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परमात्मदर्शन
(२०५)
तानी महेनत चालु राख्याथी छेवटे ते रागद्वेष मोह मायाना खराव विचारोने अटकावी शकेछे. अने तेम कीधाथी रागद्वेषथी बांधेलां कर्मनो पण ते नाश करी शकेछ, मनोजय अभ्यासथी थायछे. रागद्वेषना विचारोथी मनुष्य आवता भवने माटे नवां कर्म संग्रहेछे. तेथी परभवमां जन्म लेवो पडेछे, जन्म जरा मरणथी आत्मा खरूं सुख भोगवी शकतो नथी माटे हवे मनुष्य भवमां चेतवानुं छे, दरेक मनुष्यो पोतानी बुद्धि अनुसारे मुखी थवा महेनत करेछे-कोइ राज्यथी सुख मानी लेछे. कोइ पैशाथी तो कोइ स्वीथी कोइ कुटुंबथी तो कोइ पुत्रादिकथी सुख माने छे पण ते पुद्गल वस्तुओमां सुख नी बुद्धि धारवी ते केवल अज्ञानछे, खरं सुख आत्मामा रह्युछे, ते मुख आत्म ध्यानथी प्राप्त थायछे. श्री तीर्थकर महाराजाए मोक्षy सुख सत्य कथ्युंछे, अने मोक्ष तो आत्मा कर्मथी मूकाय त्यारे मळे छे, मोक्षनु सुख कंइ वातोना गपाटा मारवाथी मळतुं नथी. पण ते माटे सांसारिक सुखनी इच्छा त्यागी मोक्ष सुख प्राप्त करवा मुख्यताए चारित्र मार्ग आदरवो जोइए. प्रश्न-चारित्र विना शुं मुक्ति नथी मळती ? उत्तर-श्री सर्वज्ञे ज्ञान- फळ विरति कथ्युछे माटे विरतिरूपचा
रित्र सर्व कर्मनो क्षय करेछे, विरति पणुं बे प्रकारेछे-देशविरति अने सर्व विरति-देशविरतिपणुं व्रतधारी श्रावकने होयछे. अने सर्वविरतिपणुं मुनीश्वरने होयछे. श्री तीर्थकर महाराजाओ पण दीक्षा अंगीकार करेछे, जेटला तीर्थकर थया अने थशे ते सर्व सर्वविरतिरूप चारित्रने ग्रहण करेछे. ज्यारे तीर्थकरने दीक्षा लेवानो समय थायछे त्यारे लोकांतिक देवता वीनति करवा प्रभु पासे आवेछे. हे प्रभो आप दीक्षा लेइ जना जीवोनो उद्धारगत् करो, भव्यो विचारो के जेने ते भवमा
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