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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भात्मा स्वस्वरूपमा समायछे. निरंजन निराकार, ज्ञानदृष्टि आरपार; बुद्धिसागर सुखकार रे-सकल० आत० ५ परिपूर्णसुखरूप आत्मानुं स्वरूप-निर्विकार अखंड छे, आत्मतत्त्वमापक जीवोने कोइनी स्पृहा रहेती नथी. कोइ निंदा करे वा स्तुति करे तोपण हर्ष शोक रहित आत्मज्ञानी विचरे छे, राग द्वेषनी परिणति मंद पडे छे, समये समये आत्मिक सुख संतति बृद्धि पामे छे, तृष्णानुं मूळ छेदाय छे, परस्वभाव प्रवृत्ति स्वयमेव विरमे छे, अने आत्मस्वभावाष्टत्तिद्वारा नित्ति मुखोद्भव थाय छे, देहमा वसतां देहातीत अवस्थानो भोगी आत्मा बने छ, काकविष्टा सम पौद्गलिक विषय मुख लागे छे, परनिंदातो आत्मज्ञानीने गमती नथी, आत्मस्वरूपना ध्यानी पुरुषने जे सुख थाय छे ते अवाच्य छ, आनंदनो समुद्रज जाणे होयनी एवो अध्यात्म ज्ञानीनो आत्मा बने छे, आत्मज्ञानीनी दशा प्राप्त थया विना आत्मिक सुखनो अनुभव पमातो नथी, आत्मा परम पूज्य छे अंतरात्मयोगी थइ परमात्मपदमय ध्यानथी थता अनहद सुख भोगी आत्मा स्वयमेव स्वस्वरूपी थइ रहे छे. “दुहा." ध्यानथी दृष्टि फेंकुं ज्यां, त्यां सहु स्वरूपे स्थिर; शत्रु मित्र स्वप्नु भयुं, गइ अनादिकु पीर ॥५॥ भावार्थ-मन, वचन, कायानी एकाग्र आत्म स्वरूपे थतां जगत् विचित्र देखायुं, प्रथम ध्याननी पूर्व सर्व जगत् हस्तिना कजनी पेठे चंचल उन्मत्त लागतुं हतुं, ते हवे ध्याननी एकाग्रताए स्वस्वरूपें स्थिर थतां सर्व जगत् पोताना स्वरूपे स्थिर देखायु, मारुं मन चंचल तो सर्व वस्तु चंचल अने मारु मन स्थिर तो सर्व For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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