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- परमात्मदर्शन.
(८१)
उक्तश्चअन्य शास्त्रेऽपि क्षेत्र क्षेत्र ज्ञयोर्ज्ञानं, तज्ज्ञानं ज्ञानमुच्यते;
विज्ञानं चोभयोरैक्यं, क्षेत्रज्ञ परमात्मनोः१ स्वकीय अज्ञानथी आत्मा भटकायछे, अने पोताना ज्ञानथी कर्म विमुक्त आत्मा बनेछे, आत्मानो उद्धार आत्माज करी शकेछे, आत्मानुं उपादान कारण आत्माना गुणोछे, उपादाननी शुद्धि अर्थे भव्य जीवो निमित्त हेतु अवलंबी परमात्मपद पामेछे, अभव्य जीवोमा उपादान कारणनी शुद्धि थाय तथा प्रकारनो स्वभाव नथी. निमित्त कारण तो पामेछे, किंतु अभव्य जीवमां भव्य स्वभाव नथी, तेथी उपादान कारण शुद्ध थतुं नथी भगवद्गीताना छठा अध्यायना पांचमा श्लोकमां कडंछे के
श्लोक. उद्धरेदात्मनात्मानं, नात्मानमवसादयेत्, आत्मैवह्यात्मनो बन्धु, रात्मैव रिपुरात्मनः १
आत्मा उद्धारवो पोते, आत्माने मारवो नहि; बंधु पोतेज पोतानो, पोतेज रिपु छे सहि. १.
आत्मा स्वशुद्धपरिणामयोगे पोते पोतानो उद्धार करेछे अर्थात् परमात्मपद पामेछे, ज्ञपुरुषो कहेछे के-आत्माने भव्यात्माओए मारवो नहीं, पोताना आत्मानो घात करवो तेना समान पाप नथी, अध्यात्मगीतामां कांछेकेस्वगुण रक्षणा तेह धर्म, स्वगुण विध्वंसना ते अधर्म; भाव अध्यात्म अनुगत प्रवृत्ति, तेहथी होय संसार छित्ति.१
आत्माना अनंत गुणो कर्मयोगे ढंकायाछे, तिरोभावे रह्याछे,
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