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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (10) योग्य साधु सक्रियायी मारमध साधी शोछे. संसारी अवळा फरे, सवळा फरे फकीर; नमो नमो ते सदगुरु, भयभंजन वडवीर. १३८ भावार्थ-हे आत्मा सद्गुरु संगत्या आत्मतत्व समजी बाह्यनी एटले धन, धान्य, क्षेत्र, स्त्री, पुत्र, गृह, हाट, राज्यादि जे पर वस्तु तेनी ममता त्यजी हे चेतन तुं तारा अंतर्धनने देख-ज्ञान दर्शनचारित्र रुप अंतर् धन आत्मानी अंदर रघुछे तेने हे आत्मा निहाळ, अंतर् धन ताराथी दूर वा भिन्न नथी, अंतर् धननी प्राप्तिथी अपूर्व शान्तिनो भोगी आत्मा बनेछे, अंतर्धन विना क्षायिक सुखनी प्राप्ति कदी थवानी नथी. दरेक ग्रंथोमां आत्म स्वरुपना हितने माटे विवेचन छे, सात नयथी सम्यग् आत्मानुं स्वरूप जाणवु. एकांत पक्षथी आत्म स्वरुप जे जाणेछे ते सम्यग् परमात्मपदनी प्राप्ति सन्मुख थइ शकता नथी. आत्मानुं ध्यान मनन करवाथी आत्मगुणोनो आविर्भाव थायछे, ते संबंधी श्री देवचंद्रजीए आत्मस्तुति नीचे प्रमाणे करीछे.. स्तवन--ध्यानदीपिका. गुण अनंत धर जीवने, वंचे भवमे कर्म-धरोनिज भावना-ए टेक. राग द्वेष मुख हि वहढया. शत्रु हणु धरी ध्यान. धरो० आतम लखो निज ज्ञानशुं, बाळी कर्म अज्ञान. प कर्म हणु तिम ध्यानशुं, जेम न पहुं भवमाहे. भवज्घर अज्ञाने नडया, नवि दीठो शिव राह. परमातम जग गुरु ठग्यो, निरस विषयने संग. सर्वज्ञ आत्म नवी लेखीयो, भ्रम अज्ञाने रंग. आत्म स्वरूप पिछाणवा, ज्ञान दृष्टिए करी देख. ध०. पंच ध्येय अरु आत्मा, ज्ञान गुण एक लेख. ० ५ For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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