए तो पण तेनी ज्योति
समायछे. तेम हजारो दीपक कर्या होय तो ते दीपकोनी ज्योति (प्रकाश) पण सम यछे. तेमां कंइ हरकत पडती नथी. वळी दीपकना प्रकाशनां पुद्गलरूपीछे तो पण समाइ जायछे तो अरूपी एवा अनंत आत्माओ सिद्धक्षेत्रमा समाय
तेमां किंचित् पण विरोध जणातो नथी. शिष्य-त्यारे सिद्धात्मा त्यांथी अलोकमां केम जइ शकतो नथीगुरू-सिद्धात्मा अक्रियछे. गमनागमन क्रियाथी विराम पाम्याछ
तेथी उपर जइ शकता नथी. कारण के अक्रियपणुंछे अने अलोकमां धर्मास्तिकाय पण नथी. माटे सिद्ध त्मा जइ शकता नथी. धर्मास्तिकाय तो फक्त गमनमा प्रवर्तेला पदार्थोने सा
हाय्य आपी शकेले. शिष्य-त्यारे आ आधिव्याधिउपाधिमय जगतमां शुं सारछे.
शाथी अनंत दुःख नाश पामे ? गुरु-शिवपद आराध्य, जगत्मां समजवु. अने तेज साध्य करवा
लायकछे. ते पदनी संप्राप्तिथीज सर्व अखंड शाश्वत सुखनी प्राप्ति थायछे. श्री गुणस्थानक क्रमारोहमां कडं छे. यथा
श्लोक. यदाराध्यं चयत्साध्यं, यद्धयेयं यचदुर्लभं; चिदानंदमयं तत्तः संप्राप्तं परमं पदं.
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परमात्मदर्शन.
(***)
भावार्थ - जे शिवपद अराध्य, साध्य, ध्येय, दुर्लभछे. ते पद ने ज्ञानीओए शुक्लध्यानथी प्राप्त कर्युछे.
आत्मा तेज ब्रह्मस्वरूपछे आत्माज शिवस्वरूपछे, आत्माज परमात्मरूपछे, सिद्धत्वपणुं आत्मानो शुद्ध पर्यायछे, सम्यग् मोक्ष स्वरूप वीतराग वचनोथी प्रतीत थाय छे, ज्यारे बंधतत्वनो नाश थायछे. त्यारे मोक्षतत्त्वनी उत्पत्ति थाय छे. मोक्षतत्त्वथी आत्मा भिन्न नथी. मोक्षमयी आत्मा छे. ज्ञान, दर्शन अने चारित्रथी मोक्ष माप्तिछे. ज्ञान, दर्शन अने चारित्र गुणमय आत्माछे.
अज्ञानी जीव आत्मानो शुद्ध स्वभाव नहीं जाणतो छतो राग द्वेषादि करेछे, त्यारे ज्ञानी जीव आत्मस्वभाव जाणतो छतो. राग द्वेषनो त्याग करी कर्मथी रहीत थइ मोक्षपद प्राप्त करेछे. ज्ञानी आमाना स्वरूपमा सदाकाल रमण करी अखंडानंदानुभव प्राप्त करेछे. जेम हंसने मान सरोवरमां रतिछे तेम आत्मज्ञानीने आत्मस्वरूपमां रति होयछे. जे चकोर चंद्रमांज प्रीति धारण करेछे. तेम आत्मज्ञानी आत्मस्वभावरमणतामां प्रीति धारण करेछे. सीतानी जेम राममां प्रीति तेम आत्मार्थीनी आत्मस्वरूपमां प्रीति रमणता भासनता वर्तेछे. आत्मज्ञानीने शास्त्रकर्त्ता श्रमण कये छे. श्रीआनंदघनजी महाराज पण कछे के
आतमज्ञानी श्रमणकहावे, बीजा तो द्रव्यलिंगीरे.
वळी श्रीयशोविजयजी उपाध्याय कहेछेके, समाधिशतकमां
यथा
केवल आतम बोध, परमारथ शिवः पंथ तामे जिनकुं मगनता, सोहि भाव निग्रंथ.
परमार्थ शिवat पंथ केवल आत्मज्ञान छे तेमां जे भव्यात्माने मनताछे ते भाव निर्ग्रथ जाणवा. निक्षेप भेदयी निर्बंध चार म
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कारताछे. १.माम निथ. २ स्थापना निग्रंथ. ३ द्रव्य निग्रंथ. ४ भावनिग्रंथ. पूर्वोक्त चार निग्रंथमां भाव निग्रंथसर्वतः मोक्षसाधक जाणवा. कारणक, भावनिग्रंथपणानी प्राप्ति विना कदापि काळे मोक्षपदनी प्राप्ति थती नथी. सर्वपर वस्तु विषयोथी मनने खेस्की आत्मस्वरूपना ध्यानमां मनने :स्थिर करे. श्वासोश्वासे आत्मानु सारण करी भव्य जीवो कर्म खपावी परमात्मपद प्राप्त करेछे. ज्ञानी पुरुष आत्ममांज स्थिरता करे. अने आत्मभावना सदाकाल: भावी अनंत मुखमय पोताने लेखे नीचे प्रमाणे आत्मभावना भावे.
गाथा. एगो में सास अप्पा, नाण देसणं संजुओ, सेसामे बाहिराभावा, सव्वे संजोग लरकणा,
भावार्थ-एक मारो आत्मा शाश्वत छे. त्रिकालमां पण आस्मानो नाश थतो नथी. वळी आत्मानुं स्वरूप दर्शावेछे. ज्ञानदर्शन संयुतः ज्ञान अने दर्शनादि अनंतगुणमय आत्माछे. ___ आत्माथी दृश्यमान सर्व पदार्थो भिन्नछे. सर्व पौद्गलिक पदायो संयोग विनाशी धर्मवाळाछे. ते पौद्गलिक पदार्थमां मारापर्यु कंड नथी. रूपीपदार्थथी भिन्न हुं आत्मा शुद्धचैतन्यमय लक्षण लक्षितछं. आत्मानोप्रकाश करवाने अन्य पदार्थनी जरूर नथी. आत्मा पोवानी मेळे पोताना स्वरूपनो प्रकाश करेछे. कंचुकना त्यागथी जेम सर्प नष्ट थतो नथी. तेम शरीर नाशथी आत्मा नष्ट थतो नथी. त्रिकालमा आत्मा पोताना शुद्ध स्वरूपथी भ्रष्ट थतो नथी.
मूर्ख मूढ मनुष्य शुक्तिमा रजतनी भ्रांति धारण करी जेम मिथ्यापयास धारण करेछे तेम बहिरात्मा, परपुद्गलवस्तुमा आस्वत बुद्धिथी भ्रांति धारण करी मिथ्या चतुर्गति भ्रमणरूप क्लेश पात्र बनेछे.
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परमात्मबंधन,
( ३३९ )
सहज स्वाभाविक आत्मिक गुणानंतनी आविर्भावतारूप सिद्धतानुं हेतु सम्यग्ज्ञानछे. सम्यग्ज्ञाननी प्राप्ति बिना भवसंततिनी उच्छेद तो नथी. ते सम्यग्दर्शननी प्राप्ति विना सम्यग्ज्ञान कही शकातुं नथी. अनेकांत स्याद्वाद सत्तामय आत्मस्वरूपादि पदार्थोनुं यथार्थ भासनपणुं, श्रद्धानपशुं थाय त्यारे समकित कथायछे अने समकित पूर्वक जे जाणपणुं ते सम्यग्ज्ञान कहेवायछे सम्यग्ज्ञाननी प्राप्ति रूपसूर्य जे भव्यजनना हृदयमां प्रगटयोछे तेने मिथ्यात्वरूप अंधकार आच्छादन करी शकतुं नयी ज्ञानरूप सूर्योदयथी सर्व पदार्थोनो भास थाय छे. त्यारे मोक्षमय आत्मा स्वयमेव प्रकाशेछे. अने कर्मनो नाश थाय छे. नवमां जीवतत्त्व आदेयछे, संवर निर्जरा मोक्ष ए ऋण तत्र उपादेयछे, पुद्गल द्रव्य अजीवछे, पुण्य पाप पुद्गल स्कंधोछे. ते पुद्गल स्कंधोने आत्मा पोताना स्वरूपमां रमतो दूर करेछे. ज्यारे आत्माना असंख्य प्रदेशोनी साथे कर्मरूप पुद्गल स्कंधोनो एक परमाणु सरखो पण रहेतो नथी. त्यारे आत्मा निरावरण निर्ममपद प्राप्त करी सादि अनंत स्थिति पामेछे. एक समयमां गुणस्थानातीत थल आत्मा आकाश प्रदेशनी समश्रेणिए अन्यमदेशोने स्वयविना सिद्धिस्थानमां विराजेळे. त्यां सिद्धमां किंचित् दुःख नथी. दुःख सर्व पुद्गलना संयोगथीछे. निर्मल परमात्माने परमाणु मात्रनो संबंध नथी. तेथी त्यां लेश पण दुःख नथी. आधि व्याधि अने उपाधि ए त्रण प्रकारनां दुःखथी रहित आत्मा अनंत सुखमय वर्ते. सर्वथा प्रकारे दुःखनो अभाव मुक्तिस्थानमा छे. अनंत सिद्धजीवो लोकना अग्रभागे विराज्याछे. अने तेओ सदाकाल आत्मस्वभावमां रमण करेछे. अनंत ज्ञानदर्शन चारित्ररूप रत्नत्रयीनी लहेरमां स्वगुण भोगवेछे, त्यांथी कदापिकाळे संसारमां पाछा आवी जन्म मरण धारण करता नथी. सर्व जगत्ने ज्ञानथी
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(३४०)
सि. जाणेछे पण तेथी ते सिद्धना जीवो सदाकाल न्यारा प्रवर्तेछे. प्रश्न-सिद्ध भगवान् कोइ दुःखीने देखी दया मनमा लावे के नहीं ? नत्तर-सिद्ध भगवानने मन नथी. दुःखी मनुष्यादि सर्वने
जाणेछे पण तेओ कर्मथी रहीत थवाथी अक्रिय थयारे. तेथी कंइ पण कार्य करता नथी. अने दुःखी मनुष्यन दुःख दूर करवा संसारमा आवता नथी. सर्व जीव पोताना करेलां शुभाशुभ कर्मथी सुरवी दुःखी थायछे, कोइर्नु दुःख दूर करवा कोइ समर्थ नथी. करेलां कर्म पोतानेज भोगवां ज पडेछे. केटलाएक मतवादी एम कहेछे के सिद्ध परमात्मा अन्य जीवोनां दुःख दूर करवा संसारमा अवतार लेले एम तेमनुं कथनछे. निरंजन निराकार परमात्मा गमनागमननी क्रिया रहित थयाछे. कर्मनो नाश करवाथी. माटे परमात्मा अवतार ग्रहण करेछे एम जे कोइ कहेछे ते अज्ञानी जाणवो. सिद्धना जीवो पोतानी अवगाहना लेइ सदाकाल अनंत सुरखमां मन्न रहेछे, निश्चय चारित्र सिद्धना जीवोमां स्थिरतारूप समये समये अनंत छ. सिद्धता विना सांसारिक दशामां परस्वभावमा रमणता करवाथी किंचित् पण सुख नथी कांछेकेहूं एनो ए माहरो, ए हुँ एणी बुद्धि;
चैतन जडता अनुभवे, न विमासे शुद्धि. आतम॥१॥ ___ सांसारिकभाव एज हुँ छु, अने ते माराळे. आ बाह्य पदार्थो तेज हुँ एवी बुध्धिथी चेतन जडनो संगी थइ जडता अनुभवेछे अने पोताना आत्मानी शुद्धि विमासतो नथी. एवी संसार दशामां राग, द्वेष, कलह, ममतानो संगी थएलो जीव कंइ पण सुख पामी शकतो नथी. कोइपण जीव वाद्य पदार्थोथी सुख पाम्यो नथी. अने पामवानो नधी, आ प्रमाणे आत्मार्थी पुरुषो समजी दृढ नि,
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परमात्मदर्शन.
(११) यथी आत्मध्यान स्थिरतारूप समाधिमां लीन थायछे. कोइ यो
ध्यानारुढ थतां तेना ध्यानमाथी मन भटकी जइ आडं अवलं पाल्यु जायछे छे तेने शिक्षा आपतां योगी कहेछेके
श्लोक. मनः कुत्रोद्योगः सपदि वदमेगम्यपदवीं ॥ नरेवा नार्यावा गमनमुभयत्राप्यनुचितम् ॥ यतस्ते क्लीवत्वं प्रतिपदमहो हास्यजनकं ॥ जनस्तोमं मागा स्त्वमनुसरहि ब्रह्मपदवीम् ॥ १॥
हे मन तारी क्या जवानी इच्छाछे. तारे ज्या जवान होय ते मने कथन कर. नरमां जq छे के नारी विषयमा जवूछे. नर वा नारी ए बे ठेकाणे जवू पण अयोग्यछे. कारण के तारु क्लीवत्वपj छे माटे पदपदप्रति नर वा नारीना विषयमा तारु गमन हास्य उत्पन्न करावनारछे. पुल्लिंग वा स्त्री जातिमां तुं नपुंसक थइने जाय छे ते योग्य नथी. माटे मनुष्यना समूहमां मा भटक, तुं नपुंसक तेबुं ब्रह्म पण नपुंसकछे माटे तुं ब्रह्मपदने अनुसर अथवा ब्रह्मपदमां लीन था. वळीपरमात्मतत्त्व रमणतामां योगी लीन थइ समाधिभावने पामेछे. परमात्मतत्त्व आनंदरूपछे ते दर्शावेछे. परमानंद पंचविंशत्यां
श्लोक. आनंदरूपं परमात्मतत्त्वं, समस्तसंकल्पविकल्पमुक्तं; स्वभावलीना निवसंतिनित्यं,जानाति योगी स्वयमेवतत्त्वं परमाल्हाद संपन्नं, रागद्वेषविवर्जितम् ॥ सोऽहंतुदेहमध्येऽस्मिन्, योजानातिसपडितः ॥ २ ॥
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( ३४२ )
सिद्ध.
भावार्थ- परमात्मतत्व स्वाभाविक सदाकाल आनंदरूपछे. बळी शुद्ध निश्वयनयथी जोतां परमात्मतत्त्व केवा प्रकारछे ते जणावे छे के समस्त प्रकारना संकल्प अने विकल्पथी रहिछे, एवा परमात्मतत्वमां सहज स्वरुपमां लीन थएला भव्यो सदाकाल वसेछे, एवं परमात्मतत्व योगी पोतानी मेळे अनायासे जाणेछे. उत्कृष्ट आरहादी संपन्न अने रागद्वेषरहित आत्मा आ शरीरमां वस्योछे तेज हुं परमात्मा एम जे जाणे छे ते पंडित जाणवो. परमात्मस्वरूप एवो आत्मा संसारमां परिभ्रमण करेछे तेनुं शुं कारण छे ते दर्शावेछे.
गाथा.
आया नाणसहावी, दंसण सीलोविसुद्ध सुरूवो ॥ सो संसारे भमइ, एसो दोसो खु मोहस्स १
आत्मा ज्ञानस्वभावी अने अनंत दर्शनगुणमयछे वळी ते निश्रयथी विशुध्ध तथा अनंत सुखवान् छतां संसारमां परिभ्रमण करेछे तेमां मोनो दोष छे. माटे आत्मार्थो भव्य जीव मोहनो जय करे. मन विचारे के आ दुनीयामांनी सर्व जड वस्तुओ मारी नयी अने हुं तेनो नथी एम भावतां मोहरिपुनो जय करी शकाय छे. त्यारे हवे मारु शुं एम जिज्ञासा शिष्यने थतां गुरू महाराज कहे छे के
श्लोक. शुद्धात्मद्रव्यमेवाहं, शुद्धज्ञानगुणो मम नान्योऽहं सिद्धबुद्धोsहं, निर्लेपोनिष्क्रियः सदा ||१||
सकल पुद्गलना आश्लेषथी रहीत ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, अव्यावाधादि अनंत गुगपर्यायमय असंख्य प्रदेशी शुध्व
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परमात्मदर्शन,
( ३४३ )
आत्मद्रव्य हुं छे. सूर्य चंद्रादिकनी सहाय विना मारो शुध्ध ज्ञानरूप प्रकाश समये समये वर्तेछे. त्रण लोकना पदार्थनी उत्पादव्यय धौव्यतानी अनंतता मारा शुध्धज्ञानमां ज्ञेय स्वरुपे परिणमी समये समये भासेछे, ते ज्ञानगुण मारोछे. हुं ज्ञानतुं पात्र हुँ. धर्मास्तिकायादिकथी हुं भिन्न छु. तनु-धनादिक पदार्थो माराथी भिन्नछे. स्वद्रव्यादिकथी युक्त रत्नत्रयीनो स्वामी आत्मा तेज हुंछु, आवुं भेद ज्ञानरूप अत्र मोहनो नाश करेछे माटे सर्व परभावथी भिन्न एवा आत्मामां रमणता करवी. वळी जे भेदज्ञानीछे ते औदमिक भावमा लेपातो नथी. जेम आकाश कादवथी लेवातुं नथी तेम अत्र समजj.
वळी अध्यात्म बिंदु ग्रंथमां कहां छे केश्लोक. स्वत्वेन स्वं परमपिपरत्वेन जानन् समस्ता न्यद्रव्येभ्यो विरमणमिति चिन्मयत्वं प्रपन्नः स्वात्मन्येवाभिरतिमुपनयन स्वात्मशीली स्वदर्शी ॥ त्येवंकर्त्ता कथमपिभवेत् कर्मणो नैषजीवः ॥ १॥
जेणे आत्मामां आत्मपणुं जाण्युंछे. अने पुद्गलादिकमां परपशुं जाणी समस्त अन्य पदार्थोथी विराम पाम्योछे अने ज्ञानमयपणाने पाम्योछे. पोताना आत्मामां आनंद पामी स्वस्वरुपनो दश थयोछे एवो आत्माशी रीते कर्मनो कर्त्ता बनी शके ? अर्थात् एवी अध्यात्मदशामां रमण करनार जीव कर्मनो कर्त्ता बनतो नथी. पण पोताना आत्मस्वभावनो कर्त्ता थायछे. आत्माना स्वरूपमां रमण करनार योगीश्वरने जे सुख थायछे ते अनवधि सुख जाणवुं. परस्वभावथी रहित एवा मुनीश्वरने जगत् तृणवत् जाणवुं. अर्थात्
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सिखः
मुनीश्वरने जगत् निस्सार लागेछे. अने आत्मस्वरुपमाज सार लागेछे. कयुं छे के-ज्ञानसारमा देवचंद्रकृत टीकामां
गाथा. तिणसंथारनिसिन्नो, मुणिवरो भागमयमोहो । जंपावइ मुत्तिसुई, कत्तो तं चक्कवट्टीवि ॥१॥
भावार्थ-नष्ट पाम्याछे राग, द्वेष, मद, मोह, ते जेना एवा मुनिवर्य तृणना संथारमा पेठा छता जे सुख पामेछे ते सुख चक्रवर्तिने पण क्याथी होय, अर्थात् मुनिवर्यने आत्मस्वभावे रमणं करतां जे सुख थायछे ते सुखनो लेश मात्र चक्रवर्तिने नथी. परभावमा रमण करनार चक्रवर्ति सुरपतिने आत्मिक सुख प्राप्त यतुं नथी. का छे के-ज्ञानसारमा देवचंद्रकृत टीकामां.
