________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( ३६ )
ज्ञान भने क्रियानो संबाद
( ओळवार) जायछे, तेम क्रिया पण कर्मने बाळी पोतानी मेळे नाश पामे, माटे क्रियाथी मुक्तिछे.
ज्ञानवादी - हे प्रियतम, जरा विचारशो तो मालुम पडशे के -क्रिबाथी मुक्ति एवं साथी जाण्युं. उत्तरमां कहेतुं पड़शे के ज्ञानथी, ज्ञान न होय तो क्रियाने जाणी शकाय नहीं, तो पछी शी रीते करी शकाय ? तमोए कहां के क्रियाथी मुक्ति छे आ वचन मलाप मात्र छे, देखो, प्रसनचंद्र राजर्षि ज्यारे सूर्यना सामी दृष्टि राखी ध्यान करता हता त्यारे ते कोइ क्रिया करता नहोता, अने ज्ञान ध्यानथी केवलज्ञान पाम्या, विचारो के त्यां कइ क्रिया करता हता, कंह नहीं, भरतराजाए आरसा (आदर्श) भुवनमां भावना भावतां भावतां केवलज्ञान उत्पन्न कर्यु, मरुदेवा माताए हस्ति उपर भावना भावतां केवलज्ञान उत्पन्न कर्यु त्यां कं क्रिया करी नथी, फक्त ज्ञानवडे कर्म खपावी केवलज्ञान पाम्या जीवो देखायछे, माटे ज्ञानछे तेज सत्यछे.
क्रिपावादी - हे ज्ञानवादी तमोए मसत्रवंद्र राजर्षितुं दृष्टान्त ज्ञाननी सिद्धिने अर्थे आयुं, ते ज्ञानने सिद्ध नहीं करतां कि याने सिद्ध करेछे, प्रथम समज के ध्यानछे ते क्रियारूपछे, ध्यानना चार प्रकारछे, आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, शुक्लध्यान, ए चारमाथी प्रथमनां वे ध्यान दुर्गति अर्पेछे, काउस्सग्गमां प्रसन्नचंद्र ऋषिए प्रथम दुर्ध्यान ध्यातां नरक गति उपार्जन करी पश्चात् पश्चात्ताप पामी धर्मध्यानादि ध्यावतां कर्म खपावी केवलज्ञान पाम्या तेनुं कारण धर्मध्यान अने शुक्लध्यानरूप क्रियाछे, बार भावनाओ पण धर्मध्यानमां आवी, मरुदेवी माता अने भरतराजाए धर्मध्यानादि ध्यातां
For Private And Personal Use Only