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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २१२ ) प्रायश्चित हे. पण वैशेषिकना मतमां देवकी भिन्न जे आत्मा ते विभु अने नित्यछे त्यां कौडिन्य न्यायवडे जोतां देहमां रहेलो आत्मा अनित्य कह्यो छे. स्याद्वाद मतमां अशुद्र पर्याये तथा शुद्धपर्याये आत्मा नित्यानि स्वीकार्य छे. मनमां पण नित्यानित्यपरशुं छे. देहना अनित्यपणाथी मननुं पण अनित्यपणं जाणवुं देवाश्रितंमनः देहाश्रित मन माटे, पुद्गलरूपे देनुं पण नित्यपणुं छे तेम मननुं पण पुद्गलरूपे नित्यपणुं छे. पुद्गल परमाणुओमां पण द्रव्य थिंकनयनी अपेक्षार नित्यपणुं छे. कारण के परमाणुरूप पुद्गलनो कदी त्रिकालमां पण नाश थतो नथी तेप पुद्गलरूप परमाणुओमां पण वर्ग, गंध, रस अने स्पर्श समये समये फर्या करेछे माटे पर्यायार्थिकनयनी अपेक्षाए तेमां अनित्यपणुं जाणबुं. • जिज्ञासु - स्याद्वाद एटले शुं ? ते समजावो. सुगुरू- एकस्मिन् वस्तुनि विरुद्धधर्मद्वय समावेशः स्याद्वादः एक वस्तुमां परस्पर विरुद्ध बे धर्मनो समावेश ते स्याद्वाद जाणवो अथवा वस्तु स्वरूप प्रतिपादन पर: विकल्पः स्याद्वादः भावार्थ - वस्तुनुं यथार्थ स्वरूप प्रतिपादन करवामां पर एवो श्रुतनो विकल्प स्याद्वाद जाणवो अथवा विरूद्धधर्मद्वय प्रतिपादन परोवक्तुरभिप्राय विशेषः स्वाद्वादः अथवा तो एक वस्तुमां विरूद्ध धर्म वेने प्रतिपादन करवामां तत्पर एवो वक्तानो अभिनाय विशेष तेने स्याद्वाद जाणव े तथा एकस्मिन् जीवाजीवादौ विरूद्धयद्वर्म द्वयं नित्यानित्यास्तित्व नास्तित्वोपादेयानुपादेयाभिलाप्यानभिलाप्यादि लक्षणं तस्य समावेशः समाश्रयः स्याद्वाद इत्यर्थः तथा जीव अजीव आदि पदार्थमां विरुद्ध जे धर्मद्वय - नित्य For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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