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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुनी गुरुवा कोटा मूळ विना नहि वृक्ष जग, गुरुगम वण क्या ज्ञान; वांचो पोथी पत्र पण, नहीं टळे अज्ञान. ३६ भणदुं गणवू मानथी, जन मन रंजन काज; आत्मलक्ष्यना ध्यान विण, लहे न शिव साम्राज्य.३७ क्रिया कांड कपटे करी, करतो रंजे लोक; शुष्कज्ञान पण एकलुं, जाणो भविजन फोक. ३८ लाभालाभे सुख दुःख, शत्रु मित्र सम भाव; उदासीनता चित्तमां, भवसागरमां नाव. ३९ निंदो निंदक नेहथी, पूजो पूजक कोइ; धूर्तो कहेशे ढोंगीए, समभावे सब जोइ. ४० अंतसृष्टिगुणतणी, आतममांही अनुप; . बांग बहु बोले सुणी, मनमा राखी चुप. ४१ भावार्थ-ज्ञानथी त्याज्य वस्तुने त्यागी आदरवा योग्य वस्तु स्वरूपज्ञानाधार आत्मा प्रति प्रीति अंतरात्मायोगे उत्पन्न थइ छे एवा मुनिवरो आत्मानी साथे एकतानकी प्रीति करता छता कर्मनो नाश करी झटिति सिद्धि साँधमा प्रवेशे छे, हे आत्मा जेना योगे तारी अशुद्ध परिणति थइछे, एवं द्रव्यकर्म अने भावकर्मने स्वतः शुद्धपरिणतिथी असंख्यातप्रदेशथी दूरफर, समतास्त्रीनी साथे ध्यान रुप सरोवरमां, क्रीडा करतां तुं भवपाथोधि सहेजे उतरी मुक्तिनगर प्राप्त करीश, एम मुनिराज ध्यानमा भावे, अष्टकर्मनो आत्मानी साथे जे बंध तेने 'द्रव्पकर्म कहे छे, अने राग द्वेषनी परिणतिने भावकर्म कहेछ, आत्मस्वरूपमा रमणता करवाथी द्रव्य For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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