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परमात्मदर्शन.
(१५) आपीछे.अन्य शाखना श्लोकोने समकिती जीव अनेकान्तनयनी अपेक्षाए ग्रहण करीसमकित रूपे परिणमावेछे,एक शरीर त्यागी अन्य शरीर धारण करवानु कारण कई पण होवू जोइए. ते कारण कर्मछे, अने कर्म आत्माथी भिन्नछे, भिन्नछे त्यारे ते चैतन्य नथी, विपरीत जड द्रव्य सिद्ध ठयु, माटे तेनो पुद्गलास्तिकाय द्रव्यमा अंतर्भाव थायछे. लोहचुंबक पोतामा रहेली शक्तिवडे जेम से यने पोतानी भणी खेंचेछे तेम आत्मा अशुद्ध परिणतियोगे स्वमायोग्य पुद्गलोने राग द्वेषयोगे कर्मरूपे ग्रहण करेछे. अने कर्मथकी चार गतिनां दुख जीव पामे छे. नैश्चयिक शुद्ध आत्मिक स्वरूप ध्यावे अने आत्म ने सर्व थकी न्यारो माने अने परवस्तु उपरथी अहंममवभाव उठाडे तो सिद्ध बुद्ध परमात्म स्वरूपमय आत्मा थाय.
वर्ण पांच जेमा रह्या, गंध दोय ज्यां खास; षांचे रसनी स्थीति ज्यां, स्पर्श आठनो वास. ८१ एवा पर्यायो रह्या, तेहिज पुद्गल द्रव्य; व्याप्युं लोकाकाशमां, कर्ता नदि कोइ भव्य. ८२ काल अनादिथी रां, रहशे काल अनंत; नित्यानित्यपणे सदा, रूपी द्रव्य कहंत. ८३ ___ भावार्थ-पांच वर्ण, बे गंध, पांच रस, अने आठ स्पर्शरुप पर्यायो जेमा रह्याछे, तेने पुदगलद्रव्य कहेछे, ते लोकाकाशमां व्याप्युंछे, पण अलोकाकाशमां पुद्गलद्रव्य नथी, पुद्गलद्रव्य अनादिकालथीछे, अने अनंत काळ सुधी रहेशे, द्रव्यार्थिक नये पुद्गलद्रव्य नित्यछे, अने पर्यायार्थिक नये पुद्गलद्रव्य अनित्यछे, पुद्गल द्रव्यरूपीछे.
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