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आत्मधर्म महत्ता.
"" दुहा.
घटपट वस्तु जे दिसे, ते सहु पुद्गल जाण । ते आतमथी भिन्न छे, शास्त्र वचन प्रमाण. ८४ पुद्गल देशे म्हालतां, मार्यो चेतन जाय; तेमां ममता मानता, मरी मरी दुःख पाय. ८५ पृथ्वी थइ नहि कोनी, कोटी करे उपाय, लक्ष उपायो लेखवे, नहि आकाश झलाय. ८६ पुद्गल वस्तु कारमी, घर हाटां ने म्हेल; सोनुं रूपं धन सहु, पुद्गलना छे खेल. ૮૭ दृष्टा पुद्गलनो सदा, सुख दुःखनो जे जाण; वास वस्यो पुद्गल विषे, आतम गुणनी खाण.८८ पुद्गल जे देखाय छे, तेथी चेतन भिन्न कर्त्ता चेतन कर्मनो, परपरिणति रस पीन आत्माऽसंख्य प्रदेश छे, प्रति प्रदेशे ज्ञान; अनंत जिनवर भाषियुं, छति पर्याये जान ९० विशेष सामान्ये करी, दो भेदे उपयोग; असंख्यात प्रदेशथी, वर्त्ते निजगुण भोग. अस्ति धर्म अनंतनो, भोगी आतम राय; नास्ति धर्म अनंत त्यांय, समय समय वर्ताय ९२ - उज्वल आत्मप्रदेश छे, समता रस भंडार; तेनो कर्त्ती आतमा, शुद्धनये निर्धार.
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