गाथा. जेपरभावे रत्ता, मत्ताविसयेसुपाव बहुलेसु ॥ आसापासनिबछा, भमंति चनगइ महारने ॥
जे भव्यो परभावमा मनछे. पंचेंद्रियना विषयोमा जे मत्त थया छे, अने आशापाशथी जे बंधायाछे ते चतुर्गतिरूप महाअरण्यमां परिभ्रमण करेछे, परभावमां आसक्त जीवो समये समये सात वा. आठ कर्म ग्रहण करी पुनः पुनः पुनर्जन्म धारण करेछे. माटे परभावमा रमवू ते आत्माने योग्य नथी. जडवस्तुमा किंचित् पण सुख नथी. परमां थतो रागभाव तेने परिहरी पोताना आत्मामां जे खोज करेछे ते परम सुख पामेछे. यथा समाधिशतकरागादिकजबपरिहरी, करे सहजगुणखोज; घटमें भी प्रगटे तदा, चिदानंदकी मोज ॥१॥
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परमात्मदर्शन
(३४५ )
बळी भव्य पुरुषोए समज के अहं अने ममपणुं पोताना आत्मामां नथी. ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप रत्नत्रयीनो स्वामी हुंछु अन्य किंचित् वस्तु मारी नथी. आत्मिक धन तेज मारुछे, अन्य मारु नथी. आत्मस्वरूप जडमां कल्प तो जन्मनी वृध्धि थाय छे. अने आत्मस्वरूप आत्मामांज धारी निश्चय करे, स्वस्वभावमा रमे तो मोक्षनी प्राप्ति थायछे. यथा समाधिशतकआपभावना देहमें, देहंतरगति हेत ॥ आपबुद्धि जो आपमें, सोविदे पददेत ॥ १ ॥
भावार्थ-सारमां सार के आत्मना स्वद्रव्यादिक चतुष्टयमां आत्मत्वपणुं धारण करी एक चित्तंथी आत्मध्यान करे ते संसार चक्रमांथी छूटेछे. आत्मा पोतेज परमात्मरूप बनेछे. ते बतावे छे. समाधिशतक.
भविशिवपददे आपकुं, आपहि सन्मुख होइ || तातें गुरु हे आतमा, अपनो ओर न कोइ ॥ १ ॥
आत्मा पोते पोताना सन्मुख थायछे, त्यारे पोते पोताने शिपद आपेछे. ते माटे निश्चय नयथी जोतां आत्मा पोते पोतानो गुरु छे, आत्मानो अन्य कोई गुरू नथी. निश्चयनयथी पोतानो गुरू आत्मा छे, पण तेनुं समजीने व्यवहारथी परमोपकारक सदगुरू आलंबन मूक नहि. पोतानी साध्यदशामां सद्गुरूनुं आलंबन पुष्टिनिमित्त कारणछे. सद्गुरूना आलंबनथी आत्मानी शुध्धपरिणति थाय छे. राग द्वेषमां परिणमनुं ते परपरिणति छे. बहिरात्मा परपरिणतिने पोतानी करी मानेछे. संयम अंगीकार करीने पण जे भिक्षु रागद्वेष परिणामयुत परपरिणतिमां राचेछे, मायेछे ते द्रव्यसाधु जाणवो. कां छेके
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भारमस्वभाव.
(२ ) परपरिणतिपणेतानीमाने, क्रियागर्वे गहेलो। उनकुं जिनकहो केम कहीए, सो मूरखमें पहेलो--परम जैनभावे ज्ञाने सबमाहि, शिवसाधन सहहीए; नाम भेखसुं काम न सीजे,भाव उदासी रहीए-परम ज्ञान सकलनय साधन साधो, क्रिया ज्ञानकी दासी; क्रिया करत धरतु हे ममता, आइ गलमे फांसी-परम
इत्यादि समजी स्वस्वभावमा रमण करवू. एज सारमा सार आत्महित कर्तव्यनी पराकाष्ठा जाणवी. सर्व पुद्गलभावमांथी प्रीति हठावी एक आत्मामां प्रीति जोडवी. सर्व जगत् प्रपंच दुःखमय छे एम आत्मार्थीए सतत अंत:करणमां भावना भाववी. प्रथम बाल जीवने बाह्य वस्तुमा सुख ज्यां त्यां लागेछे अने अंतर्मा उतरवू ते महा दुःख लागेछ, पण ज्यारे द्रव्यानुयोगनुं ज्ञान थायछे अने आत्मतत्त्वनी सम्यक् श्रधा थायछे त्यारे अंतरमा एटले आत्मस्वरुपमां सुख लागेछे अने बाह्य जगत्मां दुःख भासेछे. अमृतरस भोजनना करतां पण ज्ञानीने आत्मस्वभावमा अनंतगुणु विशेष सुख लागेछे. अमृतरसभोजननुं सुख क्षणिक छे अने आत्मसुख तो नित्यछे माटे ते अनुपमेय छे. आत्मसुखनुं वर्णन करोडो जिहाथी लाखो वर्ष सुधी वर्णन थतां पण कदापि पुरु यतुं नथी. आत्मिक सुख अवर्ण्य छे. ___ अनुभवज्ञाननी ज्यारे प्राप्ति थायछे त्यारे आत्मिकमुखनी सत्य निश्चय प्रतीति थायछे. अनुभवज्ञान विना सत्य सुखनी :सीति यती नथी श्री चिदानंदजी महाराज पण अनुभवज्ञान विषे मानंदमां आपी गद्धारा विवेचन करेछे. यथा.
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परमात्मदर्शन
अवधु पियो अनुभवरसप्याला, कहत प्रेममतिवाला-अ. अंतर सप्त धातरस भेदी, परमप्रेम उपजावे परवभाव अवस्था प्रगटी, अजवरूप दर्शावे. अ० नखशिख रहत खुमारीजाकी, सजल सघनघन जेंसी; जिण ए प्याला पिये तिणकुं, और बात हे केंसी. अ. अमृत होय हलाहल जाकुं, रोगशोगनवी व्यापे; रहत सदा घरगाय नशासें, बंधन ममता कापे. अ० सत संतोष हैयामां धारे, जनमनां काज सुधारे, दीनभाव हीरदे नहि आणे, अपनो बिरुद संभारे. अ. भावदया रणथंभ रोपके, अनहद तुर बजावे; चिदानंद अतुली बलराजा, जीतअरि घर आवे. अ० ___ वळी तेमज श्री आनंदघनजी महाराज पण कहेछेकेआतम पियाला पीओ मतवाला, चिन्ही अध्यातम वासा आनंदघन चेतन व्हे खेले, देखे लोक लोक तमासा. आशा ओरनकी क्या कीजे. .. अनुभवगम्य एवं आत्मिक सुख बाडेंद्रियथी कदी जणातुं नथी. बहिरात्मी प्राणीओ आत्मिकसुखनो गंध पण अनुभवी श. कता नथी. साकरनो स्वाद जेम विषनो कीडो जाणी शकतो नहीं तेम अज्ञानी जीव आत्मिकसुखनो लेश पण जाणी शकतो नी. शाश्वत एवं आत्मिक सुख साध्य जाणी तेनी प्राप्ति अर्थे सदाकाल चारित्र धर्मनी आराधना ज्ञानी मुनिवर्यो एकाग्र चित्तवी कर
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अनुभव रेछे, ज्यांसुधी बाह्य पौद्गलिकमुखनी इच्छा हृदयमांप्रगटेछे त्यां सुधी समाकितनी प्राप्ति थती नथी. ज्ञानीओ बाह्यभावने स्वमवत् भ्रांति समान जाणी सत्यआत्मिकसुखने म.टे प्रयत्न करेछे. पृरपुद्गलवस्तुमा आत्मिकधर्म नथी. स्वस्वरूपमा रमणता करवी तेमाज लयलीनता करवी, मनवचन अने कायाना योगनी प्रवृत्ति परंवस्तुमां थायछे ते निवारवी, अने बहिर्वाचा अने अंतर्वाचानो स्याग करी भव्यो मुक्ति पामे माटे आत्मिकधर्मनुं स्वरूप प्राप्त करवू जोइए. ज्ञानथी आत्मिकधर्मनो पूर्ण राग प्रगटेछे ते संबंधी कहेछे,
॥ दुहा. ॥ लाग्यो चोल मजीठनो, रंग ते कबुन जायः धर्म रंग लाग्यो थको, कदी न दूरे थाय ॥ १३९ ॥
भावार्थ-ज्ञानदर्शन चारित्र सहित आत्मानुं स्वरूप समजतां परपुद्गल वस्तु उपरथी राग उतरी जायछे, अने आत्माना स्वरूपपर राग थायछे. आत्मा विना कोइपण वस्तु प्रिय लागती नथी. श्रात्माना गुण पर्यायमांन रंगावानो राग थाय. एम आत्मानी शानदृष्टि स्वस्वरूपने योग्य गणेछे ने परवस्तुने हेय गणेछे. आवी दशा थतां आत्मा परवस्तुओमां अहंममत्व भावथी छुटेछे. विरति सन्मुख थएलो आत्मा गुणस्थानकपर चढे छे. दशमा गुणठाणाए रोग पण छुटी जायछे अने तेरमा गुणठाणाए केवलज्ञान दर्शन चारित्रनो भोगी बनेछे अने अन्ते सिद्धबुद्ध बनेछ. आवी परमात्मदशानुं स्वरूप देखाइनार सद्गुरू महाराजछे. माटे सर्व उपकारीमा मुख्य एवा गुरूना उपर प्रीति धारण करवी
खाडार सदगुल महाजमा जोइए ते दर्शावेछे,
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परमात्मदर्शन.
"दहा." पुत्र पुत्रीदारा थकी, अधिको गुरुपर प्यार; प्राणाधिक गुरुप्रेम जास, ते भवजल तरनार ॥१४॥ एकज देव गुरू पिता, तेमां नही संदेह; धर्मगुरू ते एकछे, अन्य मुनि गुणगेह. ॥१४॥ धर्मगुरूनी चाहना, धर्मगुरूनी भक्ति; धर्मगुरू हृदय वदो, सेवो निजनिज शक्ति ॥१५२॥ सेवे शाश्वव संपदा, देखे दळदर दूर ॥ वंदे वंद्यपणुं वरे, गिरूआ गुरू जरूर. ॥१४३॥
भावार्थ:-पुत्र पुत्री अने स्त्री उपर मनुष्यने घणो प्यार होयछे तेना करतां पण अत्यंतराग सद्गुरूपर थवो जोइए. पोताना प्राण करतां पण सदगुरू उपर अत्यंत प्रेमधारण करे. हृदयमा गुरूं शब्द स्मरणनो मंत्र जाप करे. गुरूनी आज्ञा शर्षिपर धारण करे. एको भव्यजीव जन्म जरा मरणथी पूर्ण समुद्र तरी शकेछे, अने मुक्ति पुरी प्राप्त करेछे. भव्यजीवोए समजवानुं के पिता एक होयछे सदेव पण एक होयछे, तथा समातमदधर्माचार्य सद्गुरू पण एक होयछे. समाकेतप्रदधर्माचार्य मुनिनो जे उपगार छे तेना तुल्य अन्य मुनिओनो उपगार नथी. अन्य मुनिओनो यथायोग्य भक्ति विनय साचववो. धर्म गुरूना सिवाय आचार्य उपाध्याय पण आत्माना मुख्य उपगारी नथी, माटे धर्मगुरू उपर वि. शेषतः भक्ति प्रीति धारवी. अने तेमनुं बहुमान करवं. स्वकीय शक्तितः धर्मगुरूनुं आराधन करवू. धर्मगुरूनी सेवाथी त्वरित शाश्वत शिवसंपदानी प्राप्ति थायछे. सद्गुरूने देखवाथी. दारिद्र,
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आत्मदृष्टि:
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( १५० )
दूर थायछे. सद्गुरूने वांदवाथी आत्मामां वंयपणुं प्रगटेछे. गुरुनी गुरुता अलौकिक छे. गुरूनी गुरूता वर्णी शकाय तेम नथी. भव्य जीवो गुरूनी सेवा करतां गुरुनी गुरूता माप्त करेछे. श्री सद्गुरू कथित अनंतगुणधाम भूत चेतनमां सदाकाल रमकुं ते दर्शावे छे.
दुहा.
अज अविनाशी जीवछे, अखंड आनंद पूर; अंतर्दृष्टि देखतां चेतन नहींछे दूर.
॥१४४॥
"
॥१४५॥
॥१५६॥
चेतनगत तुज धर्म देख, " बाहिर क्यां कर ख्याल; बाहिर्दृष्टि देखतां, भवनी अरहट्ट माल. ध्यान धारणा धरीने, देखो आत्मस्वरूप; बहिरूपाधि त्यागतां, शिवशाश्वतचिद्रूप मूढ बन्यो मानव कहे, ओ जाणे जगमूढ | आतम ज्ञांनी सुख लहे, ए अंतरनुं गूढ. रागद्वेष परिणामनी, ग्रंथियां छेदाय ॥ शून्यदशा पुद्गलतणी, सहेजे शांति पाय. ॥१४८॥
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॥१४॥
भावार्थ-अज अने अविनाशी एवो आत्माछे. आत्मा अनादि कालथीछे माटे ते अज कहेवाय छे। अने अनंतछे माटे अविनाशी कहेवायछे. अखंड अने आनंदथी परिपूर्ण आत्माछे यत्र आनंदछे तत्र आत्माछे. आनंदनो ज्ञाता तथा आनंदनो भोक्ता आत्माजछे. अंतर्दृष्टिरूप ज्ञानदर्शनथी देखतां आत्मा शरीरमांज रहेलोछे. पोतानाथी दूर नथी. आत्मानी शोधखोळ माटे परदेश जवा जरुर नथी. शरीरमांज व्यापी रहेलो आत्मा ज्ञानदृष्टिथी
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परमात्मदर्शन.
(३५१/
शोधतां जणायछे. बाह्यदृष्टिथी देखतां जडवस्तु जणायछे. अने जडवस्तुमा आत्मपणुं नथी. जडवस्तुथी भिन्न अरूपी आत्मानो निर्धार करी स्वस्वभावमां रमवुं योग्य छे. जडवस्तुनो धर्म परिहरीने आस्मानो धर्म देखो जोइए. मनवाणी अने कायाना वेपारमां आत्म धर्म नथी. आत्मानो धर्म त्रियोगनी क्रियाथी तथा लेश्याथी पण भिन्नछे, धारणा तथा ध्यानरूप संयम अवलंबीने हे भव्यजीव आत्मानुं स्वरूप देख. संयममां विघ्नभूत बहिरुपाधि परिहरीने स्वस्वरूपमां रमतां शाश्वतकल्याण ज्ञानमय आत्मा थायछे. आत्मज्ञानी आत्मामां रंगायचे त्यारे तेने बाह्यवस्तु भ्रांतिमय लागेछे. तेथी तेने बाह्य वा वेपारमां आचारमां प्रेम रहेतो नथी तेथी जगत् लोको आत्मज्ञानीने (उन्मत्त ) गांडो बनी गयो एम जानेछे, त्यारे आत्मज्ञानी एम जाणेछे के जगत्ना लोको आंधळा छे. पोतानी रूद्धि आत्मामां नहीं देखतां जडवस्तुमां राचीमाची रहेछे. अरे तेवा अ
ज्ञानी जीवो जन्मजरा मरणनां दुःख पाये तेमां शुं आश्रर्य ? एवं ज्ञानीने अज्ञानीनी दृष्टिमां भेद पडेछे, अने एक बीजाने भिन्न दृष्टिथी देखेछे. आत्मज्ञानी अनंत ज्ञान दर्शन चारित्रनो घामभूत आत्माने मानतो आत्मामांज स्थिरउपयोगथी रमणता करी क्षणेक्षणे अनंतानंद भोगवेछे, आवी शुद्धदशामां रागद्वेपना परिणामनी ग्रंथी छेदायछे, अने रागद्वेषना अभावे शून्यपणुं वतयछे, अने आत्मानी सहजशांति प्रगट थाय छे. ज्ञानीने आवी सहज शांतिदशामां जे भान वर्तेछे ते जणावेछे:
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77
दुहा.
भासे एक आतमा, सोऽहं सोऽहं ध्यान; तत्वमसि आकारमां, चिदानंद भगवान् ॥१४९॥
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भास्मदशा.
आत्मदशा तेवी थइ, थिस्ता निज गुणमाहि; वश वयु मन मांकडं, दुःख देखे नहि क्यांदि.१५० ____ भावार्थ:-उत्कृष्टनिर्मलध्यानदशामां शुद्ध आत्मस्वरूप भासे छे.सोऽहं शब्दथी आत्मध्यान करायछे. आत्मा तेज हुँ इत्येवंसोऽहं शब्दनो परमार्थछे ते ज्ञानदर्शन चारित्रमय तेज तुं आत्माछे. बीजो नथी. एम तत्त्वमसि शब्दनो परमार्थछे. सोऽहं अने तत्त्वमसि वाक्यथी अनेकांतधर्ममय चेतननुं ध्यान धरतां आत्मा केवलज्ञान अने क्षायिक सुख प्रगटावेछे, अने त्रण जगतमां पूज्य थायछे. सोऽहं अने तत्त्वमसिना ध्यानमा पोतानो आत्माज चिदानंद भगवानरूप भासेछे. निर्मलध्यानमां शुद्ध आत्मदशा थतां आत्माना गुणोमा स्थिरता थायछे अने मनमर्कटनी चंचलतारूप संकल्पविकल्प बंध पडेछ. अर्थात् मन वशमां थायछे. तादृशीध्यानदशामां दुःखना ओघ विलय पामेछे. कोइ ठेकाणे तेने ते काले दुःख देखातुं नथी. भव्यजीवोए निर्मलध्यानदशामां स्वजीवन गाळवू जोइए. अंतर्दृष्टि थया विना जे जीवो बाह्य आचारमा धर्म मानेछे अने आत्माना धर्म तरफ लक्ष राखता नथी ते पोते धर्म पामी श. कता नथी, ने बीजाने धर्म पमाडी शकता नथी.
"दुहा" रागे वाह्या जीवडा, आप मतीला मुंड; धूते ढोंगी पापीया, लेइ साधुनुं झूड. १५१ खावु पीपहेरवू, वेशे माने धर्म; सत्य धर्म नवि दाखवे, बांधे उलटां कर्म. १५२ सत्य देव नवि ओळखे, दे मिथ्या उपदेश; पेटभरु कदाग्रही, कुगुरू पामे क्लेश.
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परमात्मदर्शन.
