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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रिमारमदीन (१७) मुंढावी रजोहरण मुहपत्ति झाली लीघेला गृहस्थ जेवानां सर्वमां कह गुरुपं होतुं नथी, जीव अजीवनुं स्वरूप जाणे नहीं अने दुःखगर्भित वैराग्यथी साधुवेष ग्रहण करी राग द्वेषना फेदमा फसाय, इसे, तोफान करे, क्लेश करे ते सर्व कुगुरुओजाणवा, जे महात्माओ विषयभिक्षाना भोगी नथी, ब्रह्मचारीछे, क्षमादि गुणवंतछे, अने कपट तिनो जेणे त्याग कर्योछे अने जे गाडरीयानी पेठे चालता नथी तेवा सद्गुरुने हुं पुनः पुनः नमस्कार करुंछु, बाकी वेष घरवा मात्रथी शुं ? माटे परीक्षा करी आत्मतत्वना उपयोगी गुरुकुं शरण करबुं, एकगुरुनी आज्ञा प्रमाणे वर्त्तनुं, पतिव्रतानी पेठे माथे एक धर्ममद गुरु होय; एक गुरुनी भक्ति श्रद्धाथी शिष्या-वक सद्गुणधाम बनेछे, अनुभवधी जोतां एम जो न वर्त्ताय तो संपूर्ण धर्म पामी शकाय नहीं, कोई गुरु कंइ कहे अने कोई गुरु कंइ कहे, हवे बेमांथी कोनी आज्ञा मानवी, जेवो जोइए तेवो एकथी अधिक गुरुओपर भक्तिभाव, रहे नहीं, घणा पक्का अनुपवीओने आ वाक्य सत्य लागशे, नहीं लागे तेनुं भाग्य, बाकी अन्य सुसाधुओ मानवा पूजवा योग्यछे. तेमनी भक्ति करवी अने सदुपदेश सांभळवो. आ बात गुरुव्रत ग्रहणनी अपेक्षाएछे. 16 " दुद्दा धर्मरत्न जेथी मुदा, लदीयुं गुरु रसाळ; शरण शरण तेनुं सदा, अवर म झंखो आळ ॥१५९॥ भटकी गुरु गुरु वंदीया, शिर पटक्युं सोवार; ज्यां त्यां माथु नामियुं, लह्यो न किंचित् सार ॥ ५२॥ भावार्थ - जेनी पांसेंथी धर्मरत्न समेजी समकित ग्रहण कार्य हर्षवढे ते गुरुनुं सदा मन वचन अने कायाए करी शरण अंगी For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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