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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारमस्वरूप त्याग करी आत्महित आचर. लोकनी निंदा स्तुति तरफ देखतुं नहीं, बळी अन्य शास्त्रोमां कहुं छे के श्लोक. न लोकचित्तग्रहणेरतस्य ।नभोजनाच्छादन तत्परस्या। न.शब्दशास्त्राभिरतस्य मोक्षोन चातिरम्यावसथप्रियस्य जो पुरूष सर्व प्रकारसें लोकोंके चित्त रंजन करणे विले प्रीतिवाला हे तथा जो पुरूष भोजन आच्छादन विषेही तत्सरी. तथा जो पुरूष व्याकरणादिक अनात्मशास्त्र विषे अभिनिवेशवाला है. तथा जो पुरुष अत्यंत रमणीय गृहो विषे प्रीति वाळाहै ऐसे पुरुषकुं मोक्ष प्राप्त होता नहीं, यात मोक्षकी इच्छा करनेवाले मुनिवर्यकुं सा लोकवासना सर्व प्रकार परित्याग करणी चाहियै.. . एश्लोकी पण विचारता मुनिवर्यने सर्व प्रकारनी वासना. नो परित्याग थवो जोइए. वासनारहित मुनिवर्य अनेक प्रकारनां धार्मिक कार्य करतां बंधाता नथी. __ अंतर्थी वासना आदिनो त्याग विना बहिरनो निष्फळ स्याग जाणवो. आत्मायी भिन्न सर्व जगत्ने देखनारा मुनिराजना हृदयमाथी सर्व वासनानो नाश थायछे. असंख्यात प्रदेशी आत्मा तेज हुं परमात्माछु, अन्य जडबस्तुओ हुं नथी. अने अन्य जरवस्तुओ मारी नथी आ प्रमाणे दृढ निश्चय भावनाभावे, अने अंतर्थी न्यारो वर्ते. आत्माभिमुख चेतनापणे वते. एवा परमपूज्य करूगासागर मुनिश्वर महारानना दास थइने रहीए. एका मुनिना दास महामाग्य होय तो थवाय. एमनी से चाकरीथी भवोभवनां दुःख नाश पामे. अने सर्व उपाधि टळे, आत्मा परमात्मरूप थाय. मादे भव्य सशिष्योए.एवा For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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