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परमात्मपर्शन. विद्वान् मुनिवर्य प्रश्न कर्या विना कोइनी साथे चोछे नहीं, अन्यायथी पृच्छकने पण उपदेश करे नहीं, किंतु सर्ववखनो जाण छतो पण मेधावी जगत्मा जडनी पेठ विचरे बळी जे मुमुक्षु मु. निनी आत्मज्ञान तरफ धारणाछे, अनेक प्रकारमी वासनाओधी वासित चित्त ज्यां सुधी होयछे त्या सुधी आत्मस्वरूप प्रतिलक्ष लागतुं नयी जेम मलीन दर्पणमा प्रतिबिंत स्वच्छ पडी शकतुं नथी. ज्यारे दर्पणने राख विगरेची उटकीएछीए त्यारे तेनी अंदर स्पष्ट प्रतिबिंब भासेछे तेम मनोरूप दर्पण रागद्वेष तेमन. अनेक प्रकारनी वासनाओथी युक्त होयछे त्यां सुधीतेनामां आत्मस्वरूप भास तुं नथी, पण ज्यारे रागद्वेष इच्छा वासनारूप मलीनतानो नाश थाय छे त्यारे आत्मस्वरूप भासछे, निर्मल चित जनुं थर्पुछे एवा मुनिबर्यो आत्मतत्वना अधिकारीछे.अन्य के जेना मन ममत्व वासनायी मळीनछे एवा पुरूषो गृहस्थो-तत्व प्राप्तिमा अधिकारी नथी.
वळी मुनीश्वर निंदा वा स्तुतिथी संतुष्ट थाय नहीं. कारण के मायाना फंदमां पडेली दुनीया दोरंगीछे, कोई कंइ कहे अने कोइ *इ कहे, लोक कीर्ति अने लोकनी स्तुति अर्थे जे आचरण पाच. रवा ते मायानी वृदिने माटेछे पण आत्मसुख माटे नथी. माटे लाकेकीर्ति स्तुतिरूवासनानो मुनि त्याग करे.-स्वकीय आत्मानं हित कर, तेज योग्य छ,
यतः श्लोक, विद्यते न खलुकश्चिदुपायः। सर्वलोक परितोषकरो यः। सवेथा स्वहितमाचरणीयं । किं करिष्यति जनोबहुजल्प:
आ दुनीयामा एको कोई उपाय नथी के जेथी सर्व लोक स्तुति करे. माटे आत्मतत्त्वाधि पुरुषे लोकवासनांनो सर्वथा परि
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