मनमाया मूके नही, पहेरे त्यागी वेष; भगवा वस्त्रे भोळवे, लोको देशो देश. १५४ धननी आशा राखता, ठगे ठगारा लोक; टीलां टपके धर्म क्यां, आत्म विना सहु फोक. १५५
भावार्थ-अहंममत्वमा तल्लीन बनेला केटलाक, आत्मा अने परमात्मानुं स्वरूप नहि जाणनार ढोंगी पापिजीवो साधुनुं वृन्द लेइ गामोगाम फरी धन उघरावी दुनियाने ठगेछे, पण वस्तुतः जोतां विचारा ते ठगायछे. केटलाकतो खावामां; पीवामां अने वस्त्रवेषमांज एकांते व्यवहार निश्चयनय अवबोध्या विना धर्म माने छे. धर्मनुं शुं स्वरुप छे ते सापेक्षदृष्टिथी पोते जाणी शकता नथी तो अन्यने शी रीते जणावी शके. धर्मना नामे ढोंग करी मिध्या उपदेश आपी पोते बुडेछे. अने अन्य जनोने पण संसाराम्धिमा बुडाडेछ. अष्टादश दोषरहित सत्य देवने ते जाणी शकता नथी. सत्यज्ञानना अभावे स्वच्छंदताथी मनमां जेम आवे तेम मिथ्या उपदेश आपछे. एतादृश उदरपूर्तिस्वार्थसाधक अज्ञान कुगुरूओ बहिरात्मभावथी भवपरंपरा ग्रही क्लेश पामेछे. मनमा रहेलं मिथ्या वस्तुओर्नु ममत्व मूके नहि अने त्यागीनो वेष पहेर्यो तेथी | थयु. बाह्यत्याग अने अन्तर् त्याग ए बे त्यागनी जरूछे. उपरना फक्त बाह्य त्यागथी त्यागीपणुं कहेवातुं नथी. तेमज ज्ञानगर्भितवैराग्य विना केटलाक परिग्रहादिक उपाधिमां रक्त होय छतां ब्राह्यत्यागनो अनादर करी अन्तर् त्यागी केहरावे ते पण अनेकान्तनय विरुद्ध छे. माटे ब्राह्यथी फक्त देखाता त्यागी भगवां वस्त्र पहेरी कुपंथनी जालमां लोकोने फसावेछे. धननी आशा धारक कुगुरूओ अलौकिक उग जाणवा. आत्मज्ञान थया विना उपरनां टीलांटपको मायाथी
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( ३५४ )
सत्य बोध:
करalमां आवेतो तेथी कंइ आत्मानी रूद्धि प्राप्त यती नयी, तेमज जन्मजरा मरणना बंधनमाथी छूटातुं नथी. सातनय अने चारनिक्षेप पूर्वक आत्मज्ञान थायतो मिथ्यात्त देवगुरू धर्मना असद् विचारोतो नाश थाय. सत्यज्ञान थतां आत्मज्ञानिनी कवी दशा थायछे ते जणावेछे.
"
दोहा.
१५६
सघळो दुनिया खेल; टाळे सघळो मेल. करतां निजगुण खोज; चिदानन्दनी मोज. १५७ प्रगटपणे निरखाय; भोळा जन भरमाय.
फोक करीने लेखवे, योगाभ्यासी थइ खरे, टळे कर्मनो मेल सहु, निजघटमा प्रगट तदा, अन्तर ऋद्धि ज्ञानथी, बाहिर रुद्धि बापडा,
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"
विद्युत्ना चमकार,
"
तनु धन यौवन कारमुं परभव साथ न आवतुं, मोह्या मूढ गमार. राची रूद्धि कारणे, जीव दणे केइ लाख ; जीवन तेनुं धूळसम, : जाणो छेवट राख.
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૫
१५९
१६०
मात्र नथी.
भावार्थ - आत्मज्ञानिसन्त सांसारिक मोहक पदार्थोनी रचनाने मिथ्या जाणेछे. मोहक जड पदार्थोमां आत्मत्व लेश एवं सत्य निश्चय करी योगाभ्यासमां प्रवृत्त थायछे आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान अने कर्मरूप मलिनतानो नाश करेछे, ध्यान अने समाधिद्वारा शोध करत आत्मा पोतेज परमात्मा वनेछे, परमात्मा बनतां अनन्तगुण
यम, नियम, समाधिथी अ
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परमात्मदर्शन,
(३५५ ) आविर्भाव थायछे, केवलज्ञानथी सर्व रूद्धि प्रत्यक्ष देखायछे एम आत्मज्ञानिमां परिपूर्ण निश्चय थायछे. आत्मज्ञानी विचारेछे के अज्ञानि पामर जीवोज उपाधिमय सुवर्गादिक बाह्यरुद्धिमां आसक्त होयछे. एवं सत्य अने असत्यतो ज्ञानी निर्णय करेछे. सम्यक्त्व जडवस्तुओ जेवीके तनु धन यौवनपणुं आदिने विद्युत्ना चमकारानी पेठे क्षणिक गणेछे, परभव तेमांन कंइ साये आवतुं नथी. अहो मोहमनमूर्खजीवो ! जडवस्तुओमां राची रहेछे. जे वस्तुओपर राग धारण करेछे ते वस्तुओ मृत्युबाद कदी साथे आवती नथी. ज्यारे आ प्रमाणे छे तो आत्मानी रूद्धिविना बाह्य जड रूद्धिमा केम मूढनी पेठे राचीमाची रहुं. अलबत तेमां मूर्छाधारवी ते योग्य नथो एम ज्ञानी निश्चय करेछे, अज्ञानी पामर जीव वाह्य लक्ष्मीनी प्राप्ति माटे अनेक प्रकारना हिंसक व्यापारोमां लक्ष जीवोनो नाश करेछे. अज्ञानी जीव मत्स्य, सूकर, पशु, पंखोना जीवोनो आ जीविका माटे नाश करेछे. तादृशअज्ञानिजीवोनुं जीवq पाप माटे जाणवू. एतादृश पापी जीवो मृत्यु पामी नरकादि दुर्गतिमा जायछे. तेवा पापी जीवोनुं जीवन धूळ करतां अनिष्ट पृथ्वीमां भारभूत जाण. तेवा पापिजीवो उपर करुणादृष्टिथी जोवू योग्यछे. उपदेशा दिकथी पापियोनो उद्धार करवो जोइए. राखमां पडेलु घृत यथा नकामुं छे तद्वत् पापिजीवोठे आयुष्य स्वपरापेक्षाए तेवी पापदशा वर्ते तावत् पर्यंत नकामुं जाणवू. बाह्यमांज सुखनी बुद्धि धारण करनाराओनी अशुभ प्रवृत्ति दर्शावेछे.
"दहा." असत्य वाणी बोलीने, जन वंचे धन हेत; अशुभ कर्म पोठी भरी, जन्म जन्म दुःख लेत. १६१ चोरी बाडी चुंगली, परनिन्दा अपमान
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( ३५६ १
अधिकारी.
स्वार्थिक जन संसारमा, नरक गति मेमान १६२ आत्म प्रशंसा दाखवे, करे घणो अभिमान, धर्म मर्म पामे नहीं, पापी जन नादान. परापकर्षे चित्त, परने देवे आळ; पापारंभ करे सुदा, देवे क्रोधे गाळ. पाप पुण्य समजे नहि, ले नदि सद्गुरु बोध; नास्तिकवादी जीवडा, करे शुं चेतन शोध. १६५ मत एकान्ते जे ग्रहे, ते अज्ञानी जीव
१६४
भ्रमण करे भवमां अरे, ले नहि शाश्वत शिव. १६६
भावार्थ - अज्ञानी मोही जीव, असत्य वचन वदीने धनादिक माटे मनुष्योने छेतरेछे, चोरी, चाडी, चुगली करेछे. पापाचरणोथी पापकर्म ग्रहण करेछे, परजीवोनी निन्दा करेछे, परतुं अपमान करेछे. स्वार्थिक मनुष्य संसारमा अनेक जन्म दुःख परंपरा पामे छे, बाह्यदृष्टिधारकजीव स्वकीय प्रशंसा करेछे. अज्ञानी बाह्य धन सत्तादिकथी मनमां अत्यंताभिमान धारण करेछे, बाह्यदृष्टिजीव ज
मां धर्म माने तेथी आत्मधर्मनो मर्म समजतो नथी. मनुष्यजन्म पामी जे आत्मतत्त्वनी शोध करतो नथी अने मोहक पदार्थोंमांज अहंममत्व धारण करेछे एवो जीव मोक्षथी पराङ्कख रहेछे, आत्मधर्मनी प्राप्ति दुर्लभछे, नवतत्त्वनुं सूक्ष्मज्ञान थया विना आत्म ज्ञान थतुं नथी, बाह्यजीव अन्यने नीचो पाडवा प्रयत्न करेछे. तेमज कृत्याकृत्य विवेक पराङ्कख थइ परजीवने आळ चढावेछे. परजडवस्तुमां ममत्वथीबंधाइ अनेक प्रकारना पापारंभ करेछे. क्रोधथी परने गाली देछे, अज्ञानी जीव पाप पुण्यमां समजतो नवी.
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१६३
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परमात्मद न.
तेमनमोहांधवनवाथी सद्गुरूनो उपदेशश्रवण करतो नथी.सद्गुरूपदेश श्रवण करनारने श्रेष्ट मानतो नथी, मिथ्यात्वमां अंध थएला जीवो आत्मानी शोध करी शकता नथी. नास्तिकवादी एकान्तमत धारण करेछे. एगंतो होइ मिछत्तं, एकांतपणाथी मिथ्यात्वछे. मिथ्यात्वी ( अज्ञानी ) मिथ्यात्वना योगे भवमा परिभ्रमग करेछे, सम्यग्दृष्टि थया विना सम्यक्चारित्रमार्ग प्राप्त थतो नथी. सम्यग्दृष्टिजीव सम्यक् चारित्र पामी शिवसुख संपत्ति प्राप्त करेछे. मिथ्यात्वीजीव वस्तुने यथार्थपणे जाणतो नथी. ईश्वरने मानेछे तोपण ते विपरीत पणे जाणीने मानेछे ते प्रसंगतः जणावेछे, तेमा कोइक तो ईश्वर जगत्नो बनावनार मानेछे तेनो मत प्रथम दर्शावेछे.
॥ दुहा.॥ कर्ता ईश्वर मानता, जगमां केइक लोक; सुखदुःख इश्वर आपतो, ए पण वाणी फोक १६७ __ भावार्थ-जगत्मा केटलाक मनुष्यो जगत्नो बनावनार ईश्वर मानेछे, केटलाक मनुष्यो खुदाने जगत्नो बनावनार मालीक माने छे, त्यारे स्वीस्तियो ते खुदानी मान्यता नहीं स्वीकारतां इशुनो परमेश्वर जगत्नो बनावनारछे एम स्वीकारेछे. स्त्रीस्तिलोकोनी आवी मान्यताथी विरूद्ध पडी केटलाक हिंदुस्थानना हिंदुओ ब्रह्माने जगत्नो बनावनार मान्छे त्यारे केटलाक ते पक्षथी विरूद्ध विष्णुभगवान् जगतनो बनावनारछे एम मानेछे. त्यारे केटलाक ते पक्षथी विरूद्ध पड़ी महादेवने जगत्नो रचनार स्वीकारेछे. त्यारे केचित् शक्तिथी जगत् बन्युंछे एवं स्वीकारेछे. स्त्रीस्तियो दुनिया सातहजार वर्ष लगभगनी बनेली मानेछे. त्यारे मुसल्मानो सेथी विशेषवर्ष कहेछे. ब्रह्मा जगत्कर्तावादी तेथी भिन्न रीते कहेछे. शक्तिपंथवान तेथी भिमपणुं स्वीकारेछे. आर्यसमाजीओ जगत् अनादिछे श्म
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( ३५८ )
वाद.
मानीने पुनः जगत्नो बनावनार ईश्वर सर्वथी भिन्नरीत्या कथेछे, स्त्रीस्ति मुसल्मान अने हिंदुओ जगत्नो बनावनार भिन्न भिन्न स्वी कारेछे, सर्व पोतपोतावा पक्षने सत्य मानी अन्यपक्षनुं खंडन करेछे: मुसलमानो पूनर्जन्म स्वीकारता नथी. पशुपंखीमां खुदानीरु (जीव ) छेएम माने छे त्यारे स्त्रीस्तिधर्मवाळाओ तो पुनर्जन्म मानता नथी. तेमज पशुपंखीमां आत्मा नथी एम मानेछे, पशुपंखीने मार्याम स्त्रीस्तियो दोष मानता नथी. हिंदुधर्म पाळनाराओ पुनर्जन्म माने छे. तेमज पशुपंखीमां आत्मा मानेछे अने पशुपंखी मार्यामां पाप गरेछे, जैनधर्म पाळनाराओ पुनर्जन्म मानेछे अने एकेन्द्रियादिक सर्व जीवोनी दया पाळवी तेने मुख्य धर्म स्वीकारेछे. हिंदुओमां वेटलाक वेदन बनावनार ईश्वरछे एम मानेछे. त्यारे वेटलाक कहे छेके वेदनो बनावनार कोइ नथी एम पौरुषेय अने अपौरुषेयनो विवाद चाली रह्योछे. वेटलाक हिंदुओ कर्मकाण्डने मुख्यधर्मः तरीके गणेछे. त्यारे amra ज्ञानकाण्डने मुख्य गणेछे. वेदमाननाराओ पैकी केटलाक जगत् स्वप्न समान भ्रांतिरूप मानी तेनो कर्ता ईश्वरछे एम मानता नथी. त्यारे वेटलाक जगत्नो कर्ता ईश्वरछे एम मानेछे. ज्ञानकाण्डमा पण अद्वैतवाद माननाराओ जगत् अनादि मानेछे, अर्थात् तेनो बनावनार कोइ मानता नथी. जे वस्तुनी आदि नथी अर्थात अनादिछे तेनो वनावनार कोइ नथी. जेनो कोइ बनावनारछे ते वस्तु अनादि कहेवाती नथी. ज्यारे जगत् अनादिकालथी छे एम मान्युं तो ईश्वर कर्तृत्ववाद रहेतो नथी. वेद पश्चात् उपनिषदो बनी एम मानवामा वेछे पश्चात् व्यासऋषि तेमणे तथा भगवद्गीता तथा अष्टादश पुराण बनाव्यां एवं केचित् मानेछे. आर्यसमाजीओ अठार पुराण व्यासजीनां बनावेलां मानता नथी. आधुनिक बनेलां मानेछे. एम पुराणो संबंधी चर्चा चाली रहीछे. सना
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परमात्मदर्शन
( ३५९ )
तनपक्षवाळा तथा आर्यसमाजीओने भगवद्गीता मान्यछे. तेमां पण केटलाक लोको प्रक्षिप्त भगवद्गीतामांछे एम आर्यसमाजी भो मानेछे. भगवद्गीतामां पण ईश्वर जीवोने सुख दुःखनो न्याय आपतो नथी. एवं मान्छे. तथा जगत्कर्तापणुं ईश्वरमां नथी एवं स्वीकार्य है. शिष्य- हे सद्गुरो भगवद्गीताना कया अध्यायम तेम दर्शाव्छे
ते जणावशो
सद्गुरु-स्वच्छ चित्तथी श्रवण कर.
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भगवद्गीता अध्याय पंचम १४ चर्तुदश श्लोक ॥ श्लोक.
11:28 11
न कर्तृत्वं न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभुः न कर्मफल संयोगं, स्वभावस्तु प्रवर्तते नाद कस्यचित् पापं नचैव सुकृतं विभुः अज्ञानेनाssवृतं ज्ञानं, तेन मुह्यन्ति जंतवः ॥ १५ ॥
"
प्रभु ईश्वर परमात्मा लोकनां कर्मोने बनावता नथी तथा लोकनुं ( जगत् नुं ) कर्तृख पण ईश्वरमां नथी. अर्थात् दुनियाने ईश्वर परमात्मा रचता नथी. तेमज जीवोने पुण्य पापनो संयोग कराबनार ईश्वर नथी. तेमज पुण्यपापनुं फल आपनार पण ईश्वर नथी त्यारे जगत् कर्म विगेरेनुं शुं समजनुं तेना प्रत्युत्तरमां जणावेछे के जीवोने कर्मना स्वभावथी सुखदुःख थया करेछे. जगत् अनादिकालथी के एम रेनो स्वभावछे. जेवां जीवो कर्म करेछे तेवां फल स्वभाव प्रमाणे भोगवेछे. ईश्वरने तेमां लेवा देवा नथी. तेम छतां जीवो ईश्वरने कर्त्ता मानी मुंझायछे. पन्नरमा श्लोकमा स्पष्ट जणावे छेके. ईश्वर कोइनां पाप पुण्य ग्रहण करतो नथी कोइ जीवे पाप कर्यु होयतो ते टाळवा समर्थ नथी. उपनिषद्मां कछे के
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कर्तृत्ववाद निराकरण.
श्लोक. कृत कर्मक्षयो नास्ति, कल्पकोटीशतैरपि; अवश्यमेव भोक्तव्यं, कृतं कर्म शुभाशुभं. ॥१॥
कोटी कल्पशते पण पुण्य पापरूप जे कर्म कर्याछे ते भोगगव्या विना छुटको नथी. त्यारे ईश्वर जीवोनुं पाप पोते शी रीते ग्रहण करे, ईश्वर जीवोना पापपुण्य लेतो नथी. जीवो शुभ कर्म अने अशुभ कर्म करी स्वयं कर्मना उदयथी तेनुं फल भोगवेछे, ईश्वर पेदा करेछे. ईश्वर संहरेछे एम अज्ञानथी आच्छादित दृष्टिवाला जीवो मानीने मुंझायछे, जगत् कर्ता ईश्वर आ प्रमाणे जोतां सिद्ध थतो नथी. अन्यत्र पण भगवद्गीतामां ईश्वर अने प्रकृति (जगत् ) अनादिकालथी छे एम कयुछे ज्यारे बे अनादिकालथी छे त्यारे प्रकृतिनो कर्ता ईश्वर शी रीते सिद्ध ठरेः अर्थात् सिद्ध . रतो नथी. तत् पाठः भगवद्गीता अध्याय १३ त्रयोदश
श्लोक. प्रकृति पुरुषं चैव, विद्धयनादी उभावपि; विकाशंश्चगुणांश्चैव, विद्धि प्रकृतिसंभवान् ॥ १९॥
पुरुष (परमात्मा ) प्रकृति ( जगत् आवे अनादिकाळथीछे एम जाण. सत्व रजो अने तमोगुण तथा विकारो प्रकृतिज छे एम जाण आ उपरथी पण सिद्ध थायछे के अनादिकालथी आत्मा अने कर्मछे. तेम जगत् पण अनादिकाळथी छे. अद्वैतवादी ब्रह्मसत्यं जगत् मिथ्या एक अद्वितीय ब्रह्मज मानेछे. ते जमत्नो कर्ता इश्वर अन्य मानतो नथी आ जगत् देखायछे ते भ्रांति मात्रछे. त्यारे तेनो बनावनार ईश्वर केम कहेवायः एम अद्वैतवादियो मानेछे. जैनदर्शन जगत्ने जगत् स्वरुपे सत् मानेछे. पण जगत् अनादिथीछे. सत्यात्
अन्यमिथ्या एक अद्वितीय अनादिकाळयी छे.
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परमात्मदर्शन."
