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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥१॥ तारक बुध्धिथी गुरु, कथन करे उपदेश; . श्रध्धा भक्तिथी सुणी, आदर करो विशेष. ॥३१॥ . भावार्थ-अनंतकरूगायोगे केवलपरमार्थबुद्धिथी अनंत भव दुःखवल्लिछेदककुठारसदृश धर्ममूलभूतसमकित रूप रत्न जे सद्गुरुए अर्पण कर्यु ते गुरु मोटा देव समानछे, देव गुरु धर्मनी श्रद्धाथी समकित आत्मामा उत्पन्न थायछे, देव वीतराग अष्टादश दूषण रहीत होय तेने खीकारवा. यतः जिनेन्द्रो देवता स्तत्र, राग देष विवर्जितः हतमोहमहामल्लः, केवलज्ञानदर्शनः सुरासुरेंद्रसंपूज्य, सद्भूतार्थप्रकाशकः कृत्स्नकर्मक्षयं कृत्वा, संप्राप्तं परमं पदं ॥२॥ जीवाजीवौ तथा पुण्यं, पापमाश्रवसंवरौ; बंधोविनिर्जरामोक्षौ, नवतत्त्वानि तन्मते. ॥३॥ तत्र ज्ञानादिधर्मेयो, भिन्नाभिन्नविवर्तिमान कर्म शुभाशुभं कर्ता, भोक्ता कर्मफलस्य च ॥४॥ चैतन्यलक्षणो जीवो, यश्चैतदू विपरीतवान् ॥ अजीवःसः समाख्यातः पुण्यं सत्कर्मपुद्गलाः ॥५॥ इत्यादि ..वीतराग शासनमा जिनेन्द्र भगवान् देवछे, ते राग द्वेष रहित छे, जेणे मोहरूप महामल्लनो सर्वथा नाश कर्योछे, अने जेमने केवळ ज्ञान अने केवलदर्शन साकार निराकार उपयोग तरीके भास्यांछे, वैमानिक अने भूवनपति आदिनाचोसठ इंद्रोवडे जेनां चरण कम For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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