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षट्स्थानक,
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मोहिनी नाशे सर्व हणाय, नृप हार्याथी प्रजा पलाय कर्म टळयाथी शिव सुख गेह, सत्यपंथमां शो संदेह. ४४३ मतदर्शनना असत्यराग, अंधा श्रद्धा ज्ञाने त्याग. जातिलिंगमां माने मोक्ष, तेथीज मुक्ति होयं परोक्ष- ४४४
सत्यतस्वनी श्रद्धा थाय, समवायिपंचज प्रगटाय; अरूप चेतन जागे ज्योत, त्रिभुवनमां ज्ञाने उद्योत. ४४५ भवमुक्तिनी नहींछे आदि, प्रवादथी ते दोय अनादि; अनेकान्त पन्थज समजाय, श्रद्धाथी सहु मळे उपाय. ४४६ केवलज्ञानी वाणी ग्रंथ, गुरुगम समजी ल्यो शिवपंथ; एकशब्दनो भावज साच, एम कहे तीर्थकर वाच - ४४७ जीव मोक्षादि शब्दज एक, साचो माटे करो विवेक; जेनो बंधहि तेनो मोक्ष, जरा नहि त्यां लागे दोष- ४४८
शिष्य उवाच.
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दुहा.
आपे षट्स्थानक कलां, करुणाथी गुरुदेव; श्रद्धाथी में सद्दयां, टकी अनादि कुटेव. आज लगी अज्ञानथी, थइ न तत्त्व प्रतीत; नमन करुश्री सद्गुरु, कीधो शिष्य पवित्र.
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