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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org परमात्मदर्शन, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्म अने भावकर्मनो नाश थायछे. हे शिष्य तुं परमात्मपदनी अभिलाषा राखतो होय तो स्वच्छंदताचारीयपणं टाळी गुरुना आधीन मन करी सद्गुरुनुं सेवन कर के जेथी शाश्वतपद पामीश, कर्मरोगनो नाश करणार्थम् गुरु धन्वंतरी वैद्य समान छे, तेमना दास थइएतो कर्मनो नाश थाय, वैद्य विना दवाओ पोताने फायदाकारक थती नथी, तेम गुरुनी आज्ञामतिविना गमे तेलां सद्व्रतो धारण करीए तो पण यथायोग्य आत्महित थतुं नथी. . (५१) For Private And Personal Use Only मूळ बिन वृक्ष क्यों ? अने गुरुगम वण आत्मज्ञान क्यों ? श्रावक वर्ग अविया तथा अविनयना योगे स्वयंगुरु बनी ज्ञानी गुरुनी अपेक्षा राख्या विना पोथी पुस्तक वांचे पण ते ज्ञान सत्यज्ञान तरीके थशे नहीं, पोतानी मेळे वांचेला ज्ञानथी वैराग्यादि गुणो जोइएतेवर प्राप्त थशें यहीं अने शंकादि दोषोनुं निराकरण येथे नहीं. सुनिवर्गने पण गुरुगमद्वारा विनयभक्ति बहु मानथी ज्ञान ग्रह योग्य छे, अने तदर्थम् योगवहनादिनुं शास्त्रमां अनंत arit atara भदंते भव्यात्माओना हितार्थे प्ररूपण कर्यु छे. मानथी पूजावाना अर्थे जनमन रंजनार्थम् विद्याभ्यास करवो, शास्त्र वांचत्रां इत्यादि सर्व मोक्षहेतुभूत कार्य नथी, आत्माना हितने माटे भणवुं, गणवुं, वांचवं, इत्यादि शुद्ध परिणाम थयो नथी त्यां सुधी शिव साम्राज्य पामी शकातुं नथी. बाह्याडंबरी क्रियाकांडना कपटथी देशोदेश विचरतो छतो मनुष्योने रंजे ते पण आत्मलक्ष्यना उपयोग बिना व्यर्थ छे तेमज क्रियाने नहीं माननार, व्रतादिनो खप नहीं करनार जेने सत्यज्ञान थयुं नथी एवा वाक्पटुताथीज पंडित पद धारण करनार शुष्कज्ञानीनुं एकलं ज्ञान पण आत्महित प्रति थतुं नथी,
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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