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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परमात्मदर्शन. ( २२९ ) रूप कार्यां मनवचन कायानी गुप्ति तथा धर्मध्यानरुप व्यवहार धर्म मरुदेवी माताने थइ गयो, मनोगुप्ति वचनगुप्ति अने काया गुप्तरुप तथा धर्मध्यानरुप व्यवहारधर्मने कारणता निश्चयधर्म रूप कार्यमांछे, व्यवहारधर्म घणा प्रकारेछे. तेनी विचित्रता गुरुना मुखथी सांभळी अनेकांतधर्म ग्रहवो. वळी भरतराजाने पण धर्मध्यानरूप व्यवहारधर्म केवल ज्ञान प्रगटवामां निमित्त कारणीभूत हतो. निश्वर्य धर्मतो अरूपीछे, ते व्यवहार धर्मनी मदतथी प्रगट थाय छे. उपादान कारणनी शुद्धिमां निमित्त कारण वलवत्तरछे, एम समजनुं सारांश के मरुदेवी माता वा भरत चक्रवर्ति पण नीचला गुणठाणानुं छोडनुं अने उपरना गुणठाणे चढवुं ते रूप शुद्ध व्यवहार पाम्यां हतां. जिज्ञासु प्रश्न जो एमछे तो व्यवहारधर्म कोने कहेछे ते समजावो. सुगुरु- पंच महाव्रत उच्चरवां. सर्व विरतिधर्म देशविरतिधर्म अलबत साधुधर्म. श्रावकधर्म ए व्यवहारणी धर्म जाणवो. ए व्यवहाधर्म निश्चयधर्मनी प्राप्ति करावी आपेछे. निश्वयथी संपूर्ण निरावरण परमात्मपदनी प्राप्ति कराव्या बाद व्यवहार रहेतो नथी. शिष्यप्रश्न - आत्मा परमात्मारूप थाय तेमां कयां कयां कारणोनी जरुरछे. सुगुरु-उपादान कारण. अने असाधारण कारण अपेक्षाकारण निमित्तकारण. ए चार कारणथी कार्यनी सिद्धि थायछे. शिष्यप्रश्न - आत्मा सिद्धपणुं पामे तेमां पाये तेमां उपादान कोने समजवुं. सुगुरु - सिद्धतारूप कार्य ते आत्मानुं अभेद स्वरूपछे. सिद्धतारुप कार्यनो कर्त्ता आत्मा पोतेजछे अने सिद्धपणुं आत्मानुं कार्य समज. अधुना सिद्धता प्रगटावबी तेज कर्तव्यधर्मछे, सिद्ध For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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