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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८४ ) आत्मज्ञान महसा. अने ते ज्ञान आत्मद्रव्यमां रहुंछे, दुनीयामां जेटलां शास्त्रछे ते आमामाथी नीळ्यांछे. अभ्यासादिक ज्ञाननां साधनछे, अनंत गुणोनो भोक्ता आत्माछे, आत्मानी ऋद्धि सदाकाल आत्मामां रहीछे, आत्म ऋद्धिन कदापि नाश थनार नथी. निश्चयनयथी जोतां आत्मा पराभावनो भोगी नथी. आत्मार्थी परभावनुं ध्यान निवारी स्वशुद्ध आत्मस्वरूपनुं ध्यान करे तो चरणनिधान देखे, क्रियाकांडथी भगवदाज्ञा डोळघालु कपटीओ अज्ञानी जीवने पोताना फंदमां फसावी धर्मना विश्वासमा फसावी पोते पण अज्ञानमां बुरेछे, अने अन्योने पण बुडाच्छे, सिंहना पराक्रमनो अभिमानथी पोतानामां आरोप करनारो शृंगाल क्यां सुधी कपट दृति चलावी शके. आत्मज्ञान तेज धर्मछे, तेज आदेयछे, अधुना पंचविषना योगे आ भरत क्षेत्रमा कृष्ण पक्षीण जीवोनी बाहुल्यताए गीतार्थना, सद्गुरुना समागम तथा विश्वास विना अने भवाभिनंदीपणाना त्याग विना अशुभ व्यवहारना त्याग विना मुमुक्षुना योग्यगुणो विना अज्ञानी जीवो ज्यां त्यां दृष्टिरागनी अंधताए विवेकनयनशून्य थया छता उपर उपरथी धर्मनामे टीलां टपकां करता अने करभ विवाह प्रसंग रासभ प्रशंसाना आचरणमां पोतानी वाहवाहमां कृत कृत्यता समजनार अज्ञानी जीवा सद्गुरुनी वाणी विषना प्याला समान लेखवी, कुगुरुनी वाणी अमृतना प्याला लेखवता, कुधारामां सुधारानी बुद्धि माननार, अस्थिर चित्तवाळा पामर प्राणीओ आध्यात्मिक शास्त्रोना ज्ञान विना अने देवगुरु धर्मनी श्रद्धा विना स्वच्छंदाचारीपणाने लीघे आत्मप्रशंसा अने परगुणापकर्षताए अज्ञानश्रद्धाए तत्व पाम्या जाणे होयनी ? एम संसारमां पराभव प्रवृत्तिथी स्वआयुष्य पूर्ण करी नृभवचिंतामणि रत्नसमान हारी, नरकादिक गतिना For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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