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परमात्मदर्शन
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" दोहा. "
ब्रह्मथकी सृष्टि बनी, सहु छ ब्रह्म स्वरूप; व्यापक ते सर्वत्र छे, चिदानन्द गुणरूप. मायाना बहु जोरथी, भूल्यो ब्रह्मनुं भान; एकरूप सर्वत्र छं, अद्वैतवादि ज्ञान. शुद्ध ब्रह्मना अंश छे, जीव अनन्ता लेख; परमात्ममांहि ते भळे, द्वैतपणे नवि देखअद्वैतवादि वचन छे, माने ब्रह्मनुंज्ञान; द्वैतपणुं माने नहीं, ब्रह्मध्यान मस्तान. नहि सत्यने ढांकीये, सत्य न ढांक्युं जाय; छाबडीए रवि ढांकतां, कदी नहीं ढकाय. जड चेतनता भेदथी, द्वैतपणुं प्रगटायः
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कथं एक हि आतमा सुख दुःख विघटाय २३३ जडतारूपे जड अहो, जडनो कदा न नाश;
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असत् कहो शा कारण, ज्ञानी बहु शाबाश. २३४ जीवाजीव बे तव छे, ज्ञाने दोय जणाय; मिथ्या एक ग्रहे मुधा, सम्यक् धर्म न थाय ज्ञानी ज्ञानथकी ग्रहे, वस्तु सत्य स्वरूप; द्वैतपणुं अंगीकरे, पडे न भवजल कूप. एक एव दि आतमा, भूते तेह जणाय; जले प्रतिबिम्ब चन्द्रनुं, तद्वत् जाणो न्याय.
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