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परमात्मदर्शन.
पूजायाँछे, एवा वीतराग देव जाणवा, वळी तीर्थकर देव त्रिभुव. नवत्ति धर्मास्तिकायादिक पदव्योना गुण पर्याय आदि सत्य प. दार्थोना प्रकाशकछे, जेवं जगत्तुं स्वरूपछे तेवू तेमणे केवलज्ञाने प्रकारथुछे. असल्य जल्पननुं तेमने कंइ प्रयोजन नथी, दयालु अने उपकारीपणाने लीधे सत्य तत्वनी प्ररुपणा करीछे, भरत, ऐरवत अने महाविदेह क्षेत्रमा तीर्थंकरोनी उत्पत्ति थायछे वीश स्थानकमांनु गमे ते स्थानक उत्कृष्ट परिणामयोगे आराधवाथी त्रिभुवन आराध्य तीर्थकरनामकर्म बंधायछे, अनादिकालसंगी रागद्वेष स्वरूप महामल्ल शत्रुनो जेणे सर्वथा नाश, स्वशुद्धआत्मिकपरि. णामथी कर्योछे. एवा तीर्थकर महाराजाने चोत्रीश अतिशय अनुक्रमे उत्पन थायछे, स्वआचार कल्प अने भक्तिभरथी गमन करी प्रभुनी प्रभुता दर्शाववा माटे चतुर्निकायना देवता देवीओ प्रभुने लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान अने केवळदर्शन उत्पन थतां अ. लौकिक विचित्र मनहर देवताइ अष्टमहापातिहार्य युक्त समवसरण नी रचना करेछे ते उपर बाह्य अने अंतर्लक्ष्मीवडे सुशोभीत त्रिज गतारक तरणि, पांत्रीस वाणीगुणधारक, परमपूज्य परमपवित्र प्रयोदश गुणस्थानवर्ति श्री देवाधिदेव तीर्थकर महाराजा वचना: तिशये युक्त देवता मनुष्यतिर्यचोत्पन्न बार पर्षद अग्रे मधुर ध्वनिथी बहिरात्मा, अंतरात्मा, परमात्मास्वरूप तेमन देवगुरू धर्म अने नवतत्व, षड्द्रव्यनुं म्वरूप, भव्योना कल्याणार्थे प्रकाशेछे, अने देशनान्ते साधु, साधी, श्रावक, श्राविका रूपचतुर्विधसंपनी स्थापना करेछे, तेमां सर्वथी मुख्य चतुर्विध संघमां मुनिराज छे, धर्मनी अपेक्षाए संघछे, वीतराग आज्ञा मुजब ज्या प्रवर्तन नथी, ते संघ कहेवाय नहीं, मोहजनितभ्रमणाए केटलाक श्रावकना कूळमा उत्पन यह भावको साधु साध्वी विना श्रावक वर्गनेज संघ
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