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परमात्मदर्शन
((२०३ )
गीतार्थ पासे आलोचना लेवानी तीव्रच्छा राखवी तथा आलोचना लेनार पण आत्मार्थी तस्वनो अभिलाषी होवो जोइए. गुरुनी पार्श्व पापनो पश्चात्ताप करतो प्राणी कर्मथी हळवो थायछे अने निर्मल थयेलो निशल्य भव्यात्मा सत्पंथे चालेछे, जेम कोइना उदरमां बगाड थइ ते अशक्त थयो होय तो. ते माणस वैद्यने नाडी देखाडेछे, वैद्य तेनी वर्तणुक पुछी लेछे, कया या पदार्थों खावामां आव्या हता ते पुछेछे त्यारे रोगी पण सर्व वात कछे पश्चात् वैद्य तेना शरीने सारं करवा प्रथम मळ शुद्धि जुलाब आपेछे. पश्चात् बीजी दवाओ आपेछे, तेम गुरु महाराज पण अनेक प्रकारना पापोनी आलोचना रूप जुलाब आपी तेनुं हृदय शुद्ध करेछे पश्चात आत्महितने माटे अन्य मार्गो, व्रतो बतावेछे माटे हे चेतन तुं हवे विचार कर अने नरकना हेतुओ दूर कर. श्रीवीर भगवान्नी मशीर माथाना वाळ जेटला घणी कर्या एम प्रभुनी पासे पश्चाताप कर्ये तेथी सर्व पाप जतुं रघु, हे चेतन आर्तध्यान जो मनमां करीश तो तिर्यचनी गतिमां जाइश. धर्मध्यानथी देवगति मनुष्यगति प्राप्त थाय छे अने शुक्ल ध्यानथी मोक्ष स्थान प्राप्त थाय छे. माटे चेतन-चारे गतिनां द्वार तारे माटे खुल्लांछे, जेवां कृत्य करीश तेवी गतिमां जाइश - आयुष्य पूर्ण थतां, देवता मनुष्य तिर्यच अने नरक ए चार गतिमांथी गंमे ते गतिमां कर्मानुसारे तुं जाइश - एक गतिमांथी नीकळी वीजीमां, बीजीमांथी नीकळी श्रीजीमां, एम अनादि कालथी तुं चतुर्गतिमां परिभ्रमण करेछे. चतुर्गतिमां परिभ्रमण करावनार कर्मछे, कर्माष्टक. मकति रूप द्रव्यकर्म जाणवुं. राग अने द्वेष रूप भावकर्म जाणवु, सग अगर द्वेषना विचारो कर्याथी जीव पुद्गल स्कंधोने कर्म रूप परिणमाची ग्रहण करेछे.
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