सत्पणाथी जे वस्तु सत् होय? ते अनादिथी छे. जेम षड्द्रव्य. जिनदर्शनमा षड्द्रव्य सत्छे. हवे मूळ विषय जगत् कर्ता ईश्वर सं. बंधी निराकरणनोछे. वेदांत ग्रंथाधारे जोता पण केटलेक स्थाने ईश्वर कर्तृत्व स्वीकार्युछे. अने केटलेक ठेकाणे जगत्नो बनावनार इधर नथी एम स्वीकार्युछे. अन्य दर्शनपण जिन दर्शनना सिद्धा. सनो केटलाफ अंशे अनुसरेछे. हवे जिनदर्शनमां जगत्कर्तृत्व ईश्वर संबंधी केवी मान्यता छे ते बतावेछे.
" दुहा." ईश्वरना बे भेदछे, जीव सिद्ध बे जाण; का निज निज कर्मना, जीवो मनमांआण ॥१६॥ निजने सुखदुःख आपतो, जीवज करी नवकर्म; कर्ता भोक्ता जीवछे, ईश्वर कर्ता मर्म. ॥१६९॥ चेतन ईश्वर जाणीए, नय व्यवहार प्रमाण अशुद्ध नय ईश्वर कथ्यो, सापेक्षा मन आण. ॥१७॥ का परपरिणामथी, चेतन ईश्वर जोय; शुद्ध निश्चय नयथकी, कर्म करे नहि सोय. ॥१७१|| सुख कर्ता निज भावथी, दुःख कर्ता परभाव; परपरिणतिना नाशथी, कर्ता निजगुण दावः ॥१७२॥ सापेक्षा समजे नहीं, पक्ष ग्रहे एकात; ईश्वर का मानता, निरपेक्षाथी भ्रान्त, ॥१७३॥ कर्म मेल जेने नहीं, निराकार भगवान कयु प्रयोजन इशने, कर निश्चयथी ज्ञान- ॥१७॥
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(a)
सापेक्षा ईश्वर कर्तृत्व.
॥१७५॥
परमप्रभु शिव सिमां, इच्छा नहीं अभिमान; शुं तें कर्त्ता सृष्टिनो, माने भूली भान.. उपादान जेवुं अहो, तादृश कार्य कहाय; निराकार ईश्वरथकी, जडसृष्टि न श्चाय. उपादान कारणथकी, जाणो कार्य अभेद; उपादान ईश्वर कहों, सृष्टिरूप ते खेद. निमित्त हेतु इशजो, उत्पत्तिमां होय; ईश्वरशक्ति नित्यके, अनित्यते अवलोय. ॥ ९७८म उपादान कारण विना, निमित्तथी शुं धाय; उपादान कोने कहो, ज्ञाने सत्य जणाय ॥१७९३॥ कार्य पूर्व तो दोयछे, कारणनो सद्भाव; उपादान कारण विना, बने न एह बनाव. ॥१८०॥ उपादानथी भिन्नछे, निमित्त कारण भाइ; भिन्न भिन्न शक्तितणी, क्यांथी एक सगाइ ॥९८२॥ सृष्टितुं कारण कदा, ईश्वर नहीं कल्पाय; नाह तो रासभ पण कहो, सद्युक्तिघर न्याय ॥१८२॥ पृथ्व्यादिक परमाणुओ, ग्रही सृष्टि निर्माय Parti यदि मानीए, चेतन क्यांची आय. ॥१८३॥ परमाणु समुदायथी, जडनुं कार्यज थाय; चेतन तेथी भिन्नळे, अरणि वन्हि न्याय,
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॥१७६॥
॥ १७७॥
९८४
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परमात्म
॥ १८९॥
पुङ्गल द्रव्य अनादिछे, तथा जीव पण जाण; नियथी वे भिन्नछे, भिनशक्ति पण आण ॥१८५॥ जडमां चेतन परिणमे, जाणो नय व्यवहार; rantara ज्ञान वण, लहो न सम्यक्सार. ॥१८६॥ काल अनादि द्रव्य षट् कर्त्ता ईश्वर केम; ईश्वरशक्ति नित्यवा, अनित्य शुं त्यां एम. ॥१८७॥ कर्तृत्वशक्ति नित्य तो, नित्य जगत् निर्माय, कर्त्ता शक्ति अनित्य तो, क्षणमां विणशी जाय ॥१८८॥ कर्तृत्वशक्ति यादृशी, तादृश कार्यज थायः चित्यानित्य विकल्पथी, बे पक्षे दूषाय. ईश्वर साकारी कहो, तोपण दोषित याय, पूर्वापर विचारतां, दोषो बहुला आय. नैयायिकवादी कहे, कर्ता ईश्वर सत्यः पण मुक्तिथी लेखतां, लागे तेह असत्य. ईश्वर इच्छाथी कदा, सृष्टि नहीं निर्माय; निमित्त इच्छा जो कहो, केम स्वभाव न थाय. ॥१९३॥ का विनिगमनात्यां लहो, करो कदाग्रह दूर; स्वभावयुक्तिथी ग्रहो, तो नहि दोष जरूर ॥१९६॥ उपादान मध्ये रही, तिरोभाव जे शक्ति, तेवी आविर्भावता, परिपूर्ण निजव्यक्ति ९९
॥ १९०॥
()
॥१९
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(३५०)
ईश्वरजगत्कर्तृत्वनिराकरण,
शुद्धशक्तिछे वस्तुमां, वर्ते काल अनादि, आविर्भाव कराववा, निमित्तहेतु उपाधि ॥९९५॥ आविर्भाव जे धर्मनो कार्यरूप ते थायः
॥१९७॥
घटनुं कारण मृत्तिका, अनन्य कार्य काय. ॥१९६॥ घटनो नाश कर्याथकी, होय न कारण नाश; कारण नित्यपणे रहे, मृत्तिकारूप खास . काल स्वभावने नियति, कर्म उद्यम ए. पञ्च कार्य प्रति कारण सदा, धरो न मनमां खं• ॥१९८॥ राग दोष जेने नथी, ते ईश्वर कहेवाय; तेने इच्छा जो कहो, तो ईश्वरता जाय
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कृत्य कृत्य ईश्वर थया, तेथी शुं इच्छाय; इच्छा ज्यां त्यां रागद्वेष, रागदोष दुःख पाय. ॥ २००॥ रागदोष सहचारिणी, इच्छा भवनुं मल; ईश्वरने इच्छा कहो, ददा मोह प्रतिकूलइच्छा नहीं त्यां सुखशुं कदेशे जन जो कोय; शर्म अनंतु समाधिमा, इच्छा त्यां नहि होय. ॥ २०२ ॥ जडवस्तुज ईश्वरथकी. बने नहि कोइ काल;
॥२०१॥
जड़ स्वभाव न इशर्मा, घर मनमांहि ख्याल. || २०३ ॥ ईश्वर शक्ति अनन्तछे, जडनी शक्तिज लेश; सृष्टि बने इशथी, युक्ति लहो ए बेश ॥ २०३ ॥
*
॥ १९९॥
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परमात्मदर्शन. ईश्वर कर्ता वादिनु, वदवू युक्ति हीन; जड.ईश्वरना धर्म बे, वर्ते निशदिन भिन्नः ॥२०५॥ भिन्न धर्म बेना सदा, भिन्नधर्मी पण दोय; निराकार साकार एक, रूपी अरूपी जोय. ॥२०६॥ चेतन शक्ति अनन्त छे, पुद्गलशक्ति अनन्त; वेतनशक्ति ज्ञातृता, जडता पुद्गलतंत. ॥२०७॥ निजस्वभावे शक्ति त्यां, कोइ नही परतंत्र; निश्चयनयथी जाणीए, ज्ञानी एम वदंत. ॥२०॥ अनन्त शक्ति अस्तिता, निज द्रव्ये वर्ताय% पर अपेक्षाए ग्रही, नास्तिता एम थाय.. ॥२०९॥ अनन्त शक्ति अस्तिता, नास्तिताज अवलोय; पदव्ये व्यापी सदा, निश्चयथी ए जोय. ॥२१॥ चेतनथी जड जो बने, तो खरशृंग जणाय; स्वम सुखलडी सत्यरूप, सत्य विचारो न्याय.॥२१॥ अनन्त शक्ति इशनी, ईश्वरमांहि समाय;, कूपनी छाया कूपमा, तद्वत् जाणो न्यायः ॥२१२॥ जडनी शक्ति अनन्त छे, पुद्ग्रल धर्मे जोय; वर्णादिक तेमा रह्या, अन्य न कर्ता कोयः ॥२३॥ आत्मापेक्षाथी अहो, जडनी शक्तिज लेश; सापेक्षा अवबोधीने, लहो न मनमां क्लेश..॥२१॥
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(२९९ )
ईश्वरकरकिरण.
तालपूट विष लेशथी, दस्ती प्राण हणाय; निमिजना धर्मे वहुं, अनेकान्तमतन्याय. ॥२१५ ईश्वरथी सृष्टि बने, कदी नहीं कहेवाय; समज समजे सानमां, सद्युक्ति मन लाय ॥ २१६ ॥ जीव कहो चेतन कहो, अर्थ एकनो एक; ईश्वरसम ले आतमा, कर्त्ता इश न टेक ॥११७॥ लक्ष चोराशी योनिमां, अटता जीव अनन्त; कर्माष्टकना योगथी, पामे दुःख अनन्त ॥११८॥ काल अनादिथी ग्रही, जीवे कर्मनी राश; बांधे छोडे कर्मने, करतो परनी आश. भवितव्यतायोगथी, थावे कर्म विनाशअविचल आत्मस्वरूपनो, सहेजे थाय विकास ॥१२०॥ इशु विभु परब्रह्म छे, परमेश्वर सुखधाम; सोऽहं सोऽहं पद लब्धुं तेने करूं प्रणाम. ॥१२१॥ जीवो कर्म क्षपणथकी, अनन्त ईश्वर वाय; एकानेक सिद्धात्मनी, ज्ञानी कुंची पायः ॥ २२२॥ कर्म खप्याथी सारिखा, समजे ज्ञानी विवेक; व्यक्ति स्वरूपे भिन्नता, गुणव्यपेक्षा एक. ॥२२३॥ रागदोष जेने नथी, नहि रमता परभाव; अवन्त्व आत्मस्वरूपमा, रमता शुद्ध स्वभाव ॥११४॥
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॥११९॥
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परम प्रभुसम ध्यानथी, स्वकीय चेतन धार ध्याता ध्याने ध्येयरूप, सिद्ध बुद्ध निर्धार. ॥५५|| ताहकू ईश्वर सिद्धने, वन्दु वार हजार; तेना सम्बर ज्ञानची, लहिये भवजलपार ६|| सम्यग् ज्ञानक्रियाथकी, मोक्ष न होय परोक्ष;
आत्मज्ञान ध्यानादिथी, त्वरित पामो मोक्ष. ॥१७॥ . भावार्थ-परना.बे भेदखे. अष्टकर्मसहित संसारिजीब से पान अपेक्षाए ईश्वरछे, अष्टकर्मनो संपूर्ण नाश करी जे मुक्ति पायाने सिद परमात्मा ईश्वर कहेवायछे, जीवो कर्मरूप सृष्टिना का पर परिणतियोगे जाणवा, शाता अने अशाता बेदनीय कर्म ही भा. स्मान पोसाने सुख दुःख आपेछे. कर्मष्ठिनो कर्ता तथा सेनी भोका नीषरूप ईकर जाणवो. जीवरूप ईश्वर संसारिकवस्थामा कमहिनो कर्म जाणवो. सृष्टिकर्तृत्व जीवरुष ईश्वरवे परभाव हमपानी अाए घटेछे एक रहस्य अनुभेक्षा करवा योग्यछे. पीपल्प पर, कर्यरूप सृष्टिनो का व्यवहारनयथी जाणवो. अशुद्धनयथी जीवरूप ईश्वर परवस्तुनो कर्ता निमित्तपणे जाणवो. हे भव्य आवी अपेक्षाथी ईश्वर कर्तृत्वरहस्य हृदयमा धारण कर. भुव निधनषधी कर्मरूप सृष्टिनो कर्चा ईश्वर नथी. अत्मिक साल मुखनो का अशुद्ध स्वभावथी आत्माछे. दुसनो कई पस्वभावधी आत्माछे.ज्यारे संपूर्ण अशुद्ध परिणति (परपरिषति) मो आत्मध्यानधी नाश थायछे त्यारे आत्माना अनंताणको आस्मा स्वयं कर्ता थापछे.
भन्यो सापेक्षता समजता नथी. अने एकांत प्राण
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वर भगत् कर्तृत्व निराकरण
करेछे ते शुद्ध परमात्मारूप ईश्वरने जडवस्तुनो कर्ता मानी भ्रांतिमा पडेछे. कर्मरूप मलिनता जेनामां नथी एवा सिद्धबुद्ध परमास्माने भुं प्रयोजनछे के सृष्टिनी रचना करे. हे भव्य पक्षपात त्यंनी माध्यस्थ दृष्टियी अवबोध.
. परमप्रभु, परमब्रह्मरूप ईश्वरमा रजोगुण, तमो गुणादि नथी. इच्छा नथी, अभिमान नथी, वेदांतमा पण कडूंछ के-न च स पुनरावर्तते मुक्तिमा गएला आत्माओ शुदबुद्ध थइ पश्चात् संसारमा जन्म लेता नथी. रागद्वेषरहित सिद्ध (ईश्वर) जइसृष्टिनो कर्ता कदा बनी शकतो नथी. जइसृष्टि रचवानो सिद्धबुद्धमां स्व. भाष नथी ते माटे. प्रश्न-सिद्ध परमात्मा जडसृष्टिना की नथी मानता त्यारे अन्य
कोइ सृष्टिना की छे के नहीं.. उत्तर-सिद्ध परमात्मा-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य; मुख आदि
आत्माना अनंत शुद्ध गुणरूप सृष्टिना कर्ताछे. क्षायिकमावे आत्माना शुध्धरूप सृष्टिना कर्त्ता सादि अनंतमा भंगेछे. प. रमाणु आदि जडसृष्टित्व स्वभावना बीलकुल कर्ता नथी. जे
आत्माना शुध्ध क्षायिक धर्मना कर्ता थया ते कर्मरूप सृष्टिना कर्ता की थता नथी. माटे विवेकदृष्टिथी भव्यात्मन् सत्यतत्त्व विचार,
याक् उपादान कारण होयछे तादृक् कार्यनी उत्पत्ति थायछे; जेम मृत्तिकारूप उपादान कारण जेवू होयछे तेवू घटरूप कार्य बनेछ. उपादान कारण कार्यरूप बनेछे. घटकार्यमां कुंभकार निमित्त कारणछे. घटरूप कार्यमां उपादानकारण मृत्तिकाछे. अने निमित्तकारण कुंभकार. दंडचक्र वगेरेछे. तेम जो कर्मरहित परमात्माए जगत् बनाव्यु एम कोइ माने तो तेमां उपादान अने निमित्त
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परमात्मदर्शन.
( ३६९ )
कारण कोण ? निराकार ईश्वरने जगतनुं उपादान कारण मानतां जगत् रूप ईश्वर बन्यो. ए पण महादूषण आवे छे. सिध्धान्त एवो छे के निराकारथी साकारनी उत्पत्ति थती नथी. माटे निराकारथी जडसृष्टि रचाती नथी एम सिध्ध ठरेछे.
वळी नियम एवोछे के उपादान कारणथी कार्यनो अभेदछे, जेम मृत्तिकारूप उपादानथी घटरूप कार्यनों अभेदछे. मृत्तिकाथी घट भिन्न नथी. तेवीज रीतिथी निराकार ईश्वरथी जड सृष्टि मानवामां आवे तो जगत् रूपज ईश्वर बन्यो, सृष्टिरूप कार्यथी ईश्वरनो अभेद थयो माटे जडसृष्टिरूप ईश्वर मानवामां आवे तो अनेक दू षणरूप खेदनी प्राप्ति थायछे,
सृष्टिकार्यमा ईश्वरने निमित्त हेतु मानतां वे विकल्प उत्पन्न थायछे, ईश्वरनी शक्ति नित्यछे के अनित्यछे ? उपादान कारण विना फक्त निमितकारणथी कोइ कार्य बनतुं नथी. कार्यनी पूर्वे उपादान तथा निमित्तनो सद्भावछे. उपादान विना निमित्तभूत ईश्वरथी सृष्टिरूप कार्य बनी शके नहीं, ईश्वरनी इच्छा निमित्त हेतु कोइ माने तो ते पण योग्य नथी, कारण के ईश्वरनेइच्छा होती नथी. अपूर्णने इच्छा होयछे. कृतकृत्य परमात्माने अंशमात्र पण इच्छा होती नथी. प्रमाण युक्ति अनुभवथी विरूद्ध सृष्टिहेतु ईश्वर कल्पातो नथी. तेम ari यदि ईश्वर मानवामां आवे तो रासभने केम मानवामां न आवे ? पृथिवी आदि परमाणुओनुं ग्रहण करीने ईश्वर सृष्टि रचेछे एम जो मानवामां आवे तो जीवो क्यांथी आव्या. जीवो अनादिकालनाछे एम कहेवामां आवे तो सृष्टिपण अनादिकालथीछे एवं केम मानता नथी. अनादिकालना जीवो सृष्टि विना अन्यत्र रही शकता नथी माटे सृष्टि पण अनादिकालथी छे एम स्पष्ट भासेछें. परमाणुओना कार्यथी चेतन (आत्मा) भिन्नछे माटे अरणिमां वन्हि रहेछे तेवी रीते आत्मा
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vvvA
(२०) ईश्वर कर्तृत्ववाद निराकरण पण देहमा रहेछे पण पंचभूतथी भिन्नछे. जड अने चेतन एबे वस्तु आ प्रमाणे विचारतां अनादिकालथी छे एम सिद्ध थायछे. जीव अने. जडनी परस्पर शक्तियो पण भिन्नछे. जडवस्तुमा चेतन कर्मनावशे परिणमेछे ते व्यवहारनयथी जाणवू. निश्चयथी जडमां चेतन परिणमतो. नथी, आ प्रमाणे अनेकान्तनयज्ञान थया विना तत्त्वजें यथार्थ भासन थतुं नथी.
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल अने जीव एम षड्द्रव्यथी जगत् कहेवायछे. अनादिकालथी षद्रव्यछे. ते षड्द्रव्य, द्रव्यार्थिकनयथी नित्यछे अने पर्यायाथिकनयथी अनित्यछे. ते षड्द्रव्यथी भिन्न कोइ वस्तु नथी. तो षड्द्रव्यनो कर्त्ता ईश्वर केम मानी शकाय. अर्थात् न मानी शकाय. हवे के विकल्प करवामां आवेछे. जगत्कर्तृत्व शक्ति ईश्वरमां नित्य छे के अनित्यछे ? जगत्कर्तृत शक्ति नित्य मानवामां आवे तो ईश्वर सदाकाल जगत् बनान्या करशे. एवं महादोष आवेछे, तेमज जगत्कर्टल शक्ति अनित्य मानवामां आवे तो जगतत्व शक्ति क्षणमा अनित्य होवाथी विणशी जतां सृष्टि पण क्षणमां नाश पामी जाय. पण तेम प्रत्यक्ष अनुभव विरूद्धछे मोटे बे पक्षथी ईश्वरशक्ति जगत् कर्तृत्वमा सिद्ध थती नथी. एम नित्यानित्य पक्षथी ईश्वरशक्ति
दूर थायछे.
