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परमात्मदर्शन
(१८७)
रंक बन्यो, राग द्वेषरूप शत्रुने हणी आत्मीयध्यानमां महत्ता थाउ, अने ज्ञान शक्तिथी निजस्वरूप जाणुं. आत्मज्ञान थर्ता: परमां बंधाएलो अज्ञानाध्यास स्वतः दूर थायछे, आत्मा निर्मल 'थतां परमात्मा कहेवायछे - तेनुं स्वरूप कहेछे.
श्लोक, साकारं निर्गताकारं, निष्क्रियं परमाक्षरं । निर्विकल्पं च निःकंपं, नित्य मानन्दमन्दिरम्
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आत्मा ज्ञानरूप उपयोगथी साकारछे, तथा दर्शनरूप उपयो गथी निराकारछे तथा आत्मा निष्क्रिय निश्चय नयथी जाणवो. प्रश्न - शरीस्थ आत्म सक्रियछे, अनेक प्रकारनी खावा पीवानी
गमनागमननी क्रिया करेछे, छतां ते निष्क्रिम केम जाणवो ? उत्तर- ज्यां सुधी जीवना प्रदेशोनी साथे कर्म लाग्छे त्यां सुधी ते सक्रिय - अने कर्मनो नाश सर्वथा थतां निर्मल सिद्ध बुद्ध परमात्मा निष्क्रियछे. शरीरस्थ आत्मा व्यवहार नयथी सक्रियछे कर्मनो संबंधछे माटे, अने निश्चयनयथी अक्रिय जाणवो. वस्तुतः आत्मानुं जेवुं स्वरूप होय तेनुं निश्चयनय वर्णवे छे, माटे आत्मानुं वस्तुतः ध्यान करतां निष्क्रिम भाववो, अने छे पण निष्क्रिय.
परमाक्षरं - क्षर एटले खरखुं, पोतानुं स्वरूप बदलवुं परम एटले सर्वोत्कृष्ट पोतानुं स्वरूप नहि फेरवनार आत्माछे, अनादि areer विभाव दशायोगे भवचक्रमां आत्मा परिभ्रमेछे तोपण तेना असंख्यात प्रदेशमांथी एक प्रदेश पण खरी गयो नहि, तेमज अनंत गुणोमांनो एक गुण पण खरी गयो नथी, माटे आत्मा अक्षर,... नदृष्टियी जाणवो. यद्यपि आत्माना प्रदेशानुं तथा गुणोंनुं
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