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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्मस्वरूप घ० घरो ध्येय ज्ञेय आदेय ते, अंतर आतम भूत. ध० १८ वचन अगोचर भ्रम विता, चिंतवी सहज अनंत. जास ज्ञानमें अंशज्युं, मावे द्रव्य अनंत. ध. १९ आत्म ज्ञानथी आत्मने, जाण्यां थाये सिद्धि. ध० मुनि तन्मय गुण तिहां लहे, तजी ग्रहीका नहीं लब्धि. घ० २० लीन थइ ग्रहे एकता, ध्याता ध्यान सु ध्येय ध० परमात्मा अंतरात्मा, एक अभिन्न अमेय. ध० २१ कटमे कट कर्ता तणी, दिसे दुविधा रीति. पण ध्यान ध्येय ए आत्मा, एथी नवीय परतीत. ध० २२ भवमें भम्यो अज्ञानथी, विण लाधा निज नाण. परम ज्योति जग दुःखहरु, तेहिज अनुभव जाण. ध. २३ भावे एम निज भावना, ध्यान बीज गुणधाम. देवचंद्र सुख सागरु, ध्यान अमूलख पाम. ध. २४ श्री देवचंद्रजी पण ए प्रमाणे आत्म स्वरूपनुं वर्णन करेछे. गुण विशिष्ट आत्माने संसार चक्रमा वर्ततां आत्मस्वरूपनी अनुपयोगताए परस्वभावमां रमणपणाथी परपुद्गलरूप जे कर्म तेनुं ग्रहण समय समय प्रति यतुं जायछे, माटे हे चेतन स्वस्वरूप रमणता रूप निजभावनानो दृढ प्रयास अने स्थिरतायी आदर कर. अनादि कालथी तुं परभाव एटले पुद्गल द्रव्यना वर्ण, गंध,रस स्पर्श, मय पर्यायोनी लालचमां-तृष्णामां, ग्रहणमां, ममत्वमां, पराभिमुख चेतना करी अशुद्ध परिणति धारी, स्वभान भूली लोभायो पण परवस्तु पोतानी थइ नहीं उलटुं राग द्वेषनायोगे पुद्गल द्रव्यने आकर्षी कर्मरूप परिणमावी अनेक योनिमा विचित्र देहो धारी स्व. ऋद्वितुं आच्छादन करी परपुद्गुल भोगी थइ राजा वो पण तुं For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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