जगत् कर्ता ईश्वरने साकारी मानवामां आवे तो अनेकदोषो उत्पन्न थायछे. साकार ईश्वर एकदेशावस्थित होवायी सर्वत्र सृष्टि पनावी शके नहीं साकारकुंभकारवत् साकारकुंभकारनी पेठे कर्म विना देह होय नहीं. अने देहवडे ईश्वर साकार देवतानी पेठे कहेनाय तो कर्म सहित ठो. सकर्माईश्वर ठरवाथी अन्य जीवोनी पेठे कर्मना परतंत्र रखो, अने स्वतंत्र थयो नहीं. त्यारे ते जगत् बनाव
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परमात्मदर्शन
वामां कथं समर्थ वाय.
नैयायिक कहेछे के सृष्टिनो कर्ता ईश्वर सत्य छे पण ते पूर्वोत युक्तिथी विचारतां सत्य नथी. ईश्वरनी इच्छाथी जगत् उत्पन्न थयुं एम मानवामां आवे तो अनादिकाली जड अने चेतन ये पदार्थ छे. एम अनादिस्वभाव केम न मानवामां आवे, अर्थात् त्यां एकत्र पक्षपातिनी युक्ति कइ छ के अनादिकालनो स्वभाव न मानवामां आवे अने इच्छाज मानवामां आवे. इच्छा मोहरूप छे. ईश्वरने इच्छा कहोतो साधारण मनुष्यनी पेठे ईश्वर पण मोही ठयों त्यारे तेनुं ईश्वरपणुं रहेतुं नशी. माटे ईश्वरनामा इच्छा मानवी ते शसशृंगवत् असत्य छे. आत्मानी परमात्मदशामा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, सुखादि गुणो उपादान कारणछे. तेनो परिपूर्ण आवि
र्भाव तेज परमात्मपणुं जाणवू. अनन्तधर्मनी शुद्धि प्रगटाववा निमित्त हेतुनी जरूरछे, आत्माना धर्मनो आविर्भाव तेज कार्य जाणवू. घटन कारण जेम मृत्तिका अनन्य कारण कहेवायछे तेम परमात्म दशारूप कार्यमां ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप अनन्य कारण उपादानछे. घटनो नाश थवाथी मृत्तिकानो नाश थतो नथी. अर्थात् कारण सदाकाल वर्तेछे. अत्र काल, स्वभाव, नियति, कर्म, अने उद्यम पंच कारणथी कार्योत्पत्ति थायछे. पंच कारगमाथी एक कारणनी उत्थापना करतां मिथ्यात प्राप्त थायछे. आ बाबतमा लेशमात्र पण शंका करवी योग्य नथी.
राग अने द्वेषनो सर्वथा जेणे क्षय कर्योछे ते ईश्वर परमात्मा कहेवायछे. एवा शुद्ध परमात्माने जो इच्छा कहेवामां आवे तो ईश्वरतानो नाश थायछे. सर्व प्रकारनी इच्छानो जेणे नाश कर्णोछे एवा ईश्वरने जगत् करवानी इच्छा क्याथी होय. अलबत कदी होय नहीं, रामद्वेषसहचारिणी इच्छाज संसारनुं मूलछे. अने तेकीइच्छा
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( ३७१ )
ईश्वर. कर्तृत्व निराकरण,
ईश्वरने कवी ते मोहवेष्टित जाणवुं. अहो अज्ञाननी केदली शक्ति.
कोइ एम कहे के - ज्यां इच्छा नथी त्यां शुं सुख ? अलबत कंड नहीं. आवी रीते बोलनारे समजवुं के योगीन्द्रमहात्मा समाधिमां अनन्त सुख वेदेछे, पण ते समये तेने इच्छा नथी माटे इच्छा होय त्यां सुख एवी व्याप्ति घटती नथी.
etase कदापि ईश्वरथी बनी शके नहीं. ईश्वरमा जडस्वभाव नथी. जडवस्तुनो कर्त्ता वान्याय आपनार ईश्वर नथी. हे भव्य हृदयमां अवधार.
कोइ एम कशे के - ईश्वरनी शक्ति अनन्तछे अने जडपदार्थनी शक्ति अल्पछे माटे ईश्वरथी सृष्टि बनेछे. आ युक्ति पण बेश नथी ते जणावेछे. ईश्वरनी शक्ति चैतन्यभावे अनन्तछे तेम जडनी शक्ति asभावे अनन्तछे. ईश्वरना धर्म अनन्तछे जेम जडतत्त्वना धर्म पण अनन्तछे. आत्मा अने जड बे तत्त्व भिन्नधर्मीछे. जडपुद्गल द्रव्य साकारछे अने आत्मतत्त्व निराकारछे. प्रत्येक तत्त्व स्वस्व - भावे स्वतंत्रछे, वस्तुतः कोइ द्रव्य परतंत्र नथी. प्रत्येक द्रव्यमां अनन्त अस्तिधर्म अने परनी अपेक्षाए अनन्तनास्तिधर्म रह्योछे. अस्तिधर्म अने नास्तिकधर्मनी अनन्तता षड्द्रव्यमां व्यापी रहीछे.. अन्य द्रव्यनो कर्त्ता अन्यद्रव्य वस्तुतः नथी.
चेतनथी जो जडनी उत्पत्ति उपादानपणे थाय तो खरशृंगनी पण उत्पत्ति थाय. पण खरने शृंग थतांज नथी ते प्रमाणे ईश्वररूप चैतन्य मूर्तिमांथी जडवस्तु थती नथी. त्यारे ईश्वरमांथी जगत् थयुं एवं प्रलाप करवो ते अंधश्रद्वानी बुद्धि विना अन्य समजातुं नथी. स्व सुखडीथी पेट भराय तो ईश्वरमांथी जडनी उत्पत्ति थाय.
आ प्रमाणे सिद्धांत वदवाथी प्रश्न थशे के अहो ज्यारे परमात्माथी जगत्नी उत्पत्ति थती नथी, त्यारे तेमनी अनन्त शक्ति शा
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परमात्मदर्शन.
( ३७३ )
कामनी ? तेना प्रत्युत्तरमां जणावेछे के-ईश्वरनी ज्ञानादिक अनन्त शक्तियो ईश्वरमा समायछे. कूपनी छाया कूपमां समायछे ते प्रमाणे अत्र न्याय समजवो. जडद्रव्योनी अनन्त शक्ति जडमां व्यापी रहीछे. पुद्गलद्रव्यना वर्णादिकनी शक्ति पुद्गलद्रव्यने त्यजी अन्यत्र जती नथी. मुलद्रव्यनो निश्चयथी अन्यद्रव्य कर्त्ता शीरीते होइ शके,
आत्मद्रव्यनी अपेक्षाए पुद्गलद्रव्यनी शक्ति अल्प गणायछे. पण वस्तुतः जेम आत्मद्रव्यनी आत्मस्वरूपे अनन्ति शक्तिछे तथा पुद्गलद्रव्यनी शक्ति पण तेना स्वरूपे अनन्तछे. सापेक्षा अवबोधतां aiser कारनी हानि आवती नथी. तालपूटविषलेशथी हस्तिना प्राणनो नाश थायछे, एक लेशमात्र तालपुटविषथी हस्तिनो प्राण नाश थाय त्यारे कहोके पुद्गलनी शक्ति केटलीछे: आत्मानी शक्ति अपेक्षाए मोटीछे तेमज पुद्गलनी शक्ति पुद्गलनी अपेक्षाए मोटीछे. आ उपरथी सिद्ध थायले के शुद्धबुद्धपरमात्माथी सृष्टि बनी शके नहीं, माध्यस्थदृष्टिवाळा पुरुषो सहजमां तत्त्व अवबोधी शकेछे. ईश्वर सर्वज्ञ परभावरूप सृष्टिनो कर्त्ता नथी. एवी प्रतिज्ञा युक्तिमतीछे.
चोराशीलक्षजीवयोनिमां जीवो परिभ्रमण करेछे. अज्ञान राग द्वेष प्रयोगे जीव संसारमां परिभ्रमण करेछे. कर्मयीज संसारमां परिभ्रमण थाय छे. कर्या कर्म प्रमाणे सुख दुःख थायछे त्यारे शामाटे हे ईश्वर में मने दुःख आप्युं एम असत् वदवुं जोइए. अनादिकालथी जीवनी साये कर्मनो संबंधछे. भावकर्म रागद्वेपयोगे जीव द्रव्यकर्मने ग्रहण करेछे. तेने भोगवी विखेरेछे.. पञ्चकारणनी सामग्री मळे त्यारे कर्मनो नाश थायछे. कर्म नाश थतां अविचल आत्म स्वरूपनो सहेजे विकाश थायछे.
इशु, विभु, परमब्रह्म, परमेश्वर, सुखधाम ब्रह्मनी स्थिति शुद्ध
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( ३७४) भावमा वर्तेछे. परभावमां न्याय माटे पण प्रवर्तती नथी. सोऽहं सोऽहं पद प्राप्त कर्यु तेने हुं प्रणाम करु . परमात्मपदने सोऽहंपद कहेछे. सोऽहंपदनुं ध्यान धर्यायी परमात्मपद मळेछे. जे जे जीवो कर्मनो नाश करेछे ते ते जीवो परमात्माओ थायछे. सिद्धस्थानमा एक सिद्धछे तेम अनेक सिद्ध परमात्माओछे. संपूर्ण कर्मक्षयथी मुक्तिस्थानमा सर्वे सिद्धात्माओ समानछे. ज्ञाननी अपेक्षाए व्यापकछे असंख्य प्रदेशरूप व्यक्तिनी अपेक्षाए व्याप्यछे. शंकराचार्य तथा उपनिषदोनी केटलीक अपेक्षाए आत्मानुं व्यापकपणुं जैनमत अंगीकार करेछे. तेमज रामानुजमतापेक्षाए आत्मानुं व्याप्यपणुं पण जैनमतमा समाइ जायछे. व्यक्तिनी अपेक्षाए सिद्धात्माओ भिन्न भिन्न छे अने ज्ञानादिक गुणनी अपेक्षाए एकरूप (एक) छे.
जे सिद्ध परमात्माओने रागद्वेष नथी. परभावमा रमण करता नथी. आत्माना ज्ञानादिक अनन्त गुणमा जे समये समये रम्या करेछे. एवा परमप्रभुना ध्यानथी आत्मा पण परमात्मा थायछे. ध्याता ध्येयना ध्याने स्वशुद्ध ध्येयरूप प्राप्त करेछे. परमशुद्धपरमात्माने वारंवार नमस्कार करु . परमात्माना सम्यग्ज्ञानथी अज्ञानादि दुःखनो नाश थायछे. सम्यग् ज्ञानथी सहज शुद्ध स्वरूप मय चिदानन्द समुद्रनी ल्हेरो प्रगटेछे. सम्यग् ज्ञान क्रियाथी मुक्ति परोक्ष नथी. अर्थात् मुक्ति प्रत्यक्षछे. मुक्तदशा जे जे अंशे थायछे ते ते अंशे मुक्तिनां सुख प्रगटेछे. केटलाक अद्वैतवादियो अद्वैतवादनुं गुरुगम यथार्थ स्वरूप न समजवाथी ब्रह्ममाथी सृष्टि उत्पन्न थइछे अने ब्रह्ममा समाइ जायछे, इत्यादि एकांतवाद स्वीकारीने भूल करेछे. जैनदर्शन अपेक्षाए. अद्वैतब्रह्मवाद स्वीकारेछे पण जे नयोनी सापेक्षा विना ब्रह्म मानी भूलो साये करेछे ते संबंधी कंइक कहेवामां आवेछे.
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परमात्मदर्शन
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" दोहा. "
ब्रह्मथकी सृष्टि बनी, सहु छ ब्रह्म स्वरूप; व्यापक ते सर्वत्र छे, चिदानन्द गुणरूप. मायाना बहु जोरथी, भूल्यो ब्रह्मनुं भान; एकरूप सर्वत्र छं, अद्वैतवादि ज्ञान. शुद्ध ब्रह्मना अंश छे, जीव अनन्ता लेख; परमात्ममांहि ते भळे, द्वैतपणे नवि देखअद्वैतवादि वचन छे, माने ब्रह्मनुंज्ञान; द्वैतपणुं माने नहीं, ब्रह्मध्यान मस्तान. नहि सत्यने ढांकीये, सत्य न ढांक्युं जाय; छाबडीए रवि ढांकतां, कदी नहीं ढकाय. जड चेतनता भेदथी, द्वैतपणुं प्रगटायः
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१३७५)
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२२८
२२९.
२३०
२३१
कथं एक हि आतमा सुख दुःख विघटाय २३३ जडतारूपे जड अहो, जडनो कदा न नाश;
२३२
२३५
असत् कहो शा कारण, ज्ञानी बहु शाबाश. २३४ जीवाजीव बे तव छे, ज्ञाने दोय जणाय; मिथ्या एक ग्रहे मुधा, सम्यक् धर्म न थाय ज्ञानी ज्ञानथकी ग्रहे, वस्तु सत्य स्वरूप; द्वैतपणुं अंगीकरे, पडे न भवजल कूप. एक एव दि आतमा, भूते तेह जणाय; जले प्रतिबिम्ब चन्द्रनुं, तद्वत् जाणो न्याय.
२३६
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(३७६
ब्रह्मवाद निराकरण.
सत्ताने अंगीकरी, माने अद्वैत एम; संग्रहनय एकान्तथी, तरे भवोदधि केम. २३८ प्रथम विषम दृष्टान्तथी, साध्यसिद्धि शुं थाय; प्रतिबिम्बरूपितj, अरूपि शं ते पाय. २३९ प्रतिबिम्ब पुदगलतणु, जल चन्द्रे दृष्टान्त; जीव अरूपी वस्तुमां, प्रतिबिम्ब नहि भ्रान्त. २४० प्रतिबिंबथी जाणशो, प्रतिबिंबक छे भिन्न प्रतिबिंबकना भावथी, प्रतिबिंब छे खिन्नः २४१ प्रतिबिंबित चन्द्रनु, भिन्नपणुं त्यां छेक; कथं साध्यनी सिद्धि छे, छे नहीं चेतन एक. २४२ व्यापक आतम एकनु, अंशपणुं नहीं होय; भिन्न भिन्न जीवांशथी, आतम एक न जोय. २४३ आतम एकथी सर्वने, शर्म दुःख समकाल; सुख दुःख आच्छादक कहो, दैतपणुं त्यां भाळ.२४४ घटाकाश उपाधिथी, ग्रहो गगननो भेद; तेवी उपाधि अत्र नहीं, सुख दुःख वारक वेद.२४५ समकाले सुख दुःखनो, जीवोने प्रतिभासः अधिक न्यून प्राप्तितणो, मळे नहीं अवकाश. २४६ मळे नहीं अवकाश तो, तेनुं कारण कोण; भिन्न भिन्न चेतन विना, घटे नहि कंइ और. २४७
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परमात्मवर्षन,
व्यक्तिथी सहु भिन्न छे, सत्ता ए सहु एक; आत्मतत्त्व अवबोधथी, मानो एकाऽनेक. १४८ सर्वत्रज व्यापक कहो, युक्ति घटे नहि कोइ: सम्मतितर्के जाणशो, कयु विचारी जोइ. २४९ सर्वत्रज व्यापक कहो, पिण्डे किम बंधाय; देहे व्यापी जो कहो, अव्यापक पद पाय. १५० व्यापक नहि बंधाय छे, गगन पङ्कनी पेर; सर्वत्र सुख दुःखनी, प्राप्तितणुं छे झेर. सर्वत्र व्यापक कहो, कदा नहीं बंधाय; मानो तो छ अझता, सद्युक्ति न जणाय. १५१ अव्यापक छे आतमा, तेमां नहीं संदेह; व्याप्यने व्यापक बोधथी, थाशो निःसंदेह. १५३ शैलेशीकरणे करी, व्यापक आतम लोक; असंख्य शुद्ध प्रदेशथी, जाणो भविजन थोक.२५४ अव्यापक व्यापक लहो, चेतन गुणनी खाण; अनेकान्त अवबोधथी, पामो शिवपुर ठाण. २५५ सादि आदि भंगें करी, व्यापक चेतन जाण; स्थादाद दृष्टि थकी, साचुं मनमां आण..१५५
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( ३७८ )
मावाद निराकरण.
केवलज्ञाने आतमा, व्यापक सहुमां जोय; स्वपर प्रकाशक आतमा, प्रदीप पेठे होय. तिमिरारि प्रगटे तदा, तमनो शो छे भार; ज्ञानदीपक उद्योतथी रहे नदि अंधकार. अद्वैत स्वरूपी आतमा, जडथी भिन्न विचार; द्वैतपणुं पण तेहमां. एक अनेकाधार.
सुंर कोनाथकी, कोनापर ममभाव; मृगजलोपम वस्तुमां, शो ममतानो दाव
.
२५७
अक्षररूपे आतमा, अनक्षर गुणवान; आत्माऽसय प्रदेशमां, स्थिरता शुद्ध वखाण. २६०
नहीं मारु जड वस्तुमां, राचं शुं संसार; शाथी शाने माटे में, लीधो मही अवतार.
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२५८
भास्यो आपोआपमां, टक्युं महा अज्ञान; अपूर्व वीर्यज उल्लस्युं, यदा थयुं निज मान. २६१ जड इन्द्रियो शुं करे, तेनाथी हुं भिन्न; जडस्वरूपे तेह छे, क्षणिक नाशी दीन. मन वाणी मारां नहीं, जडनुं छे ते काज; तेनी संगे राचतां, नहीं रहे मुज लाज.
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परमात्मदर्शन.
फोगट फंदामां पड्यो, जरा न शर्म जणाय; सवळे पन्थे चालतां, मनमां शुं खमचाय. नथी तनु ते तुं सदा, शरीर माटीघाट; पींपळपान परे खरे, चेत चेत ते माट सहुने देखूं ज्ञानथी, सहु म्हाराथी दूर; प्रतिबंध कोनो नहीं, सिंह इव हुं शूर.
( ३७९ )
२६६
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२६७
२६८
रागदोष निन्दा कथा, तेनुं भाग्यं जोर; स्वाभिमुख थइ चेतना, प्रगटयो अनुभव तोर. २६९
शत्रुथी छेदाउ नहीं, नहि शस्त्रे भेदाउ ? शत्रुमित्र सम भावना, भ्रमणा क्यांथी पाउ ? २७० कर्मवशे सहु प्राणिया, भ्रमण करे निर्धार; पुत्र मित्र ललनापणे, सगपणनो आचार. सगपण साधुं नहि कदी, स्वारथियो संसार; जगमां को केनुं नहीं, संवेगे मनधार.
२७१
२७३
२७३
सर्व जीव छे सिद्ध सम, निर्मल अविचल देव; त्रिकरण योगे तेहनी, मित्रभावना सेव. द्रव्यार्थिकथी नित्य छे, कहीं न होवे नाश; असंख्य प्रदेशिन्यतिथी, ध्रुव स्वरूपी खास. १७४
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२७६
(१८०) क्षणिकचेतनवाद निराकरण, पूर्वजन्म अभ्यासथी, जीव नित्यता सिद्ध पाल युवा वृद्धा विषे, ज्ञाता एक प्रसिद्धः २७५ क्षणे क्षणे बदलायतो, चेतन होय अनेक; पाप पुण्य कोने घटे, तेनो करो विवेक. क्षणिक वस्तुना ज्ञानथी, क्षणिक वाद सुजाण, वक्ता क्षणिक नहीं थयो, नित्यरूप मन आण ५७७ कोइक वस्तुनो कदी, केवल नाश न होय. चेतन नाश कह्या थकी, अन्यावस्था जोय. २७८ अन्यावस्था को नहीं, माटे चेतन नित्य. प्रत्यभिज्ञा सुहेतुथी, नित्यज जाणो चित्त.
