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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परमात्मदर्शन. पृहस्थावासमा बसी सर्वतः विरतिपणुं पाम, मुश्केलछे, माटे दीक्षा अंगीकार करता राग द्वेषनी हीनता थतां आत्मस्वरूपे रमण करतां भावचारित्र प्रगटेछे, ए राजमार्ग जाणवो. मोक्ष पद लक्ष्यमा राखी सद्गुरू संगति करता आत्मज्ञान प्रगटेछे. उपाधिमां अहर्निश राचीमाची रहेनार गृहस्थ जीवोने दुःख संततिरूप फलनी प्राप्ति थायछे. आत्मज्ञानना अभिलाषि पुरूषोए सद्गुरूनुं सेवन करवू. सद्गुरू सेवनथी जे ज्ञान मळेछे ते तांत्विक फळने प्रमटावेछे, अने ते ज्ञानी संयमनुं ग्रहण थायछे. अने संयमयी पोताना स्वरूपमा स्थिरता प्रगटेछे, अने स्थिरतायोगे जीव स्वगुणोने आविर्भाव रूपे प्रकाशेछे. माटे द्रव्यचारित्र एटले साधुवेष दीक्षाअंगीकार पंचमहावत धारण आदि द्रव्यचारित्र कदापि असमंजस कहेवाय नहीं, भावचारित्रनी सापेक्षताए द्रव्यचारित्र निमित्त कारणीभूत आदरणीयछे. माटे भागवती दीक्षा अंगीकार करवी एन हिताकांक्षा-निज गुण स्थिरता तेज वस्तुतः चारित्र जाणवू. व्यवहार चारित्रथी निश्चयचारित्र प्रगटेछ, आत्म परमात्मपद ए माटेज व्यवहार चारित्रक्रियारूप कथथुछे, निश्चय पारिजनी सापेक्षताए व्यवहारचारित्र सममाण निमित्त कारणछे. . “दुहा." शिथिलाचारी आळसु, विषय वासना राग कृष्ण सर्प सम ते गुरु, करवो तेनो त्याग. १२२ ब्रह्मचर्य उपदेश दे, मनमा ललना वास; कृष्णसर्पसम ते गुरु, संग न कीजे खास. १२३ भावार्थ-वळी जे शिथिळ आचारवंत-धर्मध्यानमां आळसु For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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