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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परमात्मदर्शन स्वरूप स्वयमेव आलंबन योगे पामी परमात्मस्वरूपमय बने छे कह्यु छ के अज कुल गति केसरी लहेरे, निज पद सिंह निहाळ; तिम प्रभुभक्ते भवि लेहेरे, आतमशक्ति संभाळ.अजित. . परमात्म स्वरूप ओळखी तेनुं ध्यान करता पोतानो आत्मा पण परमात्म रूप भासे छे, परमात्मा अने मारामां भेदभाव नथी, मलीन सुवर्ग समान संसारी भन्यात्माओनी स्थीति छे, अने शुद्ध कंचन समान सिद्धात्मानी दशा छे, मलीनतानो अपगम ध्यानयोगे थतां परमात्मरूप बनी त्रिभुवन पदार्थ गुग पर्याय ज्ञाता बने छे, ज्ञातृत्वशक्ति आत्मामा रही छे, जडमां ज्ञातृत्वशक्ति नथी,जा पदार्थ ज्ञेष छे, जेटला ज्ञेय पदार्थ तेटलुं ज्ञान समनg, ज्ञेय पदार्थ अनंत छे, तेथी ज्ञान पण अनंत कहेवाय छे, अने ते प्रमाणे अनुभवमां आवे छे, ज्ञातृ शक्तिनो आधार चेतन (आत्मा) छे, आस्मानो कही नाश थतो नथी, माटे नित्य छ, ययपि अविद्याना योगे अनेक शरीरो धारण करे छे तो पण पोताना स्वरूपने त्यजसो नथी, अज्ञानी जीव एम जो कहेबा लागे के आत्मा नदी पण तेना वचनथीज सिद्ध थाय छे के आत्मानी अस्तिता छे तो ते जीव नास्ति एम कहे छे, अवियानो नाश थतां अवश्य यथातथ्य सहेजे आत्माच भासे छे, आत्मा अनंत सुखनो धगी छे, सुख दुःखनी चेष्टा आत्मानी प्रेरणाए थाय छे, इष्टानिष्ट ज्ञाता आत्मा छे, जो ए आत्मतत्त्व सम्यक् रीत्या ओळखाय अने तेनुं शान थाय तो समानी पेठे सर्व जगत् देखाय, आत्मामां जे चित्तवृत्ति राखी चितवन करे छे ते पुरुषो आत्माने सहेजे ओळखे छे अने अखंड सुख भोक्ता बने छे, For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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