२७९ पर्याये पलटाय छे, आतमना पर्याय. अनित्य माटे आतमा, अनेकान्तमतन्याय. २८० शुभाशुभ आश्रव ग्रही, धरतो नाना देह. शाताशाता भोगवे, नय व्यवहारे एह. २८१ पुण्य पापना नाशथी, प्रगटे निजगुण भोग. सूर्याच्छादक अभ्रनो, टळे महासंयोग. २८२ कर्मसंग टळ्या थकी, पामे जीव शिवठाण. पुरुषसम परमातमा, सिद्ध बुद्ध भगवान
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परमात्मदर्शन.
ananamannanorammarrammar
૨૮૫
अगम्य आत्मस्वभावर्नु, अवलम्बन करनार. आश्रव त्यागी संवरी, भवोदधि तरनार. २८४ जेने इच्छे योगिजन, अनन्यसुखनुं धाम. नमुं नमुं ते आतमा, अनन्तगुण विश्राम. अवलम्बन शुभ आत्मनु, करतां नाशे दोष, प्रगटे अनुभव ज्योति यां, चेतन वीर्ये पोष. २८६ निजपद जिनपद साम्यता, भेदभावनो नाश. पूर्ण व्यक्तिमय आतमा, राजाने कुण दास. २८७ सर्व सिद्धनी तुल्यता, जीव अनन्ता माय. कोकोने नडता नही, अरूपपद महिमाय. ૨૮૮ विषमज्वरना जोरथी, होय अांचे अन्न. अभव्य आदि जीवने, आत्मरूचि नहिमन. सम्यग् ज्ञान प्रभावथी, बहिरातम पद नाश. अन्तरात्मगुण भावना, प्रगटे शिवपुर वास. २९० परप्रवृत्ति हेतुओ, समूल त्यां छेदाय. अन्तर परमप्रभुपणुं, सहजे उदये आय. हुं कर्ता परभावनो, बुद्धि भवनुं मूल. अन्तरात्मपद योगथी, थाय तेह निर्मल.
२.९२
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भात्मतस्वसाध्यछे.
____ २९३
२९४
(३४१ ) कोटिवर्षतुं स्वप्नपण, जागंतां लय थाय. आत्मज्ञान नद्योतथी, सहजरूप प्रगटाय. चेतनबुद्धि देहमां, जाणो देहाध्यास. छूटे देहाध्यासतो, कर्म कलंक विनाश. कर्ता नहि हुं कर्मनो, भोक्ता नहि हुंतास. शुद्धदशा प्रगटयाथकी, विघटे भवभयवास. २९५ चेतनधर्मे मोक्ष छे, तुंछे मोक्षस्वरूप; . भोगी रत्नत्रयितणो, क्षायिकशिवसुखभूप. २९६ सागरमांहि ल्हेरियो, उपजेने विणशाय; चेतनगुण जे ज्ञान छे, ज्ञेयपणे पलटाय. २९७ शुद्ध बुद्ध निर्मल प्रभु, स्वयंज्योति गुणधाम; चिदानन्द चेतन विभु, अनन्तगुणनुं ठाम. २९८ निश्चय अत्रज आवतां, साक्षर एक स्वरूप. योगत्रिकने संवरी, शिवनगरी :था भूप. २९९ रागादिक महावैरियो, ज्यां तेनो नहि गन्ध; आत्मलक्ष्यवृत्ति थतां, परपरिणति थइ बंध. ३०० देहनिष्ठ पण ध्यानथी, वर्ते देहातीत; वंदन वारंवार तास, त्रियोगे हो नित्य. ३०१
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परमात्मदर्शन,
पुद्गल सुख ते ऐंठवत्, दुनिया स्वप्न समान; शुद्धज्ञान ते आत्मनुं, बाकी वाचा ज्ञान. जेनुं ज्ञान थया थकी, शान्तदशा प्रगटाय; धर्म रह्यो त्या जाणीए, निश्चयथी सुखदाय. ३०३ नैगम संग्रह नय कला, त्रीजो नय व्यवहार; ऋजुत्र चोथो कह्मो, पञ्चमशब्द विचारसमभिरूढ छडो गणो, सप्तम एवंभूतः सप्तनयोथी धर्मरूप, सत्यज प्रगटे युक्त. सातनयोथी वस्तुरूप, परिपूर्ण परस्काय; नय एकान्तकदाग्रहे, मिथ्यात्वी कहेवाय. सातनयोना बोधथी, सम्यकू अनुभव साथ; आत्मतत्त्वने पारखी तरशे भवजल पाथ. ऋजुसूत्र आवेशथी, प्रगटयुं दर्शन बुद्ध; हे एकान्त एकनय, थाय नहि ते शुद्ध. जीवादिक नवतत्वपर, नय साते योजाय; सद्गुरु सेवा योगथी, सहजे ते बोधाय
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( १०३ )
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स्यादस्ति भंगज कह्यो, अनेकान्त मत कंद; अस्तित्व सह वस्तुमां, ज्ञानी एम वदन्त.
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( ३८४ )
अस्ति नास्तिस्वरूप.
स्वद्रव्य स्वक्षेत्री, निजकाले निजभाव; अस्तित्व बहु भंगथी, निजद्रव्ये चित्त लाव. ३११
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in
जीवादिक नवतत्वमां, प्रथमज अस्तिहिभंग; कदी नदि जे वस्तु जग, प्रगटे नहि धरि अंग. ३१२ धर्माधर्माकाशकाल, पुद्गल पंचम जोय; जीवद्रव्य छटुं कां, अस्ति भंग अवलोय.
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भूत भविष्यत् संप्रति, त्रिकाले वर्तायः द्रव्योम जाणिये, अस्तिभंग स्थिरताय - ३१४ समये समये अस्तिता, अनंतगुणनी जाण; चेतनद्रव्ये वर्तती, सिद्धान्ते व्याख्यान.
पुद्गलना पर्याय जे, घटपटरूपे लेख: तदाकारछे अस्तिता, सादि सान्तथी देख
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द्रव्ये द्रव्ये अस्तिता, भिन्न भिन्न कहेवाय; द्रव्यज गुण पर्यायनी, अस्तिताज निजमांय. ३१६
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द्रव्यार्थिक नय जाणिये, अनाद्यनंतज भंग; पुद्गलमां व्यापी रह्यो, सादिसान्त गुण चंग. ३१८ स्यान्नास्ति बीजो कहुं, भंग अति सुखकार; षद्रव्योमां व्यापियो, सापेक्षाये धार.
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परमात्म
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(३०५ )
परद्रव्य परक्षेत्रथी, परकालज परभाव; नास्तिता तेनी सदा, निजमां वर्ते दाव. ग्रही अपेक्षा परतणी, घटे नास्तिता आयः परभावे षद्रव्यमां, नास्तित्व स्थिरताय. परद्रव्योनी, अस्तिता, तेज नास्तिता रूप; प्रणमे निजनिज द्रव्यमां, सापेक्षाए अनुप. पूछे पृच्छक अत्र एम, घटे न वे एक ठाम; तमः तेज प्रतिपक्षिनुं, घटे नं एकज धाम नैकस्मिन् ए सूत्रथी, रहे न वे एकत्र; अस्ति नास्ति एकत्र नदि, भाखो सद्गुरु अत्र ३२४ सापेक्षा सदु घटे, तथा सर्व समजाय; पिता पुत्रत्व एकमां, बन्ने धर्म सुहाय. चेतननुं अस्तित्वते, परमां नास्ति स्वरूप; परमां नास्ति नहीं रहे, विघटे वस्तु अनूप विना अपेक्षा अस्तिता, नास्तिता नहीं जोय; नैकस्मिन् ऐ सूत्रतो, स्याद्वादे अवलोय जे समयेछे अस्तिता, नास्तिपणुं ते काल; एकसमयमा वर्तना, षड्व्योमां भालअस्ति नास्ति त्रीजो को भंग समय सिरताज षद्रव्योमां व्यापियो, जिनदर्शन साम्राज्य
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अस्ति शब्द उच्चारता, समयो बहे असंख्या नास्ति शब्दोचास्मां, तथा कहे भगवंत. ३३० एकज समये अवाच्यछे, कदी न कोइ कहत अवक्तव्यज भंगछे, चोथो सूत्रे लहंत ३३१ अस्तिधर्म अनन्तछेज, वाणी अगोचर थाय; पबमभंग ते उपजे, अनेकान्त शोभायः ३३२ नास्तिधर्म अनन्तता, वस्तुमध्ये रईत; भवाच्य वाणीथी कंह्यो, छटो भंग कहत. ३३३ अस्तिनास्ति बे छे सदा, अवक्तव्य ते होय; सप्तमभंगज सर्वमां, समय समय अवलोय. ३.३४ गुरुगमज्ञानअवाप्तिथी, भंगज सप्त स्वरूप; जाणी आत्मस्वभावमां, अपहरीए भवधूप. ३३५ अतिगहनछे तत्वबोध, विरलाजन समजंत; सजन भवसागर तरे, करी कर्मनो अन्त. ३३६ सप्तभंगीछे सिद्धमां, अनन्तगुणमां जोय; अनेकान्तनय जाणतां, शुद्धं समाकित होय. ३३७ नवतत्त्व षड्व्य नु, सत्यज्ञान जो थाय; तो जाणो ज्ञानिपणं, सहेजे शिवपद पाय. ३३८ समकितादि मोहिनी, तेनो उपशम भाव; क्षयोपशम क्षायिकपणे, प्रगटे समकितदाव. ३३९
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परमात्मन.
nidinannininnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnanimam
निजगुण स्थिरता चरणथी, थाता गुण उद्यौता स्वयंशुद्ध परमातमा, प्रगटे निर्मल ज्योत. ३४० गुणस्थानक स्पर्शन थतां, सहजे गुण प्रगटाय. परिपूर्ण निजव्यक्तिथी, अविचलपदवी पाय. ३४१ षट्स्थानक अवबोधथी, समकित प्रगटे चंग; पदस्थानक धारो सदा, गुण प्रगट निज भंग. ३४५ अस्ति चेतनद्रव्यनी, चेतनद्रव्य अनन्त संसारीने सिद्ध दोय, ज्ञानी एम वदन्त. ३४३ नित्यज चेतन द्रव्यछे. कर्ता हर्ता जोय; कर्मथकी मूकाय शिव, तेनां कारण होय. ३४४
शिष्य उवाच नथी दृश्य ते दृष्टिथी, स्पर्शे प्रह्यो न जाय; आत्मद्रव्यनी अस्तिता, अनुभवे न जणाय. ३४५ मानो देहज आतमा, अथवा श्वासोश्वास. पंचतत्त्वनुं पूतळु, अन्य कयो आभास ? ६५ घटपट यथा जणायछे. तथा न चेतनद्रव्य, माटे चेतन नास्तिता, मिथ्या माने भव्य. यदि नथीजो आतमा, तपजप संयम फोक पुण्यपापनी कल्पना, भूले भोळा लोक. ३५०
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(३००)
आत्मतत्व साध्यडे,
शिंका मोटी जीवनी, टाळो सद्गुरुदेव, मतिहीन हुं जीवछु, कापो कुमति देव
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३४९
सद्गुरुः नवाच उत्शंगुलवृत्ति त्यजी, ग्रहो सुयुक्ति दीप; समजो चेतन अस्तिता, यथाऽस्ति मौक्तिक छीप. ३५० पञ्चभूतथी भिन्नछे, अरूप निर्मल शुद्ध देहे व्याप्यो जीवछे. मळ्युं नदकमां दुध. हुं सुखी हुं दुःखी एम, बुद्धि देहनी नांय; मृत कलेवरमां कदी, जरा न चेष्टा त्यांय. कठीन शीतत्वादि गुण, पंचभूतना जोय, चैतन्यादि त्यां नहीं, सूक्ष्मपणे अवलोय. अरूप चेतन चक्षुथी, ग्रह्यो कदा नहि जाय; पुद्गलस्कंधो स्पर्शथी, ग्रह्मा सदा जोवाय. श्वासोश्वास ते स्पर्शथी, सदा अहो हवाय बाहिर जातो आवतो, ते चेतन शुं थाय. ज्ञातृताश्रय जीव छे, पुद्गल नहीं कदाय; नहीं तो घटपट वस्तुमां, ज्ञातृशक्ति ग्रहाय. मद्यांगे मदशक्तिवत्, पञ्चभूत संयोगः चैतन्यशक्ति उदूभवे, ते युक्ति पण फोक,
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परमात्मदर्शन भिन्न भिन्न मद्यांगमा, मदशक्ति अवभास; भूत भूत प्रत्येकमां, ज्ञानतणो नहि वास. ३५० बुद्धयादिक आधार जे, तेहिज चेतन पेख; आदि शब्दथकी ग्रहो, सुख दुःख कार्योल्लेख. ३५९ बुद्धयादिक आश्रित जिहां, त्यां गुणपात्र जणायः । रूपादिवत् जाणीए, चेतन सिद्धि उपाय. ३६० गुण निराश्रय नहीं कदा, आश्रय छे घटरूप; बुद्धयादिक आश्रय तथा, आनन्दघन चिद्रूप. ३६१
_ शिष्य उवाच. बुद्धयादिक आधार तो, इन्द्रियो कहेवायः चेतननी शी कल्पना, करवी सद्गुरुराय. ३६२
गुरुः उवाच. उपहत इन्द्रियो थकी, विषयस्मृति न घटाय; आश्रयनाशे स्मृतितणी, उत्पत्ति केम थाय? ३६३ कर्णेन्द्रियना नाशथी, स्मरणतणो नहि क्षोद; स्मृत्याश्रय ते आतमा, मानो सत्यज बोध. १६४ अनुभव्यु जे इन्द्रिये, तेनो थातां नाश; स्मृति इन्द्रियो अन्यमां, ते पण मिथ्याभास. ३६५ थातां एमज चैत्रने, थया अनुभव जेह; स्मृत्युत्पत्ति मैत्रन, घटे न युक्तिज तेह, ३६६
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(३९०)
-शाम सिद्धिन्बट्र्स्थानक.
शिष्य उवाच.
भले न थावो इन्द्रियों, बुद्धि आश्रय कोइ बुद्धि आश्रय देह छे, कहुं विचारी जोइ. शरीरनाशे बुद्धिनो, नाशज थातां दीठ; भस्मीभूत शरीर तो, चेतन थाय अदीठ.
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सद्गुरु उवाच .
बाल युवादिक भेद त्रण, तनुना एह प्रसिद्ध; बालदेहथी भोगव्युं, स्मृति ते तेणे लीध. तरुण तनुमां तेहनी, स्मृति कदा नहि थायः बालशरीरे भांगव्युं, कथं युवान जणाय. मृतक शरीरे बुद्धिनी, स्फूर्ति कथं न थायः माटे बुद्धयाश्रय कहो, चेतन स्मर्ता आय.
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शिष्य नवाच .
बुद्धयाश्रय नदि देह तो, श्वासोश्वास जणाय; श्वास नहीं त्यां सुख दुःख. कदा न निरख्युं जाय. ३७२ श्वासोश्वासे भिन्नता, नहि ते एक स्वरूपः बुद्धयाश्रय तेने कहो, ए पण जडता कूप. ३७३ एक श्वासोश्वासथी, कीधो अनुभव जेद; अन्य श्वास स्मर्ता नहीं, बुद्धयाश्रय नहि एह. ३७४
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-परमात्मदर्शन,
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बुद्धयाश्रय जो श्वासतो, स्वक्थी ते स्पर्शाया त्वचा ग्रहेछे श्वासने, केम न बडिग्रहाय. . ३७५ सोऽयं प्रतीतियोगथी, बुझ्याश्रय जे होय; आस्मतत्त्व ते जाणीए, नहि त्यांशंका कोय. ३७६
शिष्य उवाच. देहादिकथी भिन्न जो, मानो चेतनराय; भिन्न करी देखाडीए, असिम्यानने न्याय. ३७७
गुरु: नवाच. वायुरूपी पण नेत्रथी, निरख्यो कदा न जाय; जीव अरूपी चक्षुथी, कथं अहो निरखाय. ३७८
बौ६ नवाच.. क्षणिकसंतति ज्ञाननी, तेतो चेतन मान; प्रवृत्तिरूप विज्ञाननो, आलय उपादान. ३७९ एकरूप नहीं ज्ञानहूँ, क्षणे क्षणे बदलाय; ज्ञानसन्तति आतमा, मानो सवळो न्याय. ३८० क्षणिक सन्तति ज्ञाननी, मानंतां नहि दोष; क्षणिक उत्तर ज्ञानमां, पूर्व ज्ञाननो पोष. ३८१
गुरुः नवाच. ज्ञान क्षणिकनी सन्तति, चेतन नहि कहवाय, क्षणिक सन्तति मानता, पुण्य पाप कुण पाय ३८२
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( ३९ )
आत्मसिद्धि षट्स्थानक.
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उपादान कारणतणो, कदा विनाश न थाय, आलयनो जो नाशतो, वृत्ति क्यां प्रगटाय. आलयने ध्रुव मानीए, तो ते चेतन रूप; मानतां दोषज नथी, करवी समजी चूप. आलयने प्रवृत्तिमां, मानो जो यदि भेदः उपादान, कारणतणो, थाशे त्यां : विच्छेद. बने नहीं घट वस्तुथी, सूत्रतणो समुदायः कारण कार्य भिन्नता, त्यां शुं कार्यज थाय ३८६ चैत्रमैत्रइवभेद त्यां, कारण कार्यज भाव; स्मृतिभंग त्यां दोयछे, घंटे शुं युक्ति दाव ? ३८७ क्षणिक सन्तति ज्ञानमां; कारणकार्याभिद; मानो तो क्षणवादनो, धाशे निश्चय छेद. उत्तरज्ञानदशा विषे, पूर्व ज्ञान जो होय. स्थिरबुद्धि तेथी थइ, बुद्धि नाश क्यां जोय. ३८८ आलयनी जे स्थिरता, तेतो आतम मान; बन्धमोक्ष सहु तो घटे, चेतन गुणछे ज्ञान. पूर्वजन्मना स्मरणथी, पुनर्जन्मता सिद्ध; पुण्य पाप फल भोगवे, चेतन नित्य प्रसिद्ध ३९१ चेतन नित्यज होय तो, कर्म न लागे कोय; अनित्य माटे आतमा, क्षण क्षण नाशी होय. ३९२
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परमात्मदर्शन.
