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(२२)
भारमा स्वस्वरूपमा समायछे.
"दुहा." समाय तुं तारा विषे, तारु ताहरी पास; मारु मारु क्या करे, धरतो परनी आश. ३
हे आत्मा तुं तारा स्वरूपमा समाय छे, तारी गति सर्वना करतां न्यारी अने अनंत आनंद आपनारी छे, तुं कोइ अन्य पदार्थमा रहेतो नथी, प्रकाशथी तमः समूह यथा सर्वथा न्यारुं छे, तेम अनंत शक्तिधारक चेतनथी सांसारिक स्वरूप सर्वथा न्यारु छे. अवळी परिणतियोगे परवस्तुने पोतानी मानी ममताना पासमां पडे छ पण सहजानंदी आत्मा विवेकथी तुं विचार के-स्वमामा भासेलुं जगत् जेम मिथ्या छ, तेम बाह्यवस्तु पण तारी नथी, चेतन तारी ऋद्धि ताराथी जरा मात्र भिन्न नथी, जेम मृगथी कस्तुरी भिन्न नथी तेनी दुटीमांज रहेली छे, तेम आत्मानी ऋद्धि पोतानामां भरी छ, परमात्मपद आत्मामां छे, आचार्यपणुं पण आत्मामां छे, तेम उपाध्याय, साधुपणुं पण आत्मामा छ, ज्ञान, दर्शन, चारित्र अने तप वीर्य आदि गुगो पण आत्मामा रह्या छ, अनंत मुख पण आत्मामां छे, तो बहिरात्मभावे हे चेतन परनी आगाथी मृढ बनी मारु मारु एम शुं चिंतवे छे ? परवस्तु तारी कदी थवानी नथी. एम निश्चय जाण, तारी ऋद्धि ताराधी न्यारी नथी, खोजे सो पावे. आ कहेवत आत्मामां योजवी, अनादि कालथी चेतन मिथ्यात्वयोगे स्वस्वरूपना अनुपयोगे परवस्तुने पोतानी मानी जन्म जरा मरण उपाधि पामी, किंतु हवे निर्णयपूर्वक जा. णवामां आव्यु के-परवस्तु अचेतन जड विशिष्ठ छे, हुं एनो नथी, ए मारु नथी, हुं मारा स्वरूपे समायो छु, हुं जे जे वस्तुओ चक्षुथी देखें छु, घ्राणे सुंधु छु, जिव्हाए स्वादु छु, ते ते वस्तुओमा
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