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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३०४) उच्चस्थिति. annahanamamaramanand, नाओथी पण आत्मा भिन्नछे. कारण के मान अने अपमान एह बहिरात्मा दशावाळाने एटले जेणे दुनीयादारीमा सुखदुःखनी बुद्धि धारण करीछे तेवा जोवने वर्तेछे, पण जेणे शरीरथी भिन्न आत्मा निराकार ज्योतिमय जाण्योछे तेवा अंतरात्म दशावाळा जीवने माननी वासना रहेती नथी. शुद्धात्मा सदा मानवंतछे. पुद्गलरूप देह कइ मान्य योग्य नथी. वळी कोइ अपमान करे तो समजे केदेहर्नु अपमान के तेनी अंदर रहेला आत्मानुं अपमान नथी. देह तो जडछे अने आत्मा तो अदृश्यछे, तेथी तेनुं अपमान थइ शकतुं नथी. माटे ज्ञानयोगी महात्माने मान अपमान बे सरखांछे. वळी ज्ञान योगीनी कोइ निंदा करे. वा कोइ वंदन करे तोपण ते समभावमा वर्ते छे. कारणके ज्ञानी जाणे छे के-मारो आत्मा अलक्ष्यछे. पोताना स्वभावे शुद्ध निर्लेपछे. एम उपयोगमां वर्ततो कोइना उपर राग वा कोइना उपर द्वेष करतो नथी. कनक अने पाषाणने पण ज्ञानी आत्मा सरखा जाणेछे, कनक अने पाषाण पृथ्वीकायनां दळीयां पौद्गलिकछे. अने ते कनक पाषाणरूप अचित्त पुद्गल स्कंधरूपीछे. अने हुं आत्मा तो अरूपीछ. कनक पाषाण पुद्गल स्कंध जडछे अने हुं आत्मा तो ज्ञान गुणमयर्छ, मारी अने एनी भिन्न जातिछे. वळी कनक पाषाणमां सुख नथी. तो ते उपर केम दृष्टि आपुं ? एम समजी ज्ञानी आत्मार्थी समभावमा रहेछे. अने शुद्धात्म स्वरूपमा उपयोग दृष्टि आपेछ. संसारना संसर्गमा आवतो पण ज्ञानी आत्मा जलमां कमलनी पेठे भिन्नपणे वर्तेछ, हर्ष शोक धारण करतो नथी. एम प्रमादस्थाननु निवारण करतो विरतिव्रत अंगीकार करतो अंतर्थी द्रव्यक्षेत्र काळभावथी आत्म स्वरूप विचारतो अने तेम आत्माना गुणपर्यायने भिन्नाभिन्नपणे विचारतो मति अने श्रुतज्ञानना क्षयोपशमे वीर्य श For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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