आ क्षणमां जे आतमा, ते क्षण विणशी जाय; पुण्य पाप सुख दुःखनी, घटना कहो शीथाय. ३९३. अन्य करने अन्यने, पुण्य पाफ्नो बन्ध; अन्यतणो जो मोक्षतो, ए सहु मिथ्याधंध. ३९४ को कर्त्ता भोक्ता अहो, सहुथी अवळो न्याय नित्य आतमा मानतां, कर्ता भोक्ता थाय. ३९५ अभ्रसंग दूरे थतां, निर्मलरवि प्रकाश; नित्य आतमा मानतां, होवे दोष विनाश. जेनी संयोगे करी, उत्पत्ति नहीं थाय; नाश होय नहि तेहनो, माटे नित्य सदाय. ३९७ अहंकृतिने क्रोधनी, केशरी फणिधरमांय; भासे तरतमता घणी, पूर्ववासना त्यांय. पूर्ववासना योगथी, नित्य आतमा सिद्ध क्षणिकचेतन बुझिने, देशवटो एम दीध.
आशंका शिष्य उवाच. जीव न कर्ता कर्मनी, कर्मज कर्ता कर्म; चेतन. कर्ता कर्मनो, धर्म जीवनों मर्म. ४० सदा असंगी आतमा, जलपंकजनी पेर. काने भोकापणुं, भासे प्रकृति घेर, का
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भारमसिद्धि-घटस्थानक, ईश्वर इच्छा योगथी, कर्मतणोछे धंध; सुख दुःख तेथी संपजे, माटे जीव अबंध. ४०२
सद्गुरुः उवाच-समाधान. काल अनादि परिणम्यां, चेतन पुद्गल दोय; अशुद्धपरिणतियोगथी, कर्ता कर्मनो होय. ४०३ जीवप्रेरणा जो नहि, तर्हि ग्रहे को कर्म; जडमां कदी न प्रेरणा, भिन्नपणे बे धर्म- ४०४ माटे चेतनप्रेरणा, थातां कर्म ग्रहायः । परभाविक ते प्रेरणा, ग्रहीलचेष्टान्याय. ४०५ कर्ता कर्म न कर्मनो, जुओ विचारी चित्त; घटपट करे शुं प्रेरणा, समजो न्याय पवित्र. माटे कर्ता कर्मनो, चेतनछे व्यवहार; शुझस्वभाविक धर्मनो, कर्ता चेतन धार; ४०७ मलधर्म त्यागे नहीं, एवो जीव स्वभाव; अशुद्धपरिणतियोगथी, कर्ता कर्म विभाव. ४०८ परिणम्यां पयनीखे, भिन्न करेछे हंस; निजगुण रमतो हंस त्या, करे कर्मनो ध्वंस. १०९ चेतननो नहीं जाणीए, जेह विभाविक धर्म; स्वाभाविक निजधर्मछे, जाणो अनुभव मर्म. ११०
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परमात्मवर्णन.
(१९५९) अशुष्परिणतिथी कर्या, कर्मतणोछे अन्त; सहजशुद्धनिजधर्मथी, भाखेछे भगवन्त. सदा असंगी आतमा, निश्चयसत्ता धार; कर्ता भोक्ता कर्मनो, वर्ते ते व्यवहार. ४१२ जन्मजराने मृत्युनां, दुःखनु कारण कर्म शाताऽशाता कर्मथी, कर्मजालनो मर्म. ४१३ रंग्युं वीज कपास, लाक्षारस संयोग; रूमा लागी रक्तता, कर्मफलोनो भोग. ३११ कर्माष्टक नाशे यदा, तो चेतननी शुद्धि; आत्मस्वभावे आत्मनी, पामे तात्विकरूद्धि. ४१५
शिष्य नवाच, शंकां अनादिकालथी संगति, कर्म जीवनी जोय; नाश कहो शुं कर्मनो, कारण त्यांशुं होय. ४१६
सद्गुरु: उवाच-समाधान. कालअनादि परिणम्यो, चेतन मिथ्या भ्रान्त; छूटे चेतन खाणमां, रजः कनक दृष्टान्त. ४१७ ईश्वर इच्छायोगथी, सुख दुःख क्याथी होय. ईश्वरनी जो प्रेरणा, दोषी ईश्वर जोय; ११८
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षट्स्थानक.
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४११
( ३५६) शाथी ईश्वर प्रेरणा, ईश्वरना अन्यायः न्यापी अपराधी सहु, ईश्वर पोते थाय.
शिष्य उवाच शंका कर्म करेछे प्राणिया, सामग्री अनुसार, सुख दुःख ईश्वर आपतो, जीव अकर्ताधार. ४२०
गुरुः उवाच. कृत्य करे ते भोगवे, पोते सुखने दुःखः खावे तेहं धरायछे. प्रभु न भागे भूख. क्षेपे निजकर वन्हिमां, ज्वलतो देखे हाथ. स्वयंहि कर्ता जीवछे, कथं प्रेरणा नाथ; ४२५ अवळी बुद्धियोगथी, विषभक्षणथी नाश; प्राणोनो जाणो अहो, ईश्वर न्याय न खास. ४५३ स्वयमेव ज्यां सुख दुःख, चेतन कर्मे पाय; ईश्वर प्रेरण कल्पना, सुख/दुःख कर्मे थाय. ५२४ सदा असंगी आतमा, निश्चय सत्ता लेख; व्यवहारे सुख दुःखनो, कर्ता चेतन देख. ४२५ जीव अकर्ता कर्मना, नाशे सत्य जणाय; वेतन जाणो नयथकी, शुद्धधर्म प्रगटाय. ४२६
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परमात्मदन.
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शिष्य उवाच. न्याययुक्ति दृष्टांतथी, कर्ता कर्मनो जोय; समजे जड शुं कर्मके, फलपरिणामी होय. ४२७
___ उवाच गुरुः. कर्ता भोक्ता जीवछे, पण तेनो नहि मोक्ष; बीत्यो काल अनन्त पण, हजु न मुक्ति पोष. ४२९ पुण्यतणुं फल भोगवे, मानव स्वर्ग मझारः पापतणुं फल भोगवे, दुर्गतिमां अवतार. ४३० पापपुण्य फल भोगवे, चतुर्गतिमां जाय; समये समये कर्मसंच, कर्मरहित नहि क्यांय. ४३१
उवाच समाधानं सद्गुरुः अशुद्धपरिणतियोगथी, फलदं कर्म प्रमाण; तथा निवृत्ति धर्मथी, सिद्ध ठरे निर्वाण. ४३२ काल अनंतो वितीयो, जीवतणो परभाव, आत्मरमणता योगथी, प्रगटे मुक्ति प्रभाव. ५३३ संयोगे वियोगछेज, देहादिक दृष्टान्त; कर्मवियोगे आत्मनी, मुक्ति सुखालय कान्त, ४३५
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(१९८)
भारमसिदि-पट्स्थानक.
शिष्य शंका. मोक्षतणी जे अस्तिता, तेतो समजी जाय; अनन्तभवनां कर्मनो, ध्वंस न क्यारे थाय. ४३५ भिन्न भिन्न दर्शन कथे, मुक्ति अनेक उपाय; सत्य असत्य तेमां कयु, निर्णय चित्त न थाय. ४३६ को वेषे कइ जातिमां, कया पन्थमां मोक्ष; निश्चय तेनो नहि बने, तो शी करवी होश. ४३७ भव प्रथम के मुक्तिवा, प्रथम जीव के सिद्ध इत्यादिक मन चिंतता, मोक्ष न होय प्रसिद्ध. ५३८
उवाच सद्गुरुः
चोपाइ. ज्ञानक्रियाछे मोक्षोपाय, सूत्रे भाखे श्री जिनरायः आमिकणाथी, गंजीबळे, तथा ध्यानथी कल्मष टळे.४३९ जेने लाग्यो जन्मथी रोग, औषधयोगे थाय निरोग; कीधां अनन्तभवनां कर्म,नष्ट थतां प्रगटेशिवशर्म.४४० अंधारु जग व्यापी जाय, थातां सूर्योदय विणसाय; सत्य ज्ञान त्यां शोछे भार, कर्मतणोतुं हृदये धार. ४४१ ज्ञानावरणीयादिक आठ, कर्मतणोछे सूत्रे पाठ; मुख्य मोहिनी सहुमां होय, यथा प्रजामांनृपति जोय.
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षट्स्थानक,
295)
मोहिनी नाशे सर्व हणाय, नृप हार्याथी प्रजा पलाय कर्म टळयाथी शिव सुख गेह, सत्यपंथमां शो संदेह. ४४३ मतदर्शनना असत्यराग, अंधा श्रद्धा ज्ञाने त्याग. जातिलिंगमां माने मोक्ष, तेथीज मुक्ति होयं परोक्ष- ४४४
सत्यतस्वनी श्रद्धा थाय, समवायिपंचज प्रगटाय; अरूप चेतन जागे ज्योत, त्रिभुवनमां ज्ञाने उद्योत. ४४५ भवमुक्तिनी नहींछे आदि, प्रवादथी ते दोय अनादि; अनेकान्त पन्थज समजाय, श्रद्धाथी सहु मळे उपाय. ४४६ केवलज्ञानी वाणी ग्रंथ, गुरुगम समजी ल्यो शिवपंथ; एकशब्दनो भावज साच, एम कहे तीर्थकर वाच - ४४७ जीव मोक्षादि शब्दज एक, साचो माटे करो विवेक; जेनो बंधहि तेनो मोक्ष, जरा नहि त्यां लागे दोष- ४४८
शिष्य उवाच.
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>>
दुहा.
आपे षट्स्थानक कलां, करुणाथी गुरुदेव; श्रद्धाथी में सद्दयां, टकी अनादि कुटेव. आज लगी अज्ञानथी, थइ न तत्त्व प्रतीत; नमन करुश्री सद्गुरु, कीधो शिष्य पवित्र.
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४४९
४५०
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परमात्मदर्शन.
( 0) धर्मरन आजे ग्रघु, देख्युं परमनिधान; शरण शरण हारु प्रभु, कोई न तुज समान. ४५१ काल अनादिथी भम्यो, पण आव्यो नहीं अन्त; सम्यक्तत्त्व जणावियुं, नमुं प्रभो गुणबन्त. ४५५
शिष्य नवाच शंकां.. अनन्तजीवो सिहता, शिवमां केम समाय; निराकरण तेनुं करो, जेथी शङ्का जाय. ४५३.
उवाच गुरुः सिद्धशिलानी उपरे, शाश्वतछे शिवठाण; कर्म खप्याथी जीव त्यां, थावे श्री भगवान्. . ४५४ एकदीपकनी ज्योतिमां, अनेकदीपकज्योतः सिद्धअरूपी मावता, दोष न किञ्चित् द्योत. ४५५
चोपाइ. विषयवासना विषसम खास, त्यागो बहिरातमपदवास; शाश्वतपदनी वाञ्छा होय, तो अधिकारी धर्मे जोय.४५६ दुःखनो आत्यंतिकविनाश, मुक्ति वैशेषिकनी खास; मनने नित्यज माने तेह, मुक्तिमां जीव साथे तेह.४५७ बुझ्यादिक नवनोज्यां नाश, मुक्तिज एवी त्यांशुंआश; वृन्दावन जंबुक अवतार, तेथी सारो मानव घार ५५०
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परमात्मदर्शन
वदे वेदान्ती मुक्ति स्वरूप, जाणो जग व्यापक विद्रयः घटेन व्यापक चैतनराय,त्यांशुंशिवनी आशरखाय५९ माने मुक्तिज आर्य समाज, भाडे पाम्यो जीवजराज; मुक्तिथी जीव पाछी फरे, मुक्ति एवीशुंदुःख हरे.४६० कर्म खम्याथी नहि संसार, कथं जीव पामे अवतार; जन्म मरण ज्यां वारंवार, शान्ति तेनी नहीं लगार.४६१ एक कह छे मुक्ति स्वरूप, मोटो अंधारानो कूप; जाकुंजे ईश्वरनी पास, चित्त घरो ईश्वर विश्वास-४६५ विश्वासी ईश्वरना दास, मुक्तिफोजमां भळतां खास; इशु भलो ईश्वरनो पुत्र, ते चलवे छे जगनुं सूत्र. ५६३ शरीरधारी मुक्तिज ज्याय, जन्म मरणना फेरा त्यांय; मुक्ति तेवीज कदीन होय, साक्षरवादी ग्रहे न कोय.४६५ अंधो वनमा फरतो फरे, पण चाली पहोंचे नाहे घरेः. ज्ञानचक्षु हृदये प्रगटाय, मुक्ति पन्थ त्यारे देखाय. ४६५ कोइक राता छे व्यवहार, ज्ञाने राता कोइकधार; एकएकर्नु खंडन करे, पक्षापक्षेज लडी मरे. ४६९ एकान्तनयोथी पक्षापक्ष, सत्यज माने बे नय दक्ष, नय एकेके दर्शन थयां, सापेक्षे ज्ञानिए ग्रह्मां. ४६७
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घटस्थानक
सरिताओ सागरमां भळे, जिन दर्शनमां सर्वे मळे; दर्शनमांभजनाजिनघाव,अनेकान्त वाणीजगसावध६८ कर्माष्टकनो थावे नाश, आविर्भावे गुणनो भासः जन्म मरणना फेरा टळे, चेतन क्षायिक धर्मे मळे.४६९ समये समये सि अनन्त, सुख सहेजे विलसे शिवकंत; पूर्वप्रयोगे उंचाजाय, शाश्वत शिवपुरमा बिरमाय. ४७० उर्ध्व अधःति नहि जाय,किया रहित माटेस्थिस्थाया ताडक् विभुने करु प्रणाम, क्यारे पा, सुख, धाम.. ४७१ सादि अनंतिज स्थिति वरी, सिझनमुंते भाषजधरी केवलज्ञाने जाणे सहु, तेवू पद प्रेमे हुं चहुं. ४७२ चेतन परमातममां भेद, व्यवहारे जोता ए खेद; भेदभावनोज्यां नहि लेश,निश्चयनयथी जोतां वेशभ७३ उत्तमदृष्टि आत्मस्वरूप, वहेतां प्रगटे सुखचिद्रूप भणोंगणोवांचो सहु ग्रन्थ, चेतनदृष्टि शिवपुर पन्थ.५७% उत्तम दृष्टि कोइक लहे, शिवपुरमाहि सिजो वहे। ज्ञानादिक गुण लेखे होय, समभावे निरखे सहु कोय५७५ शत्रुमित्रमा समता भाव, शुद्धधर्मनो प्रगटे दावः देह सांपण देझतीत, दशातादृशी त्यांशुंभीत. ४७
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परमात्मदर्शन.
( ४०३ )
नमुं नमुं ते वरनिग्रंथ, जेनी दृष्टि शिवपुर पन्थ; पामुं एवो सद्गुरु संग तो पामुं निजगुणनो रंग४७७
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ताज जावे तपतां ताप, साधु संगे दहीए पाप; माटे मानो सद्गुरु आण, पामो शाश्वतपद निर्वाण. ४७८
धन्य धन्य म्हारो अवतार, ज्यारे लदिशुं शिवपुर सार; दावानल छे आ संसार, पामुं क्यारे तेनो पार• ४७९ चिंतन एवं चित्ते थशे, दोषो त्यारे अळगा थशे; आत्मध्यानमां जे क्षण जाय, क्षण ते भवमां लेखे थाय४८० देहे देहे व्यापी रह्यो, महिमा जेनो जाय न को; नामी अनामी जेने कहुं, तेने ते देखे छे लहुं. ४८१ नाही ज्यां शब्दअने ज्यां गंध देखे नहि नास्तिकजनअन्ध लां छोडयां केइक देह, पण पोते तो नित्यज तेह ४८२ जेनी आदि नहीं ने नाश, अजरामर माटे ते खास; योगी पण भोगी कहेवाय, नमुं नमुं ते चेतनराय. ४८३
जेनुं ध्यान धरतां सुख, जन्म मृत्युनां जावे दुःख; जेना गुण छे अपरंपार, नहि ज्यां जाति लिंग प्रकार . ४८४ पर्यायतणो आधार, एकरूप त्रिकाले धार; क्रमवर्ति जाणो पर्याय सहभावी ते गुण ग्रहाय ४८५
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(४४)
भारमसिद्धि-पट्स्थानक षड् द्रव्योमा वर्तन एम, चिंतन करतां लहिये क्षेम; शुक्लध्यान पण तेथी होय,निश्चय शास्त्रे भाख्युं जोय४८६ षड् द्रव्योमा सर्व समाय, भाखे सूत्रे श्री जिनराय; सूक्ष्मपणे जो थावे ज्ञान, स्वल्पभवे पामे शिव स्थान.८७ निश्चयदृष्टि चित्ते वहे, व्यवहारे वर्ती गुण लहे; एकान्ते चाले व्यवहार, पामे नहीं ते भवनो पार.४८८ सर्वज्ञ भाख्या नय दोय, होय न जूठो तेमां कोय; निश्चयनो हेतु व्यवहार, कारण कार्यपणुं त्यां धार.४८९ आवश्यादिक जे व्यवहार, करीये लहिये भवजल पार; जनमन रंजन किरिया करे, भाव विना ते भवमां फेरे.४९० भाव विना किरिया ले फोक, करीए समजी हरिये शोक आडं अवलू मनडुं फरे, धर्मक्रिया ते शानी करे. ४९१ चित्त न ठरतुं एकज ठाम, माटे किरियानुं शुं काम; निश्चय एमन करशो कोय,उद्यम अवलंबो सुख होय४९२ निज गुण रक्षण साचो धर्म, निजगुण विध्वंसनजअधर्मः
आत्म प्रवृत्ति धर्मे वळे, निज ऋछि तो निजने मळे. ४९३ क्रिया बाह्यनी चेतन करे, कर्म ग्रही भव फरतो फरे; पाप क्रियाछे भव जंजाळ, क्रिया धर्मनी मंगलमाळ५९४
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(१०५)
परमात्मदर्शन आर्त रौद्र किरियाना त्याग, तेथी नहि शिवसुखनो लाग; मुक्तिप्रापक मनमा-जाण, तन्तु अमृत सुख खाण.४९५ आत्मज्ञानी छे नहि देह, चेतनधर्मी गुणगणगेह; अरिहंतादिक पदवी जेह, तेनो धर्ता चेतन एह. ४९६ जेजे इच्छे रुचि अनुसार, तेते फळ पामे निर्धार; भवाभिनंदी भवमां फरे, आत्मानंदी शर्मज वरे. ४९७ अव्यय निर्मळ चेतनगति, अनुपम मुक्ति स्त्रीनो पति; कर तुं तारो स्वयंप्रकाश, पोतानो धर तुं विश्वास.४९८ त्हारावण सारो जग कयो, त्हारावण निर्मळ को भयो; नहि नहि त्हारा कोय समान,धर निर्मळ पोतानुं ध्यान.९९ हारा निर्मळगुणनो लेश, पामंतां नाशेछे क्लेश; योगीजन तो देखे रहने, मोह न आवे तेनी कने.५०० योगी देखे आपोआप, तेने क्यांथी लागे पाप; ध्यानगुफामां योगी वास, कर्म न आवे तेनी पास.५०१ सौथी न्यारो योगी योग, नहि पामे ते मोही लोक; जागे योगीज उंघे सहु, शुं योगीनी वातज कहूं. ५०५ योगी साहं चेतनराय, बोले देखे ते कहेवाय; परमातमने जीवनो भेद, भागे नाशे भवनो खेद. ५०३
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( ४०६ )
पट्स्थानक.
