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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org परमात्मदर्शन ( १८३ ) प्रमाणे करे नहीं, तेवा अविनेय शिष्यो आत्महित करी शकता नथी, हराया ढोरनी पेठे स्वच्छंदाचारपणे वर्ती बहिरात्मदशामां आयुष्य निर्गमन करता आत्महित साधी शकता नथी. जे शिष्यो नम्र विनयी परमार्थना ग्राहक लज्जा, आदि गुणोथी अलंकृत छे ते शिष्यो मुक्ति मार्ग ग्रहेछे. कपटभावथी परिपूर्ण कृष्णलेश्या अंतर्मां वर्तवाथी कृष्ण सर्प सदृश, चंडाल सदृश जे कृत्यों करता होय एवा कुगुरुओनो हे भव्यात्माओ संग करशो नहीं. एतादृश कुगुरुओनी भववृद्धि अरहद्दमाळन्यायवत् जाणवी. स्त्रीस्ति आदि कुगुरुओनी संगति चेपी रोग समान छे तेथी सदा दूर रहेवुं, विशेषतः लौकिक कुगुरुओने माटे आ वचन छे. कदापि संसारी जीवने कार्यवशात् स्त्रीस्ति आदिक कुगुरुओनी संगति करवी पडे तो पण तेमना वचन सांभळवा नहीं, अने तेमना उपदेशनी श्रद्धा करवी नहीं, कारणके थी संसारनी वृद्धि थाय, मिथ्यात्वनी वृद्धि करनार पादरीओ विगेरे कुगुरुओ छे, माटे मोक्षार्थी जीव कुगुरुनो त्याग करी मुगुरुने भजे - सेवे. "" दुहा. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir >> ममता त्यजी तुं बाह्यनी, अंतर्धनने देख अंतरधन - धर्म छे, सत्यज मानी लेख. अरूप अंतर्धनतणी, रुद्धि व्हारी पास; तेन भ्रमणा करी, करे शुं अन्य प्रयास. अन्य प्रयासे दुःख राशि, परपरिणति परतंत परपरिणतिमां लीन जे, करे न भवभय अंत. १३७ For Private And Personal Use Only १३५ १३६
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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