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परमात्मदर्शन
(1)
देवतानो पण स्वामीछे-चतुर्दश रज्वात्मक लोकमां तारी स्थितिछे. तुं असंख्यात प्रदेशमयी छे, त्यारा प्रदेशो क्षरे तेम नथी. तारु स्वरूप नाश पामवानुं नथी. माटे तुं अच्युत अने अक्षरछे, अनादिकाळनो तुं आत्माछे, तुं अव्यय स्वरूपछे. सनातन शुद्धधर्ममय तुंछे, भव्यामाओने मोटामा मोटुं निधान तुंछे. तुंज परमेश्वररूपछे, आम पोते मुनिराज शरीरमा व्यापी रहेला आत्मानुं ध्यान करे.
"दोहा." नव तत्व षड् द्रव्यना, ज्ञाने छे उपयोग; अनंत गुणनी रूद्धिनो, कर्ता नित्यज भोग. ७४ भोगी नहि परभावनो, आत्मस्वरुपे ध्यान; ध्यान नहिं परभावनें, देखे चरण निधान. ७५
भावार्थ-जीवतत्त्व, अजीवतत्त्व, पुण्यतत्त्व, पापतत्त्व, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध, ने मोक्ष ए नवतत्त्व- द्रव्य अने भावथी जेने ज्ञान थयुछे, अने षड्द्रव्य, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावथी ज्ञान जेने थपुंछे, ते ज्ञानी जाणवो नवतत्त्वनोषड्द्रव्यमा अंतर्भाव थायछे. षड्द्रव्य विना जगत्मा अन्य कोइ पदार्थ नथी, षड्द्रव्यमा पण एक आत्मद्रव्य पोतार्नुछे. आत्मद्रव्यनी श्रद्धा थवी मुश्केलछे. कोइक तो आत्माने जळ पंकजवन सर्वथा अलिप्तमानी व्यवहार निश्चयनयना ज्ञान विना एकांत मिथ्यात्व स्वरूपे आत्मानुं ध्यान करता समकित विना चतुर्गत्यात्मक संसारना त्रिविध तापोने पुनः पुनः प्राप्त करी विवेक शून्यताए ग्रथिलनी पेठे कृत्याकृत्यने नहीं गणता मोहनीयना उदये नरभवनी निष्फलताए संसारना चतुरशितिलक्ष जीवयोनिना म वाहमा रोग शोकथी पीडाता चक्र खाता तणायछे, जेटला विद्वानो प्रख्यातवंत थया, थायछे, अने थशे ते सर्व ज्ञानना प्रताप थकी
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