धन्य धन्य मानुं अवतार, स्वरूप किंचित् भास्युं सार; अकलगति तुं चेतनदेव, कर पोतानी पोते सेव. २०४ दानी दे तुं निजगुणदान, भानी तुं दे निजगुणभान; हारुं सुख छे अव्याबाध, साधनथी तुं तेने साध्य. ५०५ समतारसनो तुं भण्डार, आत्म धर्मने तुं धरनार नादं नाहं तृष्णादास, नाहं नाहं पुद्गलवास. ५०६ श्री जिनवरभाषित वे धर्म, देतु ते छे शाश्वतशर्म; यथाशक्ति तेनो स्वीकार, करिये समजी धर्मप्रकार- ५०७ निंदो धर्मीने मा कोय, निंदानां कडवां फल दोय; श्रावक थइने तपजप करे, निंदा करतो भवमां फरे. ५०८ समजेनाहे अंतरनो मर्म, टीलां टपके शानो धर्मः शुद्धस्वरूपे निश्चय धार, धन्य धन्य तेनो अवतार ५०९ कुलमां उपन्यो श्रावक नाम, तेथी शुंथावे निजकाम; नाममात्रथी कार्यज सरे, धनपति भिक्षा खातो फरे. ५१०
श्रावकत्रत नहि पोते घरे, दे शीखामण साधुघरे, गुरुनो प्रत्यनीक चंडाल, तेथी जन्म भलो शृगाल. ५११ अहो विषम कलिकाले जोय, श्रावकना, गुणधारी कोय; निंदक मानी मुनिथी क्लेश, तेने शुं लागे उपदेश, ५११
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परमात्मदर्शन,
( ४०७ )
भण्योगण्यो पण श्रावक कोय, गुरुथी अधिको नहि तेहोय; मेरु सरसव समछे फेर, अंतर अजवाळं अंधेर.
५१३
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उत्तरझयणे तेनी साख, गुणना माटे कर अभिलाष; दृष्टि शानोज धर्म, द्वेषे वाह्य बांधे कर्म.
+
धर्मगुरुनीज आज्ञा धार, तखानुं ते तीर्थ विचार; तेथी पामो भवनो पार, सार सार तेछे सुखकार ५१५ साधुव्रतनोळे अभिलाष माने सद्गुरुनो हुं दास; अक्षुद्रादिक गुणनुं नाम, साधुं तेनुं श्रावक नाम. ५१६ पंचमहाव्रत पंचाचार, धर्मध्यानमां वर्त्ते सार भवभ्रमणभय आज्ञा जिन, वर्षे मन जेनुं निशदीन. ५१७ बाह्योपाधि विषवत् त्यजी, सहजसमाधि ज्ञाने भजी; जेने बोध्यं आत्मस्वरूप, नमुं नमुं प्रभु गुरु श्री अनुप५१८ पार्श्वमणि संयोगे लोह, भजे कनकता तेह अबोह जेना बोधे टळे सदाय, गुरुनी गुरुता प्राप्ति थाय. ५१९
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एवा गुरुने सेवो भाइ, तीर्थ तीर्थ ते जग सुखदाइ; वाणी जेनी बहु गंभीर, चेतन योगी ध्यानी धीर. ५२० धर्मगुरु मज माणाधार, सदा शुद्ध तेनो उपकार; गुरुनी सेवा भक्ति मळे,तो भव कल्मकप सहेजे टळे, ५११
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( ४०८ )
आत्मसिद्धि प्रस्थानक.
गुरुए कीधो जे उपदेश, पामीने तेनो लवलेश: गुरुनी भक्ति वर्णन करी, लागी गुरुभक्ति मुज खरी. ५२२ धर्मगुरुओज थया करो, ज्ञानामृतनो वदो झरो; श्रीसंखेश्वर पार्श्वकपाळ, निशदीन करशो मंगळमाळ. ५१३ धरणेन्द्र पद्मावती सहाय, पामी पूरो ग्रंथ करायः परमात्मदर्शन निर्मळ ग्रंथ, पंचशती जाणो शिवपंथ. ५२४ ग़ाम लोदराए करी मास, मतिस्फूर्तिथी क्यों प्रयासः महेसाणामांपूरो थयो, शुद्धस्वभावे चेतन रह्यो - ५२५
" दुहा. "
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धर्मचन्द सुत जीवणलाल, सुरतवासी जीवदयाल 'सकल संघना माटे कर्यो, ज्ञाताभवपाथोधि तय. ५२६
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श्री सुखसागर गुरुजी बेश, पामी आनन्द होय हमेश; बुद्धिसागर रचना सार, मंगल सिद्धि जयजयकार. ५२७ संवत ओगणीश नपरे, साठतणी शुभसाल; अपाङ शुकला पंचमी, रचतां मंगलमाल.
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
५२८
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शुदि
EM * w 9
M
सुखने
परमात्मदर्शन.
अशुकि श्रुषि पत्रक पृष्ठ लीटी अशुद्धि ३ १२ भव्यत्मा
भव्यात्मा २३ अवरोध
अवबोध. ६ २४ सुखन ७ १३ सगयसूचक
समयसूचक ४ साभ्यता
साम्यता १५ ३ षष्ठं १५ १५ निद्राधीन
निद्राधिन १५ २१ अने
० नथी १५ २२ तेने
तेणे १६ ७ रुषिसभा
ऋषिसभा १६ २२ त्वाय
त्वाच १७ ९ संसय
संशय २१ तीर्थन
तीर्थनी २२ सद्गुरू
सदगुरु १८ १६ य॥
यथा १८ ताहक
ताहक १४ भे १८ बच्चु
वञ्च २१ ७ स्थीति
स्थिति २४ ७ वृद्धि
बुद्धि १८ अनादिकु पीर अनादि कुषीर ३१ ५ कर्म किया कर्म क्रिया
भेगु
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४ लीटी भावि ३१ १० क्रिका ३२ १७ पुग्य
केवलझान ३८ १६ नाग ४० २१ थाय छे ४२ २ अग्रि ४२ १७ वे ११ ५ जेगे ४३ १४ तारण
22.
शुद्धि क्रिया पुण्य केवलज्ञान नाम थवाय छे
आग्नि
जेणे तरण तत्त्व
सुशोभित
४५ १५ मुशोभीत
२४ क्षुदाम्तःकरण
८ पकडी ५५ ११ पेंटी:
शुद्धान्तःकरण पकडी पेटी गुरु सद्गुरु अन्तःकरण धर्ममाप्ति
६२ २४ सदगुरु ६४ १६ अन्तकरण
१४ चममाप्ति
द्रव्य
१९ सय
१ इन्यर्थिक ७० १३ सरखा
३ मोरि ८. १५ फुगल
३ ट्रव्ये गुणोपकार
समय द्रव्यार्थिक सरखा जोर
द्रव्ये पर्यायोपचार
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पेठे
पछली भद ८२ १४ दृष्टाः ८३ २० पेटें ८५ १ व्याधि ८५ ६ स्यावाद ८५ ७ रागद्धष ९४ १२ लंध्ये ९५ ६ सेय
८ दुख ९५ ९ आत्म ९५ १३ पांचे ९९ ५ ते ९९ १४ ऑ १०० ११ वस्त्र १०२ १२ जीना १०३ ५ मूर्क
ant can n:
स्यहिदि रागद्वेष लम्प सोच दुरेख आत्ता
पांचे
ता
वस्त्र मीवोना
मूकी
१०५ ९ चितवनाथ १०५ १७ परिपकता १०५ १९ ध्यान १०५ १९ भ्रान्ति १०५ २१ निधान
चितवनायी परिपक्वता ध्यान भ्रांति निधान
तेथी
१०९ १३ एन
११७ १८ गतवन्तु
गतमा
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A
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पृष्ठ कीटी अशुदि
१२० १ धिगता
१२०
१० सर्वत्रा
१२५ ८ विचार
१२५
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१२५
१२६ ३ १२७ १० तिष्टंति
१२७ १४ विष्टंति
१२८ १७ । पूवीं
१२९ ५ देश
११९
१२९ १३ सर्व १३१ ११ मनुण्पो १३१ १८. होतु
१३३ ३ सरुवप:
१३७
१४१
१४१
तारा
रावीश
किंचितनि
कश
१४० ५
मुस्केल
१४० १२ औदारिका १४ १२ तेजस
१४० १५ चाल्या
१४१ ३
१४१
१४१
१६ १६
१७ १७
सुदा
विणु
वृत्तिमं
नेतु
ननी
(x)
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शुद्धि
घिगता
सर्वत्र
विचारे
तारो
राखीश
किंचिभि
तिष्ठति
तिष्ठति
पृथ्वी
देशे
શું
सर्व
मनुष्यो
होतुं
स्वरूप
केश
मुश्केल
औदारिक
तेजस
चाल्यो
शुद्धा
वण
वृत्तिमां
नेतुं मन
नयी
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शुद्धि भोक्ता मुनीश्वर शरीरीनुं सुधा मुभटो पासे होयछे
तो
अनुष्ठान केवलज्ञान
ओही
पृष्ठ जीरो भावि १४१ १७ भाक्ता १४२ २२ मुनिश्वर १४३ ३ शरीरीनु १४३ ६ सधा १४५ ८ सुभडो १४४ ९ पारो १४४ ९ हायछे १४४ १३ ता १४४ २२ ता १४५ २४ अनुष्टान १४६ १०४ १५३ ८ आही १५३ २० अंगुलन १५७ ३ आत्मत्व १५७ २२ झुंड १६० १८ आत्तध्यान १६१ १ १६१ १० करीन १६२ ७ . १६२ ८ रंग १६२ २४ सुरव १६६ ४ योग १६७ ६ अभिलाषि १६८ १० कबछे १६८ ११ विषयाणा
अंगुलना आत्मतत्व
आर्सध्यान वो
वा
करीने
सुख योग अभिलाषि कधूछे विषयाणां
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पृष्ठ लीटी भशुद्धि १६९ ११ पाच १७० १० विसंजीग १७१ १८ लोक १७१ १८ का
बाब विराजित
लोक
१७४ १० कर १७४ १९ व्याधि १७४ २१ याज्य
व्याधि त्याज्य
m MM
१७५ ३ कुं १७६ ३ बा १७६ ३ छ १७८ ११ श्राद्ध १८१ ७ अत्म १८५ १२ ध्याए १८७ ९ आत्म १८७ १० निष्क्रिम १८७ २६ " १८७ १९ स्वरू-1 १८७ २३ निदृष्टि १९१ १८ तृपा १९४ १५ दुष्याप्प १९५ २२ त गिर १९८ ६ धर्मा..
श्रद्धा आत्म ध्यान आत्मा निष्क्रिय
स्वरूप निश्चयटि तृषा दुष्पाप्य तवंगर
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सिंहलद्वीप पण
डोटी अशुद्धि १९८ १० सिहलद्वीप १९९ १६ पण २०० ११ नुं २०५ २५ गत २०७ ६ चारित्र २०७ २० कृत्समा २०९ ७ राकाई २१० ३ राग
चारित्र कृत्य रोकाइ राग
२११ २५ शु २१२ १ ० २१३ १५ गिहेसु २१४ ५ प्रमा-1 २१६ १६ सद्भाव २१८ ४ दशनापयोम २१८ १६ नाणवी २२१ १ व्याक्ति २२२ . प्रायश्चित लेवु
गिहेसु प्रमाण सदभाव दर्शनोपयोग जाणवा व्यक्ति अन्यमतनो जैनदर्शनां
समावेश नास्तित्व एकेकथी बलवत्तर कारण
२२३ १ नारितत्व २२४ २५ एकेकवी २२९ ९ बलवत्तर २३० १६ का २३१ १९ देननी २३२ २५ जन २१२ ११ सामिले
देवनी जिन
सोमिले
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पृष्ठ लीटी अखि २३६ ११ भावने २३६ १९ लारण २३८१ उत्पत्तो २४१ ४ तिक्ष्ण २५३ १५ बेना २५९ ५ कवलाहर २६२ १६ देषो २६३ ३ सय २६३ ७ नयी २६३ १९ आयुण्य कर्म २६३ २४ तारतम्य २६४ १ माहनीय २६४ १७ आत्मनी २७६ १० प्रधान २७६ २५ जोद्धाओ २७७ ११ . नमर २७७ १४ जीवोनो २७८० धम २७८. ४ . आ २७८ ८ चतुरिन्द्रि २७८ ११ धशा २७८ १४ मोहना २७८ १७ २७९ १ रोवरवु टुं २७९ १७ कू ।
१ मोहे २८० ५ रजा २८० १५ जीव
भावते कारण उत्पत्ती तीक्ष्ण बनना कवलाहार द्वेषने सत्य नथी . आयुष्य कर्म तारतम्यता मोहनीय आत्मानी प्रधाने योद्धाओ नगर जीवोने धमें आ चतुरिंद्रय दशा मोह
पास
पास
२८०
रोवरा छ कूतरी मोहे. राना
जीव
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शुद्धि वृद्धि विष्ठा कुसंप
सुख
तेमा भमावेछे
बौद्ध
संसार जीवो लाग्यो
थोडी
पृष्ठ लोटी अशुद्धि २८० २३ वृद्ध २८१ २५ विष्टा २८२ १५ कृसंप २८४ २१ मुख २८४ २२ तेओ २८४ २२ नभावेछे २८४ २५ बौध २८६ ४ संसार २८७ १ जावो २८७ २० लाग्या २८८ १२ थाडी २८८ १३ न २८८ १४ दयाना २८८ १५ वर्षावता २८८ २४ जोवोने २८८ २४ खेचछं २८९ १ . २९० १० सम्यक् २९१ १५ नाश २९२ ७ प्रतिष्ठा २९३ २१ स्माद्वाद १९३ २४ मारा। २९५ ६ वाइ २९८ १० तरीक २९८ १२ वरणोय
दयानां
वर्षावतो जीवोने खेचुंछु
सम्यग
नाश
प्रतिष्ठा स्याद्वाद माराथी
कांइ .
२०५ ३०५
२ पचम ४ खामी
तरीके परणीय मसव पश्चम स्वामी.
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योगे
पृठ लीटी अशुद्धि ३०५ १३ येगे३०५ १५ सिद्धात३०६ १६ बस्तु ३०८ ९ -
सिद्धान्त वस्तु
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३१६ १० ब्रह्मचर्य ३१७ १७ तत्ज्ञानं
स्वरूप ब्रह्मचर्य तजज्ञानं
३७४
३३५ ९ कारणक
कारणके ३३६ १५ सिद्धत्मा
सिद्धात्मा ३५४ ४ कवी
केवी ३५५ १ आविर्भाव
आविर्भावे ३६१ १८ एकात
एकान्त ३६४ १३ मल स्वरूपमा
स्वरूपमा निमित
निमित्त दृश्य
दृश्य उपनिषदा
उपनिषदो ३७५ १ सहु छ
सहु छे. ३८३ ४ त्या ३८८३ उत्शंगल
उत्शृंखल
मूल धर्म ३९४ १६ त्या
त्यां ३९१ ११ अनादि
अमादि ३९८ ८ चिंतता . चिंततां
ज्या ईश्वरमा इहस्व छपाइ होय त्यां दीर्घ वांचवी.
बीजी जे अशुद्धि छद्मस्थ दृष्टिथी सुधारतां रही गइ होय ते सुधारीने वांचवी.
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त्या
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योगनिष्ठ मुनि बुद्धिसागरजी कृत ग्रन्थोनी यादी.
अने ते मळवानां ठेकाणां
પુસ્તકનું નામ,
મળવાનું ઠેકાણું ૧ જૈન ધર્મ અને ખ્રિસ્તિ થી જોડલી સાઇટી-મુંબઇ
ધર્મને મુકાબલે ૨-૩ શ્રી રવિસાગરજી ને વડોદરા મામાની પળ શા કેશવલાલ
અને શેકવિનાશકઈ લાલચંદને ત્યા, ૪ ષડદ્રવ્ય વિચાર, પાદરા, શાક મેહનલાલભાઇ હીમચંદ ૫ વચનામૃત
- વકીલ ૬ અધ્યાત્મ શાંનિશા રતનચંદ લાધાજી કાવીઠા બેરસદ પાસે, ૭ ચિંતામણિ
દય બુદ્ધિસાગર સમાજ ૮ કન્યાવિક્રય નિષેધ ૯ પૂજા સંગ્રહ,
સાણંદ ૧૦ બુદ્ધિપ્રકાશ ગાયન સંગ્રહ-શા, મણિલાલ વાડીલાલ સાણંદ, ૧૧ બુદ્ધિપ્રકાશ ગાયન સંગ્રહ અમદાવાદ સંભવ જિનમંડલ ૧૨ સમાધિશતક–રોઠ, જગાભાઈ દલપતભાઈ મુ. અમદાવાદ, ૧૩ તત્વવિચારો ૧૪ સત્ય સ્વરૂપ છે જે
કે જ્ઞાન પ્રસારક મંડલ, મુબાઈ ઝવેરી બજાર, ૫ આત્મ પ્રા. શા. વીરચંદ કૃષ્ણાજી, મુમાણસા
પુના-વૈતાલપ. ૧૬ ભજન સંગ્રહ ભાગ પહેલો ૧૭ ભજન સંગ્રહ ભાગ બીજે અમદાવાદ, ૧૮ ભજન સંગ્રહ ભાગ ત્રીજે, ૪ ૧૯ ભજન સંગ્રહ ભાગ છે. જેના બેડીંગ નાગોરીસરાહ, ૨૦ અધ્યાત્મજ્ઞાન વ્યાખ્યાનમાળા
ભાગ
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( ૧૨ )
૨૧ આત્મપ્રદીપ ૨૨ અધ્યાત્મગીતા ૨૩ આત્મસ્વરૂપ ! અમદાવાદ જૈનતાંબર બેડીંગ ૨૪ અનુભવ પરથીશી, કે ૫ પરમાત્મ દર્શન,
નાગરીશાહ૨૬ પરમાત્મ તિ, ર૭ ગુરબાધ૨૮ પ્રાચીન ન્યાય ગ્રંથ ઉદ્ધાર ઝવેરી ભેગીલાલ તારાચંદ,
સંસ્કૃત સ્યાદ્વાદ મુક્તાવલી) અમદાવાદ ડોશીવાડાની પોળ, ર૯ તૂન્દ્રબિંદુ (યાને સંક્ષિપ્ત જૈન બેડીંગ સિદ્ધાંત રત્ન
નાગરીશાહ અમદાવાદ૬૦ ચેતનશક્તિ ગ્રન્થ (ભજન સંગ્રહ ત્રીજા ભાગમાં) ૩૧ વર્તમાનકાલ સુધા-(ભ, ત્રીજા ભાગમાં) ૩ર વરબ્રહ્મ નિરાકરણ-(ભજન સં, ૪ ચેથામાં) ૩૩ અધ્યાય વરનામૃત અન્ય (ભજન સંગ્રહ ભાગ )
નહીં છપાવેલા ગ્રંથની યાદી. ૩૪ તવ પરીક્ષા વિચાર ૩૫ ધ્યાન વિચાર ૩૬ સુખસાગર ૩૭ ગુરૂમાહાભ્ય, ૩૮ શ્રીમંત સરકાર ગાયકવાડ સયાજીરાવની આગળ આપેલું ભાષણ
पत्र सदुपदेश.
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