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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir NAVM. अनुभव रेछे, ज्यांसुधी बाह्य पौद्गलिकमुखनी इच्छा हृदयमांप्रगटेछे त्यां सुधी समाकितनी प्राप्ति थती नथी. ज्ञानीओ बाह्यभावने स्वमवत् भ्रांति समान जाणी सत्यआत्मिकसुखने म.टे प्रयत्न करेछे. पृरपुद्गलवस्तुमा आत्मिकधर्म नथी. स्वस्वरूपमा रमणता करवी तेमाज लयलीनता करवी, मनवचन अने कायाना योगनी प्रवृत्ति परंवस्तुमां थायछे ते निवारवी, अने बहिर्वाचा अने अंतर्वाचानो स्याग करी भव्यो मुक्ति पामे माटे आत्मिकधर्मनुं स्वरूप प्राप्त करवू जोइए. ज्ञानथी आत्मिकधर्मनो पूर्ण राग प्रगटेछे ते संबंधी कहेछे, ॥ दुहा. ॥ लाग्यो चोल मजीठनो, रंग ते कबुन जायः धर्म रंग लाग्यो थको, कदी न दूरे थाय ॥ १३९ ॥ भावार्थ-ज्ञानदर्शन चारित्र सहित आत्मानुं स्वरूप समजतां परपुद्गल वस्तु उपरथी राग उतरी जायछे, अने आत्माना स्वरूपपर राग थायछे. आत्मा विना कोइपण वस्तु प्रिय लागती नथी. श्रात्माना गुण पर्यायमांन रंगावानो राग थाय. एम आत्मानी शानदृष्टि स्वस्वरूपने योग्य गणेछे ने परवस्तुने हेय गणेछे. आवी दशा थतां आत्मा परवस्तुओमां अहंममत्व भावथी छुटेछे. विरति सन्मुख थएलो आत्मा गुणस्थानकपर चढे छे. दशमा गुणठाणाए रोग पण छुटी जायछे अने तेरमा गुणठाणाए केवलज्ञान दर्शन चारित्रनो भोगी बनेछे अने अन्ते सिद्धबुद्ध बनेछ. आवी परमात्मदशानुं स्वरूप देखाइनार सद्गुरू महाराजछे. माटे सर्व उपकारीमा मुख्य एवा गुरूना उपर प्रीति धारण करवी खाडार सदगुल महाजमा जोइए ते दर्शावेछे, For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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