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( १६२ ) योग्य साधु सक्रियाथी आत्मधर्म साधी शकेछे.
उपादान समजे नहीं, समजे नहीं निमित्स; कारण कार्य समजे नहीं, तत्वे शुं शुभ चित्त १२० द्रव्यभाव समजे नहीं, वर्ते बाह्याचार; अनुपयोगिआत्मनो, पामे नहि भवपार.
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भावार्थ - प्रथम दुहानो अर्थ उपर लखायोछे जलनी उपाधिथी जेम भिन्न भिन्न अवस्थाओ थायछे- एटले जेम जलमां लाल रंग नाखीए लाल देखायछे. पीळो रंग नाखीए तो जळ पीळं देखाय छे, लीलो रंग नाखीए तो जल लीलुं देखायछे, एटले जल अन्यनी साथै मिश्र थवाथी व्यवहारथी स्वशुद्ध रूपनो त्याग करेछे. तेम जे जीवो असत् संगतिरूप उपाधिना योगे जेवा मळ्या तेवा थइ जायछे, ते भवमां अटकेछे, अर्थात् सारांशके-जे जीव पादरीनी संगतथी तेना उपदेशवडे इशुने पूज्यमाने, अने ख्रीस्ति धर्म स्वीकारे, कदापि ते जीवने कोइ बौध गुरुनी संगति थइ. बौधे कर्तुं स्त्रीस्ति धर्म तो अनार्य धर्मछे, ते धर्मथी मुक्ति मळती नथी, बौध धर्म सत्यछे माटे ते स्वीकार. त्यारे तेना उपदेशथी बौध धर्म स्वीकारे, 'वळी ते कोई मुसल्मान मळ्यो तेणे कां बुद्ध धर्म तो खोटोछे, सत्य धर्म तो खुदाका है, बुद्ध धर्म में तो अमुक जूठा कहाहे, ओ तो काफरों का धर्म है, इसलिये खुदाका धर्म मानेगा तो दोझखमे पडेगा नहीं, एम मुसलमानना उपदेशथी मुसलमान धर्म स्वीकार्यो. स्यारे ते पुरुषने कोइ वेदांति मळ्यो. वेदांतीए कह्युं सर्व धर्मनुं मूळ वेदान्त छे, वेदथी मुक्तिनी प्राप्ति थायछे इत्यादि कथनथी वेदधर्मनो स्वीकार कर्यो. त्यारे कोइ कालीकाना भक्ते कां. अरे मनुष्य तुं कालिकानो भक्तथा, कालिका पुत्र धन स्त्री वैभवने आपनाररीछे, माटे कालिका तेज खरीछे, वेदथी तो कंड सुख मळतुं नथी,
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