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(10) लोभ पापर्नु मूळ जाणीने तेनो त्याग करवो. आरभ्यते पूरयितुं, लोभगतॊ यथा यथा। तथा तथा महचित्रं, मुहुरेषो विवर्धते १३ लोभस्त्यक्तो यदि तदा, तपोभिरफलरलं लोभस्त्यक्तोनचेतर्हि, तपोभिरफलैरलं लोभमूलानि पापानि, रसमूलानि व्याधयः स्नेहमूलानि दुःखानि, त्रीणित्यत्का सुखीभव. १५
सर्व दोषनुं स्थान लोभछे, गुणनो ग्रास करवाने लोभ राक्षस समान छे. व्यसनरुप वल्ली कंदभूत लोभ जाणवो. एम सर्वार्थनो बाधक लोभ जाणवो. निर्धन सो रुपीयाने इच्छे, अने सो रुपीया मळे हजारनी इच्छा, अने हजारनो अधिपति थये लाखनी इच्छा थाय. लक्षमळे करोडनी इच्छा थाय कोटीश्वर नृप रुद्धि चाहे, राजा चक्रवर्तिनी पदवी इच्छे अने चक्रवर्ती देवतानी ऋद्धि चाहे छे. देवताने इंद्रनी पदवानो लोभ रहे छे. एम मूलमां लघु अने अंते वृद्धिने पामनार लोभ शरावनी पेठे जाणवो. __ पापर्नु मूळ हिंसा अने कर्मनुं मूळ जेम मिथ्यात्व, अने रोगोने विषे जेम राजरोग ( क्षयरोग ) सर्व रोगर्नु मूळछे. तेम लोभ सर्व प्रोपनो गुरु छे. अहो लोभनुं साम्राज्यतो जुओ. पृथ्शीने विषे एक छत्र लोभनु राज्यछे, वृक्षो पग निधानने पामीमूलीए करी संताडेछे. .. द्रव्यना लोभमां द्वीन्द्रियादि जीवो पण सपडायाछे पूर्व भवना निधान उपर मूच्छावडे अधिरोहण करे छे.
सर्प, उंदर, गिरोली प्रमुख पण धनना लोभमां पूर्व भवनी मीना योगे फसायछे. अने निधानना उपर वास करेछे. - भूत प्रेत पिशाच यक्षादिक पण धनना अधिष्ठाता तरीके रहे छे, अहो लोभनी केवी सत्ताके देवताओ सरखा पण धनादिकनी माए नीच योनिमा अवतरेछे. मोटा मोठा मुनिवरो के जे उपशा
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