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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org परमात्मान ( १५९ ) आत्मधर्म समज्या विना अने आत्मार्थिपणाना गुणो मगटया विना जनमनरंजनताथी पोतानी वाहवाहमां आत्मधर्म साधी शकातो नथी. माटे भव्यात्माओए कीर्त्ति वाहवाह जनमनरंजनता प्रति लक्ष्य नहीं देतां आत्मधर्म उपर लक्ष्य देवं आत्मधर्म प्रति जेनी दृष्टि ते प्राणी त्रण भुवनमां पूज्यताने पामेछे, व्याख्यान द्वारा जनमनरंजनपर ध्यान आपवुं ते अयोग्यछे. भव्यात्माओ आत्महित शी रीते करे ते उपर लक्ष आपवुं, अने तेवा शुद्ध अंत:करणना अभिप्रायथी उपदेश देवो ते स्वपर हितकारक छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परस्पर क्लेशोत्पादक वादथी कंह आत्महित थतुं नथी. गाली देवीने लेवी एवो वादतो वाघरीना गृहे पण छे परमार्थ शून्य वादथी कायक्लेशादि मात्र फळछे. आत्मतत्त्व रमण तथा आत्मज्ञान विना सर्व वात निष्फळछे. व्याकरण, न्याय, वादादि आत्मतत्त्वमां उपकारकछे माटे तेमनुं स्वरूप जाणी तेमां रमण करे तो वादादि सफलछे. दीर्घ आयुष्यना अभावे अवश्य ज्ञातव्य आत्मतत्त्वनुं अवलंबन करी रागादि दोषोनो नाश करवा प्रयत्न करवो ए हित शिक्षाछे. आत्मानुं ज्ञान जो नथी तो क्रिया कांडथी पण मुक्ति थती नथी, आत्मस्वरूपना उपयोगी मुनिराजनी सर्व क्रिया गुणनी खाण जाणवी, तद्धेतु, अमृत क्रियाना अधिकारी मुनीश्वरछे. अध्यात्मसार ग्रंथे श्लोक, अपुनर्बधकस्यापि या क्रिया शमसंयुता । चित्रा दर्शन भेदेन, धर्मविप्रक्षयाय सा अशुद्धापि हि शुद्धायाः क्रियाहेतुः सदाशयात् । ताम्रं रसानुवेधेन, स्वर्णत्वमधिगच्छति २ For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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