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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारमधुदि. अंतस्तत्त्वं मनः शुद्धि, बहिस्तत्त्वंच संयमः ॥ कैवल्यं दयसंयोगे, तस्माद् द्वितयभाग्भव ॥२॥ नैकचकोरथो याति, नैकपक्षो विहंगमः ॥ नैवमेकातमार्गस्थो, नरो निर्वाण मृच्छति ॥ ३ ॥ परस्परं कोऽपियोगः, क्रिया ज्ञान विशेषयोः ॥ स्त्रीपुंसयोरिवानंद, प्रसूते परमात्मजं ॥ ४ ॥ भाग्यं पंगूपमं पुसां, व्यवसायोंऽ धसंनिभः ।। यथा सिद्धिस्तयोर्योगे, तथा ज्ञानचरित्रयोः ॥ ५ ॥ खड्गखटकवज्ञाने, चारित्र द्वितयंवहन् । वीरो दर्शन सन्नाहः कलेपारं प्रयाति ॥ ६ ॥ एकांते नतु लीयंते. तुच्छेऽनेकांतसंपदः. नदरिद्रगृहे मांति, सार्वभौमसमृद्धयः ॥ ७ ॥ भावार्थ:-निश्चयनय अने व्यवहारनय आ जगत्मां सूर्यचंद्रनी पेठे प्रकाश करता जागताछे. सूर्य अने चंद्रनी उपमामा विशेष गंभीर भावार्थ समायोछे. सूर्य अने चंद्रना प्रकाशमां घणुं समजवानुं छे. पूर्वोक्त श्लोकोना भावार्थ स्पष्टछे. तेनुं तेथी अत्र विवरण कर्यु नथी. तुच्छ एकांत मार्गमा अनेकांत. संपदाओ लीन थती नथी. आ वाक्य आपणने केटलं समजावेछे, तेनी केटली बधी महत्त्वताछे. वळी कहेछे के-दरिद्रना घरमा सार्वभौमनी समृद्धि माती नथी. माटे भव्यात्माओए आयति सर्व शाश्वत सुख संतति प्रदायक व्यवहार निश्चय धर्मर्नु अवलंबन करी उत्तम पुरुषोना पंथने अनुसरवु तेमां हित समायलंछे, अज्ञान मार्गनी अंध श्रद्धाथी एकांत मार्ग. सेवन For Private And Personal Use Only
SR No.008627
Book TitleParmatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages432
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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