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मात्मज्ञानी कर्मनो माश.
शकती नथी, उलटुं ते अनुपयोगताए क्रिया करी अन्य फल प्राप्त करेछे यथा विनायकं प्रकुर्वाणो, रचयामास वानरं । विनायकनी मूर्ति बनावतां वांदरो रच्यो तेनी पेठे-आत्मानी अज्ञानताए अन्योन्य, विष, गरल, ए त्रण क्रियानुं सेवन थायछे-अने ए त्रण क्रियाथी जीव अशुध्धपरिणतियांगे शुभाशुभ कर्मपुद्गलो ग्रही अनेक जन्म ग्रहतो त्रिविध तापथी पीडातो कूटातो दुःख संततिनो भोगी बनेछे. जड चेतननुं विशेषतः भेद ज्ञान थयु नथी त्यां सुधी बहिरात्मपणुं टळतुं नथी. अने बहिरात्मयोगे चेतन जड जेवो भासेछे, अने अज्ञानी जीव परवस्तुमां अहत्व परिणाम धारतो जडता अनुभवेछे-श्री यशोविजयजी उपाध्याय कहेछे केहुँ एहनो ए माहरो, ए हुँ एणी बुधि; चेतन जडता अनुभवे, न विमासे शुद्धि. आतम. १ आतम अज्ञाने करी, जे भव दुःख लहीए; आतम ज्ञाने ते टळे, एम मन सदहीए. आतम. २ . आत्माना अज्ञानथी जे भवदुःख परंपरा पमायछे, ते भव दुःख परंपरानो नाश आत्मज्ञान थतां थायछे. अर्थात् आत्मज्ञान थतां अनादि काळथी परमां परिणमन थयुंछे ते टळेछे. रागद्वेष योगे जीव परवस्तुमा परिणमेछे अने यदा रागद्वेषनी परिणति टळछे, तदा आत्मा परवस्तुमा परिणमतो नथी. ज्यां सुधी सम्यम् रीत्या आत्मस्वरूप जाण्यु नथी. त्यां सुधी जीव रागद्वेष पारणामे मोही बनेछे. आत्मज्ञानथी रागद्वेषनी परिणति उद्भवेछे, आत्मज्ञाने सहज स्वभावे रमतां रागद्वेषनी परिणति नाश पामेछ, आत्मोपयोगे स्थिरता थतां निर्विकार अखंड शाश्वत सुख भोगवाय छ, माटे आत्मोपयोगी साधुने सर्व धार्मिक क्रिया मुखनी खानि
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