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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुनी दुमता. पतुं भिन्न भिन्न परिणमे छे तेम अत्र पण दृष्टांत जाणवू. कोइ एम कहेशे के-मुनिओए सर्वने उपदेश आपको अने उपदेश आपवा माटे तो साधुपणुं अंगीकार कर्यु छ, अने न आपे तो अन्य कोण आपे ? तेने प्रत्युत्तरमा कहेवानुं के जेम सेनापति लश्करी सिपाइने तरवार खेलता मारतां शीखवे छे, पण जेनी योग्यता थइ नथी तेवां लघु बालकने कंइ हाथमां तरवार (खड्ग) आपतो नयी, ने आपे तो बाळकनो नाश थाय तेम ज्ञानी गुरु योग्यता जेने प्राप्त थइ छे तेने उपदेश आपे छे. उपदेशमां पण पात्रना आधारे फेरफार रहे छे, केटलाक स्थाने संसारमा राचेला माघेला श्रावको विरतिधर्मना भाषणरूपे उपदेश आपे छे, पण तेमर्नु वैराग्य त्याग विना सर्व अलेखे जाणवू. गुरुना उपदेशी जे वैराग्य थाय छेते अन्यथीथतो नथी.पंचमारकमा श्री तीर्थफरादिना अभाव तथा पंचविषना योगे योग्य जीवो अल्प जाणवा माटे हे भव्यात्माओ मोक्षनी प्राप्ति माटे निर्मल मनथी सद्गुरुर्नु शरण करो, अने ते फरमावे तेज श्रदायी अंगीकार करशो तो परमपद पामशो. "दुश." बने बने नहीं हस्तियो, युगे युगे नहि देव; मुंड मुंड नहि गुरुपणुं, जाणी सद्गुरु सेव. ४९ विषय भीख भोगी नहीं, ब्रह्मचारि गुणवंत; कपट वृत्ति त्यागी सदा, नमुं सद्गुरु महेत. ५० वन वन प्रति हस्तियो होता नथी, अनेभरत ऐवतनो प्रत्येक मारकमा कइ तीर्थकरोनी उत्पत्ति यती नयी, ते प्रमाणे मस्तक For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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