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मदन
(५)
वस्तु स्थिर एम देखायुं तेथी सार लीधो के - मन जो आत्मामां रमे तो मोक्ष अने मनः परभावमां रमे तो भवभ्रमणता, एनो निश्चय थयो, आत्मज्ञान विशेष थतां स्थिरता सर्वत्र भासे छे, कछे के
भासे आतम ज्ञान धुरि, जग उन्मत्त समान; आगे दृढ अभ्यास से, पत्थर तृण अनुमान ॥५॥
सारमां सार ग्राह्य, आराध्य आत्मा छे, ध्यानथी आत्मामां रमतां शत्रु मित्र स्वमनी पेठे मासे छे, अर्थात् शत्रु मित्र आत्म ज्ञानीनो कोइ नथी. अनादि कालनी लागेली कुठेव तो नाशी गइ अने शुद्ध चेतना प्रगट थइ, मिथ्यात्वपणुं टळ्युं, आत्मानुं शुद्ध स्वरूप मगट थतां सहजानंद प्रगटे छे, आत्मज्ञानीओ एवी दशामां रमे छे, तेमने पुनः पुनः नमस्कार थाओ.
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दुहा.
अहं बुद्धि परमां धरी, परमांही बंधाउं;
अहं बुद्धि जो आत्ममां, तो हुं क्या रंगाउं ॥ ६ ॥
परवस्तुमां अहंपणानी बुद्धि धारण करी कर्मरूप परवस्तुमां बंधाउं छु, पण जो आत्मामां अहंपणानी बुद्धि थइ एटले आत्मा पोते हुहुं अन्यमां हुं नथी, आवी बुद्धि थतां हुँ आत्मा कोइथी क्यांव रंगातो नथी. अर्थात् कर्मे करी लेपातो नथी, जे महात्माओ आत्मामांज वृत्ति राखे छे ते आत्मानी ऋद्धि पामे छे, परमां चित्तवृत्ति राखवाथी अमुक दुष्ट अमुक लंपट अमुक बेरी इत्यादि बुद्धि थाय छे पण पोताना आस्मानी सत्तालु चितवन कर्याथी पोतानुं स्वरूप प्राप्त थाय छे.
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